आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (10)

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हमने लोन लेकर विरार में टू बेडरूम हॉल किचन का खूबसूरत घर खरीदा। अपनी पसंद का फर्नीचर बनवाया। जहाँ बेडरूम की खिड़कियां खुलती थीं वहाँ की जमीन पर बगीचा लगाया। घर बहुत सुविधाजनक था। पांच मिनट के वॉकिंग डिस्टेंस पर रेलवे स्टेशन था। जहाँ से ट्रेन चर्चगेट जाती थी। मैं स्कूल के लिए सुबह 6:30 की ट्रेन लेती थी। प्रमिला वर्मा संझा लोकस्वामी के लिए थोड़ी देर से निकलती थी। क्योंकि उसका घर परिवार औरंगाबाद में था वह नौकरी के कारण मेरे साथ ही रहती थी ।उन दिनों जिंदगी खट्टे मीठे पड़ाव से गुजर रही थी ।
1998 में ही विजय वर्मा मेमोरियल ट्रस्ट की स्थापना हम कुछ मित्रों आलोक भट्टाचार्य ,नंदकिशोर नौटियाल, प्रमिला वर्मा और तेजेंद्र शर्मा ने मिलकर की। जिसके तहत प्रतिवर्ष “विजय वर्मा कथा सम्मान” आयोजित करने की योजना बनी।  समाज ,साहित्य ,रंगकर्म और पत्रकारिता को समर्पित, फिल्मों तथा धारावाहिकों में अपनी आवाज देने वाले मात्र 48 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कहने वाले विजय वर्मा की स्मृति में इस प्रकार के प्रस्ताव पर मुंबई के लेखकों ने स्वीकृति की मुहर लगाई। स्पॉन्सरशिप लोकमंगल के अध्यक्ष रामनारायण सराफ जी से मिली ।लोकमंगल मुम्बई की सराफ बंधुओं द्वारा स्थापित ऐसी संस्था है जो साहित्यकारों की मदद पुस्तक प्रकाशन, लोकार्पण, पुरस्कार आदि के लिए करती है। पुरस्कार के संयोजक भारत भारद्वाज (दिल्ली) थे ।निर्णायक काशीनाथ सिंह( बनारस) विभूति नारायण राय (इलाहाबाद अब दिल्ली में निवास )और सूर्यबाला (मुम्बई) थे। विजय वर्मा मेमोरियल ट्रस्ट को रजिस्टर्ड कराने के लिए चैरिटी कमिश्नर के कार्यालय के कई चक्कर लगाने पड़े। इसकी डीड नूतन सवेरा के ऑफिस में बैठकर हमने तैयार की। शपथ लेने कोर्ट भी जाना पड़ा ।यह एक लंबा और थकाने वाला प्रोसेस है। लेकिन जब संस्था की सर्टिफिकेट और पैन कार्ड हाथ में आए तो हम इतने दिनों की थकावट भूल गए।
पहला पुरस्कार कानपुर के प्रियंवद को दिया गया ।पूरे मुंबई के साहित्य वर्ग ने इस पुरस्कार के प्रबंधन में हिस्सा लिया ।लोकमंगल ने मालाड स्थित अपना सभागार सराफ मातृ मंदिर कार्यक्रम के लिए दिया। धीरेंद्र अस्थाना ने अपने भयंदर स्थित घर में प्रियंवद को ठहराया । तेजेन्द्र शर्मा और मैं प्रियंवद को रिसीव करने वीटी स्टेशन गए। भयंदर स्टेशन पर देवमणि पांडे ने उन्हें रिसीव कर धीरेंद्र जी के घर पहुंचाया । स्मारिका भी निकालनी थी, निमंत्रण पत्र भी छपने थे। स्मारिका के सारे प्रूफ मैंने और प्रमिला ने रात रात भर जागकर पढ़े। सैलानी सिंह ने स्मारिका के प्रकाशन का जिम्मा लिया।बाहर के कामों का हेमंत ने…….  सब में गजब का उत्साह । हम बस काम में जुटे रहते। थकना भूल गए थे।
समारोह के एक दिन पहले मेरे घर गेट-टू-गैदर था ।कार्यक्रम अध्यक्ष जगदंबा प्रसाद दीक्षित और मुख्य अतिथि निदा फ़ाज़ली सहित निकटतम मित्रों ने उस शाम और देर रात तक मेरे घर को गुलजार रखा। समारोह भी बहुत गरिमामय ढंग से संपन्न हुआ। लगा जैसे महीनों की हमारी मेहनत सफल हुई है।
उन्हीं दिनों मैंने और प्रमिला ने संयुक्त उपन्यास उपन्यास लिखने का सोचा। पुरस्कार के कार्यों से फुरसत पाकर हम दोनों इस उपन्यास के लेखन में जुट गए। इसमें कुल 16 अध्याय हैं। 8 प्रमिला वर्मा ने लिखे, 8 मैने। शुरुआत मैंने की ।अंत उसने। तय हुआ कि बगैर किसी पूर्व रूपरेखा के हम अध्याय लिखेंगे। हम दोनों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती थी। दोनों की नौकरी मुंबई की दूरियां और उपन्यास अपने कलेवर सहित सामने ।लिखो….. लिखो ….मगर कब ?
रात 10 बजे खाने से निपट कर हम अपने अपने कमरों में बंद हो जाते। जिस रात अध्याय पूरा होता सुबह एक दूसरे को पकड़ा देते। मैं प्रमिला के लिखे अध्याय को विरार से ग्रांट रोड तक की सवा घंटे की दूरी तय करती लोकल ट्रेन में पढ़ती। इस उपन्यास की नायिका रेहाना थी। जिसे उसके परिवार के लोग रन्नी कहते थे और बच्चे फूफी। तो जब रेहाना का वजूद गढ़ा जा रहा था तब हेमंत के बन चुके करियर में बस एक इजाफा होना था उसकी नौकरी का। मैं अपने आगत के सुख से लबालब भरी थी जो अपने 23 वर्ष के संघर्ष के पश्चात हेमंत को निखार कर मुझे अब हासिल होने वाला था और मैं रेहाना को जी रही थी। उसने मुझे सोने न दिया ।अक्सर गहरी नींद से उठा देती ।लोकल ट्रेन में सफर करते हुए, क्लास में लेक्चर देते हुए, साहित्यिक गोष्ठियों में बोलते हुए, घर में खाना पकाते हुए वह मुझे टहोका मारने से बाज नहीं आती। पूरे डेढ़ साल उसने मेरा जीना हराम कर रखा था। मेरा पूरा घर रेहाना मय हो गया था। हेमंत हर एक अध्याय मांग मांग कर पढ़ता। कभी अध्याय पूरा नहीं हो पाता तो वह अधूरा ही लेकर बिस्तर पर लेट कर पढ़ने लगता। रेहाना ने कई बार मेरे बेटे को अपनी पीड़ा से रुलाया है। ऐसा लग रहा था जैसे हम इस उपन्यास को लिखने के दौरान कठिन साधना से गुजर रहे हैं।
कभी-कभी तो मैं लेखन के चिंतन में ऐसी खोई रहती कि अपना होश नहीं रहता और बिना मैचिंग के कपड़े पहने स्कूल चली जाती। कितना कठिन समय था इस सृजन काल का। मरीन लाइंस स्थित एसएनडीटी विश्वविद्यालय की नेपाली छात्रा मनीषा मेरे कथा संग्रह ” बहके बसन्त तुम पर “डॉ माधुरी छेड़ा के मार्गदर्शन में एमफिल कर रही थी ।अपने सवालों को लेकर वह विरार दौड़ी आती। हालांकि उसके लघुशोध में हेमंत ने उसकी बहुत मदद की। वह हेमंत पर बहुत हद तक फिदा भी थी ।अंतिम अध्याय में रेहाना की मृत्यु निश्चित थी जिसे लिखते हुए हमारे दिल हिल गए थे और हम सचमुच रोये थे। इस उपन्यास के एक-एक पात्र को सजीव जीते हुए हम एक नए और कल्पनातीत अनुभव से गुजर रहे थे ।आखिर उपन्यास पूरा हुआ और प्रकाशन के लिए पांडुलिपि यात्री प्रकाशन में श्रीकांत जी को भेज दी। श्रीकांत जी ने उपन्यास के पहले पेज के लिए प्रकाशकीय  लिखा –
“उपन्यास विधा के विस्तृत परिसर में यह उपन्यास अपनी खास पहचान के साथ दाखिल होता है। कुछ वर्षों में छपे तमाम उपन्यासों से हटकर सीधी सरल और रोचक भाषा में संयुक्त रूप से लिखा गया यह उपन्यास अपने अभिनव प्रयोग के कारण हिंदी साहित्य में एक नया मोड़ लेकर दाखिल होता है ।संतोष श्रीवास्तव और प्रमिला वर्मा ने अपने लेखन के ढंग को कायम रखते हुए इसे इस तरह लिखा है कि कहीं तारत्म्य  नहीं टूटता। पाठक को यह एहसास ही नहीं होगा कि कब एक लेखिका का बयान दूसरी लेखिका की लेखनी के साथ जुड़ गया। जबकि सच्चाई यह है कि दोनों के लेखन की साहित्यिक पहचान भिन्न-भिन्न है। इसके पहले ये अभिनव प्रयोग राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी एक इंच मुस्कान में कर चुके हैं और अब इन दोनों लेखिका बहनों का उपन्यास हवा में बंद मुट्ठियाँ इस दिशा में महत्वपूर्ण है।

क्रमशः

लेखिका – संतोष श्रीवास्तव

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