आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (20)
दिसंबर में मुंबई की जैसे जवानी लौट आती है। मौसम खुशगवार हल्की हल्की ठंड। सुबह के वक्त हल्का स्वेटर पहनना पड़ता है ।बाजार क्रिसमस और नए साल की सौगातो से रंगीन हो उठता है। तभी ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड में कॉन्फ्रेंस की सूचना अंतरराष्ट्रीय पत्रकार मित्रता संघ से मिली ।दोनों देशों में तीन-तीन दिन की कॉन्फ्रेंस के लिए न्योता था 22 से 27 जनवरी 2008 का। मेरा मन उमंग से भर उठा था ।मित्रों ने सुझाया दर्शनीय स्थलों को भी देख आना। फिर कहां दोबारा जाना होगा। मैं SOTC से ब्रोशर लेकर आई। पूरे 12 दिन लगेंगे सब कुछ देखने में। मैं वीजा पासपोर्ट आदि की औपचारिकताओं में जुट गई ।विनोद जी भी खुश हुए। उन दिनों प्रमिला आई हुई थी। तनख्वाह का एडवांस ले हमने नाना चौक से कपड़े जूते आदि खरीदे। पोद्दार विद्यालय के नोटिस बोर्ड पर मेरी इस यात्रा की सूचना प्रिंसिपल कुलदीप शर्मा ने लगाई ।यानी पूरे राजस्थानी सेवा संघ ने मेरा जाना हाथों-हाथ लिया ।मेरी मन: स्थिति के लिए यह बहुत बड़ा सपोर्ट था जिसने मेरी एकाकी जिंदगी को मजबूती दी ।चंद खुशियों के पल मेरी स्मृति में जोड़े ।आस्ट्रेलिया देखने की चाह कॉलेज के दिनों से मेरे मन में थी जब कॉलेज की खेल टीम की कप्तान क्रिकेट टीम लेकर ऑस्ट्रेलिया गई थी। लगातार सुर्खियों में रहने वाला सिर्फ क्रिकेट ही नहीं बल्कि शिक्षा के नए-नए स्त्रोत, भविष्य की संभावनाएँ, अधिकतम वेतन, बहुत कम आबादी, बहुत अधिक क्षेत्रफल, प्रदूषण रहित, खिले फूलों, खिले खुशगवार मौसम के कारण भी यह देश सुर्ख़ियों में है| तरक्की की ऊँचाइयों को छुआ है इस देश ने| क्योंकि यहाँ की सरकार अपने नागरिकों का भरपूर ध्यान रखती है|जब छै: बजे शाम को…..शाम नहीं चमकती दोपहर क्योंकि वहाँ सूरज भी आराम नहीं करता|चमकता रहता है रात साढ़े नौ बजे तक| कामकाजी पुरुष स्त्रियाँ घर लौटते हैं तो बाजार बंद हो जाते हैं और कहवाघरों, रेस्तराओं और फुटपाथों पर सजी टेबलकुर्सियों के दरम्यान कहकहे, मुस्कुराहटें, खुशियाँ कदमबोसी करती नज़र आती हैं|
आज यूँ लगा जैसे अतीत में पहुँच गई हूँ पूरी एक सदी पहले के लिखे नाटकों को नाट्य मंडली के युवा कलाकार एक महीने तक मंचित करेंगे| मेरे हाथ में भी बुलौवे का कार्ड है…..ख़ास आग्रह “आप ही के लिए शो रखा है|” कुछ बाहर से भी लेखक आये हैं| अमेरिका से,मॉरिशस से| सड़कें सूनी हैं| जैसे कर्फ्यू लगा हो| लेकिन यह इस शहर का मिज़ाजहै| वैसे भी इतने बड़े महाद्वीपकीजनसंख्या९.५ मिलियन है| चारोंओर हिन्द महासागर, प्रशांत महासागर और दक्षिण सागरसे घिरे इस देश का इतिहास भी लगभग भारत जैसा ही है| जिस तरह भारत में अंग्रेज़ी हुकूमतकेदौरान आज़ादी के दीवानों को कैद कर अंडमान निकोबार में काले पानी की सज़ा भोगने को रखा जाता था उसी प्रकार इस सुंदर जनविहीन द्वीप पे विभिन्न देशों के कैदियों को लाकर रखा जाता था| ये वे देश थे जो अंग्रेज़ों के गुलाम थे| अंग्रेज़ों ने यहाँ के मूल आदिवासी मौरियों पर जुल्म ढाए| तमाम मुल्कों पर हुकूमत करने वाला ब्रिटिश राज्य…..शायद यही वजह हो कि आज वह अपनी राष्ट्रीय पहचान खो चुका है और यूरोप का ही एक हिस्सा कहलाने लगा है| तो जैसे जैसे देश आज़ाद होते गए यहाँ लाए कैदी भी आज़ाद होते गए| कुछ अपने देश लौट गये, कुछ यहीं बस गये| जो बस गये उन्होंने इस द्वीप को जीने लायक बनाया, बसाया| धीरे-धीरे अन्य देशों से भी लोग आए कुछ नौकरी पर, कुछव्यापार करने| भारत से हिंदू, सिक्ख आए, ईसाई आए, हिब्रूआए, हांगकांगी, सिंगापुरी, जापानी, चीनी और यूरोपियन मुसलमान…..इसलिए यहाँ बोलचाल, रहनसहन, स्थापत्य में, खानपान में एक मिली जुली संस्कृति दिखाई देती है| अपनी सभ्यता न होने की वजह से अब जो ऑस्ट्रेलियन सभ्यता बनी है वह एक स्वतंत्र सभ्यता है जिसको गढ़ने में विभिन्न देशों का हाथ है|
मंच पर उन्नीसवीं सदी लौट आई थी| कलाकारों ने डूब कर अभिनय किया था| जब नाटक के नायक को फाँसी पर चढ़ाया जा रहा था तो मेरे बाजू में बैठी तेईस वर्षीया लड़की सिसक पड़ी थी| जेल में वह अंडासेल…..अंतिम प्रार्थना कराता पादरी…..बेड़ियों से जकड़े पाँव लकड़ी के फर्श पर चर्रमर्र, झनझन करते और संग संग दौड़ता मशालची…..जलती मशालों ने रूह कँपा देने वाला दृश्य खींचदिया था| दर्शक सम्मोहन में जकड़े थे| मैं रात को सपने में भी उन्हीं दृश्यों के संग थी|
अपने प्रकल्प के प्रस्तुतिकरण की व्यस्तता के बावजूद मुझे लग रहा था कि मैं इस शहर में जी रही हूँ| या शायद शहर मुझे जी रहा हो| मेरा मौजूद होना सिमरन एण्डग्रुप के लिए नित नए कार्यक्रमों को आयोजित करना हो गया था|आज वो पत्रकारों से मेरी भेंट करवाने वाले थे|चार घंटों की इस विशेष गोष्ठी में भारतीय पत्रकारिता पर खुलकर बहस हुई| ताज्जुब इस बात का कि कई नई बातों का पता चला जो मैं यहीं आकर जान पाई| गोष्ठी में उपस्थिति गिनी चुनी थी पर बहस के लिए काफी स्पेस मिल रहा था| सिमरन नई-नई पत्रकार है, उसके संग सिलैका है जो उम्र में उससे बड़ी और काफी सीनियर है| कई अखबारों में उसके फीचर छपते हैं|
न्यूजीलैंड में मैं मौरी आदिवासी महिला अमेंड्रा की मेहमान थी। पहाड़ों की वादियों में बसे खूबसूरत शहर क्वींस टाउन घूमते हुए वह बता रही थी “राइटर (वह मुझे इसी नाम से संबोधित कर रही थी) हम यहाँ के मूल निवासी हैं…..अत्याचार का एक लम्बा सिलसिला हमने झेला है| हमारे पूर्वज सदियों से यहाँ के जंगलों में कबीलों में रहते थे| हमारीअपनी संस्कृति थी, अपने रीति रिवाज़| उस समय हमारे पूर्वज पत्तों से बदन ढँकते थे|लाल, पीली, सफेद मिट्टी की धारियों से श्रृंगार करते थे| वे पूरी तरह समुद्री भोजन और शिकार पर निर्भर थे| शिकार वे तीर कमान से करते थे|समुद्री जीवों को तो वे तैरकर, गोता लगाकर हाथ से पकड़ लेते थे| अंग्रेजों ने जब यहाँ हुकूमत की तो मौरियों पर बहुत जुल्म ढाये|उन्हें जंगलों में ही रहने पर मजबूर किया| उनके पास बंदूकें थीं| बंदूकों के आगे तीर कमान भला टिक पाते?लेकिन फिर भी मौरियों ने अपनी संस्कृति मिटने नहीं दी| अपनी परंपराएँ जीवित रखीं| देश आज़ाद हुआ तो हमने चैन की साँस ली लेकिन सरकार हमें हमारे परिवेश में रहने देना नहीं चाहती| आज से ३८ वर्ष पूर्व १९७० में जब मैं दस साल की थी तो मुझे और मेरे जैसे कितने ही बच्चों को उनके माता पिता से छीनकर सभ्य बनाने के लिए शहरों में लाने का अभियान चला| आज हमारी पीढ़ी को ‘स्टोलन जेनरेशन’ कहा जाता है|मेरे माता पिता मुझसे कभी नहीं मिले| पता नहीं वे जीवित भी हैं या नहीं|लेकिन मैंने अपनी बेटियों को भरपूर प्यार दिया है| जो मुझे नहीं मिला मैंने उनको दिया| मेरी बड़ी बेटी विला रोटोरुआ में रेडियो स्टेशन में सांस्कृतिक विभाग की डायरेक्टर है| उसने आपका एक प्रोग्राम…..शायद इंटरव्यू अभी से शेड्यूल कर लिया है| रोटोरुआ में वह मिलेगी आपसे|”
मेरे होंठों से एक आह निकली और सारी वादी सिसक पड़ी| दोपहर में अमेंड्रा के बारे में ही सोचती रही| रात डिनर के लिए हम लिटिल इंडिया रेस्टॉरेंटआए तो वहाँ के मैनेजर राजेंदर सिंह से मुलाकात हुई| वहचंडीगढ़ का था| मैंने पूछा….. “राजेंदर सिंह बेदी को जानते हो?” खुश होकर चहका वह….. “हाँ….. उनके उपन्यास मैला आँचल पर फ़िल्म भी बनी है|”
मैंने सुधारा….. “मैला आँचल नहीं, एक चादर मैली सी|” वह झेंप गया| मीना दीदी ने उससे कहा…..” “मैडम राइटर हैं, संतोष श्रीवास्तव|”
वह आधा झुका….. मुग़लिया स्टाइल में मुझे सलाम किया और खुश होकर चला गया|
रात भर मुझे नींद नहीं आई ।अमेंड्रा का चेहरा बार-बार आंखों के सामने आकर मुझे विचलित करता रहा। जितना जख्म, जितना जुल्म अंग्रेजों ने विश्व के देशों पर ढाया है वह पृथ्वी की संस्कृति पर बदनुमा दाग है ।कितनी अद्भुत बात है कि प्रभावित भी किया है तो अंग्रेज लेखकों ने। अंग्रेज लेखकों को पढ़ना फख्र की बात मानी जाती है। क्या भारतीय लेखकों को पढ़ना फख्र नहीं है ?क्यों शराब के पैग के साथ अंग्रेज लेखक याद आते हैं भारतीय नहीं? यह मानसिकता लेखक समुदाय के बीच से कब हटेगी।
क्रमशः