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कोहरे भरी चाँदनी


वो मेरे शहर में
अनजान था, परदेसी था

एक प्रेम दिवस पर
उसने मुझे लाल गुलाब
देकर कहा था
प्रेम पथरीला, कांटो भरा है
चल सकोगी?
मैंने उस गुलाब की
झरती पंखुड़ियों को
हथेली में सम्हाला
क्या प्रेम पथ
मखमली भी होता है ?
उसने मेरे माथे को चूमा
हम दुधारी तलवार पर
पांव रख रहे हैं साथ- साथ

फिर एक सर्द रात
कोहरे भरी चाँदनी में
वह खिड़की से झाँका
जिंदगी के तकाजे हैं
हमें हर हाल में
बंधे रहना है प्रेम पाश में

वो धीरे-धीरे कोहरे में
विलीन होता गया
जिंदगी वहीं
थम कर रह गई

बरसों बरस गुजर गए
अब भी दिल में
हूक उठती है उसकी

वो मेरे शहर से गुजरे तो पूछूंगी
क्या उसे भी अब तक याद है
वो कोहरे भरी चाँदनी ।

बहती रही कतरा कतरा


अब के सावन में यूं
टूट कर बरसा पानी
अब के मुलाकात
अधूरी सी लगी

अब के पंछी भी
शाखों पे अनोखे से दिखे
कजरी मल्हार भी
ढोलक पे अचीन्ही सी लगी

एक घटा घुमड़ कर
घिर आई मुझमें
देर तक फिर चली
तूफानी हवा
सांकलें खुलने लगीं
यादों की आहिस्ता

कुछ अधूरे से गीत
हवाओं में गूंजे
कांच के ख्वाब पर
मुझको जो सँवारा उसने
तेज बारिश थी
बहती रही कतरा कतरा

अब के सावन भी करिश्माई लगा
एक कसक बो गया जाते-जाते

परीजादियों का शाप


महल की मुंडेरें
रात को चीखती हैं
बबूल के कांटेदार
पेड़ों में उलझ कर
घड़ी दो घड़ी बाद 
खामोश हो जाती हैं

बस्ती के बाशिंदे
खंडहर महल और
टूटी फूटी मुंडेरों को
देखने आए पर्यटकों को
मनगढ़ंत कहानी सुनाते हैं

बहुत नजदीक से गुजरता है
ऊँटों का काफिला
जिसकी कूबड़ उठी पीठ पर
मखमली पालकी में बैठकर
सैर करने आई है
फिरंगी मलिका

रात को ठहरने के बावजूद भी
चीख उसे सुनाई नहीं देती
वह जानती है
उस खूनी मुंडेर के किस्से
उसके ही पूर्वजों ने ढाए थे
जुल्मों सितम
महल की परीजादियों पर
परिजादियों का शाप
न मुंडेरों को ढहने देता है
न बसने

मुश्किल है समझना


मैं तब भी नहीं 
समझ पाई थी तुम्हें 
जब सितारों भरी रात में 
डेक पर लेट कर 
अनंत आकाश की 
गहराइयों में डूबकर 
तुमने कहा था 
हां प्यार है मुझे तुमसे

समुद्र करीब ही गरजा था 
करीब ही उछली थी एक लहर 
बहुत करीब से 
एक तारा टूट कर हंसा था 
तब तुमने कहा था 
हां प्यार है मुझे तुमसे 

जब युद्ध के बुलावे पर 
जाते हुए तुम्हारे कदम 
रुके थे पलभर 
तुमने मेरे माथे को 
चूम कर कहा था 
इंतजार करना मेरा 

तुम्हारी जीप 
रात में धंसती चली गई 
एक लाल रोशनी लिये

मुझे लगा 
अनुराग के उस लाल रंग में 
सर्वांग मैं भी तो डूब चुकी हूं

हां मैं बताना चाहूंगी 
तुम्हारे लौटने पर 
कि तुम्हारी असीमित गहराई 
तुम्हारी ऊंचाईयों
को जानना
मेरी कूबत से परे है
मैंने तो तुम्हारी 
बंद खिड़की की दरार से 
तुम्हें एक नजर देखा भर है
और बस प्यार किया है 

चंपई दिन लौट आए हैं


घर की चहारदीवारी में
कोने में लगा चंपा
उस बरस
चंपई फूलों से लद गया था
एक कारवां मेरे भीतर से
होकर गुजरा था
एक गर्द
लिपट आई थी मुझसे
कुछ लाल मखमली
बीरबहूटियां भी
चल कर आई थीं मुझ तक

फिर बरसों बरस
उस गर्द ने ,उन बीरबहूटियों ने
मेरे वजूद को ढंक कर
मुझे चैन न लेने दिया
भटकते कदमों की तलाश को
कहीं विराम न मिला

घर की चहारदीवारी में
आज जब लौटी हूं
तो रो पड़ी हैं दीवारें
मेरी चुप की जमीन पर
रखा है कदम
लाल मखमली आवाज ने

और चंपा बिन बहार
खिल उठा है
और गर्द झर रही है
और खुशबू सी लिपट आई है
कि दिल हौले से धड़का है

तुम दीप बन आओ


मेरे सपनों का हरापन
जब भी लहलहाता है
तुम सैंकड़ो दीप का उजाला बन
दिल की मुंडेरों पर जगमगाते हो

खिल पड़ते हैं
सारे महकते मौसम
दीपकों की लौ में
जिंदगी भरपूर
नजर आने लगती है
प्यास के सारे तजुर्बे
उन दीपों के स्नेह से
गुजरते हैं
भीग भीग जाता है मन

भीतर समाई प्रेम की
तड़प को चीर
हथेलियों पर गोल गोल
घूमती है नेह की बत्तियां
तुम्हारी तलब के मुहाने पर
रखती जाती हूं एक एक बाती
बाल देती हूं प्रेम अगन से

आओ इन दीपों में
उजाला बन
उतर आओ
मेरे मन के तहखानों में
हम जिंदगी से मुट्ठियाँ भर ले
सुर्ख जज़्बातों को
दीपों की बत्तियों में बाल
कैद कर लें इक दूजे को

2 thoughts on “कवयित्री संतोष श्रीवास्तव

  1. शुक्रिया राजुल अशोक जी प्रकाशित पेज पर मेरी कविताएं प्रकाशित करने के लिए

  2. अंतरात्मा को छूती झकझोरती प्यार से सहलाती खुबसूरत कविताएं हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं स्वीकारें ।

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