उम्मीद की छाँव में – पूनम तिवारी
उम्मीद की छाँव में
हाथ में पकड़ी डिग्रियों की फाइल, जिसे सुबह से थामे-थामे हाथ अकड़ चुके थे अचानक ही रद्दी लगने लगी। जी चाहा कि सामने पान की दुकान से माचिस मांगकर डिग्रियाँ स्वाहा कर उसकी राख से अपने चेहरे पर कालिख पोत कर स्वयं भी स्वाहा हो जाऊँ लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं किया और न ही कर सकता था क्योंकि मैं कायर नहीं हूँ। बस चलता जा रहा था।
घर पहुँचने का ध्यान आते ही कदम डगमगाने लगे माथे पर पसीना और सांसें कुछ ऐसे चलने लगीं मानों मैं अपनी सामान्य गति में नहीं बल्कि तीव्र गति में दौड़कर आ रहा हूँ। पिता की घूरती आँखें और माँ की मासूम उम्मीद, बहन की आँखों में विवाह के पलते सपनों का ख्याल आते ही मेरे अन्दर का डर मुझसे सवाल करने लगा कि जा तो रहे हो घर, कैसे नजरें मिलाओगे घर वालों से ? अपने डर को ज्यादा सिर नहीं चढ़़ाना चाहता। डर लगातार मुझपर हावी होने की कोशिश कर रहा था।
मैं जानता हूँ मेरी जिन्दगी कीमती है। मेरे बूढे़ माँ बाप मेरी बाट जोह रहे हैं। मैं कमजोर नहीं मैं हालात से लड़ना जानता हूँ। रात के बाद सुबह अवश्य होती है। मैने पैण्ट की जेब से रूमाल निकाला। माथे पर चुचवा आयीं पसीने की बूँदों को पोछा। अपने को समझाने के लिए हमेशा एक वाक्य बोलता हूँ ईश्वर बड़ा दयालु है, सबकी सुनता है एक दिन मेरी भी सुनेगा। सांसों की गति भी सामान्य हो गयी। कदम स्वतः ही तेज हो गये।
भूख के कारण पेट में चूहे कबड्डी खेल रहे थे। जानता हूँ घर पहुँचते ही चूहे भी हारे हुए खिलाड़ी की भाँति एक किनारे दुबक जायेंगे। यार ये हलवाई की दुकान भी हर दूसरे नुक्कड़ पर सजी हुई दिख जाती और यहाँ की खुशबू पैरों में ब्रेक लगा देती है। गर्मागर्म समोसे और गुलाबजामुन देखकर एकाएक हाथ जेबें टटोलने लगा। जानते हुए भी कि सूखाग्रस्त शहर की हालत जैसा मेरी पॉकेट का भी हाल रहता है।
मैं सोचने लगा यार ये कागज भी क्या कमाल की चीज है। जिस पर लिखा पढ़ा विद्या हो जाता है। और बापू की तस्वीर समेत रंग-बिरंगे कागज के टुकड़े लक्ष्मी का रूप ले लेते हैं। और जिन पर ये लक्ष्मी मेहरबान मानो दुनिया की सारी खुशियाँ मेहरबान, सच कितने फीके लगते हैं अपने आस पास बिखरे सारे रंग, आसमान का इन्द्रधनुष भी रंगहीन लगता है। काश लक्ष्मी का अविष्कार न हुआ होता कितना अच्छा होता धन के आधार पर व्यक्ति के छोटे-बडे़ होने का पैमाना न होता।
शुरुआती दिनों में जब नौकरी के लिए निकलता था तो घर का माहौल और घरवालों के चेहरे की खुशियाँ देखते ही बनती थीं। पिताजी अपनी मोटर साइकिल मरे वास्ते छोड़कर स्वयं रिक्शे से चले जाया करते थे। माँ दही पेड़ा खिलाना कभी नहीं भूलती थीं। गृह खर्च से बचाये सौ-पचास रुपया यह कह कर पकड़ातीं।
“रख ले बेटा। लौटने में देर हो जाये तो बाहरी कुछ खा लेना।” धीरे धीरे इण्टरव्यू का वह जोश, उत्साह शिथिल पड़ने लगा। घर वालों की शुरुआती बेसब्री, जो परिणाम जानने की रहा करती थी। अब वह पक्षी के भीखे पंखों सी दिखायी पड़़ती न कि उड़ते चहचहाते पक्षी की भाँति।
यादें भी कितनी जिद्दी होती हैं बिना बुलाये इर्द गिर्द घूमती रहती हैं। मुझे एकाएक अपनी दसवीं का परीक्षा परिणाम निकलने वाला दिन भी याद हो आया। यू0 पी0 बोर्ड के अस्सी प्रतिशत क्या महत्व रखते हैं। ये तो मुझे अस्सी प्रतिशत प्राप्त होने के बाद ही पता लगा। घर पर सत्यनारायण की कथा और भोज भी हुआ। घर पर अपना लाड़-प्यार देख मुझे राजकुमार जैसा अहसास होने लगा। माँ और पिताजी दोनों को ही शेखी बघारने का एक अच्छा बहाना हाथ लग गया था सिलसिला रुका नहीं। इण्टरमीडिएट के परीक्षा का परिणाम फिर बी0 ए0, एम0 ए0 जी आर एफ, पी एच डी गोल्ड मेडलिस्ट होने का भी तमगा सज गया।
जी0 आर एफ का पैसा मिलने के दौरान मैं तो पूरी तरह भूल ही गया था कि यह मिलने वाला पैसा अस्थाई है न कि स्थाई। कार्तिक माह की गुनगुनी धूप सा अपना वर्तमान, भविष्य के लिए कभी चिन्तित ही नहीं हुआ घर परिवार में स्नेह की छटा बिखरी रहती और बाहर भी इज्जत काबिल हो चुका था। रिश्ते के दूर के चाचाजी की आवाज से अतीत की सुखद स्मृतियों से मैं अपने कंटीले वर्तमान में लौटा।
“चिराग। अरे कौन सी दुनिया में खोये हो बेटा! और इस तरह पैदल ? आओ गाड़ी में बैठो।” मैं अपने विचारों में इस कदर उलझा हुआ था कि चाचा जी ने कब अपनी कार मुझसे सटाकर लगा दी देख ही नहीं पाया। और न चाहते हुए भी उनकी आज्ञा की अवहेलना न कर सका उनकी कार में बैठ गया। अब मुझे लोगों का एक जुमला भयभीत करने लगा है। “आजकल क्या कर रहे हो ? कुछ काम धन्धा मिला।” मैं इन्तजार में था कि चाचाजी भी इसी प्रश्न पर आने वाले हैं। सड़क पर भीड़ अधिक थी। अभी उनका पूरा ध्यान गाड़ी चलाने में था।
“कहाँ जा रहे थे ?” भीड़ कम होते ही सवाल किया।
“चाचा जी घर जा रहा था। बस यही उतार दीजिए।” मैने गाड़ी मोड़ पर ही रोकने को कहा।
“अरे बेटा तुम्हें छोड़ने के बहाने ही भइया भाभी से मिल लूँगा। महीनों से सोच रहा हूँ लेकिन व्यस्तता के चलते समय नहीं निकाल पाता। भइया तो घर पर ही होंगे न ?” चाचा जी ने गाड़ी घर की ओर मोड़ते हुए पूछा।
हाँ हाँ घर पर ही होंगे, बाहर बहुत कम निकलते हैं।” मैने अनमने मन से कहा। सच तो यह था कि मैं बिल्कुल नहीं चाह रहा था कि चाचाजी घर चलें। उसका कारण, उनके दोनों बेटे जो काफी अच्छे पैकेज के साथ अच्छी कम्पनी में कार्यरत हैं। चाचाजी पिताजी से जब भी मिलते हैं लम्बी लताड़नी चले जाते हैं। पिताजी हफतों के लिए विचलित हो जाते हैं। काश मेरी औलाद भी ऐसी निकलती यह सुनाकर माँ को भी परेशान करते हैं।
मानसिक अशान्ति एक साथ कई बीमारी को जन्म दे देती है। ऐसा अकसर सुना करता था लेकिन जब अपने घर देखा तो सत्यता प्रमाणित भी हो गयी। माँ की चिन्ता ने उन्हें डायबिटिक बना दिया था और पिताजी हार्ट पेशेन्ट हो गये। महीने की पहली तारीख को पिताजी बैंक के लिए तैयार हो जाते उसी दिन बाइक में पाँच लीटर तेल भरवाते और महीने भर छुट्टी कर देते। पहले वह स्वयं ही बैंक आकर पेन्शन ले आते थे। जबसे बीमार हुए तब से माँ उन्हें अकेले नहीं जाने देती।
पेन्शन के लिए बैंक जाते वक्त रास्ते में जाम में फंसे धूप अपनी पूरी जवानी पर थी और सबके सिर चढ़के नृत्य कर रही थी। पिताजी का बूढ़ा शरीर धूप की जवानी बर्दाश्त न कर सका। वे कब बाइक में बैठे बैठे ही एक ओर सरक कर मूछ्रित हो गये। मैं इस बात से अन्जान भीड़ से बाहर निकलने का इन्च इन्च जगह बनाने के प्रयास में लगा था। पीछे से तीव्र आवाज में एक साथ कइ्र स्वर गूँज उठे।
“रुककर भई रुकककर….।” पीछे से किसी लड़के की आवाज आयी। “अरे देखो। तुम्हारे पीछे बैठे बुढ़ऊ गिर गये।” मेरी ही तरह भीड़ में फंसे एक रिक्शे वाले के बताते ही मैने पीछे पलटकर देखा बुरी तरह घबरा गया। कई लोग एक साथ दौड़ पडे़ पिताजी को सहारा देकर उठाया। अच्छा बुरे का रेशियो बराबर ही होता है। एक कार वाले मिले व्यक्ति ने पिताजी को नर्सिंग होम पहुँचा दिया।
मोबाइल था मेरे पास लेकिन मैं फोन नहीं कर सकता था। जीरो बैलेन्स के कारण मैं किसी को मिस भी नहीं दे सकता था। तीस साल की उम्र में पिता के आगे हाथ फैलाने से अपने आपको किस कदर दयनीय समझता शायद बयां करना मुश्किल होगा। माँ मेरी इस पीड़ा को मूक रहकर समझती। हर स्थिति में असहाय की भाँति उनकी जुबां से नहीं बल्कि आँखों से उनके भीतर के दर्द को अपने लिए महसूस करता।
नर्सिंग होम में बिना पच्ची हजार के पिताजी को एडमिट करने को तैयार नहीं थे। ए टी एम कार्ड तो था किन्तु पिताजी ने कभी भी उसका कोड़ बताने की जरूरत नहीं समझी थी। यहाँ हम जैसों की सुनने वाला कोई नहीं था। मैं चाहता तो अस्पताल को फोन करके चाचा मामा किसी को भी बुला सकता था। यह भी जानता था कि हाथों हाथ पैसा तो मिल ही जायेगा साथ ही उनका अस्पताल में कोई सोर्स भी लग जायेगा। किन्तु मदद के नाम से कोई भी कुछ भी करेगा। सिर पर अहसान अवश्य लाद लेगा।
सरकारी अस्पताल में पिताजी को जाकर एडमिट कर दिया। माँ को भी फोन द्वारा सूचित कर दिया। पिता की पॉकेट में मात्रा पाँच लीटर पेट्रोल का पैसा था जिससे बाइक में पेट्रोल भरवाना था। सरकारी अस्पताल में अभी मात्रा एक ग्ूलकोस की बोतल का पैसा माँगा गया था जो मेरे पास था। अब मैं ईश्वर से पिताजी के होश में आने की प्रार्थना कर रहा था। आई0 सी0 यू0 में सिर्फ एक व्यक्ति को जाने की इजाजत थी सो माँ पिताजी के पास। परिवार में अपनी भूमिका आज पहली बार कितनी मुख्य हैं यह समझ पाया था।
डाक्टरों ने पिताजी के पैर में ऊपरी तौर पर पेसमेकर फिट कर दिया था। यह कौन सा उपचार चल रहा है। मेरी सीधी साधी माँ को कुछ समझ नहीं आया और न ही उन्होंने डाक्टर से कुछ पूछने की हिम्मत जुटाई। पिताजी उस वक्त होश में नहीं थे। डाक्टर के अनुसार सांस लेने में भविष्य में काई दिक्कत न हो। इसके चलते पेसमेकर आवश्यक हो गया था। इस पर होने वाला खर्च डेढ़ लाख के करीब था। खर्च पिताजी फिर से मूर्च्छित होने लगे। सिर हिलाकर इन्कार किया। धनाढ्य लोगों के लिए ये एक बहुत छोटा खर्च था किन्तु मेरे पिताजी द्वारा ईमानदारी से कमायी हुई एक बड़ी रकम थी। जो पिताजी ने मुन्नी के विवाह के लिए पाई-पाई करके बचायी थी।
सरकार अस्पताल में अन्य मरीजों के परिजनों की अपेक्षा मुझे अपनी स्थिति काफी बेहतर लगी। वहाँ कुछ मरीज ऐसे भी थे जो पिछले दो तीन सालों से गिरकर बेहोश हो जाया करते थे। लेकिन धनाभाव के कारण इलाज कराने में असक्षम थे। ऐसे ही एक पिता की बीमारी से परेशान उनकी दोनों बेटियों को अकेले इधर से उधर भटकते देखा तो मुझसे रहा नहीं गया मैने उनसे पूछा।
“आप लोगों के साथ कोई और नहीं है क्या ?” मेरे इतना पूछते ही उसकी आँखें डबडबा आयीं, कुछ देर अपने काम में यूँ लगी रही जैसे मुझे उसने सुना ही न हो। शायद डाक्टर द्वारा दिया कोई फार्म भर रही थी। कुछ देर पश्चात बडे़ ही दयनीय भाव से मेरी ओर देखा फार्म पर उंगली रखते हुए पूछा।
“यहाँ पर क्या भरना है।” मैने बिना कुछ बोले उससे फार्म ले लिया और भरका उसे दे दिया। फार्म से पता लगा उसके पिता को भी पेसमेकर लगना था। आपरेशन के पहले वर्ग फामेलटी पूरी हो रही थी। पिता के ओटी में जाते वक्त वह फफक पड़ी। बहन उसे चुप करा रही थी। वहाँ उपस्थित अन्य लोगों ने भी समझाने का प्रयास किया किन्तु वह एक कोने में खड़ी रोती रही। वह मेरी कोई नहीं लगती थी मैं उससे पहले कभी नहीं मिला था। उसके रोने में दर्द र्था मैं भी कई बार रोकर अपने दर्द को पिघलाता हूँ। मर्द हूँ इसलिए एकान्त अकेला कोना ढूँढ़ता हूँ।
बचपन में बच्चा किसी के सामने भी चिंघाड़ मारकर रो सकता किन्तु वही बच्चा बड़े होकर अपनी माँ से भी अपने आँसुओं को छुपाता है। बचपन में अनुचित गैर जरूरी वस्तु के लिए भी बच्चा सिर पटक कर अपनी जिद पूरी करवा लेता है। बड़े होने पर आवश्यक वस्तु के लिए भी बोलने में संकोच दबोच लेता है।
उसका रोता हुआ चेहरा बहुत मासूम लग रहा था। कुछ ही देर में महसूस हुआ मैं उसकी ओर खिंच रहा हूँ। लड़की निःसंदेह खूबसूरत थी। उससे ज्यादा उसका दिल, मुझे डर लगा इसकी बाह्य और आन्तरिक दोनों ही सुन्दरता मुझपर भारी न पडे़, कहीं मैं इससे प्यार न कर बैठूँ। मैं वहाँ से उसके पास से हटकर दूर आ गया।
बहन द्वारा उसके रोने का कारण पता चला पिता के आपरेशन के लिए गाँव की जमीन का कुछ हिस्सा बेचकर खर्च का प्रबन्ध किया गया था। मैने ईश्वर से उसके लिए दुआ की कि उसे कोई ऐसा घर मिले जहाँ जाकर वह मायके के सारे गम भूल जाये! मेरे अपने हालात् किसी भी लड़की का भविष्य मेरे साथ जोड़ने की इजाजत नहीं देते। मेरे जज्बात मेरे साथ होते हैं किन्तु मैं कभी जज्बाती नहीं होता।
पिताजी को मैं और माँ समझा-समझाकर थक गये तो वे किसी भी तरह सुनने को तैयार नहीं थे। हमेशा लोगों से सुनता हूँ जब पिता का जूता बेटे के पैर में आने लगे तो बेटा पिता का दोस्त हो जाता है। मेरे लिए ये सिर्फ सुनी सुनायी बात है। मेरे पिताजी मुझसे कभी भी कोई राय-सलाह नहीं करते शायद पिता का दोस्त बनने के लिए उनके ऊपर लदा आर्थिक भार भी कम करना पड़ता होगा। भार कम करने के बजाय मैं स्वयं उनपर बोझ बना हुआ था।
पिताजी को पेसमेकर लगवाने को तैयार करना था इसके लिए चाचाजी और दो अन्य पिताजी के मित्रा जिनकी हर बात पिताजी को मान्य होती है। आज के समय में उसी की सुनी जाती है जिसके पास धन का बल है वही सामथर््यवान है। उनके बच्चों को मेरी तरह बेरोजगार नहीं रहना पड़ता है। गोल्डमैडलेस और पी0 एच0 डी0 इन सबके बावजूद मुझे सात लाख रुपयों का प्रबन्ध करना था। यदि प्रबन्ध हो जाता तो आज मैं भी युनिवर्सिटी में प्रोफेसर होता और अपनी शेखी दिखा रहा होता। मेरे दोस्त के पिताजी ने अपनी सेवानिवृत्ति के पश्चात पी0 एफ0 गेजुएटी का मिला हुआ धन अपने बेटे की नौकरी के लिए रिश्वत के रूप में दे दिया।
मेरे पिताजी ऐसा बिल्कुुल नहीं कर सकते थे। क्योंकि वे दो अविवाहित बेटियों के पिता थे। ये हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जहाँ दहेज रूपी दानव और भ्रष्टाचारी राक्षस मुँह फाडे़ निगलने को तैयार रहते हैं।
आपरेशन छोटा हो या बड़ा मरीज के अन्दर एक भय अवश्य होता है। ओ0 टी0 के अन्दर जाते वक्त पिताजी ने मेरा हाथ जोर से दबा दिया। इसका आभास यानि अपने अन्दर के डर का अहसास होते ही पिताजी ने एक ओर सिमटी खड़ी माँ की ओर अपनी फीकी हंसी के साथ साहसी होने का परिचय देते हुए स्टेªेचर पर लेटे-लेटे हाथ हिलाया। माँ ने भी अपनी रोनी सूरत के साथ हाथ हिला दिया और पिताजी का स्टेªचर ओ0टी0 के अन्दर चला गया। मैने माँ के कन्धों को पकड़ कर उन्हें आश्वस्त किया। मुझे सही मायने में अपने होने का अहसास आज हो रहा था। सच बताऊँ मुझे अपने अन्दर एक अनजाना भय महसूस हो रहा था। किन्तु बड़ी सफाई से उस अपने भय को माँ और बहनों से छिपा रहा था।
इतना लम्बा समय कभी अस्पताल में नहीं गुजारा था। यह मेरी जिन्दगी का पहला अनुभव था। पिताजी के आई0 सी0 यू0 में रहने की वजह से कोई कमरा नहीं मिला था। माँ आई0 सी0 यू0 में रहने की वजह से कोई कमरा नहीं मिला था। माँ आई0 सी0 यू0 में पिता जी के करीब रहती और हम सबको बाहर अस्पताल के परिसर में दिन गुजारना पड़ता। सेवा के लिए माँ का अन्दर होना जरूरी था ऐसा नहीं था कि हम भाई-बहन पिताजी की सेवा नहीं कर सकते थे किन्तु उनके तेज मिजाज और तीखी जुबान के कारण उनके पास अधिक देर बैठना कुछ मुश्किल ही होता, खास तौर से मेरे लिए।
आपरेशन मात्रा पैंतालीस मिनट का था। आपरेशन के दौरान मैं पूरी तरह आशंका और भय की गिरफत में रहा। जानते हुए भी कि आशंका से भय उत्पन्न होता है। पिताजी के सकुशल ओ0 टी0 के बाहर आते ही मेरे अन्दर के भय ने निश्चिंतता का स्थान ले लिया। हर जगह से न-न सुनकर मेरी सकारात्मकता समाप्त हो चुकी है। माँ की हर बात से मुझे जीने के लिए बल मिलता है। जब भी मेरा आत्मबल डगमगाता है मन घबराता है मैं माँ के घुटनों में अपना सिर रखकर बैठ जाता हूँ। वह कहती हैं। संकल्प सदैव दृढ़ होने चाहिए। व्यक्ति को आशंकाओं से दूर रहकर प्रगति के सोपान तक पहुँचना आसान होता है जबकि आशंका से घिरा अविवेकी गिरने के भय से आगे नहीं बढ़ पाता।
रात्रि के एक बज रहे थे। अस्पताल की लॉबी में मैं सोने का प्रयास कर रहा था। अभी नींद पूरी तरह आयी नहीं थी। झपकी मात्रा ही लगी थी कि दो लोगों की वार्ता से झपकी टूट गयी, कान स्वतः ही चौकन्ने हो गये।
“तुम्हें तुम्हारा जितना हिस्सा अभी तक मिलता आया है। उतना ही मिलेगा।” डाक्टर सचान अपनी बात समाप्त कर आगे चल दिये उनके साथ खड़ा युवक जो कुछ संदिग्ध सा दिख रहा था जिसपर मेरी नजर पहले से ही थी। पिछले कई दिनों से मैं उसकी गतिविधियाँ देख कर रहा था। उसके साथ हर रोज एक नया मरीज होता जो दिखने में गरीब लाचार मजदूर सा लगता। युवक डाक्टर साहब के पीछे तेजी से लपका और पास पहुँचते ही अपनी बात बहुत धीमी आवाज जिसे सुनने के लिए मेरे कानों को अपना जोर लगाना पड़ रहा था।
“डाक्टर साहब। फिफटी-फिफटी न सही कम से कम साहब फोर्टी-सिक्सटी तो रखिये। साहब कितना रिस्की काम है कितने पापड़ बलने पड़ते हैं। जरा भी इधर-उधर हुआ तो जान पर बन आयेगी।” युवक अभी अपनी बात समाप्त भी नहीं कर पाया था। वह हाथ जोडे़ डाक्टर के पीछे पीछे कुछ समझाने का प्रयास कर रहा था। इस बार आवाज इतनी धीमी थी कि मैं सुन नहीं सका। डाक्टर साहब उसकी बात पूरी तरह अनसुनी करते हुए ओ0 टी0 में चले गये। युवक निराश सा अपने कदमों को लगभग खींचता सा दूर पड़ी बेंच पर आकर बैठ गया।
सुबह मेरी नींद महिला व दो बच्चों के विलाप से टूटी। आँख खुलते ही जो नजारा मेरे सामने था देखकर मैं हतप्रभ रह गया। रात युवक के साथ आये मजदूर का शव बाहर खुले में पड़ा था उसके बीबी बच्चे दहाडे़ं मार रहे थे। साथ में लाने वाला युवक नदारत था। किसी ने सच ही कहा गरीब का सिर्फ खुदा होता है। उस महिला के पास कोई भी ऐसा नहीं था जो उसे किसी प्रकार की दिलासा व सांत्वना दे रहा हो। दूर से तमाशा देखने वाले भी कम नहीं थे लेकिन ऐसे समय पास फटकने में सभी को डर लगता है। मुझसे रहा नहीं गया मैंने जाकर जानना चाहा आखिर ऐसी कौन सी बीमारी थी ? अच्छा भला स्वयं चलकर आने वाले व्यक्ति को अचानक आपरेशन की जरूरत पड़ गयी। माँ सामने हाती तो बिल्कुल पास न जाने देती। “तुझे क्या करना है ? ऐसे पचड़ों में मत पड़ा कर।” उनके मना करने के बावजूद मैं उनकी नजरें बचाकर हमेशा ही ऐसी जगह पहुँच जाता हूँ “क्या ये बीमार थे ?” महिला अपने पति के सीने में सिर पटक कर रोये जा रही थी। मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया। मेरे फिर दो तीन बार पूछने पर उसके बेटे ने रोते हुए जवाब दिया जिसकी उम्र तकरीबन नौ-दस साल रही होगी।
“बाबू का तीन-चार दिन से बुखार रहा।” मैं सोचने लगा क्या बुखार के लिए किसी को ओ0 टी0 ले जाया जाता है। कोई बड़ा रहस्य था। मेरी आँखें रात वाले युवक को खोज रही थीं। लेकिन ऐसा करते मुझे अपनी बेवकूफी पर हँसी आयी। वो जरूर किसी काल कोठरी में छिपकर बैठा होगा। मुझे लगा मरे हुए व्यक्ति का रहस्य उद््घाटित करने वाला मेरे अतिरिक्त यहाँ कोई अन्य नहीं है और मेरे पास कोई पुख्ता सबूत नहीं है। रात जो मैने देखा जो सुना उस पर कौन विश्वास करेगा मैं अपना हाल अपने दोस्त नीरज जैसा नहीं करना चाहता था।
अपराधी को पकड़वाने की कोशिश में पुलिस ने झूठे जुर्म में उसे ही जेल के अन्दर कर दिया। सामने आई0सी0यू0 से बाहर माँ आते दिखी। मैं माँ के नजदीक पहुँचा। दवा का पर्चा देते हुए बोली। “जरा अन्दर का भी ध्यान रखा कर कब से तेरा इन्तजार कर रही थी कि दरवाजे के आसपास दिखे तो दवाई को बोलूँ।”
“अरे माँ। अभी कुछ देर पहले ही तो झाँक कर गया था मुझे लगा तुम्हें कोई काम नहीं होगा बोलो क्या काम था ?” मैने माँ से झूठ बोला जबकि मैं काफी देर से अन्दर गया ही नहीं था। बाहर ही था। “ये ले दवा लानी है। डाक्टर साहब ने अभी लिखी है। और सुन पहले घर जाकर मूंग की खिचड़ी खा लेना। खाने के बाद ये दवा देनी है।” मैं चल दिया माँ की फिर से आवाज आयी।
“चिराग सुन। मुन्नी को भी साथ लेते आना। घर पर अकेले ऊबती है।” मैंने हाँ में सिर हिला दिया। मुन्नी के आने से माँ को राहत मिल जाती है। मुन्नी पिताजी को देख लेती है। इतनी देर माँ बाहर बैठ कर कुछ देर सुस्ता लेती है।
मैं मोटर साइकिल स्टार्ट कर अस्पताल के बाहर रोड तक ही आया था कि सामने मुझे रात वाला युवक दिखा जो हाथ हिलाकर मुझसे लिफट मांग रहा था। बाइक रोकने को मेरे अन्दर का डर मना कर रहा था। किन्तु मेरे अन्दर की जिज्ञासा आतुर थी, ओ0 टी0 के अन्दर का रहस्य जानने को। मैंने तेजी से बाइक में ब्रेक लगा दिये। उसने मसाले की पुड़िया दाँतों से फाड़ी और एक बार में मुँह में पूरा भर लिया।
मेरे कन्धों को दबाता हुआ यूँ बाइक में बैठा देखने वाला हमें मित्रा अवश्य समझ लेगा। मैं सोचने लगा दोस्त के अनुसार ही साथ वाले की वैसी ही पहचान होती है। समझ नहीं पा रहा था मैं बात की शुरुआत कहाँ से करूँ खैर पहल उसी ने की। “क्या काम करते हो ?” उसने बिना किसी भूमिका के भारी भरकम सवाल दाग दिया। अक्सर ऐसा ही होता है इस सवाल से मेरी जुबान बन्द हो जाती है।
“यहाँ अस्पताल में कौन भर्ती है।” उसने बड़ी बेफिक्री से पूछा
“पिताजी।”
“क्या हुआ उन्हेें ?”
“पेसमेकर लगा है ?”
“आपरेशन किस डाक्टर ने किया है ?”
“डाक्टर सचान…।” नाम बताने के साथ ही मैंने उससे पूछा।
“डाक्टर सचान कैसे हैं ? बडे़ भले इंसान मालूम होते हैं। हाथ भी उनका साफ है। हर आपरेशन सफल ही रहता है।” मेरे इतने लम्बे वाक्य का उत्तर कुछ सोचते हुए बहुत सूक्ष्म दिया।
“हाँ। हाथ तो जरूरत से ज्यादा साफ है।” मुझे उसकी बात का मतलब समझ नहीं आया। मैं कुछ पूछता इससे पहले ही वह मुझसे पूछ बैठा।
“अरे यार। तुम उस डॉक्टर की छोड़ो, अपनी बताओ। तुम करते क्या हो ? तुमने बताया नहीं।” मुझे एक बारगी गुस्सा आया कि ये तो पीछे ही पड़ कर रह गया लेकिन मैं कभी झूठ नहीं बोलता।
“मैं बेकार हूँ। मेरे पास कोई रोजगार नहीं है।” मेरी बात सुनते ही वह यूँ उचका जैसे उसे ही कोई रोजगार मिल गया हो। उसने मुझसे पूछा “घर पर कौन कौन है ?”
“माता पिता और एक बहन।” मैंने बताया।
“घर का खर्च कैसे चलता है ?” उसने पूछा।
“पिताजी की पेन्शन से ….” मैं बोला।
“बहन अविवाहित है ?” उसने पूछा।
“हाँ। विवाह के लिए प्रयासरत हैं।”
“चार पैसे घर आये इसके लिए प्रयासरत नहीं हो ?”
“जी जान से लगा हूँ। भाग्य साथ नहीं देता है।” उसने मुझसे एक किनारे बाइक रोकने को कहा। सामने चाय की दुकान थी। उसने वहीं से चिल्लाकर दो चाय आर्डर कर दी। छोटा लड़का चाय दे कर चला गया। चाय पीने के दौरान जो बातें उसने बताईं। मेरे हाथ से चाय का गिलास छूटते छूटते बचा। मैं सोचने लगा कि जरूरतें व्यक्ति को इस कदर खुदगर्ज बना देती हैं कि जीते हुए मानव के अन्दर की मानवता ही मर जाये।
पता नहीं मैं उसे किस कदर विश्वासी लगा कि धीरे-धीरे वह अपने घृणित राज खोलने लगा जिसे सुनकर मेरे पैरों तले धरती खिसकने लगी। उसने बताया कि ठेकेदार है किन्तु ठेकेदारी के नाम पर कभी किसी इमारत का निर्माण नहीं करवाया। बस साइड में जाकर मजदूरों का हमदर्द बनता है। उनमें अपने प्रति विश्वास पैदा करता है। बीमार होने पर या जबरन उन्हें चेकअप के लिए राजी करता है और उन अनपढ़, गरीब मजदूरों के महत्वपूर्ण अंगों को निकाल कर पैसे वाले जरूरतमंदों को मुँहमाँगे दाम पर बेच दिया जाता है। उसने मुझे अपने धन्धे में शामिल होने और अमीर बनने का लालच दिया। सुनते ही मैं उबल पड़ा और मैने उसी वक्त रोड पर ही उसे जलील किया। शर्मिन्दा होने के साथ ही अतीत का दर्द उसकी आँखों में उतर आया। मेरी आवाज से दुुगुनी आवाज में उसने भी मुझे बहुत कुछ सुनाया। “आज पिता के साये में रहकर बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हो। मुझसे पूछो मेरे ऊपर से पिता का साया मात्रा दस साल की उम्र में ही उठ गया था। मेरी माँ ने भले ही एक वक्त रोटी दी हो किन्तु मेरी पढ़ाई में होने वाले खर्च में कोई कसर नहीं छोड़ी। नौकरी खोजते पैरों में छाले पड़ गये डिग्रियाँ आज भी पड़ी धूल खा रही हैं।” वह कुछ देर रुका, गला भारी हो गया। मैं सोचने लगा क्या अभाव और दुख व्यक्ति की समझदानी में ताले लगा देता हूँ ? दोनों हाथों से अपनी आँखें पोंछता हुआ फिर से अपनी बात आगे कहने के पहले उसने मेरे दोनों कन्धों को पकड़ा और मैंने ध्यान से उसकी ओर देखा उसकी आँखें लाल हो गयी थीं। चेहरे पर अन्दर का गम झांकने लगा था।
“मेरी माँ ने पिछले वर्ष पैसे के अभाव में, बिना इलाज दम तोड़ दिया। माँ की चिता के साथ अपने सारे आदर्श, खोखली नैतिकता की तिलांजलि दे दी।” मैने ध्यान से उसका चेहरा देखा मुझे महसूस हुआ यह वक्त का मारा अवश्य है पर बुरा इंसान नहीं है। मैने उसी वक्त प्रण किया मैं इसका दोस्त अवश्य बनूँगा। इसके धन्धे में घुसने के लिए नहीं बल्कि उसे ऐसे नरक से बाहर निकालने के लिए।
कई बार ऐसा कुछ भी अखबार में पढ़ता या टी वी में देखता हूँ मुझे ऐसे कई सवाल उद्वेलित करते हैं कि आखिर हमारे समाज में ऐसी अमानवीयता कहाँ से आ गयी, हमारा धैर्य इतना कमजोर क्यों पड़ने लगा। सभ्य समाज असभ्य काम करने से क्यों नहीं घबराता। क्या हिप्पोक्रेट ओथ मात्रा डाक्टर की डिग्री तक ही सीमित है।