कहानी-तेरे कितने रूप:लेखिका-डॉ विमला भंडारी
तेरे रूप कितने
आज मैं फिर इस शहर के करीब पहुंच चुकी हूं। दूर से ही पहाड़ी पर शान से इठलाता हुआ प्राचीन दुर्ग मुझे शहर के पास पहुंचने का संदेश दे रहा है। सांध्यवेला की समाप्ति पर धुंधले अंधेरे में किसी तिलिस्म की भांति खड़ा है यह दुर्ग। झिलमिल प्रकाश और स्पॉट लाईट में महल, स्तम्भ, प्राचीन मंदिरों के शिखर, प्राचीर सबकुछ जीवन्त हो अपना जादू बिखेर रहे है। भक्ति और शक्ति के लिए विख्यात यह नगर अब मेरे लिए अनजाना नहीं रहा। पन्ना, पद्मिनी, कर्मावती और मीरा जैसी ललनाओं ने इसे इतिहास में अपनी अनूठी पहचान अर्पित की थी।
‘क्या इस मिट्टी में स्त्री महिमा के कण आज भी मौजूद है?’ यह विचार मन में आते ही मैंने अपनी आंखे मूंद ली, सिर स्वतः ही सीट के सहारे टिक गया। एक चेहरा बंद आंखों में घूम गया – तुम्हें किस नाम से पुकारूं ‘काकीसा’ हां यही ठीक रहेगा। तुम्हारा अदब कायदा देखकर तुम्हें नाम से बुलाना अच्छा नहीं लगेगा मुझे। हालांकि उम्र में तुम मुझसे चार-पांच साल मुश्किल से बड़ी होगी। तुम भी मुझे मम्मीजी कहकर बुलाती थी। कितना अजीब था रिश्तों का संबोधन। मैं तुम्हें काकीसा और तुम मुझे मम्मीजी, रिश्तों का ये संबोधन हमारी सामाजिक स्थिति को रेखाकिंत करते हुए अपनी-अपनी मर्यादाओं में बंधा हुआ था।
-पता है आज मैं तुम पर लिखने की सोच रही हूं।
-मुझ पर? काली रंगत पर सफेद दंत पंक्ति चमकाती तुम सामने होती तो हंस पड़ती, ‘‘देखो रे! कालकी की किस्मत चमकी। ’’ हर बात पर तुम यही तो कहती थी। एक बार जब तुमने कहा था- ‘‘देखो कालकी के दिन पलटे, मजे से गाड़ी में घूमती फिरती है।’’ जब तुमने खुद का उपहास उड़ाया। मुझे अच्छा नहीं लगा।
-ऐसा क्यों कहती हो?
-मैं नहीं मम्मीजी, वो कहेंगे।
-वो कौन?
– क्या बताऊं मम्मीजी सब मुझसे जलने लगे है। इस कान्हा के भाग्य से मुझे मिली ए.सी. की ठंडक उन पर कहर बरपा रही है। कान्हे के साथ मुझे कार में घूमते देख उनके सीने पर सांप लौटने लगता है। रामेश्वर की बहू सब कह देती है मुझे।
-कौन रामेश्वर?
-ओ ऽ मम्मीजी आपके आर्शीवाद से……और उसने हंसी रोकते हुए साड़ी का फोहा बनाकर मुंह में ठूंस लिया।
मतलब? मतलब यह था कि रामेश्वर उसका बेटा है। जिसकी पत्नी उसे सुनाती है- कान्हा पाकर तुम तो निहाल हो गई माई। ‘‘कान्हा’’ मेरे दोहत्र को तुम इसी नाम से पुकारती हो।
सचमुच रूद्र के कारण काकीसा के दिन पलट गये थे। दरअसल काकीसा मेरे दोहित्र की आया थी। पक्के वर्ण की साधारण शक्ल वाली दुबली और लम्बे कद वाली महिला एक ऐसा गरिमामयी व्यक्तित्व – जिसे मैं कभी नाम से नहीं पुकार पायी।
बेटी चाहती थी कि एक बार मैं उसे देख परख लूं। सवा माह के शिशु को लेकर वह चली गई थी मेरे पास से। जब रूद्र दो माह का हो चुका तो वह अपनी प्रेक्टिस की दुनिया मैं लौटना चाहती थी। अतः उसने अपने नन्हे मुन्ने के लिए काकीसा रूपी दादी का बंदोवस्त कर लिया।
दादी इसलिए की वह खुद को रूद्र की दादी के रूप में प्रस्तुत करने लगी। बेटी ने मुझसे पूछा- ‘‘कैसी लगी आपको काकीसा?’’
हॉल में रूद्र को उसे झूला झुलाते तुम्हें देख, मैं हंसकर बोली- ‘‘डेढ़ हजार की दादी।’’ मेरे इस उत्तर पर वह भी मुस्कुरा उठी। सचमुच रूद्र को डेढ़ हजार रूपये प्रति माह में दादी मिल गई थी।
तुम उठी और अबोध शिशु को शू-शू करा लायी। अब तुम तन्मयता से उसकी नैप्पी बांध रही थी। मैंने बेटी की ओर देखा और बेटी ने मेरी ओर मैंने आंखों ही आंखों में इशारा किया और ‘हांमी’ भर दी। मेरी हांमी देख उसे तस्सली हुई।
दोपहरी का समय था। छोटी बेटी की शादी की वीडियो सी.डी. चल रही थी। तुम भी वहीं फर्श पर बैठी सी.डी. देख रही थी। पीठी का दृश्य था तुम आनंदित हुई पीठी के गीत गाने लगी। दृश्य परिवर्तन हुआ तो तुम झट से बोली- ‘‘यह तो मायरा हो रहा है’’और प्रफुल्लित हुई वह ‘वीरे’ गाने लगी। तभी झूले में सोया रूद्र कुनमुनाया। तुम उठी और झूला देती लोरी गाने लगी। मुझे अच्छा लगा और विश्वास भी हुआ कि मेरे दोहित्र की पालना तुम अच्छे से कर लोगी। यह सब करते हुए कितनी प्रसन्न मुद्रा में रहती थी तुम। जब हम तुम्हें साथ लेकर मंदसौर दर्शन करने गये थे, पूरे रास्ते तुम्हारे भजन चलते रहे जिसने सफर को यात्रामय कर दिया था। तुम हर जगह अपने को जोड़ देती थी।
मुझे लिखता देखकर तुम चाय बना लायी थी।
-अपनी भी बनाई?
-ओ मम्मीजी मेरे तो दूसरे के घर का पानी नहीं ओजता।
-क्या?
-हां, मेरे आखड़ी है।
-मतलब?
मतलब यह था कि काकीसा ने अपने स्वर्गीय पति को लेकर बाधा ले रखी थी। जब तक वह उनके नाम का रातीजगा नहीं दे देगी तब तक किसी घर का पानी तक नहीं पीयेगी। उसके अनुसार उसका पति मृत्यु बाद देवता बनकर प्रकट हुआ है और अब बहू के शरीर में आता है। उन्होंने ही रात्रि जागरण मांगा है। वह उनको वचन दे चुकी है और जब तक वचन पूरा न हो जाए वह किसी के यहां का पानी तक नहीं पीयेगी। वह यह बाधा(आखड़ी) ले चुकी है। सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। पति से इतना गहरा अनुराग, उसकी मृत्यु के बाद भी……..
कुछ भी हो तुम अपने कायदे की बहुत पक्की थी। हमारे घर में खाने के लिए क्या कुछ नहीं था पर तुम….हर चीज के आग्रह पर तुम्हारा एक ही जवाब होता- ‘‘मेरे काम नहीं आता।’’ तुम कुछ भी नहीं खाती थी। तुम्हारा यह त्याग देखकर मैं सहज ही यह अनुमान लगा बैठी थी कि तुम्हें अपने पति से असीम प्रेम मिला होगा। किन्तु तुम्हारी बातों ने तो मेरे अनुमान की परखच्चियां उड़ा दी। तुम अब तक की सारी उम्र में अपने पति के साथ केवल पांच-सात साल ही रही बस!
-हो मम्मीजी क्या करती जब मैंने अपनी आंखों से उसे सौत के साथ सोते देख लिया तो फिर उसके बिस्तर पर चढ़ूं तो भाई के बिस्तर पर चढ़ूं इतना दोष लगे मुझे।
-क्या मतलब?
-सच्ची में मम्मीजी, मैं अपने तीनो बच्चों को लेकर निकल आयी। बड़ा रामेश्वर तो फिर भी तीन बरस का था पर उदयलाल तो दूध चूखता था।
-फिर अपने पीहर में रही?
-थोड़े दिन। फिर मजदूरी करते हुए अलग रहने लगी।
-मजदूरी से काम चलता था तुम्हारा?
चलता….कभी कभी कोई पेटियों रख जाता। लोग सीधा आटा दाल दे जाते…चलता रहा…बगत निकल गी। यह कहकर एक सुखभरी सांस खींची थी तुमने। अपनी शर्तो पर जिन्दगी जीने के सुख की। तुम अपने पति के पास वापस कभी नहीं गई। जबकि वह एक अच्छी सरकारी नौकरी में था। तुम समय परिस्थिति से समझौता कर चलती तो एक अच्छी जिन्दगी जीती। पर इसका तुम्हें कोई मलाल ही नहीं, बल्कि तुम मुझे पल पल पर चौंका देती। तुम्हीं ने बताया था कि उसमें कहीं थोड़ी सद्बुद्धि थी जो पेंशन में मेरा नाम लिखवा दिया था उसने। आज भी तुम्हें वह पेंशन मिल रही है। ‘‘तुम्हें उससे लगाव तो रहा होगा तभी……?’’
-लगाव कठा’रो। देवता बण’र आया पछे तो करणो पड़ै। हूं तो सात फेरा री परणी। हूं तो पतिवरता नार। म्हारो धरम कई है….आप ही बतावौ?
मुंह की बात पूरी भी नहीं होने दी थी तुमने और तमक उठी थी तुम अपने पक्ष में दलील देते हुए। तुम कितनी खुद्दार हो। जवानी में पति को पथ भ्रष्ट देखा तो अलग हो ली। जिन बच्चों को तुमने इतनी तकलीफ से पाला उनके साथ भी तुम नहीं रहती?
– क्या करूं मम्मीजी, बहू थोड़ी गरम है। मुझे लेकर दोनों में घमासान होवै तो मैं अलग ही भली।
बेटी के पास जितने दिन भी रही तुम्हारी बाते, तुम्हारे आदर्श और तुम्हारे व्याख्याएं समस्त स्त्री जाति के गौरव को रूपायित करती, महिमा को परिभाषित करती और कई जगह खुद मुझे झकझोरने वाली थी। पर पन्ना-पद्मिनी-मीरा की इस धरती पर आज भी भारतीय स्त्री के उस स्वाभिमान भरी महिमा का कहीं अस्तीत्व हैं ? यह मुझे दस माह बाद महसूस हुआ।
बेटी का फोन था- ‘‘मां, कल काकीसा. ने रातीजगा दिया था। बहू के शरीर में देवता आये थे। देवता ने आदेश दिया कि वह कहीं काम न करें… और काकीसा ने देव आज्ञा मान काम छोड़ दिया है।’’
‘‘क्यों? तुमने उन्हें जाने क्यों दिया…रोक क्यों नहीं लिया…वापस बुला लो उन्हें?’’
‘‘मां बहुत मुश्किल है। उन्हें कोई नहीं डिगा सकता। मुझे तो लगता है कि काकीसा की बहू बहुत चालाक है। देवता का नाटक कर काकीसा का काम करना छुड़वा दिया। ताकि वह अपने घर का काम करवा सकें। एक दिन मैंने खुद घर जाकर देखा था। घर में काम के मारे काकीसा का बुरा हाल था।
अपने ही अन्धविश्वासों में जकड़ी तुमने आराम की नौकरी को तिलांजली दे दी थी। तुम्हारी यह विभिषिका कोई पहली कहानी नहीं है। भारतीय स्त्री की सदियों सदियों की कहीं अनकहीं यही कहानी है।