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कथाकार: डॉक्टर अमिता दुबे

‘माँ ! तुम मेरी बात कब सुनोगी सुनोगी या जिन्दगी भर कान में तेलडालकर बैठी रहोगी जैसे पचास प्रतिशत मायें बैठी रहती हैं, बेटियों कीचीखें तक उन्हें सुनायी नहीं देतीं। अनकही जाने वाली बातों के बारे में तो सोचना ही क्या ! 

माँ ! मैंने तुम्हें पहली आवाज तब दी थी जब मैं तुम्हारे गर्भ में थी और तुम दादी से मेरे बारे में बातें कर रही थीं। दादी कह रही थीं देखना बहू बेटा हीहोगा हमारे खानदान में अभी तक किसी के लड़की नहीं हुई। मैं उस समय तुम्हें आवाज दे रही थी-  ‘माँ ! ओ माँ ! मैं तुम्हारी कोख में हूँ मैं तुम्हें बेटीकी माँ बनने का सौभाग्य देने वाली हूँयह तो बाद में पता चला कि बेटीकी माँ बनना कोई सौभाग्य नहीं होता बल्कि दुर्भाग्य दस्तक देता है ।

बाद में सबकुछ ठीक हो गया। दादी भी मुझे दुलराने लगीं और पापाकी तो मैं लाडली बन गयी। फिर मैंने तुम्हें बहुत दिनों तक आवाज़ नहीं दी। तुम अपनी दुनिया में मगन थीं क्योंकि तुम फिर माँ बनने वाली थीं। फिरतुम्हें ‘पुत्रवती भव’ के आशीर्वाद दिये जा रहे थे। दादी कह रही थीं- बहूअबकी बार वह मुआ टेस्ट-वेस्ट करवा लो। भई अबकी बार तो बेटा ही होना चाहिए। पहले मैं सब बातें तुम्हारे पेट के अन्दर से सुन रही थी अबकी बार मेरी आँखों के सामने तुम्हें उलाहने दिये जा रहे थे। तुम्हारी आँखों में डर के साये थे तब मैंने तुम्हें आवाज दी थी माँ! तुम डरो बिल्कुल नहीं मैंतुम्हारी पहली सन्तान हूँ तुम्हें मेरे रहते किसी से डरने की जरूरत नहीं।निश्चिन्त रहो मैं तुम्हारी नाक कभी नीची नहीं होने दूँगीं।

     शायद तुमने मेरी बात को कुछकुछ समझने की कोशिश की थी और तभी कहा था- माँ जी! बेटा हो या बेटी मैं कोई टेस्ट नहीं करवाऊँगी। आप जानती हैं गर्भ में लिंग पता करने वाला टेस्ट गैरकानूनी है। इसके लिए डाॅक्टर के साथ-साथ मरीज को भी सजा हो सकती है। पापा कह रहे थे- ‘क्या कानूनी क्या गैर कानूनी पैसा खर्च करो सबकुछ हो सकता है।’ उस समय तुम्हारी एक नहीं चली शायद तुम भी पापा की बात से सहमत थीं।और एक दिन तुम अस्पताल से खाली होकर आ गयी थीं तुमने सबकी बातों में आकर मेरी अजन्मी बहन को गर्भ में ही मार दिया था। उस समय तुम्हें मेरे साथ-साथ मेरी उस अजन्मी बहन की चीख भी सुनायी नहीं दी थी। मैं डर गयी थी- मैं दादी से पापा से यहाँ तक तुमसे भी डरने लगी थी।रह-रहकर चौंक  जाती थी। कहीं तुम मेरी बहन की तरह मेरा गला भी न घोंट दो।

मैं कुछ बड़ी हो चली थी मुझे स्कूल जाना था मैं खुशी-खुशी स्कूल जाती थी शौक से पढ़ती थी लेकिन फिर भी सबकी उपेक्षा का शिकार थी क्योंकि तुम फिर माँ बनने वाली थीं वही प्रक्रिया फिर दोहरायी गयी थीऔर तुम फिर अस्पताल से खाली होकर आयी थीं। रीती-रीती तुम कितनी भयावह लग रही थीं। मैंने तुम्हें फिर आवाज दी थी सान्त्वना की आवाज।मैं जानती थी तुम कितनी विवश थीं इसलिए तुमने मेरे सिर पर हाथ फेरकर शून्य में कहा था – स्त्रियाँ कितनी बेबस होती हैं बेजुबान बकरी की तरह जिसे कोई भी कहीं हाँक सकता है जिबाह कर सकता है। तुम सोच रही थीं मैं छोटी सी बच्ची तुम्हारी क्या बात समझूँगीं लेकिन माँ मैं तुम्हें चीख-चीख कर बताना चाहती थी कि माँ एक बेटी हमेशा माँ के दर्द को समझती है क्योंकि माँ का दर्द बेटी का भी दर्द होता है देखा जाय तो वह सभी स्त्रियों का साझा दर्द होता है। यह अलग बात हैकि इस दर्द को स्त्री ही स्त्री को देती है और स्त्री ही इस दर्द को नहीं समझती है। माँ ! मैं सही कह रही हूँ यदि दादी चाहती तो आप को इस दर्दसे छुटकारा दिला सकती थीं वह कह सकती थीं- बेटी हो या बेटा बस दो बच्चे ही हमारे घर की शोभा बनेंगे। तब मेरी अजनमी दो बहनें इस संसार में आने को यो न चीखतीं। और उनका गला यों न दबा दिया जाता।

माँ! मैंने उस समय तुम्हें फिर आवाज दी थी जब तुम चौथी बार माँ बनने जारही थीं। यह आवाज मैंने डरते-डरते दी थी। माँ सावधान! तुम फिर वही गलती करने जा रही हो यदि इस बार तुम्हारी कोख में बेटी ही हुई तो ! तुम क्या उसे फिर मार दोगी। तीसरी हत्या करने की तुम कैसे हिम्मत करसकती हो। तुम इतनी क्रूर क्यों हो माँ ! लेकिन इस बार नौबत नहीं आयी।कानून का डर या अपने गण्डे-तावीज पर विश्वास या मान-मनौती परआस्था तुम्हें किसी ने विशेष टेस्ट करवाने के लिए विवश नहीं किया। तुमने भगवान के भरोसे पूरे नौ महीने डरते-डरते बिताये कहीं बेटी न हो जाय, बेटी हो गयी तो, अम्मा जी और पति जी को क्या जवाब दूँगीं। माँ उस समय मैंने तुम्हें फिर आवाज दी थी। माँ अरी माँ! आगे बढ़कर स्वागत करो इस दुनिया में आने वाले अपने दूसरे बच्चे का। यदि तुम पहले ही हिम्मतकरतीं तो शायद मेरी पहली बहन ही तुम्हारी दूसरी सन्तान होती और तुमहम दोनों को पाल-पोसकर बड़ा कर रही होतीं।

इस बार भगवान ने सुन ली थी तुम सबकी। घर का चिराग परिवार का नौनिहाल हुआ था। दादी ने घी-गुड़ से मेरी पीठ पूजी थी यह अगल बात है कि मैं उसकी  अधिकारिणी नहीं थी बीच की दो बहनें ‘मिसिंग थीं’ लेकिन हमारे परिवार की कहानी में उन्हें ‘डिलीट’ कर दिया गया था हमेशा के लिए। अब उन्हें कोई याद नहीं करता सबकी आँखों का ताराराजदुलारा इस संसार में आ चुका था। यहाँ तक कि मैं भी धीरे-धीरेउपेक्षित हो रही थी- बड़ी भी हो रही थी। जिद्दी तो पहले भी नहीं थी अबअन्तर्मुखी होने लगी थी।

उस समय मैंने तुम्हें फिर आवाज दी थी जब तुम मेरी शादी करना चाहतीथीं केवल इसलिए क्योंकि बुढ़ापे की दहलीज पर खड़ी दादी को पोती की शादी की तमन्ना थी। कन्यादान कर पुण्य लाभ कमाना था। मैंने तुम्हें केवल आवाज नहीं दी थी पूछा था जोर-जोर से निःशब्द नहीं शब्दों में – ‘माँ ! क्या दादी के मन में कभी मेरी दोनों बहनों का कन्यादान करने कीइच्छा नहीं होती क्या वे  तुम्हारा और पिताजी का अंश नहीं थीं जिन्हें कोखमें ही मार दिया गया था।’ तुमने एक भरपूर किन्तु निरीह दृष्टि मुझ पर डालकर नज़रें नीचीं कर ली थीं और बहुत धीरे से कहा था- ‘बिट्टो! तुमअभी कुछ नहीं समझोगी जब तुम पर बीतेगी तब जानोगी। माँ मैंने तुम्हेंफिर आवाज़ दी थी- ‘माँ ! तुम मुझे बद्दुआ दे रही हो या भविष्य वक्ता हो।तुमने मुझे सीने से लगा लिया था और कहा था – ‘बेटी को माँ कभी बद्दुआदेती है भला! वह तो उसे काँटों से बचाकर जीना सिखाती है।’ यह कैसाजीना सिखा रहीं थीं माँ तुम उस समय मुझे! 

फिर वही सब हुआ जो तुम, पापा और दादी चाहते थे। यानी मैं ससुरालचली गयी। अपनी दुनिया में खो गयी। और तबसे आज तक मैंने तुम्हें फिरआवाज नहीं दी। मैं जान गयी थी कि तुम्हारी आँखों पर आस्था की पट्टी हैऔर तुम्हारे कान एक सधी-सधायी आवृत्ति की तरंगें सुनते हैं। संयोग सेमेरी सास सुलझी हुई माँ थीं उन्हें बेटा-बेटी का कोई फतवा जारी नहींकिया और ‘एक बेटी ही बहुत है’ के मेरे फैसले पर अपनी मोहर लगा दी।मैं अपनी बेटी के साथ मगन थी कि अचानक मुझे तुम्हें फिर आवाज़ देने को विवश होनापड़ा। एक सख्त आवाज़ निर्णायक आवाज़ और तुम्हें झकझोरने वालीआवाज़।

‘माँ ! आज दादी इस दुनिया में नहीं हैं। उनको गये एक जमाना बीत चुकाहै। अब तुम परिवार की मुखिया हो क्योंकि पापा भी इस दुनिया में नहीं हैंफिर तुम दादी और पापा की तरह निर्मम कैसे हो सकती हो। जो दंश जोदुःख तुमने सहे वही दंश तुम अपनी बहू को देने जा रही हो। तुम उससेअपेक्षा करती हो कि वह ‘टेस्ट’ करवाये और यदि कोख में बेटी हो तो उसेनष्ट कर दे। आज तुम कह रही हो – ‘कानूनी-गैर कानूनी क्या होता है पैसाखर्च करो तो सब कुछ हो जाता है।’ मैं अचरज से यह सब तुम्हारे मुख सेसुन रही हूँ।‘

माँ ! सुनो और कान खोल कर सुनो! जो तुम्हारे साथ हुआ उसको मतदोहराओ। तुम भूल गयीं उस दर्द को जिसे हमने अन्दर-अन्दर पिया हैपिघले शीशे की तरह। तुम भूल गयीं कैसे तुम कोख दबाकर रोया करतीथीं भगवान के आगे-हाय! हत्यारी माँ को क्षमा करना जिसने अपनी कोखमें ही बेटियों को मार डाला। भगवान! इस पापा की सजा मुझे न देना। बसएक बेटा दे दो फिर मैं कुछ नहीं माँगूँगी।

आज तुम सब भूल गयीं वही गलती जो तुम्हारे साथ दादी ने की वही पापतुम अपनी बहू के साथ करने जा रही हो। माँ इस बार मैं चुप नहीं रहूँगींअब तक सोचती थी मेरी माँ बेचारी कितनी विवश थी इसलिए मेरीआवाज़ें नहीं सुन पायी आज जान कर बहुत दुःख हो रहा है कि मेरीआवाज़ को अनसुना करने वाली माँ अनजाने में दूसरी आवाज़ों को ही सही मानती थी।

माँ तुम्हें मेरी आवाज़ सुननी होगी क्योंकि यह आवाज़ अकेले मेरी आवाज़नहीं है सभी बेटियों की आवाज़ है। तुम सुन रही हो न माँ इस आवाज़ मेंजो जोर की चीखती सी आवाज़ है वह मेरी दोनों अजन्मी बहनों कीआवाज़ है। वे तुम्हें सावधान कर रही हैं अब किसी बच्ची का गला घोंटनेका निमित्त मत बनो माँ ! वरना….वरना अगले जन्म में तुम्हें भी कोई स्त्रीकोख में ही समाप्त कर देगी। माँ सुनो मेरी आवाज़ सुनो मेरी बहनों कीआवाज़ सुनो।

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