उमचन सी कसी जाती है – प्रज्ञा पांडे

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Pragya Pandey copy

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उमचन सी कसी जाती है
.भिगोकर बुनी जाती है
जितना हों सके खीचकर तानकर
जाती है बनायीं
उधेड़ दी जाती है आसानी से
औरत
बसखट की तरह होती है . .
कोई जगह नहीं मुकम्मल .
.कहीं भी जाती है .. बिछायी
.एक जगह से दूसरी जगह मांग ली जाती है
जिसकी होती है उसकी मर्जी बड़ी होती है
..दालान में ओसार में
दुआर पर खलिहान में मडई में
घर में कहीं भी पड़ी होती है .
धूप से आंधी पानी से जाती है बचाई
चलेगा बसखट के बिना कैसे काम
नींद कहाँ आएगी कैसे आयेंगे सपने
.जितनी पुरानी
उतनी नरम होती है
औरत बसखट की तरह होती है
आसान
हर बार खोली और बुनी जाती है
उमची जाती है कसी जाती है

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