आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (04)

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गहरे पानी पैठ 

उम्र की बही पर सोलहवें साल ने अंगूठा लगाया । वह उम्र थी बसन्त को जीने की ,तारों को मुट्ठी में कैद कर लेने की और बांह पसार कर आकाश को नापने की। इधर मेरी हमउम्र लड़कियां इश्क के चर्चे करतीं, सिल्क, शिफान, किमखाब, गरारे ,शरारे में डूबी रहतीं। मेहंदी रचातीं। फिल्मी गाने गुनगुनातीं।दुल्हन बनने के ख्वाब देखतीं। तकिए के गिलाफ पर बेल बूटे काढ़तीं। मैं कभी अपने को इन सब में नहीं पाती ।मेरे अंदर एक ख़ौलता दरिया था जिसका उबाल मुझे चैन नहीं लेने देता ।दिन में आँखों के सामने कोर्स की किताबें होतीं…….. रात दो दो बजे तक कागज कलम थामे मैं दुनिया जहान को टटोलने की कोशिश शब्दों के जरिए करती ।शब्द बड़े बेकाबू थे। कब अपनी मर्जी के अर्थ गढ़ लेते पता ही नहीं चलता ।मैं उन अर्थों में ऐसी डूबती कि किनारा मिलना दुश्वार हो जाता। पर मेरी अपनी जिद्द। हार क्यों मानूं? हारना शब्द तो मेरे शब्दकोश में है ही नहीं। यह कच्ची उम्र के दिन जरूर थे पर इन्हीं दिनों ने मेरे अंदर झूठी मान्यताओं की ,परंपराओं अंधविश्वासों के खिलाफ खड़े होने की जिद्द पैदा की। इन्हीं दिनों ने मुझे यह सिखाया कि महत्वपूर्ण यह नहीं है कि तुम उस सब का विरोध करो जो हो रहा है ,जो होता आया है पर उस कुछ का विरोध अवश्य करो जो सहजता में अवरोध पैदा कर रहा है ।हाँ मैं उस कुछ के खिलाफ खड़ी हुई और इस खड़े होने की जद्दोजहद में उस उम्र का मेरा मोहक बसंत पंखुड़ी -पंखुड़ी बिखर कर मेरी आँखों की तलैया में बह गया ।मेरे मन की खदबदाहट में साकार हुई मेरी पहली कहानी जो 17 साल की उम्र में जबलपुर से निकलने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी। हालांकि मैं इसे प्रकाशन में पहला स्थान नहीं दूंगी। कृति परिचय ने मुझे प्रमोट किया और जबलपुर के रचनाकारों ने हौसला दिया कि अभी तो तुम बहुत छोटी हो ,शुरुआत का लेखन कच्चा ही होता है ।परसाई जी ने जैसा कि मैं पहले लिख चुकी हूँ मुझे सलाह दी कि अभी सिर्फ लिखो ,छपो मत ।इन प्रोत्साहन भरे वाक्यों ने अगर मेरी कलम मजबूत की है तो श्रेय उन्हीं को जाता है। 

लिहाजा मैंने डायरी लिखने का नियम बना लिया ।अपने रोज के अच्छे बुरे प्रसंगों को मैं कलम बद्ध करने लगी और रात घिरते ही डायरी से बतियाने लगी ।मेरे मन के आकाश में कितनी तो आकाशगंगाएं थीं। मैं उनके दूधिया प्रवाह में बहने लगी और इस बहने में मुझे छटपटाहट भरा सुकून मिलने लगा। नहीं जानती थी कि जिंदगी भर छटपटाहट और सुकून के विरोधाभास में जीना पड़ेगा।

उन्हीं दिनों लेखन के अलावा नृत्य सितार और चित्रकला की ओर भी मेरा रुझान हुआ। नृत्य कभी विधिवत सीखा नहीं ।भातखंडे से नृत्य गुरु नरसप्पा सर कॉलेज में नृत्य सिखाने आते ।जिनका नृत्य में रुझान था ऐसी लड़कियों का ग्रुप बनाया गया और सप्ताह में तीन बार उनके लिए नृत्य की कक्षा लगने लगी ।नरसप्पा सर हाथ में बेंत लेकर बैठते। तबला बजता रहता और हमारे दिलों में उनका बेंत सरसराता ।जरा सी चूक कि सटाक। मजाल है जो पैर बहकें, ताल या मुद्रा बिगड़े। साल भर ही सीख पाई कत्थक। विद्यार्थी जीवन में प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने की मेरी झिझक अगर मैं कहूँ कि नरसप्पा सर के कठोर अनुशासन ने दूर की तो अन्यथा नहीं होगा ।यह बात दीगर है कि आगे चलकर अहमदाबाद में मैंने छै महीने भरतनाट्यम भी सीखा पर उसमें उतना मन नहीं लगा जितना कत्थक में लगा ।कॉलेज के वार्षिकोत्सव में द्वारका प्रसाद मिश्र रचित कृष्ण की नृत्य नाटिका चर्चा का विषय बन गई। हालांकि उसमें मेरा बस 2 मिनट का ही नृत्य था पर उससे मेरे अंदर विश्वास जागा ।मंच पर जाने की झिझक दूर हुई। फिर जयदेव के गीत गोविंद पर जो नृत्य नाटिका तैयार हुई उसमें माननीय राधा की भूमिका निभाते हुए मैं मानो कृष्ण के प्रेम में पड़ गई ।

अब तो बात फैल गई जाने सब कोई। तो आज तक कृष्ण मेरे प्रियतम हैं,….. मेरे आराध्य ……उन्हें साक्षात महसूस किया है…… अब तो और भी जबकि तन्हाई मेरा नसीब है। पूजा ,पाठ, हवन आदि से मैं कोसों दूर हूँ।

मंदिरों के दर्शन इसलिए करती हूँ क्योंकि मुझे स्थापत्य से लगाव है। संगमरमर के बने पच्चीकारी, मीनाकारी और भित्ती कौशल मुझे आकर्षित करते हैं ।जिन्हें विदेशियों के अलावा बहुत कम लोग गौर कर पाते हैं ।क्योंकि भक्तों का ध्यान तो लोटा भर दूध जल चढ़ाने और फूल, पत्र, प्रसाद ,आरती में ही रहता है।

नृत्य के नशे के साथ-साथ सितार भी सीखने का जुनून चढ़ गया। सितार भी मैंने अहमदाबाद से सीखा। मिजराब पहनकर सितार के तारों पर उंगलियां फिराना, उनकी झंकार हवा के संग दूर-दूर तक गूंजने लगती। कई गाने और राष्ट्रगान सितार पर बजाने लगी थी ।बहुत रोमांचकारी था सितार के साथ का वह एक साल का सफर फिर चित्रकारी का नशा ।घर में प्रमिला और विजय भाई दो-दो चित्रकार मौजूद। प्रमिला वाटर कलर में प्रकृति की रंगीनियों को उकेरती। विजय भाई तो रेखा चित्र और पोर्टेड बनाने में उस्ताद थे। मैं कोलाज बनाती। उन दिनों मैंने साड़ी ,परदे और कुशन कवर पर  फैब्रिक रंगों से चित्रकारी की थी। चित्रकला ने मुझे ऐसा मोहा कि जब मैं मुम्बई आई तो मैंने चित्रकला की बारीकियों को बहुत गहराई से समझा। शायद यह बाबूजी से मिला वह नशा था जिसने मुझ से “लौट आओ दीपशिखा” जैसा उपन्यास लिखवा लिया। इस उपन्यास की नायिका दीपशिखा चित्रकार है। चित्रकला के लिए संपूर्ण समर्पित ।वैसे तो यह उपन्यास लिव इन रिलेशन को मुद्दा बनाकर लिखा है लेकिन इसका मूल स्वर चित्रकला ही है। इस उपन्यास का लोकार्पण दिल्ली विश्व पुस्तक मेले में हुआ था। जहाँ वरिष्ठ लेखिका और मेरी अंतरंग मित्र चित्रा मुद्गल ने कहा था कि “संतोष का जीवन हादसों का सफर है लेकिन उसमें से भी उसने जीने की राह  निकाल कर सबके लिए मिसाल कायम की है। जिस दिन वह अपनी जिंदगी पर उपन्यास लिखेंगी वह साहित्य के लिए विशेष दिन होगा।” 

सच कहूँ तो यह चित्रा जी की प्रेरणा ही है जो मैंने अपनी सवालिया निशानों से भरी जिंदगी पर लिखने के लिए कलम थामी है और वक्त को मनाया है।

 वक़्त तो मेरे पास कभी रहा नहीं। न अब और न कॉलेज के उन दिनों में जब मैं नृत्य ,सितार, चित्रकारी जैसे नशों से गुजर रही थी लेकिन समय से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात रहे हैं। वह मेरे हिसाब से काल खंडों में बंट लेता है।

उन्हीं दिनों मैंने रवींद्रनाथ टैगोर, फणीश्वर नाथ रेणु ,मार्खेज और सिंगर की किताबें पढ़ीं। हार्डी ,डिकेंस की किताबों के संग तुर्गनेव के उपन्यास” ए हाउस ऑफ जेन्ट्री फोक” को पढ़ा। मुझे वहां के गरीब कस्बाई और आत्मीय जीवन को जानने का अवसर मिला। उम्र, अनुभव और नजरिए के साथ लेखकों का जादू उतरने लगता है तो कुछ का चढ़ने लगता है ।इसी जादुई  माहौल में मेरे हाथ आए रांगेय राघव के उपन्यास अंधेरे की भूख तथा बोलते खंडहर ।मुझे दोनों उपन्यास रहस्य और रोमांच के विदेशी उपन्यासों जैसे लगे।

कॉलेज में एक विषय मेरा संस्कृत भी था ।मृच्छकटिकम ,ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसंभव,अभिज्ञान शाकुंतलम जैसे काव्य ग्रंथ मेरे कोर्स में थे। इन्हें पढ़कर मैंने जो आनंद की अनुभूति महसूस की उसे भूल पाना असंभव है। 

मेरे पसंदीदा शायर गालिब, शहरयार और जिगर मुरादाबादी थे। इनके कलाम पढ़ते-पढ़ते मन भटक जाता। काश उर्दू लिपि का ज्ञान होता तो कितना आनंद आता। हालाँकि घर में हम अपनी बोलचाल की भाषा में उर्दू शब्दों का इस्तेमाल अधिक करते थे। अम्मा फारसी पढ़ी थीं और उर्दू के उच्चारण उनके लाजवाब थे। कैसी त्रिवेणी बहती थी हमारे घर में ।अम्मा उर्दू ,फारसी बोलतीं। बाबूजी संस्कृत के प्रकांड पंडित और विजय भाई हिंदी में सिद्धहस्त। उनकी तो अंग्रेजी भी बेहतरीन थी। मैंने थ्री इयर्स डिग्री कोर्स में संस्कृत विषय लिया था। बाबूजी बहुत खुश थे। कॉलेज में मैंने संस्कृत में एक कविता लिख कर सबको चौंका दिया था। हालांकि वह कविता शमशेर बहादुर सिंह की कविता लौट आओ धार /टूट मत ओ साँझ के पत्थर/ हृदय पर/ मैं समय की एक लंबी आह/मौन लंबी आह/लौट आ ओ फूल की पंखुड़ी/ फिर फूल में लग जा/ चूमता है धूल का फूल कोई हाथ, से प्रेरित होकर लिखी थी। पता नहीं कविता की पुकार थी या दिली तमन्ना। दिनमान पत्रिका ने पत्राचार से उर्दू सिखाने का कोर्स शमशेर बहादुर सिंह के मार्गदर्शन में आरंभ किया। दिनमान के हर दूसरे अंक में उर्दू का एक पाठ और होमवर्क होता। अगले अंक में होमवर्क का हल ।अलिफ बे से शुरू हुए पाठ दिनमान के अंकों और पत्राचार ने आखिर उर्दू लिपि का ज्ञान करा ही दिया। मैंने हरी स्याही( टर्किश ब्लू)  वाले पेन से शमशेर बहादुर सिंह जी को उर्दू लिपि में खत लिखा ।

“आदरणीय वो अपनों की बातें /वो अपनों की खू-बू/ हमारी ही हिंदी/ हमारी ही उर्दू/ ये कोयल और बुलबुल के मीठे तराने/ हमारे सिवा इस तरह कौन जाने।”

 उन्होंने लौटती डाक से जवाब दिया-” मेरी खास शागिर्द, मेरी कविता को उर्दू लिपि में लिखा देख मेरा पढ़ाना सार्थक हो गया ।”

मैंने आसमानी पन्नों वाली डायरी में टर्किश ब्लू स्याही वाले पेन से (पेन निब वाली थी,उसके होल्डर में हम स्याही भर लेते थे )अपने महबूब शायरों के कलाम उर्दू में लिखने शुरू किए ।मुझे लगा वक्त के कांटे गालिब के जमाने में लौट रहे हैं।वही दिल्ली की गलियां ,इक्के पर बैठे ग़ालिब, सफेद दाढ़ी, शेरवानी और सिर पर लंबा टोप……

बस की दुश्वार है हर काम का आसां होना

 आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसा होना

 लेकिन वक्त की ऐसी फितरत कहाँ कि वह पीछे लौटे ।

क्रमशः

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