आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (19)

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आलोक भट्टाचार्य नवोदित लेखिका सुमीता केशवा की किताब एक पहल ऐसी भी का लोकार्पण हेमंत फाउंडेशन के बैनर तले कराना चाहते थे । एक दिन वे सुमीता को लेकर घर आए ।कार्यक्रम की योजना पर विचार विमर्श हुआ। तारीख वगैरह निश्चित कर सूर्यबाला दी ,नंदकिशोर नौटियाल जी का चयन अध्यक्ष और मुख्य अतिथि के लिए किया गया ।कार्ड छपा कर सब को भेजने की जिम्मेवारी सुमीता ने ली । सुमीता का घर में आना जाना शुरू हो गया और धीरे-धीरे हम अच्छे मित्र बन गए। लोकार्पण का आयोजन बहुत भव्य हुआ।

इतने सबके बावजूद मन शांत न हो पाया ।जिंदगी की रफ्तार बदस्तूर जारी थी। वह रूकती भी तो नहीं ।हम लाख चाहे की किन्ही मनचाही परिस्थितियों में रुके रहें पर ऐसा होता नहीं। दुख जरूर धीरे-धीरे सरकता है। मैं भी अपनी परिस्थितियों में रमने लगी ।जो ईश्वर ने दिया उसे दोनों हाथों से सकेलने लगी। प्रभु ,जिसमें तेरी रजा….. 

मुझे पता था मुझे अकेले जीना है और आन बान शान से जीना है ।खुद को मजबूत बनाना है ।मैंने यह सारी बातें रोहिताश्व जी से शेयर कीं। वे गोवा यूनिवर्सिटी में हिंदी के शाखा प्रमुख थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि मैं कुछ दिन गोवा आकर उनके घर रुकूं, साहित्यिक चर्चाएं हों, पर्यटन हो ।हालांकि वे गोवा विश्वविद्यालय और गोवा साहित्य अकादमी में मुझे दो बार बहुभाषी कवि सम्मेलन और परिचर्चा आदि के लिए बुला चुके थे। पर तब बस कार्यक्रम के बाद मैं लौट आई थी। गोवा दर्शन रह गया था ।उन्होंने फोन पर अपनी इच्छा दोहराई “इस बार आ ही जाओ, खूब घुमाएंगे आपको ।मन बहल जाएगा। “

नवंबर का महीना था। लगभग 2 महीनों से रोहिताश्व जी हमारा गोवा में इंतजार कर रहे थे। मैंने कॉलेज में छुट्टी के लिए अप्लाई कर दिया ।प्रमिला भी आ गई और हम गोवा जाने की तैयारियों में जुट गए ।

हमारे रवाना होने के 2 दिन पहले रोहिताश्व जी को हैदराबाद जाना पड़ा। उनके बड़े भाई गंभीर रूप से बीमार पड़ गए ।मैंने फोन पर कहा

” फिर हम कैंसिल कर देते हैं, आप लौट आइए तब आएंगे।”

” नहीं कैंसिल मत करिए संतोष जी, मेरी पीएचडी की स्टूडेंट किरण आपको कर्मली स्टेशन पर मिल जाएगी ।आपके रहने खाने की व्यवस्था मेरे घर पर की गई है।” 

रोहिताश्व जी के आग्रह पर हम कोकण रेल्वे की ट्रेन में आरक्षित एसी कोच में जा बैठे। कोंकण बेहद खूबसूरत संपदा से भरा पूरा है। ट्रेन सहयाद्री घाटों को पार करती अंधकार और उजाले से आंख मिचौली करती लंबी-लंबी ढेरों सुरंगों से गुजरती ऊंचे ऊंचे पुल और कभी-कभी सागर तट को लगभग छूती हुई कर्मली स्टेशन पर रुकी जहां किरण हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। सूने पड़े प्लेटफार्म पर हमें एक दूसरे को जानने में असुविधा नहीं हुई। जबकि इससे पहले हम नहीं मिले थे।

किरण ने मुस्कुराते हुए हाथ मिलाया “भारत के 26 वें राज्य गोवा में आपका स्वागत है।”

रोहिताश्व जी का घर हरे-भरे परिसर में काफी ऊंचाई पर था। घर बेहद सुरुचिपूर्ण ढंग से सजा था ।ड्राइंग रूम की खिड़की से दिखती मांडवी नदी के शांत जल पर तैरते मालवाहक जहाज और नदी से लगा पर्वत ।इस जगह पर तो कितनी रचनाएं जन्म ले सकती हैं। रोहिताश्व जी के बिना उनके घर में रहते हुए खुद ही खाना पका कर खाते हुए हमने पूरा गोवा घूमा। गोवा की सुंदरता का बखान तो मैं अपने यात्रा संस्मरण में करूंगी। मेरी उत्सुकता थी आग्वाद जेल देखने की जहां सुधीर शर्मा ने अपनी कैद के 8 वर्ष गुजारे थे। 

  आग्वाद किला पंजिम से 18 किलोमीटर दूरी पर स्थित है जो मांडवी नदी और सिंकवेयम बीच से घिरा है । आग्वाद का अर्थ है ताजे पानी का झरना। जबकि आज भी यह मांडवी नदी के किनारे प्रवेश द्वार सा खड़ा है ।  आग्वाद किले से लोहे के भारी जंगले से घिरी नीचे जाती सीढ़ियां आग्वाद जेल की हैं ।जो गोवा में सेंट्रल जेल के हिस्से में आता है। जेल सी लेवल पर है जबकि किला ऊंची पहाड़ी पर।

जेल की दीवारें ,सीढ़ियां देर तक मुझे सुधीर शर्मा की याद दिलाती रहीं। 8 वर्ष तो कब के बीत गए । अब वह न जाने कहां होगा ।

रोहिताश्व जी लगभग रोज ही फोन पर हाल-चाल पूछ लेते। पड़ोसियों ने छिलके वाले काजू मंगवाए थे जिन्हें मूंगफली की तरह छीलकर खाने में बड़ा मज़ा आता है। लिहाजा रोहिताश्व जी से काजू की दुकान दरयाफ्त की। खूब सारे पैकेट खरीदे काजू के ।इतने दिनों गोवा ने काफी तरोताजा कर दिया था। आज इतने बरसों बाद गोवा को लेखनीबद्ध करते हुए रोहिताश्व जी याद आ रहे हैं ।अब वे नहीं हैं।बेतहाशा शराब ने उनके शरीर को खोखला कर दिया था। उनकी पत्नी हैदराबाद में रहती थी और वे अकेले गोवा में रहते थे। उनके जीवन के अंतिम वर्ष में वे निपट अकेले थे।

मुंबई लौट कर मुझे लगा कि अगर गोवा का संस्मरण तुरंत नहीं लिखा तो शायद यह रोहिताश्व जी के अनुपस्थित आतिथ्य की अवहेलना होगी। लिखा और नवनीत में भेज दिया प्रकाशित होने । विश्वनाथ जी ने भी 2 महीने बाद प्रकाशित कर दिया ।रोहिताश्व जी को नवनीत की प्रति डाक से भिजवाई। वे फोन से ज्यादा पत्र लिखने के शौकीन थे। उन्होंने पत्र में लिखा” इतने सालों से गोवा में रह रहा हूं पर इस नजरिए से तो कभी देखा ही नहीं गोवा को। यार तुम भी कमाल लिखती हो ।”

यही बात कमलेश बख्शी दी ने कही कि “मैं गोवा घूम चुकी हूं पर तुम्हारा संस्मरण पढ़कर तो लग रहा है गोवा घूमा ही नहीं।” अब क्या कहूं गोवा ने मुझे भी तो खूब रिझाया।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव



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