कहानी:धिनधिन…धिन…धिनधिन…धिन-अलका सिन्हा

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Alka Sinha (Dhin dhin

धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन

                             

खिड़की से झांकता धुला-धुला वातावरण चुंबक की तरह अपनी ओर खींच रहा था और मैं सोच रही थी कि पैरों में थोड़ी जान लौटे तो कहीं बाहर निकलूं। बल्कि अपने ख्यालों में मैं एक जाने-पहचाने रास्ते पर उतरती जा रही थी जो मेरी रुटीन का हिस्सा थी।

सड़क की दोनों ओर सजी रंगीन फूलों की कतारें और बीच-बीच में रंगोली-सी बनाते हुए घुमेरदार गलियारे… कॉलेज जाने का ये रास्ता मुझे हमेशा ही लुभाता रहा है, मैं इसी कॉलेज में पढ़ी और अब यहीं पढ़ा भी रही हूं। ऊँची-नीची पहाड़ियों की गोद में समायी यह गर्ल्स कॉलेज की बिल्डिंग ऐसे लगती है जैसे कोई रूप गर्विता नायिका पहाड़ियों की ओट में नजाकत के साथ खड़ी किसी का इंतजार कर रही हो।

उसे मैंने पहली बार यहीं देखा था, ठीक इसी जगह। दलाल के चंगुल से छुड़ाई गई कुछ और लड़कियों के साथ वह भी यहां लाई गई थी। वह नहीं जानती थी कि वह किस भयंकर जीवन का हिस्सा बनने से बचा ली गई थी। वह नहीं जानती थी कि उसकी जिंदगी मौत से बदतर हो सकती थी। वह खुशकिस्मत थी कि उनके चंगुल से छुड़ा ली गई थी। वह खुशकिस्मत थी कि वह खुशकिस्मती या बदकिस्मती का मतलब नहीं जानती थी। मैंने उसकी तरफ गौर से देखा था— सांवला रंग, छोटी-छोटी आंखें, चपटी-फूली नाक, मोटे-काले होंठ और घुंघराले बाल। इतनी जायदाद के साथ, सोलह-सत्रह साल की वह आदिवासी लड़की, दिल्ली जैसे महानगर में अपनी जन्नत बसाने की हसरत लिए चली आई थी। उसके भीतर से एक जिद्दी आत्मविश्वास झांक रहा था जिसने मुझे बेतरह आकर्षित किया और मैंने उसे अपने पास बुला लिया। अपनी प्रधानाचार्या के द्वारा चलाए जा रहे एनजीओ के शर्तनामे पर हस्ताक्षर कर मैंने उसे अपने साथ रखने की इजाजत ले ली।

रूपंती, उसने अपना नाम बताया जो मुझे उसके काफी अनुकूल लगा। घर के काम समेटती वह मेरे साथ ही कॉलेज आ जाती जहां एनजीओ द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में वह भी और लड़कियों के साथ पढ़ाई करती। खाली वक्त में वह अपनी उम्र की लड़कियों के साथ खेलती, तो कभी हरी घास पर बैठी, यूकलिप्टस के ऊंचे पेड़ों को अपनी छोटी-छोटी आंखों में भरती। लड़कियों की झुंड में वह अलग से पहचानी जाती और मेरी निगाहों के दायरे में कैद हो जाती। जब मैं उसे कुछ बताती तब उसकी आंखे हैरत से भर जातीं जैसे मैं किसी और ही दुनिया के बारे में बता रही हूं। यह दुनिया उसके लिए सचमुच ही दूसरी दुनिया थी, वरना जंगलों का उन्मुक्त स्वभाव उसकी जीवन शैली का हिस्सा थी। वह बड़ी जिम्मेदारी से स्कूल में सिखाए पाठ याद करती, साथ ही मुझे अपनी भाषा के गीत सुनाती। कभी-कभी वह मुझे आदिवासी नृत्य भी दिखाती। मैंने महसूस किया कि अपनी सादगी के साथ वह सचमुच सुंदर थी। हैरानी से खुली उसकी आंखें, उसकी सुंदरता को और बढ़ा देतीं।

मैंने पाया था कि रूपंती के भीतर जानने-समझने की तीव्र लालसा थी। वह मेरी बातों को बड़े ध्यान से सुनती और निरंतर अपनी सहमति जताती रहती। मगर जब तक उसे कोई बात समझ नहीं आती, वह अपनी गरदन नहीं हिलाती। पूछे जाने पर भी वह खामोश देखती रहती। मैं दोबारा किसी और तरह से अपनी बात को समझाती। समझ आ जाने पर उसके चेहरे की खोई हुई रंगत वापस लौट आती। वह खुद इतना नहीं बोलती, जितना उसकी आंखें बोलतीं। उसकी सहमति-असहमति, हैरानी, जिज्ञासा सब उसकी आंखों से जाहिर हो जाता। कहने को उसे अपनी भाषा के अलावा किसी दूसरी भाषा का ज्ञान नहीं था। मगर वह समझती हर भाषा थी। उसकी आंखों में सैंकड़ों सवाल तैरते और वह हर सवाल का जवाब तलाशती। मेरी भरसक कोशिश होती कि मैं उसकी हर जिज्ञासा शांत कर सकूं और उसे नई जानकारियों से समृद्ध कर सकूं।

वह जल्दी ही शहर की बोली बोलने लगी थी। मैं डरती थी कि कहीं वह अपना गंवईपन छोड़कर शहर वाली न बन जाए। मगर मैंने महसूस किया था कि शहरी आकर्षण के बावजूद उसका अपने गांव-घऱ से अटूट संबंध था। अपने ग्रामीण जीवन से सीखी कई तरह की अनोखी जानकारी देकर वह भी मुझे अचंभित कर देती।

“मौसम बदलने वाला है, जाड़ा और पड़ेगा…”

वह मुझे सचेत करती और सच में मुझे स्वेटर, शॉल दोबारा निकालने पड़ते।

कई बार वह किसी पक्षी को दिखाकर आने वाले वक्त के बारे में इस तरह बताती जैसे उन पक्षियों ने उसके कान में यह जानकारी दी हो कि जल्दी ही यहां तूफान आने वाला है। चूहे की उछल-कूद देखकर, भूकंप के बारे में की गई उसकी उद्घोषणा मेरे लिए अविश्वसनीय सत्य थी। उसकी दुनिया मेरे लिये भी विस्मय का विषय है।

उसे मेरे साथ रहते तीन साल बीत चुके हैं और अब वह एक समझदार, परिपक्व लड़की बन चुकी है। मेरे अकेलेपन को एकांत में बदलने वाली इस लड़की की मेरी जिंदगी में बहुत अहमियत है। उसकी खामोशी मेरे एकांत की लय को टूटने नहीं देती, तो उसकी चपल आँखें निरंतर संवाद की प्रतीक्षा में दिखाई पड़ती हैं। उसका होना ऐसा है जैसे वह है भी, मगर उसके होने की कोई आहट भी नहीं। उसने बड़ी होशियारी के साथ मेरी जरूरतें समझ ली थीं और वह मेरी समय सारिणी के मुताबिक कदमताल करती मिलती। घर के काम निपटाकर, वह मेरे कॉलेज जाने के समय पर तैयार मिलती। मेरे एकांगी जीवन में वह मेरी सहयोगी भी थी और साथी भी। मेरा उससे रिश्ता इतना घनिष्ठ हो चुका था कि वह कभी मुझे किसी बच्ची सी मालूम पड़ती, तो कभी जिम्मेदारियों से भरी मां जैसी लगती। मैं उसके लिए बहुत कुछ तो नहीं कर पाई मगर हां, जिंदगी को लेकर उसके खूबसूरत भ्रमों को बचाए रखने की कोशिश लगातार करती रही हूं। उसकी सादगी और निश्छलता देखकर मुझे अक्सर यह भय लगता कि अगर उसे हकीकत की कठोरता से रू-ब-रू होना पड़ा तो जिंदगी में कुछ भी नहीं बचेगा — न ये नदियां, न पहाड़, न झर-झर बहते झरने, न हरियाली घाटियां। तब धरती बांझ हो जाएगी और पर्वत संन्यासी।

एक रोज उसने मुझे अपनी बोली में कुछ गुनगुनाते हुए एक खास तरह का नृत्य दिखाया।

धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन… की आवाज के साथ, कभी वह अपने सिर को गोल-गोल घुमाती तो कभी लचीली बेल-सी देह को पूरी तरह पीछे मोड़ लेती।

मैं उसके करतबनुमा नृत्य से जरूर प्रभावित हुई मगर उसके गीत में धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन… के सिवा मेरी समझ में कुछ नहीं आया।

उसने बताया कि ये ऐसी तितलियों का गीत है जो किसी के मरने की प्रतीक्षा में इस खास प्रकार के स्वर में गुनगुनाती हैं, इस प्रजाति की तितलियां शिकार कर अपना भोजन नहीं जुटातीं बल्कि अपनी विशेष प्रकार की भनभनाहट के साथ नृत्य करते हुए आसन्न मृत्यु का जश्न मनाती हैं, इसलिए इनकी मौजूदगी मृत्यु का संकेत मानी जाती है।

उसकी इस जानकारी से मैं अचंभित रह गई मगर उसे कोई अचंभा नहीं था, न ही कोई शिकायत थी। फिर भी, मेरे चेहरे पर छाई मायूसी को देखते हुए उसने दूसरा गीत सुनाया। उसका महीन स्वर इस बार कुछ उल्लास लिए हुआ था मगर मैं बहुत सामान्य नहीं रह पाई। उसने मेरा हाथ पकड़कर मुझे खड़ा कर दिया और मेरी कमर में हाथ डाल कर अपने पैर आगे-पीछे करते हुए आदिवासी नृत्य करने लगी। उसने बताया, वहां की लड़कियां सामूहिक स्वर में इस तरह का गीत गाते हुए जंगल के देवता से सबके हित की कामना करती हैं।

एक बार उसने आटे की छोटी-छोटी गोलियां बनाकर, चाशनी में उबालकर मुझे खिलाईं।

उसका स्वाद बहुत भाया नहीं तो ऐसा खराब भी नहीं लगा।

“अच्छा है।” प्रतिक्रिया को उत्सुक, उसकी आंखों को देखकर मैं मुस्करा दी।

वह ऐसे खुश हो गई जैसे उसका जंगल शहर से जीत गया हो।

फिर तो वह अक्सर ही मुझे अपने पारंपरिक भोजन का स्वाद चखाने लगी। मुझे पता ही नहीं चला कि कब और कैसे महानगर के इस आधुनिक फ्लैट में एक आदिवासी जंगल हावी होने लगा। कई बार तो मैं भी उसके अभिवादन का उत्तर ‘जोहार’ कहकर देती। जब मैं उसे ‘आसो जुआ’ कहकर बुलाती या ‘बसो जुआ’ कहकर बैठने को कहती तो वह बेतरह खुश हो जाती। उसकी बोली, उसके गीत, खेल-ही-खेल में मेरी दिनचर्या में शिरकत करने लगे थे।

आज के खुशनुमा मौसम में बीती कई बातें यादों में घुमड़ने लगी थीं और मानसिक दुनिया में मैं बहुत लंबी सैर कर आई थी वरना पिछले कुछ रोज से तो बिस्तर से हिलने-डुलने का भी मन नहीं कर रहा था। दरअसल कुछ समय से माहवारी बहुत अनियमित हो गई है। कभी दो-तीन महीने आती ही नहीं तो कभी अतिरेक हो जाती है। अपने स्वभाव का भी इन दिनों कोई ठिकाना नहीं रहता। वो तो रूपंती है जो संभाल लेती है। डॉक्टर कहती है, आजकल चालीस की उम्र में भी मीनोपॉज हो जाता है। ये दिन भावात्मक अतिरेक के भी होते हैं, शायद इसी क्रम में मैं पिछली बातें दोहराते हुए भावुक होने लगी थी।

आज तबियत कुछ बेहतर मालूम पड़ी तो घर से निकलने को मन कुलबुलाने लगा। सोचा, कॉलेज चलती हूं, कोई क्लास लूं या न लूं, कम से कम रुटीन तो बदलेगा मगर जैसे ही घऱ से बाहर निकलने लगी कि लड़खड़ा गई। रूपंति ने झट बढ़कर सहारा दिया और संभालकर मुझे बिस्तर पर वापस ले आई। मेरे सिर में तेल ठोकते हुए वह अचानक ही पूछ बैठी,

“दीदी, मेरे गांव चलोगी? वहां ऐसी कई जड़ी-बूटियां हैं जिनका रस पीने से खून बहना भी रुक जाएगा और कमजोरी भी दूर हो जाएगी…”

रूपंती की बात सुनकर मैं थोड़ा असहज हो गई। इसे कैसे पता, मुझे क्या परेशानी है? हो सकता है, इसने डॉक्टर के साथ मेरी बातचीत सुनी हो और अंदाजा लगाया हो। खैर, जो भी हो, मैं इस तरह की बातों में हिस्सेदारी करने की आदी नहीं। मुझे अभी भी ध्यान है, जब मैं पहली बार इस तरह के परिवर्तन से गुजरी थी तो एकांत में बैठकर खुद को लड़की होने पर कितना कोसा था। कितने ही अवसरों पर इस अवस्था के कारण मेरी प्रतिभाएं बाधित हुई थीं। मां ने बहुतेरा समझाया कि स्त्री होने के लिए यह जरूरी है, यह स्त्री को पूर्णता प्रदान करता है, इसके बाद ही वंश आगे बढ़ता है, मगर मैं महीनों अपनी लाचारी पर रोती रही। मैं पूछना चाहती थी कि पुरुष को अपनी पूर्णता के लिए ऐसी सजा से गुजरना जरूरी क्यों नहीं होता जबकि वंश तो उनके नाम का चलता है, और भी बहुत से प्रश्न मन में उठते मगर इसी असहजता के कारण मैं कभी पूछ नहीं पाई। आज रूपंती का इस तरह खुले तौर पर कुछ कहना मुझे चौंका गया। मुझे तो यह भी अंदाजा नहीं था कि रूपंती इन बातों के बारे में जानती भी है।

“तुम्हें महीना… होता है? मुझे तो आजतक पता ही नहीं चला…” थोड़ा हकलाते हुए मैं पूछ बैठी।

दरअसल इसने आज तक मुझसे ऐसा कोई सामान भी नहीं मंगवाया जबकि उसकी हर जरूरत का सामान मैं ही खरीद कर लाती थी।

मेरे संशय पर वह विजय गर्व से मुस्करा रही थी। उसने मुझे बड़ी ही खुफिया जानकारी देते हुए बताया कि यहां लाने से पहले एजेंट ने सभी लड़कियों को कुछ ऐसी जड़ी-बूटियां खिलाई थीं जिससे उनका मासिक धर्म होना रुक गया।

“मतलब?”  मैं हैरानी से चीख पड़ी, “तुमने क्यों कराया ऐसा?”

उसने बताया कि एजेन्ट ने नौकरी पर लगाने की यह शर्त रखी थी। उसके मुताबिक ऐसा करवाने से इन लड़कियों को कई तरह की परेशानियों से बचाया जा सकेगा।

मैं सकते में आ गई। यह क्या कह रही है? कैसी परेशानियों से बचाया जा सकेगा? मतलब अब इस शरीर को नोचो-खसोटो, कोई चिन्ह नहीं रहेगा…?

शहर देखने और शहर में जाकर पैसा कमाने का सपना देखने वाली बेचारी भोली-भाली लड़कियां, कहां जानती हैं कि इन्होंने कितना बड़ा सौदा किया है। मैं उसे बताना चाहती थी कि स्त्री की पूर्णता इसके बिना नहीं है और इस मुसीबत से बचकर न केवल वह मातृत्व सुख से वंचित रह जाएगी बल्कि उसकी वंश-बेल का विकास रुक जाएगा। ऐसी कई बातें जिनके प्रति मेरी मां ने मुझे सजग किया था, वे सब मेरी जुबान पर थीं।

अब तक शायद मेरे लिए औरत होना व्यक्ति होने से अधिक महत्वपूर्ण नहीं था मगर रूपंती से उसका यह अधिकार छीने जाने की साजिश ने अचानक ही इसे सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना दिया।

अगले ही दिन मैं उसे अपनी गाइनेकोलोजिस्ट के पास ले गई। कई तरह के जांच के आधार पर दी गई डॉक्टर की रिपोर्ट मेरी आशंका से परे नहीं थी। मन बड़ा आहत हुआ। संबंधों को लेकर मेरी व्यक्तिगत धारणा बहुत संवेदनशील रही है जिसकी वजह से मैंने खुद को विवाह और परिवार के बंधन से दूर रखा था मगर रूपंती के आने के बाद मेरी धारणाएं बहुत हद तक बदली थीं। रूपंती के साथ हुए इस छल को मैं बरदाश्त नहीं कर पा रही थी। मैंने डॉक्टर से देर तक इस संबंध में बात की। डॉक्टर ने मुझे कुछ उम्मीद बंधाई और मैं उसके कहे मुताबिक उसका नियमित उपचार कराने लगी।

वक्त बीतता रहा मगर हुआ कुछ नहीं, बस मेरा इंतजार मेरे सब्र का इम्तहान लेता रहा। फिर मैंने डॉक्टर बदल लिया। कई डॉक्टर बदले। रूपंती मेरे कहे अनुसार सब करती रही। जहां-जहां मैं उसे ले जाती रही, वह जाती रही। जो दवाइयां मैं उसे देती रही, वह खाती रही मगर नतीजा सिफर ही रहा। इधर रूपंती के स्वभाव में अचानक ही ठहराव-सा आ गया था। अब वह काम करते हुए गुनगुनाती नहीं थी, मुझसे जिज्ञासा भरे सवाल नहीं पूछती। वह चुप-चुप रहती। कई बार वह एकांत में पथराई आंखों से टकटकी लगाए शून्य में देखती रहती। उसकी ये खामोशी मुझे तोड़ने लगी।

मैंने हिसाब लगाया कि उसे अपना घऱ छोड़े लगभग पांच साल पूरे होने वाले थे और इन पांच सालों में वह कम से कम दस साल बड़ी हो गई थी। भरी जवानी में ही वह अधेड़-सी दिखने लगी थी।

“तुम्हारे गांव चलें?”

मैंने सोचा, घर जाकर, अपने लोगों से मिलकर यह जरूर खुश हो जाएगी।

गांव जाने की बात से सचमुच उसके चेहरे पर चंपई रंग उतर आया मगर उसके पास उसके गांव का पूरा पता नहीं था।

“मोरा नदी पार करने के बाद एक बड़ा-सा जंगल है, उसके थोड़ी दूर पर ही हाथीगोड़ गांव…” वह अपने गांव के बारे में बताने लगी।

इंटरनेट की सहायता से हम हाथीगोड़ नाम के उस गांव का पता लगा पाए जो असम के गुड़ियाझार जंगल पार करने के बाद स्थित है। हमने बेलतुला की टिकट बुक करा ली थी। इसके बाद गुड़ियाझार का घना जंगल था, जहां से यातायात का संपर्क नहीं था।

रेल के डिब्बे में चढ़ते हुए उसके चेहरे पर बचपन की पारदर्शी तरलता उतर आई थी। वह खिड़की से सटकर बैठी थी। बाहर के दृश्य उसके चेहरे पर उतरते जा रहे थे। हरे पेड़ों की छाया, उस पर आ-जा रही थी। उज्जड्ड हवा साधिकार उसके बालों से ढिठाई कर रही थी। अपनी आंखों के रास्ते वह हरे मैदानों में उतरती जा रही थी, धूलदार पगडंडियों पर दौड़ती जा रही थी। समय और स्थान की दूरियां, रेल की समानांतर पटरियों-सी साथ-साथ दौड़ी जा रही थीं। लगभग दो दिन का सफर, रूपंती के बीते बरसों की कथा बांच रहा था। कभी वह छूटे हुए गांव की याद करती तो कभी शहर की कहानी गांव को सुनाने लगती। खुली किताब-सा उसका चेहरा मेरी आंखों के सामने था और मैं जैसे कोई लंबा उपन्यास पढ़ रही थी। जब हमारी ट्रेन मोरा नदी के पुल से गुजरने लगी तो रूपंती के भीतर जैसे बाढ़-सी उमड़ आई। उसकी आंखें झर-झर बरस रही थीं। आज मैं भी उसके साथ वैसे ही उपस्थित थी जैसे मैं थी भी और मेरे होने की कोई आहट भी नहीं थी। वह निर्बाध अपने एकांत को जी रही थी, अपनी निजता में खुद से बात कर रही थी, खुद को सुन रही थी।

बेलतुला उतरकर हमें थोड़ा पूछना पड़ा। आगे की यात्रा हमें पैदल करनी थी। जंगल का इलाका शुरू हो चुका था और वहां गाड़ियों की आवाजाही नहीं थी। रूपंती रास्तों को पहचानते हुए हामी भरती जा रही थी।

“वो देखो, टेमरस…” उसने उछलकर पेड़ से लटकता अधपका अमरूद तोड़ लिया। उसे पता था कि अधपका अमरूद मुझे कितना पसंद है। पेड़ से तोड़े ताजा अमरूद का खिच्चा-खिच्चा स्वाद मन को तरोताजा कर गया। अब वह बच्चों-सी चहक रही थी। उसने अपना इलाका पहचान लिया था।

वह मुझे पेड़ों पर चहकती चिड़ियों से मिलवाने लगी,“मैना पाखुर… चौटाई पाखुर… पारुआ पाखुर…”

वह उन्हें भी मेरे बारे में बता रही थी। ऐसे पंछी मैंने दिल्ली में भी देखे थे मगर कभी उनसे इस तरह बात नहीं की थी। मैं हैरान थी कि क्या सचमुच ये एक-दूसरे की जबान समझते थे!

“मिनौतीsss, तिल्लोतमाsss, गुंजरोsss” गांव के मुहाने पर पहुंचते-पहुंचते वह अपनी सहेलियों के नाम पुकारने लगी थी।

विह्वलता में वह अपनी स्थानीय बोली में कुछ बोल रही थी। शायद वह अपने बचपन की कोई घटना बयान कर रही थी जो इन सहेलियों से जुड़ी थी। मैं हैरान थी कि इतने समय में जो बोली उसने एक बार भी नहीं बोली थी, आज बरसों बाद भी वह उसके कंठ से झरने की तरह झर रही थी और जो कोयल की तान की तरह मीठी लग रही थी। वह कुछ-कुछ बोलती जा रही थी, बिना इसका अहसास किए कि मैं इसे समझ भी पा रही हूं या नहीं। दरअसल वह तो आत्मालाप कर रही थी, जंगल-झाड़ से उनका हाल-समाचार पूछ रही थी, इतने बरस बाद वहां की धूल-मिट्टी का स्पर्श कर रही थी। उसकी हालत देख कर मैं भीतर-भीतर एक तरह की तुष्टि का अहसास कर रही थी कि मैं किसी की खोई हुई खुशी का माध्यम बनी थी।

आखिर नदी, कूआं, जंगल, मैदान पार कर हम एक ईंटघर के सामने खड़े थे। घर के भीतर से मंझोले कद का एक अधेड़ बाहर आया, रूपंती ‘बा’ कहकर जिससे लिपट गई थी। वह हमें भीतर ले गया। रूपंती अपनी मां से लिपटी देर तक रोती रही। मेरी उपस्थिति गौण हो चुकी थी। वे अपनी बोली में बोल रहे थे जो मेरी समझ से परे थी।

हाथीगोड़ बहुत सुंदर गांव था। वह ऐसा पिछड़ा इलाका भी नहीं था, इनके गांव को लेकर जैसी भ्रांति हम शहर वालों ने पाली हुई है। बल्कि सच कहूं तो ये लोग इतने गरीब भी नहीं थे कि हमारे घरों में साफ-सफाई, खाना बनाने का काम करते। यानी ये लोग सचमुच बस शहर को देखने के लोभ से ही गांव छोड़ कर आते हैं। मुझे पश्चाताप हुआ, जिनसे हम नौकरों की तरह व्यवहार करते हैं, उनकी स्थिति हमारी स्थिति से कोई कमतर भी नहीं थी। रूपंती ने अपने गांव के सभी लोगों से मेरा परिचय कराया, अपने जंगल, बागान घुमाए और खूब शौक से ताजा मछली खिलाई। सभी कुछ आनंददायक था, इतना कि मेरा वहां से लौट आने को मन ही नहीं कर रहा था। उसने मुझे अपने गांव के ओझा, बाबा से भी मिलवाया और मेरी तकलीफ की चर्चा की।

कह नहीं सकती कि यह उन जंगली बूटियों का कमाल था या उन आदिवासियों के प्यार का, कि दो दिन के भीतर ही मेरी कमर दर्द में आराम महसूस होने लगा था। मुझे उम्मीद बंधी कि रूपंती की भी रुकी हुई माहवारी जरूर शुरू हो जाएगी और वह मातृत्व के सुख को पा सकेगी। फिर भी, मन विचलित था क्योंकि कुछ भी सकारात्मक होता तो वह मुझे झट बताती, उसका कुछ न बताना ही मेरी शंकाओं का जवाब था।

पता ही नहीं चला कैसे दो से तीन और तीन से चार दिन बीत गए। लौटने की इच्छा न होते हुए भी मेरे भीतर लौट चलने का दबाव तेज हो रहा था।

आखिर मैंने चलने की बात उठाई, मगर उसे साथ चलने को कहने की हिम्मत फिर भी नहीं जुटा पाई। वैसे भी, अब वहां कुछ अधेड़ उम्र वासियों के सिवा बचे ही कितने लोग थे? ज्यादातर लड़के-लड़कियां शहर भेजे जा चुके थे। पानी भरने जाती लड़कियों की टोलियां तो कब की गुम हो चुकी थीं। जंगली पेड़ों की टहनियों पर झूलती, रंग-बिरंगे रिबन बांधे गीत गाती लड़कियों की आवाजें तो कब की सन्नाटे में बदल चुकी थीं।

चलते वक्त मन बड़ा भारी हो गया। गाड़ी स्टेशन पर आ लगी थी, रूपंती ने मेरा सामान गाड़ी पर चढ़ा दिया। उसने खिड़की की तरफ से मेरा हाथ पकड़ रखा था कि गार्ड ने हरी झंडी हिलाकर सिगनल दे दिया। गाड़ी धीरे-धीरे स्टेशन छोड़ने लगी और छूटने लगा रूपंती का हाथ। गांव का परिदृश्य किसी रंगीन चित्र सा स्थिर हो गया था। बहती नदी ठहर गई थी, पेड़ों पर झूलती हवा थम गई थी, जंगल-झाड़, पेड़-पहाड़, सब सदमा खाए खड़े थे।

अचानक मैंने देखा, खूबसूरत तितलियों का एक झुंड गांव की तरफ बढ़ रहा था, धिनधिन-धिन की अनुगूंज लिए कोई भनभनाहट सुनाई पड़ रही थी। मेरा कलेजा धक् से रह गया, क्या ये वही तितलियां हैं जिनका जिक्र रूपंती ने किया था… धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन…

रूपंती का सिर घुमाकर-घुमाकर नृत्य करना, मेरी चेतना में सजीव होने लगा।

उस रोज तो मैं रूपंती का गीत नहीं समझ पाई थी मगर आज उसकी बोली खूब अच्छी तरह समझ रही हूं।

‘शहर में ले गए पकड़ के जिन, औरत हूं पर चढ़े न दिन,

धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन…’

रूपंती की सहेलियां- मिनौती, तिल्लोतमा, गुंजरो भी उसके साथ गा रही थीं।

घने पेड़ों की संन्यासी देह से लिपटी जंगली लताएं बांझ हो चुकी थीं।

पेड़, पहाड़, नदी, नाले सब आदिवासी जाति की समाप्ति का कोरस गा रहे थे।

धिनधिन…धिन… धिनधिन…धिन… धिनधिन…

गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी।

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  • अलका सिन्हा

371, गुरु अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. – 2, सेक्टर – 6,

द्वारका, नई दिल्ली – 110075

alkasays@gmail.com

मोबाइल – 09868424477

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