कवयित्री: सुमीता प्रवीण केशवा
प्रेम कर चुकी औरतें
प्रेम कर चुकी औरतें
बहुत कठोर होती हैं
नहीं देने देती फिर से
अपने दिल में किसी को भी दस्तक
बगैर अपनी मर्जी के…
दिल की झिर्री से ही
थोड़ा सा झांक कर
नापने तोलने की
कोशिश करती हैं
नये आगंतुक का
नहीं महसूस होने देती
कि वह कमजोर है
पहले से कहीं ज्यादा
आत्मविश्वास के साथ
मिलती हैं… हंसती हैं
उसे सारे पैंतरे आ गये हैं अब
दिल संभालने के
और दिल तोड़ने के भी…
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अब वह अपने दिल को
पूरी आज़ादी नहीं देती
कहीं भी, किसी के भी साथ
जाने देने की….
दिल की ज़िद के आगे
बन्द कर देती है वह
थोड़ी सी खुली हुई झिर्री भी…
नहीं देगी अब
किसी को भी इज़ाज़त
अपने दिल की सीमा में घुसने की
अब बन गई है वह
सरहदों की तरह कठोर
जहां ज़रुरी होता है
आधार कार्ड, पासपोर्ट
शायद ऐसा ही कुछ ज़रुरी
अब दिल के लिये भी है….
रजस्वला होती औरत
रजस्वला होती औरत
अछूत होती है
अलग बर्तन, अलग कपड़ा
अलग रहना, अलग खाना
जैसे कोई भयंकर
गुनाह हो गया हो उससे
सदियों से रची जा रही स्त्री के खिलाफ़
एक देहद्रोह साजिश…..
ईश्वर का प्रकोप बता कर
मंदिर में प्रवेश न देना
मानो जैसे कि ईश्वर
खुद डरा जा रहा हो
रजस्वला स्त्री से…
हां, शायद ये भी सत्य हो
किसी हद तक ….
कि डरता हो ईश्वर
रजस्वला स्त्री से
कहीं छिन न जाये
उससे उसकी शक्ति और सत्ता
क्योंकि उस क्षण रजस्वला स्त्री
ब्रह्मांड को पैदा करने की
शक्ति को आत्मसात कर रही होती है
सर्व शक्तिमान हो रही होती है…
कहते हैं इस दौरान रजस्वला स्त्री
इतनी पवित्र और दिव्य होती है
कि वह प्रतिमा को भी आकृष्ट कर सकती है
और प्रतिमा हो सकती है शक्ति विहीन…
शायद ऐसे ही किसी समय में
जब हुई होंगी कामाख्या देवी रजस्वला
और कर गई होंगी जाने- अनजाने
मंदिर में प्रवेश
और उसी क्षण
सभी प्रतिमाओं की शक्ति
समा गई हो उनकी योनी में
शायद तभी तो यहां सदियों से
चली आ रही है केवल योनिपूजा …..
लेकिन उसका डर आज भी
बना हुआ है समाज में
तभी तो मंदिर के परिसर से
दूर बहुत दूर रखते हैं
रजस्वला स्त्री को
ताकि समा न ले वह देवताओं की
शक्ति अपने अंदर।
तुम्हें छूने के लिये……
हर साल
तुम कहते हो
कि तुम मुझसे
दस साल छोटी हो
और हर साल मैं
तुम्हें छूने के लिये
लांघती चली जाती हूं
साल दर साल…..
लेकिन दूरी फिर भी कम नहीं होती
इन दस सालों के गणित में
जोड़ घटाना आता ही नहीं कभी
दस साल, दस साल से भी ज्यादा
लम्बे होते चले जाते हैं
एक आदरजन्य भययुक्त प्रेम
पल्लवित होता तो रहा
मेरे भीतर….तुम्हारे लिये
मगर इस अनाम प्रेम के
गड्ड-मड्ड से उत्पन्न बच्चे
क्या कभी प्रेमालु हो पायेंगे??
संशय है मुझे..
तुम्हें पूरा-पूरा पा जाने की ज़िद में
अधूरी-अधूरी जीती रही हूं मैं
मैंने तो चाहा था
तुम्हारी दोस्त हो जाना
तुम्हारी प्रेमिका हो जाना
तुम्हें अपने अधिकार से
प्यार करने वाली
अर्धांगिनी हो जाना
नहीं चाहा था केवल
कोख का हरा हो जाना…
पहली औरत
कितना मुश्किल है
औरत बनना
उस पर भी
पहली औरत बनना
उसकी आंखों में
किसी और का ख्वाब
उसकी चेहरे में
किसी और का आब
न चाहते हुये भी
उसके साथ रहना
अपना होते हुये भी
उसे अपना न कह सकना
रात की खामोशियों में
देर तलक उसकी देह से
किसी और की देह की गंध का
नाक की नथुनों में
जबरन भर जाना
जैसे कि उल्टी होने के बाद
कसैला सा स्वाद मुंह में जम जाना..
शिकायत होते हुये भी
कुछ न कह पाना
जैसे बूंदों का औचक ही
समंदर में गिर जाना
क्रूर हो चुके संबंधों को
ढोते चले जाना
जैसे घर वापसी की
कोई उम्मीद न बचना
परन्तु वह जानती है
लौट कर आयेगा वह ज़रुर
देर – सबेर घर
मगर तब तलक
खाली हो चुका होगा वह
अपने सतरंगी बसन्ती
मौसमों को लुटाकर
वह इतनी भी महान नहीं
जो भर दे उसके
खाली हो चुके बसन्त को …
उसने भी तो खोया है
अपना अतृप्त यौवन
अपने सात जन्मों का गठबंधन….
दूसरी औरत
कितना मुश्किल है
औरत बनना
उस पर भी
दूसरी औरत बनना
उसके साथ न रहते हुये भी
उसके साथ बने रहना…
उसकी पत्नी के स्पर्श को
मिटाकर अपनी मोहब्बत का
मुलम्मा चढ़ाना
जैसे कोई पेन्टर दीवारों से
पुराने रंग को खरोंच-खरोंच कर
चढ़ा देता है अपना रंग
दीवारों पर….
वापस कहीं वही पुराना रंग
न आ जाये इसलिये
भर देता है दीवारों को पुट्टी से
जैसे वह भी भर देती है
उसे उसकी पत्नी के खिलाफ़
न चाहते हुये भी…..
बावजूद इसके पुराना रंग
दीवारों पर लौट आता है
फफूंदी बनकर
ठीक उसी तरह
जब किन्हीं अंतरंग क्षणों में
वह बातें करने लगता है
अपनी पत्नी की….
जमीं रहें अपनी जड़ों से औरतें
जमीं रहें अपनी जड़ों से औरतें
इसलिए बनाए रखो ऐसी जमीन
जो दे सके उनकी जड़ों को मजबूती
औरतें पनपती हैं, तो पनपा जाती हैं
उजड़ती हैं, तो उजाड़ जाती हैं
सभी की जड़ों को संभाले
न जाने कौन से अनाम क्षणों में
कमजोर हो जाती हैं औरतें
फल-फूल से लदे रहने के बावजूद
न जाने कौन सी डाली
रिक्त रह जाती है
जिसे सींचने की खातिर वह
अपनी ही जमीन से
बगावत कर उठती है
हिला देती है अपनी जड़ों को अनजाने ही
थपथपाए रखो उसकी जड़ों की मिट्टी को
लीप दो उर्वरक से
ताकि दरारें न पड़ जायें
आत्मघाती होती हैं ये दरारें
दीवारों में पड़ जाए
तो टूट जाती हैं दीवारें
दरवाजों में पड़ जाए
तो चीर देती हैं
दरवाजे के पल्लों को
रंगाई-पुताई में पड़ जाए
तो पपड़ी बन उखड़ जाती हैं
अपने ही अस्तित्व से
जमीन में पड़ जाए
तो भूकंप ले आती हैं
समंदर में पड़ जाए
तो सूनामी ले आती हैं
आसमान में पड़ जाए
तो बादलों को फटने पर
मजबूर कर देती हैं दरारें
जानती हैं औरतें
बहुत खतरनाक होती हैं दरारें…
इसीलिए रोज चूल्हा बुझते ही
गर्म आंच से पड़ने वाली दरारों को
झट से लीप देती हैं
मिट्टी और गोबर की लेपन से
भर देती हैं चूल्हे की दरारें
ताकि दरारों से होने वाले
नुकसान से बचा जाए
किन्तु नहीं बचा पाती वे
खुद को उन दरारों से
जो दबे पांव न जाने
कब दरका जाती है उन्हें…
सभी की जड़ों को संभाले हुए
जाने-अनजाने फट पड़ती हैं वे
अपनी ही जड़ों की दरारों से बेखबर……
प्यार में बैलेंस्ड…
नहीं करतीं महिलाएँ
किसी एक वक्त में
किसी एक से ही प्यार
करती हैं वे एक साथ
कई लोगों से प्यार..
नहीं होती वे पागल
किसी के लिये प्यार में
पुरुषों की तरह
जो लुटा देते हैं छल्ल से
अपना प्यार एक तरफ
बेतरतीब…. बेवजह….
महिलाएं करती हैं प्यार
मगर उनके पास होते हैं
सबको प्यार करने के
अलग- अलग अंदाज
बाँट देती हैं वे अपने प्यार को
बराबर- बराबर, इधर- उधर
इसलिये रहती हैं वे
प्यार में बैलेंस्ड
नहीं करती किसी की
हत्या प्रेम में
नहीं फेंकती तेज़ाब
किसी के चेहरे पर
खुद के छले जाने पर भी
क्योंकि वो नहीं देती हैं
किसी एक को पूरा- पूरा प्यार
बचा रखती हैं वे थोड़ा सा प्यार
खुद के लिए भी…
जो काम आता है
उनके टूटने पर
खुद की तुरपाई करने के लिये
हाँ, कह सकते हो तुम उसे
कि नहीं हो सकती वह
प्रेम में भरोसेमंद…
क्योंकि वह एक ही समय में
कई लोगों से एकसाथ
प्रेम जो करती है
पति से पत्नी बन
बच्चे से मां बन
पिता से बेटी बन
और परिवार से
जिम्मेदारी बन
बांट देती हैं अपना प्यार चहुँ ओर
तभी तो नहीं होती वे
प्यार में पागल….
छोड़ा हुआ पति
छोड़ा हुआ पति
पूरी तरह से छोड़ा नहीं जाता
ठहर जाता है वह
घर के कई हिस्सों में
आज भी सुबह की चाय पर
खिड़की में रखे गमले पर जब
आता है चिड़ियों का जोड़ा
तब याद आता वह
जो अक्सर उन्हें देख कहता
चिढ़ा देखो सहमा-सहमा सा है
जैसे मैं…
वह बेमन से हंस भर देती
आज वह ध्यान से देख पा रही थी चिढ़े को
क्या सच में चिढ़ा डरता है चिढ़ी से
ऑफिस व घर की आपाधापी में कभी
उसने उसकी बात पर गौर ही नहीं किया
आज अकेले चाय पीते
इत्मीनान से सोच रही थी वह
कई बातें जो उसने कही थीं
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जो उसने सुनी ही नहीं कभी
पहले की तरह काम भी तो न था उसे
अब फुर्सत ही फुर्सत थी
पहले तो वह उसके टिफिन
और नाश्ते में ही लगी रहती
खाते वक्त ज्यों ही वह नमक डालती
हाथ रुक जाते उसके
अक्सर वह उसके हाथ से नमक ले
कहता ब्लड प्रेशर है तुम्हें
शाम की चाय पर फिर शक्कर
न खाने की हिदायत
कभी खाने की तारीफ तो कभी कमियां
बिस्तर पर आते ही सहमति-असहमति
अब तो कोई कुछ नहीं कहता
शून्य पसरा है पूरे घर में
न रहकर भी घर में ही
रहता है छोड़ा हुआ पति।
दूसरा आदमी
कितना मुश्किल है
दो पतियों के साथ निभाना
हां, मुश्किल है बहुत….
एक की बात दूसरे से कहना
एक करता है अपमान
परिवार के सामने
बात-बात पर
भरता है दंभ पुरुष होने का
दोनों पुरुषों से तालमेल बिठाते हुये
वह बचाये रखना चाहती है
अपना घर अपने बच्चे
वज़ूद पत्नी होने का
सहती है सारा अपमान
वहीं दूसरा करता है प्यार
रात के अंधेरों में
मलहम लगाता है
दिनभर के जख्मों पर
यह कहते हुये कि
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बहुत करता हूं तुमसे प्यार
चांद तारे तोड़कर
लाने का करता है वादा
उसकी बेतरतीब उलझी जुल्फ़ों को
बताता है रेशमी
उसके पसीने से भीगे
शरीर की उठती दुर्गन्ध
लगती है उसे सुगंधित
वह अचंभित है उसके
अथाह प्रेम को देखकर
जो दिन के उजाले में
बन जाता है
दूसरा आदमी……..
देह से बेखबर
देह से बेखबर
एक पूरी की पूरी दुनिया है औरत
उसकी देह में बहती है नदी
बहते हैं नाले
पूरी देह में उतार-चढ़ाव
कटाव-छंटाव के साथ
उभरे हैं तमाम पर्वत-पहाड़
टीले-मैदान और घुमावदार
टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियां
जिनसे होकर गुज़रती हैं
उसकी देह की हवाएं
वह हवाओं को रोक
बनाती है अनुकूल वातावरण
बरसने के लिए
बावजूद वह रौंदी जाती है
कुचली-मसली जाती है
फिर भी बेमौसम बेपरवाह
उग जाती है
कभी भी
कहीं भी
बढ़ाती है अपनी लताएं
उगाती है अपने पौंधें
सहेजती है बाग-उपवन
बनती है जंगल
बनती है हवा
बनती है वजह
जीवन के संचालन की
छोड़ दो उसे
निर्जन सुनसान टापू पर
या छोड़ दो उसे मंगल ग्रह पर
बसा लेगी औरत
एक पूरी की पूरी दुनिया
अपनी देह की मिट्टी से
कभी भी
कहीं भी
मुआवज़ा
गर्म-गर्म रोटियों की
सौंधी-सौंधी महक
भूख को और भी बढ़ा देती है
उस महक में किसान के
पसीने की सुगंध जो समाई है
देखो तो आज फिर से
एक किसान ने फांसी लगाई है
कभी गेहूं की बालियों को
प्यार से निहारा होगा
बड़े ही प्यार से सहेजा होगा
बड़े ही जतन से दुलारा होगा
उसकी जड़ों के आसपास
कि कहीं उखड़ न जाये पौंधा
पिलाया होगा पानी शिशु की तरह
सिर पर लादा होगा
खलिहानों तक ले गया होगा
जैसे कोई पिता अपने बच्चे को
स्कूल ले जाता है
लेकिन छीन लिया जाता है
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उससे वह बच्चा जबरन
देकर कु़छ रुपये….
शिकायत करता है वह…
पर कहीं भी सुनवाई नहीं होती
कर्ज़ पहले ही था भारी
और अब केवल है लाचारी
शायद यही सोच कर
कर लेता है वह आत्महत्या
कुछ नहीं कम से कम
मुआवज़ा तो मिलेगा
जवान और किसान में
कोई फर्क नहीं
दोनों को मिलता है
मुआवजा मरने पर ही….
कुन्ती
कुन्ती तुमने बहुत ही चतुराई से
खुद को बचा लिया
बचा लिया खुद को
समाज के तीक्ष्ण बाणों से
बचा लिया खुद को
परिवार की चुभती निगाहों से
तुम जानती थी
तुम्हें देने होंगे एक नहीं
पांच-पांच पुत्र वधुओं के
प्रश्नों के उत्तर
तुम्हारे कुंवारेपन में लगे
धब्बे को तुम मिटा नहीं सकती थी
इतनी आसानी से
कि नहीं दे सकती थी
तुम ईमानदारी से
अपनी उच्चश्रृंखलता का जवाब
तुम्हारे लिए तुम्हारी बहुओं द्वारा
प्रतिकार झेलना नहीं था
इतना आसान
नहीं था आसान पांच-पांच बहुओं से
एक साथ निपटना….
शायद इसलिए खेला तुमने
एक षडयंत्र और बना दिया
द्रौपदी को पांच पतियों की पत्नी
बांट दिया उसे पांच पुरुषों के बीच
लगा दिया उसके होंठों पर
ताला ताउम्र के लिए
ताकि न कर सके कभी
तुम्हारा चरित्र हनन
तर्क- कुतर्क या नाजायज प्रश्न
ऐसा भी नहीं था कुन्ती..
कि तुम्हारे कह देने भर से वो
बांट दी जाती पांचों में बराबर- बराबर
तुम्हारा कहा टाला भी जा सकता था
और ऐसा भी नहीं
कि वे बहुत ही आज्ञाकारी थे
वरना तुम्हारे लाख मना करने के बावजूद
क्यों लगा बैठे द्रौपदी को दांव पर
परन्तु बड़ी ही चतुराई से
तुमने अपने बेटों को भी
कर रखा था अपने वश में
वंश व संस्कारों की दुहाई देकर
हालांकि तुम्हारे बेटों में
तुम्हारे वचन के प्रति
प्रतिबद्धता ये जाहिर करती है
कि तुमने भी इस सम्मानजनक
स्थिति को हासिल करने के लिए
लड़ी होगी एक लंबी लड़ाई
लेकिन तुम्हारी एक गलती पर
पर्दा डालने हेतु तुम्हारे षडयन्त्र का
शिकार बनी द्रौपदी
आज भी समाज में उपहास का
कारण बनी हुई है कुन्ती……