आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (49)

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साहित्य अकादमी ने अनुदान देने के लिए 40 पांडुलिपियां चयन की थीं। जया केतकी, रेखा दुबे की किताब की भूमिका मुझे लिखनी थी। इसी समय आगरे से पूजा आहूजा कालरा और पूनम जाकिर भार्गव तथा अलका अग्रवाल की किताबों के लिए भी और अर्चना अनुपम ,काँता रॉय,जया केतकी,अर्चना नायडू की किताबों के लिए भी मुझसे भूमिकाओं का आग्रह किया गया।

अभी मैं पूरी तरह से मसल्स पेन से छुटकारा नहीं पा सकी थी लेकिन फिर भी मैं व्यस्त थी।

विदिशा से रेखा दुबे अपनी पाण्डुलिपि और अपनी अमराई के आंधी में टूटे आम लेकर घर आई। उसकी कविताओं का करेक्शन ,चयन आदि मैं दिन भर उसके साथ बैठी निपटाती रही। कविताएं मामूली थीं पर रेखा का जोश देखने लायक था। उसका पहला कहानी संग्रह था ।कहने लगी “संतोष दीदी प्रकाशक भी आप ही बता दीजिए न जो 1 महीने के अंदर किताब छाप दें।”

मैंने माया मृग जी से बात की तो वे सहर्ष तैयार हो गए। मायामृग का बोधी प्रकाशन है और वे प्रकाशन के काम में बेहद ईमानदार और दिए हुए समय में काम निपटाने वाले प्रकाशक हैं।

सोचती हूं दर्द में भी और शरीर की अशक्तता में भी मैं लेखन से कभी पीछे क्यों नहीं हटती। मुझे लगता है यह संसार बल्कि पूरा ब्रह्मांड मुझ में न जाने कहां तक फैला है। इसी फैलाव में खुद को खोजती रहती हूं ।लगता है सारे मौसम अपनी खुशबू  और हवाओं के संग मुझ से होकर गुजर रहे हैं । ओले,बारिश ,लू , ठिठुराती,झुलसाती, भिगोती मुझ में बार-बार बरस जाती है। ऋतुएं मौसम के उपहारों के रस, रंग गंध में हर क्षण महसूस करती हूं। मुझ में विस्तार पाते हुए जिंदगी कभी रुकी रुकी सी लगती है। कभी लुढ़कते पहियों पर सवार।

मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के पावस व्याख्यानमाला का रजत जयंती समारोह 27 ,28 और 29 जुलाई को आयोजित किया जा रहा है ।बड़ी भूमिका मिली है मुझे। 28 जुलाई के प्रथम सत्र का संचालन ।विषय मानववाद या चराचर वाद। मंच पर होंगे रमेश चंद्र शाह ,अंबिका दत्त शर्मा और केएन गोविंदाचार्य ।भोपाल के सबसे बड़े साहित्यिक समारोह में मैं अपनी भूमिका को लेकर बहुत खुश थी। मध्य प्रदेश राष्ट्रीय प्रचार समिति के मंत्री संचालक हमारे दादा यानी वयोवृद्ध कैलाश चंद्र पंत जी के मुझ पर भरोसे को मुझे सर्वश्रेष्ठ साबित करना था ।मैं उमंग और उत्साह में थी। तभी पंत दादा ने बताया कि 29 जुलाई को बंगाल के राज्यपाल महामना श्री केशरीनाथ त्रिपाठी तुम्हें सम्मानित भी करेंगे।

जिस जिस ने सुना बधाई दी। बधाईयों का तांता लग गया ।समारोह संबंधी मीटिंग में मुझे भी शामिल किया गया। अक्सर ऐसा होता है। बहुत सारी खुशियां एक साथ मिल जाती हैं या बहुत सारे दुख।

दुख इस बात का कि अभी 28 जुलाई का दिन आया भी नहीं और 20 जुलाई 2018 को मेरे प्रिय गीतकार गोपालदास नीरज का निधन हो गया।

वहीं पर ढूंढना नीरज को तुम जहां वालों 

जहां भी दर्द की बस्ती कोई नजर आये।

बेहद शॉकिंग न्यूज़ थी। जो खुद में कारवां था वह गुजर गया। याद आई मुंबई ।मुंबई का पाटकर हॉल जहां मुंबई की साहित्यिक संस्था परिवार द्वारा उन्हें पुरस्कार दिया जा रहा था। हमेशा की तरह रात 9:00 बजे कार्यक्रम शुरू हुआ। लेकिन हमेशा की तरह 12:00 बजे खत्म नहीं हुआ बल्कि रात 2:00 बजे तक चलता रहा। सभी श्रोता जोर-जोर से आवाज लगा रहे थे।

कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे। नीरज जी ने श्रोताओं की फरमाइश पर कई गीत सुनाए ।कार्यक्रम की समाप्ति पर मैंने उनके नजदीक जाकर कहा कि “अब मैं भी जबलपुर से मुंबई शिफ्ट हो गई हूं।“ वे बहुत खुश हुए। उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रखते हुए कहा

“ अब हम कवि सम्मेलनों में मिलते रहेंगे। “लेकिन नीरज जी जैसे ही बीमार पड़े लगने लगा जैसे देश से कवि सम्मेलन ही खत्म हो गए। नीरज जी के देहावसान ने कहां के कहां पहुंचा दिया। कई बार अतीत सुंदर यादों को दोहराता है या फिर बेजा घटनाएं दिमाग पर हावी हो जाती हैं ।

बहरहाल अब खबर प्यारी सी थी। स्वाति तिवारी ने मीडिया वाला पोर्टल शुरू किया जो सभी विधाओं में रचनाएं आमंत्रित कर ऑनलाइन पाठकों तक पहुंचाता है ।मेरा यात्रा संस्मरण भी मीडिया वाला कॉलम में प्रकाशित हुआ। लिंक खोलकर देखा तो मुग्ध हो गई ।बहुत खूबसूरत तरीके से प्रकाशित हुआ था संस्मरण। फेसबुक पर भी स्वाति तिवारी ने शेयर किया था। ढेरों लाइक्स और कमेंट्स मिले थे।

पावस व्याख्यानमाला भोपाल के लिए एक उत्सव जैसा है ।मध्य प्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की ओर से सभी भोपाल वासी साहित्यकारों से आर्थिक मदद लेकर यह तीन दिवसीय कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। मेरे पास कई मित्रों के फोन आए हम भी आ रहे हैं। सम्मेलन के बाद आपके घर कुछ समय बिताना चाहते है। चित्रा मुद्गल दी ने  फोन पर न आने की असमर्थता प्रगट की

“नहीं आ पाऊंगी संतोष, स्लिप डिस्क का जानलेवा दर्द है। पर तुम तीनों दिन अटेंड करना। पंत जी सुबह नाश्ते में इसरार कर करके सबको गरम जलेबी पोहे खिलाते हैं।”

बहुत शानदार आयोजन था। 28 जुलाई का मेरा संचालन भी सभी को बहुत पसंद आया ।सुखद अनुभूति थी मेरे लिए ।मंच पर मेरी बाजू वाली कुर्सी पर बैठे केएन गोविंदाचार्य जी बोले 

“भोपाल के लेखक न केवल ध्यान से सुनते हैं बल्कि लिखते भी जाते हैं।” भोपाल की साहित्यिक गंभीरता ने मुझे भी प्रभावित किया था।

29 जुलाई बंगाल के राज्यपाल केसरीनाथ त्रिपाठी द्वारा मुझे सम्मानित किया गया ।प्रतीक चिन्ह शॉल और पुष्प गुच्छ से ।इससे पहले महाराष्ट्र के गवर्नर ,मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के गवर्नर भी मुझे सम्मानित कर चुके थे।

मसल्स पेन रह-रहकर उठता रहता है। कभी इतना की पेन किलर भी असर नहीं करती है । हालांकि मैंने अपने एकाकीपन से समझौता कर लिया है पर हेमंत का जाना…….  बड़ी निर्दयता से एकाकीपन के अंधेरे ने मुझे दबोचा है ।वह मेरे जीवन पथ पर दीप की तरह जगमगा रहा था ।सब तरफ हलचल ही हलचल थी ।अब एकांत की पीड़ा है। यही तो मेरी त्रासदी है……. बस, अपनी मन की सत्ता में सिमट जाना ।आज ही तो है 5 अगस्त ,हेमंत की पुण्यतिथि ।आज ही के दिन तो हुआ था हादसा। जब दोनों शाम मिलने के सुरमई, सुनहले रंग रो पड़े थे। रो पड़ा था थमा हुआ वक्त। मेरा जीवन अंधेरों में तब्दील हो चुका था। 17 साल पहले अपनी 23 की उम्र की हकीकत लिख हेमंत 23 वर्ष की उम्र में अनंत में समा गया था।

आज भी वह दिन किर्चों सा चुभा है मेरे अंतस में।

उसने लिखा था 

बहुत खतरनाक है/ 23 साल का होना/तमाम लपटों की /संजीदा रोशनी/ लपेट लेती है/ इस उम्र की तल्ख हकीकत /और चढ़ा दी जाती है/ फांसी पर/ डर कर उसकी आंच से।

 हेमंत की यह कविता मानो उसके इस उम्र में चले जाने की दस्तक थी।

औरंगाबाद से हफ्ते भर के लिए प्रमिला आ गई थी। हम दोनों बहनों के बीच एक ही पुत्र हेमंत। हम डबडबाई आंखों से उसे याद करते रहे। बेंगलुरु, मुंबई, दिल्ली से ढेरों फोन….

फेसबुक पर हेमंत की पुण्यतिथि वाली पोस्ट पर ढेरों कमेंट्स, लाइक…… जानती हूं किसी के भी लिए हेमंत को भुला पाना कठिन है। वह शख्सियत ही ऐसी थी।

जब तक प्रमिला भोपाल में रही हम खूब बिजी रहे। लघुकथा शोध केंद्र में उसके लिए विशेष गोष्ठी का आयोजन किया गया। संचालन मेरा।

कहते हैं भोपाल में 90% साहित्यकार हैं बाकी 10% अन्य। आए दिन गोष्ठियां, लोकार्पण, नाटक, चित्र प्रदर्शनी, संगीत, नृत्य ,साहित्य से जुड़े कितने आयाम। अब धीरे-धीरे भोपाल मुझे पसंद करने लगा है।

वर्जिन साहित्यपीठ के ललित कुमार मिश्र जी ने साझा काव्य संकलन संपादित करने के लिए मुझ से अनुरोध किया ।मेरी शर्त थी कि कवियों और कविताओं का चयन मेरा होगा ।मैं सिर्फ अपने नाम पर संपादक का ठप्पा नहीं चाहती थी। उन्हें मंजूर था। मैंने चुनकर 16 कवियों से उनकी दस, दस कविताएं मंगवाई ।जो नहीं पसंद आई उनकी जगह दूसरी मंगवाई ।पूरी किताब मैंने खुद कंपोज करके प्रूफ पढ़कर कवर डिजाइन डिसाइड करके उन्हें भेजी ।किताब का नाम चिंगारी रखा। एक महीने बाद किताब ऐमेज़ॉन, गूगल, किंडल पर थी। अच्छे प्लेटफॉर्म मिले थे किताब को ।ऐमेज़ॉन में इसकी  कीमत ₹199 थी। जबकि पेपरबैक संस्करण ₹499 का। यही मेरा मतभेद हुआ उनसे। बहुत ज्यादा है कीमत। शिपिंग चार्जेस मिलाकर तो 600 तक की पड़ेगी। मिश्र जी का कहना था कि आप पेज भी तो देखिए,380 पेज की है किताब। बहरहाल पोथी प्रकाशन ने पेपर बैक छापा ।मेरी 30% रॉयल्टी तय हुई। किताब में प्रकाशित कवियों को भी 15% रायल्टी मिलेगी। किताब बहुत चर्चित हुई। अब मेरे हाथ में संपादन के लिए संस्मरण का साझा संकलन है।

हिन्दी भवन में वर्षा ऋतु को समर्पित वर्षा मंगल कार्यक्रम में मेरा कविता पाठ हुआ। कविता सुनाकर जब मैं मंच से उतर रही थी तो जहीर कुरैशी जी ने कहा “गजब कविताएँ आप तो गद्य लेखन छोड़कर सारा समय बस कविता को दो ।बेहतरीन कविताएँ हैं आपकी।”

जहीर कुरैशी भी ग्वालियर छोड़कर अब भोपाल शिफ्ट हो गए हैं। हमारी जान पहचान मित्रता ग्वालियर से है। जहीर कुरैशी जी की बात पर मैं कई दिन मंथन करती रही ।वे वरिष्ठ शायर हैं ।तो क्या मैं सच में कविता में उतर जाऊं ।कविताएं तो बचपन से ही छिटपुट लिखती रही हूं। पर छपने के लिए कभी वैसा प्रयास नहीं किया। जैसा करना चाहिए। इक्का-दुक्का छपती रही। नहीं जानती थी कि मुझ में मेरे ही संस्करण छिपे थे । अब वे उजागर हो रहे हैं ।दिखने लगे हैं । दीखते हैं तो मुझी पर फिसल गए वक्त का आरोप लगा देते हैं।

और जब मैं इन संस्करणों को, मूल्यवान संभावनाओं को पुन: तलाशती  हूं तो खुद को अपने नजदीक पाती हूं और ऐसा अक्सर होता है।

तो मैं अपनी कविताओं को इकट्ठा करने में जुट गई। सिलसिलेवार कभी लिखा नहीं ।कभी डायरी में लिख लेती, कभी पन्नों में ।जिन्हें मैं तहा कर इधर-उधर दबा देती और आजकल तो मोबाइल के नोटपैड पर भी लिखने लगी हूँ।   इकट्ठी की तो देखा करीब डेढ़ सौ कविताएँ हैं। इनमें से कुछ बेकार लगीं। कुछ को री राइट किया, काट छांट ,अपनी समझ से सुधार भी। एक सौ पांच कविताएँ ठीक लगीं। सोचा इन कविताओं पर किसी कवि से ब्लर्ब न लिखा कर कथाकार, पत्रकार से लिखवाया जाए। हरीश पाठक इस काम के लिए सहर्ष मान गए। मैंने उन्हें कुछ कविताएँ भेज दीं। किताबवाले पब्लीकेशन को पाण्डुलिपि भेज दी। किताब “तुमसे मिलकर “नाम से प्रकाशित होगी और वर्ष 2019 के विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में इसका लोकार्पण होगा ।हरीश जी ने भी ब्लर्ब भेज दिया ।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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