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आहुति

आहुति*
पुराना सब आहुत होता है
नवीन के
स्वागत में।
जीर्ण होती वय की आंखों में
भय नहीं होता अपनी आहुति का।

आशा से सजा होता है
हर स्वप्न, उम्मीद से अधिक
विश्वास अपने पर।

कि उठती इच्छाएं
छोटे-छोटे दंभ,
सलोने ख्वाब
दबी आकांक्षाएँ
सब आहुत होती हैं
किसी उज्जवल भविष्य पर।।

यही सार है जीवन का
पुराना सब आहुत होता है
नवीन के लिए।
और एक दिन
उसी नवीन के
होथों हो जाती है
पुराने की पूर्णाहुति ।

आज़ादी

आज़ादी
पेड़ों को नहीं मिलती आज़ादी
अपनी जड़ों से।
झीलों को नहीं मिलती आज़ादी
अपने वलय से।

आज़ाद आसमान में परिंदे
नहीं है आजाद, अपनी कोटर के मोह से।
नदियाँ आज़ाद नहीं हैं
निरंतर बहते रहने से।

समुद्र ठांठे मारने से
आज़ाद नहीं हो पाया कभी
लहरें तेज़, कभी धीमी ही सही,
पर उठती-गिरती रही हैं निरंतर

दिन आज़ाद नहीं कि
इक सुबह सुस्ता ले, और उगे
किसी रोज़ रात में।

पृथ्वी आज़ाद नहीं एक पल भी
कि झुकी धूरी पर कुछ रूक कर चले।
हो नहीं सकता,सूरज आग न बरसाए,
और डूब जाऐ शीलत सागर में।

फिर हमें क्यों आज़ादी चाहिए
अपने मनुष्य होने के दायित्वों से…
अपनी जड़ों से!

नमक

कभी कहा था माँं ने मुझे,
मेरे बचपन में डाँट कर,
कि नमक जमीन पर गिराया
तो आंखों से बीनना होगा।

मैं नहीं समझी थी,
बस डर गई थी
और सोचने लगी थी
कि शायद नमक कीमती होता होगा।

वाकई , बाद में समझ आया
कि बहुत क़ीमती होता है नमक।

क्योंकि क़ीमती होता है
किसी लाचार मजदूर का पसीना,
कीमती होते हैं
किसी बेबस के आंसू।

रक्त के साथ बह जाता है
नमक भी तो।,
हड्डियों को तोड़ता है
मेहनत करता है,
बहाता है अपने पसीने
के साथ क़ीमती नमक भी।

सहज हैं हम

सहज हैं हम

वंचनाओं और प्रपंच से परे
कुटिल इच्छाओं की बली चढ़ते हम.

दिनमान पसीने से तर,
रात के चिपचिपे सपनों के बीच
नहीं जान पाते उनके गणित
जो रक्त के साथ हमारी सहजता को भी
भुनाते हैं, और हम सहज
अपनी निश्छल मुस्कान तक छोड़ आते हैं
अपने पसीने की बूंदों के साथ.

मन मलिन हो उठता है तब
जब एक ओर अभाव हमें कसते हैं
और उस ओर अट्टालिकाओं के हवादार
कक्षों में उनको स्वछंद देखते हैं
कल की चिंताओं से निश्चिंत.

ठगी जाती है हमारी रोटी
दाल की आस में
पानी और नमक से पिछली दाड़ में दबाए
जीभ को स्वाद से वंचित कर
स्वयं को छलने का रचते हैं,
हम भी तो प्रपंच..

करघा देह का

करघा देह का*

कस लिए हैं मैनें
धागे नेह के।

ताने-बाने में
खूब मन से
रंग भरती हूँ,
कभी फूलों के तो
तितलियों के उनमें।

बसंत के,कभी पतझड़ के
सावन-भादो की फुहारों
के भी रंग हैं।

इंतज़ार है
शीत के साथ
आओगे तुम भी।

ढीला नहीं होने दूँगी
जब तक जान है
मेरी देह करघे में।

3 thoughts on “कवयित्री : रूपेन्द्रराज तिवारी

  1. बहुत ही खूबसूरत रचनाएँ। नमक तो लाजवाब..!
    बहुत ही सुंदर बिंबों से सजी, भीतर तक टोहती गहन रचनाएँ..!
    बधाई रूपेंद्र..!

  2. Aapki sabhi kavitayein bahut umda hain. prabhavshali Shabd chayan.
    Sabhi kavitayon Ka vishey bhi la Jawab hai..
    Dhero shubh kamayein..
    Aasha hai ki Aapki aur rachanayein bhavishya mein padhne ko milengi.

  3. सभी रचनाएं एक से बढ़ कर एक पढ़ने का अवसर मिला 🙏
    भावपूर्ण, सत्य को परिलक्षित करती

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