आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (17)

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हेमंत की मृत्यु के बाद मेरी बर्बादी के ग्रह उदय हो चुके थे ।मीरा रोड का घर हेमंत के बिना खंडहर सा लगता ।जीजाजी का मकान था अहमदाबाद में जो खाली पड़ा था। मैंने प्रस्ताव रखा “अहमदाबाद शिफ्ट होना चाहती हूं आपको किराया दूंगी मकान का।” उन्होंने इस प्रस्ताव को मंजूरी दे दी।मुझे मुंबई से बोरिया बिस्तर समेटना था। हमेशा के लिए छोड़नी थी मुंबई इसलिए फ्लैट भी बेचना था। अच्छा खरीदार भी मिल गया। तीन लाख में खरीदा फ्लैट सात लाख में बिक रहा था।( इन दिनो उस फ्लैट की कीमत 80 लाख है) मैं खुश थी ।पैकर्स एंड मूवर्स सामान पैक कर रहे थे।

रंजना सक्सेना ने अपने घर मेरी विदाई पार्टी रखी। एक शाम मित्रों के साथ कविता,ग़ज़ल और बिछड़ने की भावुकता के संग यादगार गुजरी।

तय हुआ सामान पहले लोड होकर गोदाम में रखा जाएगा और हमारे अहमदाबाद पहुंचने पर सामान रवाना होगा।

2 दिन बाद रवानगी थी कि तभी जीजा जी का फोन आया उन्होंने मकान किराए से देने को इनकार कर दिया। कहा हम कुछ ही महीनों में अहमदाबाद शिफ्ट हो रहे हैं। तुम कोई दूसरा घर तलाश लो।

हालांकि वे अपने जीते जी कभी अहमदाबाद शिफ्ट नहीं हुए। ग्वालियर में ही उन्होंने अंतिम सांस ली। उनका वह घर भी उनके सबसे छोटे दामाद श्याम और अमीता ने ओने पौने दामों में बेचकर सारा रुपया लंदन जाकर उड़ा दिया था।

अब क्या हो !!फ्लैट भी बिक चुका था। सामान गोदाम में। हमारे हाथों में अहमदाबाद की टिकटें पर कटे पंछी सी फड़फड़ा रही थी। आनन-फानन में औरंगाबाद में घर ढूंढा गया और हम वहां शिफ्ट हुए ।जीजाजी अमिता के साथ ग्वालियर में थे पर उन्होंने मुंबई से “मैं कहां गई?” इस बारे में कोई चिंता प्रकट नहीं जबकि उन्हें पता था रमेश बीमार है और मैं अकेली ।फिर भी इतना बड़ा धोखा!

मुश्किल से 4 महीने औरंगाबाद में गुजार पाई कि मन उखड़ने लगा। एक दिन हरीश पाठक का मुंबई से फोन आया मैंने कहा “मुंबई नहीं छोड़ना था। रमेश बीमार है और मैं अपसेट।” “आप ग्वालियर शिफ्ट हो जाइए। वहां जहीर कुरैशी से कहकर मकान दिलवा देता हूं। साहित्यिक माहौल है वहां। अच्छे डॉक्टर हैं। आपका मन लग जाएगा।”

राहत मिली सुनकर ।हरीश जी बोले “आप से प्रादेशिक रिश्ता है ।सब अच्छे से हो जाएगा ।”

ग्वालियर में जहीर कुरैशी ने डुप्लेक्स बंगले का ऊपर वाला हिस्सा टू बेडरूम हॉल किचन किराए पर दिला दिया।

ग्वालियर में 6 महीने रही और इन 6 महीनों के दौरान न तो जीजाजी अमिता को मेरी बर्बादी का अफसोस हुआ और न मैंने ही नाराजगी प्रकट की। सब कुछ को नियति मान मैंने स्वीकार कर लिया। मेरे पास दूसरा उपाय भी न था। जिंदगी का जुआ मुझे अकेले ही ढोना था।

मन बहल जाता जब पवन करण ,महेश कटारे घर आते । एक दिन जबलपुर से ज्ञानरंजन दा और उनकी पत्नी भी घर आए ।मैंने बड़े उत्साह से डिनर तैयार किया। ड्राइंग रूम देखकर ज्ञानरंजन दा बोले 

“अरे इतना तामझाम इकट्ठा करने की क्या जरूरत थी। तुम तो संतोष सोफे वगैरह हटाकर चटाई बिछाओ। टिकने के लिए तकिये ले लो और टिफिन लगवा लो ।चौके से भी फुरसत मिलेगी।”

मन रो पड़ा ।यानी वह नहीं चाहते कि मैं ढंग से जियूं। पता नहीं ऐसा क्यों उन्होंने कहा ।मैंने तो कभी उनसे आर्थिक मदद नहीं ली।जब भी घर आए खातिर तवज्जो में कसर नहीं रखी।मुंबई में भी खाना-पीना ,रमेश के साथ शराब ,जाते समय चांदी के गणपति की भेंट भी दी।

रमेश अशक्त हैं। बीमार हैं ।महंगा इलाज दवाइयां सब अपने बलबूते पर ही तो कर रही हूं।

ताज्जुब होता है न जाने कैसे लोग ऐसा सोच लेते हैं और मैं महामूरख, अंधे फैसले करने वाली जैसे भटकाव मेरी नियति शिला पर गहरे खुदा है। अपने आप से सवाल ,सौ सौ बार सवाल कि क्यों गई औरंगाबाद ?  आई क्यों ग्वालियर ,?

प्रमिला इस इरादे से ग्वालियर आई कि वह भी मेरे साथ रहेगी ।जॉब ढूंढेंगी कोई। पर मेरी हालत देखकर घबरा गई बोली “तुम राजस्थानी सेवा संघ के विनोद टीबड़ेवाला को सारी परिस्थितियां लिखते हुए उनसे नौकरी मांगो। ” पत्र लिखा जवाब दो महीने बाद आया।

रमेश की हालत बिगड़ती जा रही थी। उनकी इंद्रियां उनके कंट्रोल में नहीं थीं उनके दैनिक कार्य भी बिस्तर में ही सिमट गए थे। मैं घबरा चुकी थी। सोचा अगर मुंबई में नौकरी मिल जाती है तो तुरंत रमेश को मुंबई ले जा भी नहीं सकती ।

लिहाजा रमेश को लेकर लखनऊ गई इस उम्मीद में कि शायद कुछ दिन वहां पनाह मिल जाए और जब मैं मुंबई सेटल हो जाऊं तो उन्हें वापस ले आऊं पर रमेश पहले ही अपनी करतूतों से सबसे बिगाड़ मोल ले चुके थे।

मैं अपने प्रयास में असफल रही। उम्मीद की हर किरण अंधकार में खो चुकी थी और मेरे कंधों पर रमेश की बीमार लकवाग्रस्त जिंदगी का बोझ था। मेरे साथ ही ऐसा क्यों हुआ ?क्यों मुझे प्यार करने वाले मेरे बाबूजी, विजय भाई और हेमंत असमय दुनिया से चले गए? क्यों मैंने रमेश के साथ अनचाहे ,अजनबीयत भरे जीवन की बेड़ियों में स्वयं को जकड़े रखा और क्यों दुनियादारी के तमाम तकाजों के बावजूद भी एक नकारात्मक संबंध के बोझ को मैं अपनी अंतरात्मा के कंधों से उतार नहीं पा रही हूं ।लगता है जैसे जिंदगी दो शून्यों के बीच झूलता एक पुल है और मैं उस पुल पर दम साधे चल रही हूं कि अब टूटा, अब टूटा।  मेरे ही भीतर बचना था यह सब?

लखनऊ से हम सीधे गुजरात गांधीनगर चले गए ।जहां प्रमिला की बेटी यामिनी सर्विस करती थी ।

मुझे घोर निराशा ने घेर लिया था। अपने चारों ओर अंधकार से घिरा हर पल नजर आने लगा था । सारी परिस्थितियों के लिए खुद को कोसने के अलावा और मेरे पास कुछ न बचा था।कि अचानक एक फिल्मी स्टाइल का ब्रेक मिला ।मुंबई से एक रोमांचित करता फोन आया कि “आज शाम 7:00 बजे घनश्यामदास पोद्दार हाई स्कूल मुंबई में मुख्य अध्यापिका के पद के साक्षात्कार के लिए आपको आना है”

इस सूचना पर विश्वास करना कठिन था। फिर भी विश्वास किया ।खुशी की उठती लहर को कंट्रोल करते हुए मैं इस सोच में डूब गई कि इतनी जल्दी मुंबई जाना कैसे संभव है ? 

यह तभी संभव है जब मैं फ्लाइट लूं। लेकिन फ्लाइट के रुपए ? टिकट ? पर न जाने कैसे अविश्वसनीय तरीके से सारा इंतजाम होता चला गया। सारी फ्लाइट्स बुक थीं बस एयर इंडिया में आखरी टिकट मेरा ही इंतजार कर रही थी ।

मेरी फ्लाइट ने रात 8:00 बजे सांताक्रुज एयरपोर्ट पर लैंड किया। जबकि साक्षात्कार का समय 7:00 बजे का था। मैं अंधाधुंध ऑटो की ओर भागी। इस बात से बेखबर की एजुकेशन डायरेक्टर ने मेरे लिए गाड़ी भेजी है और ड्राइवर मेरे नाम की तख्ती लिए खड़ा है ।एजुकेशन डायरेक्टर लगातार ड्राइवर से पूछ रहे हैं “संतोष जी आईं ?”ड्राइवर का घबराया जवाब “सारी फ्लाइट्स आ चुकी हैं पर मैडम का कहीं पता नहीं।” फिर मेरा ऑटो से उतरना ,साक्षात्कार के लिए मेरा इंतजार करते पदाधिकारी। 2 घंटे तक मुझसे हुई उनकी लंबी बातचीत और मेरे सम्मान में दिए शानदार डिनर के बाद मेरे हाथों में नियुक्ति पत्र और हवाई किराया वापसी की टिकट सहित थमाना और यह भी कि 

नौकरी के साथ फर्निश्ड फ्लैट भी जेबी नगर अंधेरी जैसे पॉश इलाके में दिया जाएगा।

6 सितंबर को आपको ज्वाइन करना है।”

मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। मन कर रहा था हवा में उड़ी और गाऊं आज मैं ऊपर आसमां नीचे। लेकिन इस खुशी को हासिल करने के लिए अभी बहुत कुछ करना बाकी था। 

मीरा रोड का घर बेचने से लेकर अब तक की मेरी भटकन वेदना अवसाद बार-बार चोट खाने की पीड़ा का जो अंबार था वह मेरे हौसलों की मीनार में तब्दील हो गया 6 सितंबर में अभी 25 दिन का वक्त था फिर दौड़ शुरू हुई गांधीनगर से ग्वालियर की ग्वालियर में सारा सामान औने पौने दामों में बेचकर मैं मुंबई शिफ्ट हो गई बहुत दिनों बाद जिंदगी को पटरी पर आते देखा।

मेरे मुंबई लौट आने तक के मेरे जीवन संघर्ष को प्रगतिशील आकल्प के लिए डॉक्टर शोभानाथ यादव ने लिखवाया जो अक्टूबर दिसंबर 2007 अंक में पत्रिका के आत्मसंघर्ष स्तंभ में “फिर आंधियों को मेरा नाम और पता दे दे” शीर्षक से प्रकाशित हुआ ।इसके अगले अंक में डॉक्टर सुशीला गुप्ता मानद शोध निदेशक ,संपादक हिंदुस्तानी जुबान का पत्र प्रकाशित हुआ –

“संतोष श्रीवास्तव का आत्म संघर्ष मन को छू गया। किस तरह एक महिला संघर्षों का सामना करती है और अपने कर्तव्य निर्धारण और उसकी पूर्ति में कहीं भी पीछे नहीं हटती इस का अनूठा परिचय मिला ।संतोष निस्संदेह रचनाधर्मिता के प्रति समर्पित हैं। उनमें आंधियों से बचने की ख्वाहिश कम उन से टकराने की क्षमता ज्यादा है। गुरुदेव रविंद्रनाथ टैगोर की पंक्तियां यहां मौजूं प्रतीत हो रही हैं

मुझे अपनी नौका का लंगर उठाना ही होगा /हाय किनारे खड़े यूं ही/ निष्क्रियता में समय /नष्ट हुआ जाता है।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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