आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (53)

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जब भोपाल के लिए बोरिया बिस्तर बांधा था तो यह सोच कर चली थी कि जैसे पहले वानप्रस्थ आश्रम हुआ करते थे मैं भी वानप्रस्थ ले रही हूं ।नाते रिश्तों से पहले से ही विरक्त थी। दुनियादारी की समझ न थी और खुद के लिए कभी सोचा नहीं…….  तो भोपाल में यह जो मुझे फॉरेस्ट एरिया में फ्लैट मिला है यह भी मानो वानप्रस्थ का आवाहन ही है। मैं बस लिखूंगी और लिखूंगी ।

लेकिन भोपाल के साहित्यकार वर्ग ने मुझे वानप्रस्थ कहां लेने दिया ।जब भी सोचा कि मेरा यहां कोई नहीं भोपाल के लेखक साथ खड़े नजर आए ।और फिर मेरी वीरानियां को ,उदासियों को बूंद बूंद अपने प्यार से सोखकर मुझे जिसने अपनत्व दिया वह अंजना मिली ।अम्मा के सबसे चहेते छोटे भाई संतोष चद्र पंड्या की बेटी जिनके नाम पर चाचा जी ने मेरा नाम संतोष रखा था । मेरा नाम रखने का वह एक ऐतिहासिक दिन था क्योंकि ऐसा किसी के साथ नहीं हुआ होगा।

भोपाल में उसका होना मेरे लिए वरदान है मेरी छोटी बहन, मेरी मित्र, मेरी केयरटेकर

…….. देखती है चेहरे पर उदासी तो थिएटर ले जाती है ।गहन अवसाद में मांडू, महेश्वर, ओंकारेश्वर ,उज्जैन । दो दिन संग संग …..दुनिया को भूल हम अपने में मगन…… 

मैंने उन कुछ धूप के टुकड़ों को संभाल कर रखा है जिन्होंने मेरी जिंदगी को ताप दिया । हिमशिला होने से बचाया ।उनमें से एक टुकड़ा धूप का अंजना है। तो मैं जो खुद को भूलने लगी थी ।अब याद करने लगी हूं। अब मुझ में समाया कुछ बाहर आया है। जिसमें मैं बहने लगी हूं ।यह बहाव जाने कितने समंदर बह जाने को उतावला है।

मुझे पता है मेरे गुजरे वक्त ने पीड़ाओं ने कमियों ने ,गलतियों ने ही मुझे मेरे लक्ष्य से परिचित कराया है ।मेरा लेखन उन सभी को समर्पित है जो मेरी जैसी वेदना से गुजरे हैं।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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