आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (29)
मध्यप्रदेश में जबलपुर मेरी जन्मभूमि है। मेरी स्मृतियों के कोष छलछल बहती नर्मदा ,सतपुड़ा के घने जंगल और विंध्याचल की वादियों से जुड़े हैं ।मदन महल के आसपास की चट्टानों पर लगे सीताफल के पेड़ों से , घुंघची की लाल काली बीजों वाली फलियों से कितना कुछ सीखा है मैंने ।निरंतर बहते रहने का मंत्र ,चट्टानी अवरोधों को सहजता से पार कर लेने का मंत्र । यही मेरे जीवन की बूंद भर कामयाबी का स्रोत है।
उन दिनों हिंदमाता से तेजस्वी भारत साप्ताहिक नगर पत्रिका निकलती थी। मधुराज संपादक थे। उन्होंने तेजस्वी भारत के लिए मुझसे बहुत लिखवाया। लगभग हर हफ्ते मेरी रचना उस में प्रकाशित होती पर पारिश्रमिक देने के नाम पर बहुत रुलाया उन्होंने। पारिश्रमिक लेने हम हिंदमाता का बेहद भीड़ भरा बाजार पार कर तेजस्वी भारत के ऑफिस जाते। खूब सारी सीढ़ियां चढ़नी पड़ती। पारिश्रमिक का आधा दूधा मिलता ।मन खट्टा हो गया। वहाँ लिखना बंद कर दिया।
अब मैं समीक्षाएं भी लिखने लगी थी। और किताबों की भूमिका भी। बलराम, सुधा अरोड़ा ,सूर्यबाला ,मन्नू भंडारी आदि की पुस्तकों पर मैंने समीक्षाएं लिखीं और भूमिकाएं तो अनगिनत ।उभरती हुई लेखिकाओं को मैंने सपोर्ट किया । एक नई पौध तैयार की जो आज छतनारा दरख्त बन गई है। अब तो हाल यह है कि विभिन्न साहित्य अकादमियों में पाण्डुलिपि के लिए प्रसिद्ध पुस्तकों की समीक्षा मुझी से लिखवाई जाती है।
मेरी लघुकथाएं सारिका ,नवभारत टाइम्स,पत्रिका , सर्जना, पुष्पगंधा, संरचना, लघु आघात ,सरस्वती सुमन, सबरंग, संवाद सृजन का लघुकथा विशेषांक, मिन्नी( शहीद की विधवा पंजाबी में श्याम सुंदर अग्रवाल द्वारा अनूदित) स्पंदन ,आरोह अवरोह,अविराम साहित्यकी आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रही हैं। एक दिन डॉ सतीशराज पुष्करणा का पत्र आया कि आपको अखिल भारतीय लघुकथा मंच ने लघुकथा रत्न सम्मान के लिए चुना है जो पटना में आयोजित होगा। और यह 2012 में आयोजित 25 वां अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन होगा जिसमें अखिल भारतीय हिंदी प्रसार प्रतिष्ठान के अंतर्गत आपको सम्मानित किया जाएगा ।मजे की बात यह थी कि यह पत्र लघुकथा नगर से आया था।
जाडों के दिन ।दिसंबर की शुरुआत। पटना एयरपोर्ट पर स्वयं डॉ सतीश राज पुष्करना मुझे लेने आए ।मुझे पुष्पा जमुआर जी के घर रुकना था। फ्रेश होकर बैठी थी कि पटना की मेरी लेखिका मित्र संजू पाल, निवेदिता वर्मा मिलने आ गईं ।पुष्करणा दादा भी कल की व्यवस्था देख कर वहीं आ गए। रात 11:00 बजे तक हम बतियाते रहे। 12:00 बजे रात को पुष्करणा दादा प्रमिला वर्मा को स्टेशन से लिवा लाए।
सुबह 10:00 बजे नाश्ता चाय भी आयोजन स्थल पर ही था। भारत भर से लघुकथाकार इकट्ठे हुए थे ।कांबोज जी ,सुकेश साहनी जी ,बलराम अग्रवाल जी और पटना की ही बेहद कर्मठ डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र जिन्होंने अपनी अंतिम साँस तक मेरा साथ दिया ।उन्होंने न केवल अपने पति मूलचंद मिश्र की स्मृति में प्रियंवदा साहित्य सम्मान लखनऊ से मुझे दिया बल्कि बिहार की सरकारी साहित्यिक पत्रिका “परिषद पत्रिका” में मेरे आदिवासियों पर लेख भी प्रकाशित किए और 2 साल बाद भूटान में विश्व मैत्री मंच द्वारा आयोजित महिला लघुकथाकारों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में 12 सदस्यों को लेकर शामिल भी हुईं। विश्व मैत्री मंच के लिए उन्होंने बहुत काम किया ।वे विश्व मैत्री मंच पटना शाखा की प्रभारी थीं। वे समय-समय पर मुझे सलाह देती रहतीं और जब मुझे दूसरी बार पटना में ही 2014 में प्रगतिशील लघुकथा संघ से लघुकथा सारस्वत सम्मान मिला तो मिथलेश दीदी की खुशी का ठिकाना न था
“तुम डिजर्व करती हो ।”
अब वे हमारे बीच नहीं हैं। अब पटना जाने की हिम्मत नहीं होती।
अभी वर्ष 2019 बिहार साहित्य अकादमी द्वारा मुझे गोवा की गवर्नर मृदुला सिन्हा द्वारा महादेवी वर्मा शताब्दी सम्मान दिया जाना था जिसमें मैं नहीं गई ।चित्रा मुद्गल दी ने कहा भी कि “आ जाओ । हमें तो नालंदा देखना है इसलिए जा रहे हैँ ।“ मैंने कहा “नालंदा ,वैशाली, बोधगया, राजगीर सब पहली पटना यात्रा में ही देख लिए थे। मेरे नहीं आने की वजह मिथलेश दीदी का न होना है ।हालांकि पुष्पा जमुआर, मधु वर्मा, अनिल सुलभ सभी ने आग्रह पूर्वक बुलाया है।“
जिंदगी में जितना देखा हर चरित्र जो जैसा दिखा मुझे लगा उसके पीछे ढेरों कहानियाँ हैं। अवसाद ,पीड़ा ,जिंदगी से संतुष्टि और खुद के लिए जीने, पाने की चाह ।मेरी कई कहानियाँ इन सब की गवाह है।
इन कहानियों के जरिए अनगिनत पाठक मुझसे जुड़े। कभी तारीफों के पुलिंदे लिए, कभी आलोचना के, कभी बखिया उधेड़ते हुए तो मुझे लगता इस बहाने मेरा लेखन निखर तो रहा है। साथ ही मैं पाठकों से गहरे जुड़ती जा रही हूं और वे अब अधिक समय तक मुझे याद रखेंगे ।कहानियों में तो सभी कुछ का खाका खींचना होता। कहानियों के चरित्रों ने ही मुझे धर्मनिष्ठ समाज की कठोर मान्यताओं से मिलवाया ,दोहरे मानदंडों और आडंबरों से रूबरू करवाया ।मैंने अपनी कहानियों के जरिए समाज को खंगाला ।आंकड़ों को जुटाया और इसीलिए मेरे भीतर इस सब के विरुद्ध लावा सुलगने लगा। मेरा कट्टरपंथी समाज की मान्यताओं से विश्वास उठ गया और यही वजह है कि मैं पारिवारिक ,सामाजिक आयोजनों में रहना पसंद नहीं करती ।मेला उत्सव से भरी जगह मुझे कभी आकर्षित नहीं करती। शादी ब्याह में स्वयं न जाकर उपहार भेज देना मैंने अपने स्वभाव में शामिल कर लिया ।मैं इस सब से दूर प्रकृति से जुड़ने लगी। प्रकृति के रंग रहस्य मुझे संबोधित करते। प्रकृति ढोंगी नहीं है। निश्छलता से अपना सौंदर्य लुटाती है । बर्फीले पहाड़ मीलों फैले घने जंगल साफ शफ्फाक पानी से भरी नदियाँ, पारदर्शी झरने। इन सब में घूमते हुए मैंने पाया कि प्रकृति का अपना एक नशा है। जो धीरे-धीरे सुरूर देता है।
क्रमशः