कहानी:चमक-राजुल
लेखिका- राजुल अशोक
सुबह की सैर का अपना अलग ही आनंद होता है, ठंडी हवा के झोंको के बीच नींद से जागते शहर से मिलना हो जाता है,दूध वालों कीसाइकिल की आवाज़, पक्षियों का कलरव ,इक्का-दुक्का गुज़रते वाहन सब के साथ सुबह का संगीत एक बार सुन लो तो पूरा दिन ताज़ारहता है, वरना फ्लैटों की बंद दुनिया में सुबह भी बड़े संकोच से आती है और चाय के बर्तनों के इर्द गिर्द मंडराकर कुछ देर में ऊब करचली जाती है, बाहर निकलो तो सुबह बड़े तपाक से गले मिलती है,अब इस तिकोने पार्क को ही देखो ,घर से कुछ कदम दूर बना ये पार्कअपने तीनों कोनो के साथ सुबह की रौनक समेट कर जिस आत्मीयता से मुस्कुराता है उसे देखकर सारे दिन की ऊर्जा मिल जाती है औरफिर यहाँ सैर अकेले नहीं करनी पड़ती, लोगों के अलावा, हर पेड़ से सूरज झांक कर देखता है, कुछ चिड़ियाँ फुदकते हुए आगे-आगेचलती हैं, और पार्क में लगे कनेर,हरसिंगार नीम और दूसरे पेड़ों का स्पर्श सुबह के साथ महसूस होता है , बीच में बने पौण्ड में तैरतीमछलियों को भी सुबह की खुशबू मिल जाती होगी, सर्र-सर्र तैरते हुए बड़े जोश में लगती हैं, इन्हें देखकर मेरे पैरों में भी फुर्ती आ जाती हैऔर सुस्ताने का बहाना तलाश करता मन फिर से तेज़ चलने के लिए उकसाने लगता है। इस तिकोने पार्क में टहलने की पर्याप्त जगहऔर सुस्ताने के लिए सीमेंट की बेंचें भी लगी हैं। वैसे पार्क के बाहर भी दो चार बेंचें हैं ,जिन्हें शायद राहगीरों के लिए बनवाया गया होगा,फिलहाल तो इस वक़्त उन बेंचों के आसपास रोज़ की तरह नारियल पानी,छाछ ,स्प्राउट्स वगैरह बेचने वाले अपना स्टाल जमाने में लगेथे, और उधर एक बेंच पर अभी भी वो लोग बैठे थे। हाँ वही जोड़ा था।उन लोगों को पार्क में आते वक़्त उसी बेंच पर बैठे देखा था, तबशायद ध्यान नहीं गया था लेकिन अभी टहलते हुए कई बार उस तरफ निगाह गई तो देखा ,उनके पास एक बड़ा सा बैग था, उम्र केलिहाज़ से कुछ ज्यादा ही बड़ा बैग लेकर चल दिए थे बुजुर्गवार,अब शायद चला नहीं जा रहा, ऑटो का इंतजार कर रहे होंगे। लेकिनइस बीच कई ऑटो आये और चले गए,पर वो लोग अपनी जगह से नहीं हिले, आखिरी चक्कर लगाते हुए फिर वो बेंच नज़र आयी।अबबेंच पर सिर्फ़ वही लोग नहीं थे। बेंच से सटी हुई एक साइकिल खड़ी थी जिस पर नारियल लदे थे।नारियल पानी वाला उनसे कुछ कहरहा था, सैर से लौटने का वक़्त हो गया था, बाहर निकलते हुए देखा नारियल पानी वाला अभी भी वहीँ खड़ा था, वो लोग धीमे स्वर मेंकुछ कह रहे थे जबकि नारियल पाना वाला तेज़ी से हाथ हिला रहा था, पास से गुजरी तो नारियल पानी वाले का तेज़ स्वर सुना , “ दिमाग का दही मत करो बाबा ,बोला न मैं रोज़ यहीं नारियल बेचता हूँ” इस बार ढलती उम्र के जोड़े को गौर से देखा,कपडे सिलवटों सेभरे थे,आँखें बुझी,होंठ सूखे,लेकिन चेहरे से संभ्रांत लग रहे थे,स्त्री पुरुष से कुछ वर्ष छोटी होगी,लेकिन उसके बालों में भी चांदी के तारझलक रहे थे,कुछ निकालने के लिए उसने बैग में हाथ डाला था ,नारियल पानी वाले की बात सुनकर वो बैग से हाथ निकलकर ज़िप बंदकरने लगी, वृद्ध ने उसका हाथ पकड़ कर कहा,”क्या कर रही है?” स्त्री ने कहा,” चलो कही और देखते हैं,वैसे भी यहाँ मुश्किल लग रहा है”वृद्ध के झुर्रियों से भरे चेहरे पर और सिलवटें आ गई,”कहाँ जाएँगे?” स्त्री मौन थी फिर नारियल पानी वाला तेज़ स्वर में बोला,” कहीं भीजाओ ,बस यहाँ से टलो, लगे बंधे ग्राहकों के आने का समय है, दुकानदारी मत खराब करो “ मैं वहीँ ठिठक गई नारियल पानी वाला मुझेरुकते देख बोला,”देखिये मैडम इस बूढ़े से इतनी देर से कह रहा हूँ,कहीं और जाकर बैठ जाओ,सुनता ही नहीं है “
ये सुनते ही स्त्री उठ खड़ी हुई और बैग उठाते हुए बोली,” जा रहे हैं भैया, आओ चलें”वृद्ध उठते हुए बोला,”अकेले मत उठा, ला इधर से मैंपकड़ लेता हूँ”
कहाँ जाना होगा इन्हें ,कुछ परेशां लग रहे हैं,मन हुआ उनसे पूछकर देखूँ लेकिन घडी पर नज़र जाते ही ये सवाल बौने हो गए।
घर पहुँचने की देर थी। सुबह पंख लगाकर उड़ गई। काम के बीच थोड़ी देर बाद वो जोड़ा भी दिमाग से निकल गया।
दोपहर को एक पार्सल भेजने के लिए घर से निकली,रास्ता पार्क के करीब से गुज़रा तो फिर उसी जोड़े को वहां देखा,इस समय उसी बेंचके सामने दोनों ज़मीन में अखबार बिछाए बैठे थे , धूप तेज़ हो रही थी और पेड़ों की छाया के बावजूद उनके सर पर चमक जाती थी। बेंचपर किनारे अभी भी वही बैग रखा था , लेकिन अब वो ख़ाली हो चुका था ,और बेंच की बची हुई जगह पर गड्डी बनाकर कुछ कपडे रखेथे। उन दोनों के चेहरे धूप में कुम्हलाये से लग रहे थे,एक पल को लगा पास जाकर देखूँ तो क्या बेच रहे हैं। लेकिन उत्सुकता को दबानापड़ा। ,अभी सीधे कोरियर वाले की दूकान पहुचना था,वरना आज ये पार्सल नहीं निकल पायेगा , लौटकर पानी की बोतल और एकछाता इन्हें घर से लाकर दे दूँगी ये सोचकर सीधे कोरियर वाले की दूकान पहुच गई ,राखी का त्योहार पास आ रहा था, राखियाँ भेजनेवालों की भीड़ लगी थी, मैं भी लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करने लगी। वो बेंच और वो जोड़ा फिर दिमाग से निकल गये।
कोरियर के बाद दो चार काम निपटाते हुए घर लौट रही थी तो दूर से ही वो बेंच नज़र आयी और उसका सहारा लेकर ज़मीन पर बैठा वोजोड़ा फिर दिख गया। स्त्री ने बेंच पर सर टिका लिया था और वृद्ध बड़ी बेचारगी से उसे देख रहा था, शायद तेज़ धूप से परशान हो गएथे।
प्यास तो लगी ही होगी। पानी की बोतल और छाते की याद आ गई।तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए घर पहुँचकर मैंने दोनों चीज़ें लीं ,साथ मेंएक बिस्किट का पैकेट लिया और उन्हें देने के लिए फिर से निकल पड़ी।
दूर से ही वो बेंच नज़र आ रही थी।इस समय स्त्री सजग होकर बैठी थी और वहां खड़ी एक महिला को बेंच पर लगी गड्डी में से कटपीसनिकालकर दिखा रही थी ,मेरे वहां पहुँचते -पहुँचते महिला की खरीददारी पूरी हो गई थी , उसने एक कटपीस पर्स में रखा और कुछरुपये स्त्री के हाथ में थमाकर वहां से चली गई।
मैंने वृद्ध को कहते सुना,” चल, अब देर मत कर पहले मुह में कुछ डाल लें फिर यहाँ आ जायेगे” स्त्री बोली,” अभी तो बोहनी हुई है, दुकान कैसे समेट दूं? थोड़ी देर रुको फिर चलेंगे”वृद्ध बोला,” हाँ ये भी ठीक है, तुम यहीं बैठो, मैं कुछ लेकर आता हूँ” वो उठकर जाने केलिए खड़ा हो गया ,स्त्री ने कहा,” ये पैसे तो रख लो” तब तक सामने मुझे देख दोनों चुप हो गए ,वृद्ध ने स्त्री की ओर देखकर कहा,” मैं नकहता था ये जगह बड़ी शुभ है” स्त्री ने मुस्कुराकर उसका अनुमोदन किया और मुझसे पूछा,” कौन सा रंग चाहिए, बहुत अच्छा कपडाहै,लो हाथ में लेकर देखो”
मैंने पानी की बोतल वाला थैला एक हाथ में लिए – लिए कटपीस उसके हाथ से ले लिए और कहा ,” ये बोतल पकडिये ज़रा , सुबह भीआप लोग यहाँ बैठे थे न , कितने की बिक्री हो गई?” वृद्ध बोला,” अभी तो बोहनी हुई है, दो चार और आ जाएँ तो हम यहाँ से चलेजाएंगे” कटपीस देखते हुए ही मैंने कहा,” कपडा तो अच्छा है” स्त्री उत्साहित होकर बताने लगी,” क्वालिटी में कभी समझौता नहीं करतेये, हमेशा अच्छा माल ही बेचा है, हमारी दूकान तो …” कहते हुए वो रुक गई, मैंने पूछा,” कहाँ है आपकी दूकान?” दोनों ने एक दूसरे कोदेखा और ठंडी सांस भरकर वृद्ध ने कहा,”बेच दी, इस महामारी ने सब बर्बाद कर दिया ,कुछ नहीं छोड़ा” कहते हुए उसकी आँखों मेंनिराशा के बादल घुमड़ आये, स्त्री ने तुरंत उसका हाथ पकड़ कर कहा,” ऐसा क्यों कहते हो, बिमारी से निकालकर तुम्हे वापिस मेरे लिएभेज दिया ,ये क्या कुछ कम है?” फिर तुरंत व्यस्त स्वर में बोली,” आपने कौन सा रंग पसंद किया?” मैंने कहा,” रंग तो सभीअच्छे लग रहेहैं” स्त्री के स्वर में फिर उत्साह लौट आया,” महंगे नहीं हैं,सिर्फ पचास रुपये का एक है, रंग नहीं उतरेगा , कपडा साल भर तक नयादिखेगा”मैंने चार कटपीस अलग किये और थैला उस स्त्री को थमाते हुए पर्स से दो सौ रुपये निकाल कर उसे दिए तो उसकी ऑंखें चमकउठीं , कटपीस मेरे हाथ से लेकर उसने मेरा दिया थैला खोला और बोली,”इसी में रख देती हूँ,अभी लपेटने के लिए कागज़ भी नहीं है” मैंनेथैली लेकर पानी की बोतल और बिस्किट निकालकर उसे देते हुए कहा,” ये लीजिये खाकर पानी पी लीजिये”उसने पानी की बोतल हाथसे ले ली और बोली,” हाँ प्यास तो लगी है,पर कुछ खाने की इच्छा नहीं है” मैंने पैकेट खोलकर बिस्किट निकालकर उसके हाथ मेंज़बरदस्ती थमा दिया,”खाली पानी मत पियो काकी,पेट में लगेगा, लो काका आप भी लो”मैंने हाथ बढ़ाया लेकिन वृद्ध के चेहरे पर गहरासंकोच छाया था, स्त्री बोली,” अरे ले लो, मैं भी खा रही हूँ” “ वृद्ध ने मेरे हाथ से बिस्किट ले लिया, बिस्किट का पैकेट और छाता मैंने बेंचपर रखे बैग के ऊपर रखकर कहा,” धूप तेज़ हो रही है,इसलिए ये ले आयी थी”।
स्त्री का चेहरा स्निग्ध हो उठा,उस ने पूछा, पास में रहती हो बिटिया?” “हाँ वो सफ़ेद घर दिख रहा है, वहीँ, कुछ और ज़रूरत हो तोबताइयेगा” वो बोली, “अच्छा,वैसे ज़रूरत कोई नहीं, हम दोनों साथ हैं और ऊपरवाले की दया है, बिक्री भी हो रही है” फिर वृद्ध सेबोली,” लाओ ज़रा वो पचास की नोट देना,जो अभी तुम्हे दी थी, ये लो बिटिया,एक कटपीस मेरी तरफ से “ वो पचास का नोट मेरे हाथमें थमाने लगी तो मैंने पीछे हटते हुए कहा, “नहीं –नहीं, इसे रखिये” तब तक वृद्ध बोल उठा,” रख लो बिटिया, इसका मन बढ़जाएगा,चिंता न करो, इसके हाथ में बहुत बरक्कत है, ये देती है तो ऊपरवाला दुगने करके भेज देता है , लो रखो पर्स में”
उस आत्मीय आग्रह के सामने मेरी जुबां बंद हो गई,कुछ शर्म सी महसूस हुई , उनके बड़े दिल के आगे पानी की बोतल,बिस्किट औरछाता जैसे मुझ पर ही तरस खाने लगे,मैंने कहा,” मेरा घर सामने ही तो है,कुछ देर वहां सुस्ता लीजिये” स्त्री बोली,” ज़रूर आयेंगे बिटिया, तुम्हारे घर मिठाई लेकर आयेगे, ऊपरवाले ने चाहा तो दुकान फिर चल निकलेगी” फिर वृद्ध की ओर मुड़कर बोली,” मैंने सही कहा न?” वृद्ध के चेहरे पर मुस्कान खिल गई,” सौ टका सही, आयेंगे बिटिया, इसका कहा सच होता है, अब देखो न मेरे इलाज में सब कुछ चलागया, मोहल्ले वाले, नाते रिश्तेदार बोले बेटों को खबर कर देते हैं अपनी तरफ से वो लोग भी गलत नहीं थे, कोई कहाँ तक हमें देखता, घरमें कुछ नहीं बचा था और भीख मांगकर जीने के लिए मन तैयार नहीं था, फिर इसने ही कमर कसी, बोली दूकान का माल घर में है तोहिम्मत क्यों हारे, कोशिश करेगे तो सब संभल जाएगा, और देखो, ऊपरवाले ने इसकी कोशिश में अपना हाथ लगा दिया” स्त्री बोलउठी,” और इन्होने भी मेरी बात रख ली, वरना बेटों के पास जाना पड़ता, अब तुम्ही बताओ,बड़े शहर के छोटे घरों में हम दो प्राणियों कीगुज़र कैसे हो सकती है, फिर यही होता माँ एक लड़के के पास और बाप दूसरे लड़के के घर रहता,तो अब ये झंझट ही ख़त्म, हम दोनोंसाथ हैं तो आगे का रास्ता मिलकर ढूंढ ही लेंगे” कहते हुए फिर काकी के चेहरे पर सुबह की चमक आ गई।
“ मैं आसपास में भी बता दूँगी। कटपीस की ज़रूरत हो तो यहाँ से लेना। मैं फिर आऊँगी काकी ।” कहते हुए जीवन यात्रा की ढलानउतर रहे इस जोड़े की जिजीविषा को मैंने प्रणाम किया। घर लौटते हुए मन कुछ हरा और कुछ भरा- भरा सा लग रहा था।