आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (39)

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इन दिनों कविता के प्रति रुझान तेजी से हो रहा था। कहानी दिमाग में आती ही नहीं थी।सुबह घूमने जाती तो कोई न कोई कविता दिमाग में पकती रहती। सुबह से शाम ,रात कई कई दिन वह कविता खुद को लिखवा लेने की जिद करती। एक कविता के 5 ,6 ड्राफ्ट तो बन जाते। मैंने अन्य कवियों के संग्रह को भी पढ़ना आरंभ किया। अब कविता लिखने में इतना आनंद आने लगा कि मेरे अंदर का कथाकार सन्यास लेने की सोचने लगा ।अक्सर ऐसा ही होता है। लेखक कथा से कविता या कविता से कथा की ओर धीरे-धीरे मुड़ने लगता है। मैं बाकायदा मुक्त छंद की कविताएँ लिखने लगी। मैंने उसे आत्मप्रसिद्धी का साधन कभी नहीं माना।

मुझे लगता है कवि का अंतर्मन उससे लिखवाता है ।वह सहन नहीं कर पाता उस तंत्र को जिसका वह हिस्सा है। बोलने की आजादी उसे कविता देती है।

सुबह जब मैं घूमने के लिए कॉलोनी पार कर रही थी पटना से सतीशराज पुष्करणा दादा का फोन आया। “मिथिलेश जी नहीं रहीं। मै सन्न रह गई। आम के पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ गई। भूटान में जब लघुकथा अधिवेशन मैंने किया था तब काफी कमजोर दिख रही थीं वे। उनकी देखभाल संजू शरण कर रही थी। वे हिंदी संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखती थीं और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की निदेशक थीं। गउडवहो का प्राकृत से हिंदी अनुवाद करने वाली वह पहली रचनाकार हैं जो लखनऊ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में हैं ।डॉ मिथिलेश मिश्र का जाना हिंदी और संस्कृत साहित्य में एक बड़ा शून्य का हो जाना है। अब और मुझसे घूमा न गया ।उठी तो देखा कपड़ों पर लाल चीटे चल रहे थे ।काट लें तो ददौरा उठ आता है और खूब खुजलाता है।

उस दिन रात तक मैं किसी काम की नहीं रही ।उस दिन क्या बल्कि चार-पांच दिन तक मिथलेश दीदी का चेहरा सामने आता रहा ।वह मुझे बहुत प्यार करती थीं और लघुकथा की उच्चतम लेखिका मानती थीं। कैसे बिछड़ जाते हैं लोग और फिर कभी नहीं मिलते।

मेरे मन को संभाला मंजुला श्रीवास्तव ने ।उन्होंने विश्व मैत्री मंच की छत्तीसगढ़ इकाई द्वारा वार्षिक अधिवेशन की घोषणा की। मुझे अगले हफ्ते रायपुर पहुंच जाना था।

अप्रैल का महीना गर्म तो हो ही जाता है। लेकिन रायपुर में सभी का उत्साह देखने लायक होता है ।मैं नीता के घर रुकती हूं जो छोटे चाचा की बहू है। दो रिश्ते हैं नीता से मगर दोनों में वह भाभी है मेरी। निसंतान शांति बुआ ने छोटे चाचा के बेटे तरुण को गोद ले लिया था । सो वह बुआ की भी बहू हुई। उस घर में मुझे बहुत मान-सम्मान लाड़ दुलार मिलता है। तरुण इंतजार करते हैं कि संतोष दीदी आएं तो एग करी बने ।मगर इस बार उदास हो गए क्योंकि मैंने अंडा खाना छोड़ दिया है।

कार्यक्रम वृंदावन भवन में डॉ मंजुला श्रीवास्तव ,रूपेंद्र राज तिवारी ,नीता श्रीवास्तव के कठिन परिश्रम से संपन्न हुआ ।नगर के प्रमुख साहित्यकारों की उपस्थिति में मुझे ,डॉ सुधीर शर्मा, गिरीश पंकज को शॉल स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया। नीता के घर तीन दिन रुकी ।हर दिन ही नगर के साहित्यकारों में से कोई न कोई मिलने आता रहा ।

मधु के बेटे ने आउट ऑफ सिटी बंगला खरीदा है ।मधु दिखाने ले गई। वहां निर्माण कार्य चालू था। इलाका अच्छा हरा भरा था।

प्रतिलिपि पर लौट आओ दीपशिखा, नॉट नाल पर टेम्स की सरगम दोनों ही अमेजॉन पर भी उपलब्ध थीं। कुछ किताबें मेरे पास आई। सुशील सिद्धार्थ ने अपना व्यंग्य संग्रह हाशिए का रंग भेजा और फोन पर बताया कि उस पर कुछ लिखेंगी, कहेंगी तो खुशी होगी। गीताश्री ने डाउनलोड होते हैं सपने कथा संग्रह भेजा। कितना कुछ होता रहा। 

मालवगढ़ की मालविका भी गाथा ऑनलाइन पर आ गई ।गाथा वालों का नियम था कि अगर कोई किताब मंगवाता था तो उसका पेपर बैक छाप कर भेजते ।मुझे भी मालवगढ़ की मालविका के पेपर बैक संस्करण की छै प्रतियां मिलीं। अच्छी छपी थी किताब। 

पिट्सबर्ग अमेरिका से निकलने वाली मासिक पत्रिका सेतु में अनुराग शर्मा ने श्रीलंका का मेरा यात्रा संस्मरण “जहां रावण मुखौटो में जिंदा है” प्रकाशित किया तो देश विदेश से फोन ,मेल आए। संस्मरण वैश्विक स्तर पर खूब चर्चित हुआ ।

उन्हीं दिनों छपी भी खूब।कथाबिम्ब में  कहानी “रात भर बर्फ “छपी, मातृभारती में हमारा संयुक्त उपन्यास “ख्वाबों के पैरहन” धारावाहिक  छपने लगा। मुजफ्फरनगर से निकलने वाली पत्रिका आंच में मेरा इटली का संस्मरण छपा ।डॉ भावना संपादक है आंच की ।रायपुर से डॉ सुधीर शर्मा के संपादन में निकलने वाली पत्रिका छत्तीसगढ़ मित्र में यात्रा संस्मरण रेगिस्तान में हरियाली का द्वीप दुबई” छपा ।रायपुर से ही गिरीश पंकज के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सद्भावना दर्पण में ऑस्ट्रेलिया का संस्मरण “मौरियों का देश “छपा। यह संस्मरण मातृभारती ने भी प्रकाशित किया। लंदन से निकलने वाली पत्रिका पुरवाई संपादक तेजेंद्र शर्मा ने न्यूजीलैंड का संस्मरण छापा। हिंदी समय में  मनोज पांडे ने “अब वे कैसे कहेंगे पथिक फिर आना “प्रकाशित किया और अंतरराष्ट्रीय पत्रिका विभोम स्वर में अंडमान निकोबार का यात्रा संस्मरण “जो खौफ आंधी से खाते तो” छापा। संपादक सुधा ओम ढींगरा ने कनाडा से फोन करके इस लेख से संबंधित तस्वीरें मंगवाई ।और इतनी सारी पत्रिकाओं में मेरे यात्रा संस्मरण एक साथ प्रकाशित  होना एक ऐसी बात हो गई कि मुझे यात्रा संस्मरणों का एक्सपर्ट माना जाने लगा ।रजनी मोरवाल ने तो यहाँ तक कहा कि यात्रा संस्मरण का पेटेंट आपके नाम होना चाहिए।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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