कवि : राजेन्द्र वर्मा

दोहे
पंचतत्त्व से है बना, यह अनमोल शरीर ।
इसमें ही बैठा हुआ, पीरों का भी पीर ।।
काया माटी-सी चढ़ी, कुम्भकार के चाक ।
गीली मिट्टी घूम-फिर, हो जाती है ख़ाक ।।
अपने अन्दर झाँककर, देखो तो इक बार ।
अगर बुलावा आ गया, क्या तुम हो तैयार?
इधर उड़ा पंछी, उधर, सभी हो गये दूर ।
अपने भी अपने नहीं, दुनिया का दस्तूर ।।
जीवन में हो जब कभी, संभ्रम से अनुबन्ध ।
भरमाती मृग को बहुत, कस्तूरी की गन्ध ।।
अपना होकर भी नहीं, है अपना संसार ।
गोमुख बैठा देखता, बही जा रही धार ।।
जीवन के इस भेद को, जानें विरले लोग ।
पाँचों अपने घर चले, टूट गया संयोग ।।
एक दिवस है आदि तो, एक दिवस है अन्त ।
दो दिवसों के मध्य में, जीवन भरा अनन्त ।।
अपनों से तो जीत भी, लगती जैसे हार ।
जीत लिया खुद को अगर, जीत लिया संसार ।।
राजा, मन्त्री, आमजन, पशु, पक्षी नायाब ।
मिट्टी से क्या-क्या बने, कोई नहीं हिसाब ।।
रंगमंच संसार यह, अभिनेता हम लोग ।
किसको कैसी भूमिका, मिलने का संयोग ।।
बाह्य चक्षुओं से दिखे, संभ्रम सत्य-समान ।
जैसे पृथ्वी स्थिर दिखे, सचल दिखे दिनमान ।।
दुनिया में गुनवन्त जन, होते नहीं अनेक ।
एक सूर्य, इक चन्द्रमा, ध्रुवतारा भी एक ।।
कभी जेठ की धूप है, कभी माघ की धूप ।
एक धूप को दे दिये, किसने दो-दो रूप ?
००
प्रेमचंद के बहाने
पत्थर के सब देवता, पत्थर ही के लोग ।
दुखिया को रोटी नहीं, ठाकुर जी को भोग ।।
गाँधी की टोपी चखे, सिंहासन का स्वाद ।
घीसू-माधो से हुई, मधुशाला आबाद ।।
साधनहीनों पर लगी, मौसम की भी घात ।
गले लिपटकर श्वान के, हल्कू काटे रात ।।
सवा सेर गेहूँ लिया, किया अतिथि सत्कार ।
जीवन-भर चुकता किया, फिर भी चढ़ा उधार ।।
जब से भगवे रंग ने, चले चुनावी दाँव ।
अलगू-जुम्मन में ठनी, देखे सारा गाँव ।।
जब से ट्रैक्टर आ गया, झूरी के भी द्वार ।
हीरा-मोती की कथा, लगती है बेकार ।।
बेटों ने दावत रखी, रखा सभी का ध्यान ।
बूढ़ी काकी ढूँढती, जूठन में पकवान ।।
मेला उजड़ा ईद का, होने को है शाम ।
हामिद चिमटे का मगर, चुका न पाये दाम ।।
धनिया गोबर को जने, रानी राजकुमार ।
संविधान गाता फिरे, समता का अधिकार ।।
फसलें भी करने लगीं, होरी से तक़रार ।
घर वे जा सकती नहीं, जब तक चढ़ा उधार ।।
असमय बूढ़े हो गये, होरी जैसे लोग ।
दिल्ली सोचे, किस तरह; हो इनका उपयोग !
धनिया बेबस देखती, होरी तजता प्रान ।
पथ्य और औषधि नहीं, होता है गोदान ।।
००
मुक्तक और रुबाइयाँ
दीप-शिखा पर शलभ प्राण न्योछावर कर देता है;
किन्तु प्रेमियों के उर में, नवजीवन भर देता है ।
मौन साधनारत रहना, यों तो होता है दुष्कर,
किन्तु मौन साधक संसृति को, शाश्वत स्वर देता है ।
पुष्प काँटों में रहे, पर मुस्कुराता है,
दान मधु का दे, भ्रमर को उर लगाता है ।
सेज की सज्जा करे, चाहे चढ़े शव पर,
हर किसी को मुस्कुराकर वह सजाता है ।
पर्वतों से ले सको, ऊँचाइयाँ लो,
सागरों से ले सको, गहराइयाँ लो,
भीड़ में रहते हुए जो हैं अकेले,
तारकों से ले सको, तन्हाईयाँ लो ।
पथ का पत्थर यद्यपि ठोकर खाता है,
पर अपना अस्तित्व-बोध करवाता है,
पथिकों के अपशब्दों से आहत होता,
किन्तु सजग रहने का पाठ पढ़ाता है ।
चतुर्दिक उठ रहा बस, एक स्वर है,
कि हर कोई प्रकृति का अंश-भर है ।
परस्पर प्रेम का सरगम सुनाओ,
सकल संसार निर्भर प्रेम पर है ।
सुख चाहा तो दुख मिला मुझे,
अनचाहे ही सुख मिला मुझे,
सुख-दुख की चिन्ता रही न जब
सुख बैठा सम्मुख मिला मुझे ।
आ गया है वक़्त कैसा आजकल,
हो गया भगवान पैसा आजकल,
स्वार्थ-शाखाएँ बढ़ाकर आदमी
हो गया वटवृक्ष-जैसा आजकल ।
अजगरों ने रामनामी ओढ़ ली है,
शृंखला निर्वासनों की तोड़ ली है,
वर्जना ने केंचुली ज्यों ही उतारी,
आदमी ने गाँठ उससे जोड़ ली है ।
समय एक-सा कब, किसी का रहा है ?
हमेशा ही वह तो बदलता रहा है ।
अरे! देख, पतझर ये सन्देश लाया,
कि उसके ही पीछे वसन्त आ रहा है ।
भले जुगनू सही, हम भूमिका अपनी निभायेंगे,
भले झिलमिल सही, लेकिन पथी को पथ दिखायेंगे,
अँधेरो! सूर्य के वंशज कभी भी मिट नहीं सकते,
हुए माटी अगर तो दीप बनकर टिमटिमायेंगे !
००
उगते हुए सूरज को जल चढ़ाता है,
ढलते हुए सूरज से मुँह फिराता है ।
संसार का व्यवहार भले कैसा हो,
सूरज अपना काम किये जाता है !
सच्चे को हमेशा ही बड़ाई मिलती ।
झूठे को हमेशा ही बुराई मिलती ।
औरों को गिराने में लगा रहता जो,
उसको भी किसी मोड़ पे खाई मिलती ।
हर हाल में सच कहना सीखा हमने ।
हर हाल में ग़म सहना सीखा हमने ।
हो संग की बारिश कि बरस जाएँ फूल,
हर हाल में ख़ुश रहना सीखा हमने ।
कोशिश के बिना कुछ भी न होता हासिल,
है शर्त कि हम हों न कभी भी ग़ाफि़ल ।
जब तक न हो मालूम कि जाना है किधर,
बस, चलते-ही रहने से न मिलती मंज़िल ।
जब आपसे बिछुड़ा, तो ये मैंने जाना,
संसार है इक झूठ का ताना-बाना ।
पत्ता जो अलग डार से हो जाये तो,
फिर खाक़ में होता है उसे मिल जाना ।
मुझको तो ये शुब्हा, कहीं ऐसा तो नहीं,
ये ज़ीस्त, ये दुनिया, कहीं धोका तो नहीं !
जिसके लिए ‘राजेन्द्र’ परेशान हो तुम,
घर में वो तुम्हारे कहीं बैठा तो नहीं !
नित भोर नयी लेके निकलता सूरज ।
ख़ुद को निचोड़ साँझ को ढलता सूरज ।
पृथ्वी पे लुटाता-ही रहा है ख़ुद को,
बरसों से विरह-अगिन में जलता सूरज ।
हर भोर द्वार-द्वार पे उतरा करती,
हर साँझ दीप-दीप में आभा भरती;
जब रात सियाही से भरे सूनापन,
चाँदी के वरक़ से वो सजाती धरती ।
हर साँझ बरसते कुछ श्वेत-श्याम घन,
क्षण-भर को सरसता है ये तपता हुआ मन;
मैं लाख चढ़ा लूँ चेहरे पर चेहरा,
झलका पड़ता है तेरा अपनापन !
है चाह न फूलों की हो वर्षा मुझ पर,
है चाह न हो व्यर्थ की चर्चा मुझ पर;
है चाह यही, शेष हो जब श्वास मेरा,
संसार का कुछ भी न हो क़र्ज़ा मुझ पर ।
ग़ज़लें
1
अंक में आकाश भरने के लिए,
उड़ चले हैं हम बिखरने के लिए ।
कौन जाने, क्या-से-क्या होंगे अभी,
पद-प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए !
अब तो कौरव और पाण्डव एक हैं,
द्रौपदी का चीर हरने के लिए ।
धर्म की चटनी चखेंगे फिर कभी,
रोटियाँ दो पेट भरने के लिए ।
जाप मृत्युंजय का करता है वही,
जो है जीवित सिर्फ़ मरने के लिए ।
साँझ ही से व्यग्र हरसिंगार है,
चाँदनी बनकर बिखरने के लिए ।
2
चन्दनी चरित्र हो गया,
मैं सभी का मित्र हो गया ।
जिन्दगी सँवर गयी मेरी,
फूल से मैं इत्र हो गया ।
पूर्णिमा है, ज्वार उठ रहा,
सिन्धु-सा चरित्र हो गया ।
रश्मियों के नैन हैं सजल,
इन्द्रधनु सचित्र हो गया ।
कामना की पूर्ति हो गयी,
मन मेरा पवित्र हो गया ।
आत्मा विदेह हो गयी,
पंचतत्व चित्र हो गया ।
3
कभी लोरी, कभी कजली, कभी निर्गुण सुनाती है,
कभी एकान्त में होती है माँ, तो गुनगुनाती है।
भले ही ख़ूबसूरत हो नहीं बेटा, पर उसकी माँ
बुरी नज़रों से बचने को उसे टीका लगाती है।
कोई सीखे, तो सीखे माँ से बच्चा पालने का गुर,
कभी नखरे उठाती है, कभी चाँटा लगाती है।
ये माँ ही है जो रह जाती है बस दो टूक रोटी पर,
मगर बच्चों को अपने पेट-भर रोटी खिलाती है।
रहे जब से नहीं पापा, हुई माँ नौकरानी-सी,
सभी की आँख से बचकर वो चुप आँसू बहाती है।
4
यह हमारी भूल, हम अधरों पे ले आये व्यथा,
अब किसे अवकाश जो, सुन ले सुदामा की कथा ।
सिन्धु के तट बैठ मंथन-दृश्य देखा आपने,
पूछिए हमसे, कि हमने किस तरह सागर मथा !
आप ‘कालीदास’ से भी दो क़दम आगे बढ़े,
वृक्ष ही को काट देंगे, यह कभी सोचा न था ।
झूठ का साम्राज्य कैसे और विस्तृत हो सके,
प्राणपण से सुन रहे वे ‘सत्यनारायण-कथा’ ।
लाज को भी लाज उनके सामने आने लगी,
उनके घर सदियों से लज्जाहीनता की है प्रथा ।
5
यों तो हम झुकते नहीं हैं हर किसी के सामने,
किन्तु नतमस्तक हैं तेरी सादगी के सामने ।
बुद्धि समझाती रही, पर मन पिघलता ही रहा
चंचला के नैनों में तिरती नमी के सामने ।
रक्त का टीका लगाये रात-भर करतब किया,
सिर झुकाये अब खड़े बजरँगबली के सामने ।
शोक संवादों में घायल हो गयी संवेदना,
शब्द घुट कर रह गये उनकी हँसी के सामने ।
देखिए, पृथ्वी पे हहराने लगी भागीरथी,
हार जातीं मुश्किलें भी आदमी के सामने ।
6
प्रेम में उन्मुक्तता के प्रति समर्पित हो गये,
काल के नद पुष्प-जैसे हम विसर्जित हो गये।
देह-दर्शन में कभी हमको नहीं विश्वास था,
किन्तु क्या कारण, उसी में हम समेकित हो गये।
एक संस्कृति थी कभी, जो विश्व की सिरमौर थी,
आज उस संस्कृति के वाहक ही उपेक्षित हो गये।
छल-कपट-ईर्ष्या-अहम्, मद-मोह से संरुद्ध हम,
एक कल्पित तुष्टि के हाथों पराजित हो गये।
अब समय आया है ऐसा, राम ही रक्षा करें,
वृद्ध माता औ’ पिता से पुत्र वन्दित हो गये।
7
स्वयं के हित सभी उपलब्धियाँ हैं,
हमारे हेतु केवल सूक्तियाँ हैं।
लगे हैं झूठ इतने प्राणपण से,
कि बेदम हो रही सच्चाइयाँ हैं।
तिमिर के गर्भ से निकला है सूरज,
हृदय को बेधती परछाइयाँ हैं।
रुदन कर नैन पथराये कभी के,
भले ही आज टूटी चूडि़याँ हैं।
बहुत प्रातिभ हमारा गाँव निकला,
मगर सूनी पड़ी अँगनाइयाँ हैं।
8
सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे,
कब तक आख़िर देश चलेगा रामभरोसे ?
रोटी, कपडा और मकान अभी भी सपना,
खींच रहा बचपन से ठेला रामभरोसे ।
श्रम-सीकर से पूँजी का घर भर देता है,
खुद पा लेता चना-चबेना रामभरोसे ।
गाँधी के तीनों बन्दर, बन्दर-ही निकले,
बाँच रहा बस उनका लेखा रामभरोसे ।
दे जाता है हर चुनाव छलनी-भर पानी,
उसको भी माथे धर लेता रामभरोसे ।
चाहे कितनी कठिन परीक्षा ले लो उसकी,
लेकिन ख़ुद को दग़ा न देगा रामभरोसे ।
9
मेरे सपनों में अक्सर-ही आ जाता है ताजमहल,
मेरे कटे हुए हाथों को दिखलाता है ताजमहल ।
मैंने कठिन तपस्या करके एक स्वप्न साकार किया,
मेरे कलाकार को दोषी ठहराता है ताजमहल ।
पिटा ढिंढोरा, लुटा खजाना, शहंशाह ने इश्क़ किया,
एक इश्क़ है, जो हर दिल में बनवाता है ताजमहल ।
किसे नहीं मालूम, इश्क़ है चाँदी-सोने से बढ़कर,
लेकिन सोने-चाँदी के ही गुन गाता है ताजमहल ।
दौलत की मुट्ठी में जैसे क़ैद चाँदनी रात हुई,
सुना कि पूनम में ज़्यादातर इठलाता है ताजमहल ।
10
चाँदनी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ,
तिश्नगी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
दर्द से मेरी पुरानी दोस्ती है,
बेकली में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
धर्मध्वज थामे हुए सब चल रहे हैं,
बेबसी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
जिसको देखो, हाथ पफैलाये खड़ा है,
मुफ़लिसी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
मैं हूँ उसमें और वह मुझमें समाया,
कमतरी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
कुछ भी कहने की यहाँ अनुमति नहीं है,
ख़ामुशी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
एक लौ मेरे हृदय में जल रही है,
तीरगी में हैं सभी, मैं ही नहीं हूँ।
००
नवगीत
१
काग़ज़ की नाव
बाढ़ अभावों की आयी है
डूबी गली-गली,
दम साधे हम देख रहे
काग़ज़ की नाव चली।
माँझी के हाथों में है
पतवार आँकड़ों की,
है मस्तूल उधर ही
इंगिति, जिधर धाकड़ों की,
लंगर जैसे जमे हुए हैं
नामी बाहुबली ।
आँखों में उमड़े-घुमड़े हैं
चिन्ता के बादल,
कोरों पर सागर लहराया
भीगा है आँचल,
अपनेपन का दंश झेलती
क़िस्मत करमजली ।
असमंजस में पड़े हुए हम
जीवित शव जैसे,
मत्स्य-न्याय के चलते
साँसें चलें भला कैसे ?
नौकायन करने वालों की
है अदला-बदली ।
२
कौन सुने
कौआरोर मची पंचों में,
सच की कौन सुने ?
लाठी की ताक़त को
बापू समझ नहीं पाये,
गये गवाही देने
वापस कंधों पर आये,
दुश्मन जीवित देख दुश्मनी
फुला रही नथुने ।
बेटे को ख़तरा था,
किन्तु सुरक्षा नहीं मिली,
अम्मा दौड़ीं बहुत,
व्यवस्था लेकिन नहीं हिली,
कुलदीपक बुझ गया,
न्याय की देवी शीश धुने ।
सत्य-अहिंसा के प्राणों को
पड़े हुए लाले,
झूठ और हिंसा सत्ता के
गलबहियाँ डाले,
सत्तासीन गोडसे हैं,
गाँधी को कौन गुने?
३
सत्यनरायन
तेरी कथा हमेशा से
सुनते आये हैं,
सत्यनरायन! तू भी तो
सुन कथा हमारी ।
सत्य बोलने पर
पाबन्दी लगी हुई है,
किन्तु झूठ के रँग में
दुनिया रँगी हुई है,
रिश्ते हुए परास्त,
स्वार्थ ने बाज़ी मारी ।
बस्ती-बस्ती जंगल में
ज्यों बदल गयी है,
शान्त समीरण की तबियत भी
मचल गयी है,
पूजनीय हो गये
क्रूरता के व्यापारी ।
है वसन्त, लेकिन
सूनी है डाली-डाली,
ज्वलनशील तासीर
हो गयी चन्दनवाली,
मावस तो मावस,
पूनम भी हम पर भारी ।
समय कुभाग लिये
आगे-आगे चलता है,
सपनों में भी अब तो
केवल डर पलता है,
घायल पंखों से
उड़ने की है लाचारी ।।
४
जिजीविषा पगली
कब तक जियें जि़न्दगी जैसे
दूब दबी-कुचली ।
जिसे देखिए, वही रौंदकर
हमको चला गया,
अपशब्दों की चिंगारी से
मन को जला गया,
छोटे-बड़े, सभी ने मिल
छाती पर मूँग दली ।
लानों में बिछ इज़्ज़त खोयी
जो थी बची-खुची,
जीने को तो मिली जि़न्दगी,
पर सँकुची-सँकुची,
शीश उठाया, तो माली ने
की हालत पतली ।
क्यारी का हर फूल हँसे,
अपनी हालत ख़स्ता,
कली-कली पर नज़र गड़ाये
बैठा गुलदस्ता,
मान और सम्मान न जाने
जिजीविषा पगली ।
गीत
1
विश्वास से अनुबन्ध
जब किया विश्वास से अनुबन्ध मैंने,
बन गयी हर शक्ति
मेरी सहचरी है ।
जग भले कहता रहे, यह देह क्षर है,
किन्तु मेरी दृष्टि औरों से इतर है,
स्वार्थ पर प्रतिबन्ध जब मैंने लगाया,
काल ने मुझमें नवल
उर्जा भरी है ।
प्राण-जागृति को पवन चलने लगा है,
टिमटिमाता दीप फिर जलने लगा है,
स्निग्धता छायी हुई वातावरण में,
खिल उठी अन्तःकरण में
मंजरी है ।
रश्मियाँ-ही रश्मियाँ हैं हर दिशा में,
इन्द्रधनु जैसे निकल आया निशा में,
चन्द्रिका से कब रखा सम्बन्ध मैंने?
किन्तु छलकी जा रही
मधुगागरी है ।।
2
आसमान अपना
सूनी आँखों ने देखा है, एक और सपना,
धरती इनकी-उनकी, लेकिन
आसमान अपना ।
एक हाथ सिरहाने लग तकिया बन जाता है,
और दूसरा सपनों के सँग हाथ मिलाता है,
पौ फटते ही योगक्षेम का
शुरू मंत्र जपना ।
एक दिवस बीते तो लगता, एक बरस बीता,
असमय ही मेरे जीवन का अमृत-कलश रीता,
भरी दुपहरी देख रहा हूँ,
सूरज का कँपना ।
जीवन की यह अकथ कहानी किसे सुनाऊँ मैं,
जिसे सुनाने बैठूँ, उसको सुना न पाऊँ मैं,
दुख को यथायोग्य देने को
सीख रहा तपना ।।
3
सुधियों के दंश
एक जनम में एक मरण है, अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो एक जनम में सौ-सौ बार मरे ।
कागज़ पर सारी बातें तो उतर न पाती हैं,
रही-सही बातें ही हमको फिर भरमाती हैं,
भाष्यकार की भी अपनी सीमाएँ होती है,
इसीलिए चुप्पियाँ हमें ज़्यादातर भाती हैं,
सच्चा प्रेम निडर होता है, अब तक यही सुना,
लेकिन हम तो अन्तरंग से सौ-सौ बार डरे ।
आँखें तो आँखें हैं, मन की बातें कहती हैं,
कभी-कभी चुप रहकर भी वे सब कुछ सहती हैं,
कहने को विश्राम मिला है, पर विश्राम कहाँ ?
आठों प्रहार हमेशा वे तो चलती रहती हैं,
अंतस भरा, नैन भर आये, अब तक यही सुना,
लेकिन सूखे नैन हमारे सौ-सौ बार झरे ।
मन के आँगन की हरीतिमा किसे न भाती है ?
ऋतुओं के सँग लेकिन वह तो आती-जाती है,
हमने तो हर मौसम में हरसंभव जतन किया,
फिर भी वह जाने क्यों हमसे आँख चुराती है,
सुधियों में खोने का सुख है, अब तक यही सुना,
लेकिन सुधि ने घाव कर दिये सौ-सौ बार हरे ।।
4
कैसा यह जीवन
कैसे बतलाऊँ,
कैसा यह जीवन है !
मेरे ही घर दुख ने डेरा डाला है,
धीरज स्वयं हुआ जाता मतवाला है,
यद्यपि कल मुझको भी अमृत-पान करना,
किन्तु अभी हाथों में विष का प्याला है,
अधरों पर मुस्कान,
हृदय में क्रन्दन है ।
सुख क्या है? दुख की आँखों का सपना है,
कहना मुश्किल, कौन यहाँ पर अपना है !
यद्यपि निपट अकेले ही रहना मुझको
किन्तु निकटता की ऊष्मा में तपना है,
लोकरीति है या कि
यही अपनापन है ?
सुख-दुख के आगे यात्रा करनी होगी,
अपनी क्या! जग की पीड़ा हरनी होगी,
यद्यपि सागर-पार उतरना है मुझको
किन्तु हाथ मेरे टूटी तरणी होगी,
विश्वासों के गाँव
अभी भी अनबन है ।।
5
आँसुओं का कौन ग्राहक
आँसुओं का कौन है ग्राहक यहाँ,
फिर उन्हें हम क्यों उतारें हाट में ?
हम प्रदर्शन वेदना का क्यों करें ?
लोचनों में अश्रुओं को क्यों भरें ?
हर कहीं आश्रय न मिलता पीर को
फिर उसे हम छोड़ दें क्यों बाट में ?
प्रेम-पथ पर जब चला कोई मनुज
देवगण भी हो गये जैसे दनुज
भाग्यशाली हम कि भीगे हैं नयन
नीर जन्मा है कभी क्या काठ में?
नाव जीवन की थपेड़ों में रही,
किन्तु धारा के चली विपरीत ही,
सन्धि का प्रस्ताव ले तट भी दिखा,
हम न लंगर डाल पाये घाट में!
6
सुला दिये सपने
मजबूरी है,
गले पड़ गये हैं
ढाई आखर ।
सपने देखे,
लेकिन सच को मैं
भुला न पाया,
हँसना-गाना
टूटे सपनों-संग
मुझे न आया,
अपराधी हूँ,
सुला दिये सपने
लोरी गाकर ।
पीत पुष्प हूँ
किन्तु नहीं मन में
हीन भावना,
टहनी छोडूँ
सजूँ मूर्ति पर मैं,
नहीं कामना,
मैं सक्षम हूँ,
मुझे नहीं रुचता
खाला का घर ।
विष पीना है
जन्म-जन्म लेकिन,
शैव नहीं हूँ,
स्वार्थ-साधना
कर न सकूँगा मैं,
देव नहीं हूँ,
नहीं चाहता,
राज करे वैभव
मेरे ऊपर ।।
आज नहीं तो कल
मेरे आत्मन ! धैर्य धार ले, मत कर नयन तरल ।
समय बदलता है बदलेगा, आज नहीं तो कल ।।
माना अँधियारा पलता है,
कोई अपना ही छलता है,
लेकिन तनिक सोच तो रे मन !
डूबा रवि नित्य निकलता है,
गहन निराशा में भी पलता आशा का संबल ।
समय बदलता है बदलेगा, आज नहीं तो कल ।।
सूरज तो निकला है लेकिन,
अग्नि-बाण बरसाता है दिन,
यह कैसा आतप आया है,
सदियों-से लगते हैं पल-छिन,
लेकिन तप कब व्यर्थ गया है, नभ छाये बादल ।
समय बदलता है बदलेगा, आज नहीं तो कल ।।
कोई छोटा-बड़ा नहीं है,
लेकिन मन में गाँठ कहीं है,
बड़ा वही, जो छोटा बनता,
जहाँ समर्पण, प्रेम वहीं है,
प्रेम-भाव से मिल बैठेंगे, निकलेगा कुछ हल ।
समय बदलता है बदलेगा, आज नहीं तो कल ।।