आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (48)

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मॉरीशस से रामदेव धुरंधर श्रीलाल शुक्ल सम्मान लेने भारत आए थे। वे भोपाल आ रहे थे। उर्वशी के संस्थापक निदेशक और मेरे मित्र राजेश श्रीवास्तव उनके सम्मान में मेरे साथ मिलकर यानी विश्व मैत्री मंच के बैनर तले एक गोष्ठी रखना चाहते थे ।मैं भी खुश हो गई। 7 फरवरी मेरे ही निवास स्थान पर गोष्ठी का दिन तय हुआ।

गोष्ठी की बात जब राजुरकर राज जी को मिली तो उन्होंने मुझे फोन करके कहा कि” यह कोई घर में रखने वाली गोष्ठी है क्या? मॉरीशस से बड़ा साहित्यकार आया है ।दुष्यंत संग्रहालय में मैंने  उसी तारीख को गोष्ठी रखी है आप भी उसमें शामिल हो जाओ।”

मुझे बुरा लगना चाहिए था नहीं लगा। मैं कभी  किसी की बात का बुरा नहीं मानती। बस अपनी कोशिश करती रहती हूं।

यह 6 फरवरी की बात है ।शाम को धुरंधर जी का फोन आया “संतोष जी, गोष्ठी आपके घर पक्की है न।”

“जी आपको होटल से राजेश श्रीवास्तव जी पिकअप कर लेंगे।” बहरहाल आशातीत सफलता यानी की खूबसूरत शाम धुरंधर जी के साथ मेरे घर पर गुजरी। करीब 20 साहित्यकार शामिल हुए ।किताबों का आदान-प्रदान ,मॉरीशस के किस्से ,ढेर सारे अनुभव हमने शेयर किए ।समोसे बाहर से मंगवा लिए थे ।गुलाबजामुन मेंने खुद बनाए थे।

धुरंधर जी के संग मॉरीशस के कृष्णानंद सेवा आश्रम को भी हमने याद किया। जब मैं अक्टूबर 2004 में 24 वें समकालीन साहित्य सम्मेलन में मॉरीशस गई थी तो कृष्णानंद सेवा आश्रम में आयोजित साहित्य सम्मेलन के तीसरे अधिवेशन में मेरी मुलाकात रामदेव धुरंधर जी से हुई थी। एक-एक कर जाने कितनी बातें याद आ गई। कृष्णानंद सेवा आश्रम हैंडीकैप्ड रिटायर्ड लोगों और अनाथ बच्चों का आश्रम है जो पूरी तरह डोनेशन पर चलता है लेकिन भारत से गए हम 35 साहित्यकारों का भव्य स्वागत हुआ। वहां ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट की ओर से हारमोनियम पर कृष्ण के भजन गाये गए “बाजे रे मुरलिया हरे हरे बांस से बनी रे मुरलिया”

लंच में गोभी मटर की सब्जी, ककड़ी का रायता ,करारी पूरियां और भी बहुत कुछ ।खाया नहीं गया ।आँखें भर आई थी ।मुझे लगा जैसे मैं असहाय लोगों का हिस्सा खा रही हूं ।तब धुरंधर जी ने ही मुझसे खाने का आग्रह किया था ।

“खा लीजिए कृष्ण प्रसाद मानकर।” धुरंधर जी के मेरे घर से जाने के बाद भी मैं 2 दिन तक मॉरीशस की यादों में खोई रही ।प्रवासी साहित्य पत्रिका के संपादक राकेश पांडे ने मॉरीशस के हमारे संस्मरण की किताब भी प्रकाशित की थी जिसे पाठकों का काफी अच्छा प्रतिसाद मिला था।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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