कहानी : शहीद ख़ुर्शीद बी – कथाकार संतोष श्रीवास्तव

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शहीद ख़ुर्शीद बी

(पुरस्कृत – ‘अंतर्राष्ट्रीय स्टोरी मिरर कहानी पुरस्कार’)

दस्तक अँधेरी खामोशी को कुरेद गई| रज़ाई में दुबके रज्जाक मियाँ ने अपनी बीवी खुर्शीद की ओर दहशत भरी नज़रों से देखा और फुसफुसाये-‘कौन होगा?’

‘अल्लाह जाने, इतनी रात गए किसने कुँडी खटखटाई है? नजीर को तो मना कर दिया था कि रात हो जाए तो वहीँ रुक जाना|’ अपने अब्बू और अम्मी की फुसफुसाहटें सुन फरीदा अपनी बड़ी बहन जुबैदा से कसकर लिपट गई| दोनों के बदन पर दहशत रेंगने लगी| गला सूखने लगा| भयंकर ठंड में भी दोनों की गरम साँसें एक दूसरे को पसीना-पसीना करने लगीं| कश्मीर के हालात ही ऐसे हैं| कयामत बरपा है पूरी घाटी पर| रात सो लो तो सुबह का भरोसा नहीं, सुबह उठो तो रात का| तमाम घाटी सुलग रही है…|

दरवाज़ा फिर खडका, इस बार ज़ोर से-‘दरवाज़ा खोलो|’ खौफ फैलाती अपरिचित मर्दानी आवाज़ ने सबके होश उड़ा दिए| अँधेरे में भी दीवारों पर परछाइयों के डोलने का गुमान होने लगा… ‘अल्लाह रहम कर|’

रज्जाक मियाँ सहमते हुए उठे| दरवाज़े की फाँक में से झाँका, पर सिवा अँधेरे के कुछ नज़र न आया| डरते-डरते दरवाज़ा खोल दिया| वे गिनती में चार थे, चारों के हाथों में बंदूकें… काला लिबास… सर पर भी काले कपड़े बंधे हुए…|

‘हमें भूख लगी है, हमारे लिए खाना बनवाओ|’ उनमें से एक ने बंदूक की नली रज्जाक मियाँ के गले से सटा दी| रज्जाक मियाँ के शरीर का खून जम सा गया| तुरंत फैसला नहीं कर पाए कि क्या जवाब दें| इतना तो तय था कि चारों दहशतगर्द आतंकवादी थे…जिन्हें चाहिए खाना, पैसा और औरत…इनके चंगुल से निकलना आसान न था| ये सब पड़ोसी देश के भाड़े के टट्टू हैं…उद्देश्यहीन ज़िंदगी जीते… कितनों ने तो कश्मीर की खूबसूरती देखी तक नहीं होगी और कौन जाने इनमें अपने कश्मीरी लड़के भी हों| उन्हें भी तो वे बरगला कर आतंक फैलाने की ट्रेनिंग दे डालते हैं कि कश्मीर की वादियाँ हम इस्लाम को मानने वालों की हैं| इन वादियों को ‘हिंदुओं से बचाना होगा’ और ट्रेनिंग पूरी होते ही बंदूक की भाषा बोलते ये लड़के टूट पड़े हैं अपने ही हमवतनों पर|

खुर्शीद बी भीतरी कमरे के दरवाज़े से सटी खड़ी थीं| बंदूकों ने उनकी साँसों को तेज़ कर दिया था| बचाव का कोई उपाय न देख वे झट से बोलीं- ‘खाना अभी बन जाता है| आप बैठ जाइए|’

‘ए… हमें हुकुम देती है?’

नली रज्जाक मियाँ के गले में धँसी|

‘चीं चपड़ हमें पसंद नहीं| जो हम कहें करते जाओ|’ रज्जाक मियाँ की मुट्ठियाँ भिंचने लगीं| हथेली में अपने ही नाखून चुभने लगे| जी चाहा एक-एक की गरदन मरोड़ कर डल में डुबो आएँ…लेकिन मजबूरी भीतर ही भीतर हिम्मत तोड़ने लगी|

खुर्शीद बी ने डिब्बा टटोलकर बचा-खुचा आटा निकाला| जान सांसत में है… जरा सी मोहलत मिलती है, तो राशन के लिए बाज़ार दौड़ना पड़ता है, लेकिन धन की तंगी से फटी जेबें अपने सुराख फैलाने लगती हैं…कल तो ज़रूर फाका करना होगा| अभी तो जान बख्शें ये शैतान|

चार रकाबियों में खाना परोसकर खुर्शीद बी दरवाजे तक आईं| रकाबियाँ नीचे लकड़ी के फर्श पर रख दीं| पानी का बर्तन भी| वे चारों खाने पर टूट पड़े| अँधेरे में उनके चबड़-चबड़ हिलते जबड़े मगरमच्छ का एहसास करा रहे थे| मानो वे रज्जाक मियाँ सहित खुर्शीद बी को निगले जा रहे हों| खा-पीकर उन्होंने डकार ली और शरीर पर तारी होते अन्न के नशे से उनींदी आँखें लिए वे बोले-‘हमें लड़कियाँ भी चाहिए, बस आज की रात|’ रज्जाक मियाँ सहम गए| खुर्शीद बी ने दोनों लड़कियों को रजाई से तोप दिया| अपनी समझ और होशियारी से उन्होंने दोनों लड़कियों की हिफाजत का पूरा इंतजाम कर लिया था| वे बिस्तर पर औंधी हो जातीं और उन पर चादर बिछा कर उसके चारों कोने खटिया से बाँध दिए जाते, ताकि कोई आसानी से उलट न पाए| चादर पर पुआल से भरी रजाई तोप दी जाती…यूँ लगता मानो समतल रजाई बिछी हो| औंधी पड़ी लड़कियाँ खटिया की मूंज को कुछ इस तरह नाक और मुँह के आस-पास खिसका देती कि दम न घुटे, साँस बाकायदा ली जा सके|

‘लड़कियाँ तो हमारे पास हैं नहीं|’ रज्जाक मियाँ ने तैश की गर्मी रगों में अंदर ही पैबिस्त कर ली और आवाज़ में बखूबी घिघियाहट ले आये|

‘ए बुड्ढे, झूठ बोला तो खुदा कसम, जबान तराश देंगे| तलाशी लो कमबख्त की|’

‘बेशक पूरा घर, खुला पड़ा है|’ रज्जाक मियाँ की आँखों की चिनगारियाँ उसमें तैरते पानी को सोखने लगीं| चारों ने बारी-बारी से एक दूसरे की ओर देखा| औरत की चाह में अँधी हुई आँखों में कुछ इशारे हुए|

‘तब अपनी औरत हमारे हवाले कर|’

रज्जाक मियाँ मानो होश खो बैठे| गले में कांटे उगने लगे, उनके ही सामने उनकी बीवी की छीछालेदर? जिसके बदन को आज तक गैर मर्द ने नहीं छुआ और जिसके रेशमी बदन की हर सरसराहट पर वे सौ जान से फिदा रहे, आज उसी को इन शैतानों के हाथों में …अल्लाह! ये दिन दिखाने के पहले तूने हमें कब्र तक क्यों न पहुँचा दिया? क्या कसूर है हमारा? क्या किया है हमने? सुबह-शाम दो जून की रोटी और चैन की नींद पर ही तो सब्र किया हमने, तुझ से कुछ अधिक तो नहीं माँगा| फिर? और वे मन ही मन रो पड़े| चारों खामोशी से बैठे रहे लेकिन चौकस… बंदूकें हाथ में सीधी तनी हुई… इनके मन में न इंसानियत है न धर्म…कीड़े-मकोड़े की तरह जी रहे हैं ये… पेट की भूख और तन की भूख बंदूक के बल पर मिटा लेते हैं ये… खुर्शीद बी के दिल में दोनों लड़कियों के लिए खौफ समा गया… इन जल्लादों की मर्जी के खिलाफ जाने पर हो सकता है ये हमें गोलियों से भून डाले और घर का कोना-कोना उजाड़कर लड़कियों के जिस्म को रौंद डालें…फिर? सवाल… कौन दे जवाब… सवाल? हाँ, अपने को मिटाना होगा… मिटाना ही होगा| वे उठीं… इरादा मजबूत किया…दिल ही दिल में अपने शौहर से माफी माँगी, रजाई में दुबकी अपनी मासूम लड़कियों की ओर देखा, फिर रज्जाक मियाँ की ओर जो ज़िंदगी के जुए में अपना सब कुछ बस हारने ही वाले थे, लेकिन जिन्हें यह नहीं पता था कि पांसा किसकी ओर से फेंका गया है…और दुपट्टा अच्छे से ओढ़ बाहर आ गई-‘चलिए..’

“क्या कह रही हो खुर्शीद, तुम इन जल्लादों के साथ जाने के लिए तैयार हो ?”

खुर्शीद बी ने इस तरह अपने शौहर की तरफ देखा जैसे कुर्बानी के लिए ले जाती हुई बकरी की पथराई आँखे। उसने नजरें नीची कर लीं।

 उनके भारी बूटों तले रज्ज़ाक मियां तब तक चीखते रहे जब तक उनके बंदूकों के कुंदे की मार से वे बेहोश नहीं हो गए।

सुबह के धुँधलके में खुर्शीद बी लौटीं| दीवार का सहारा लेती अपने शौहर से नज़रें ने मिला पाने की शर्मिंदगी में पानी-पानी हुई…फटे कपड़े…चेहरे पर पड़ी खरौंचों में छलछलाता लहू, जार…जार इज्जत लिए वे लकड़ी के फर्श पर ढेर हो गईं| यूँ लगा मानो पूरा घर ही रात के भूचाल में जमींदोज हो गया है और उसके मलबे से निकलती लड़कियाँ रोती हुई उनके शरीर से लिपट गई हैं| शर्म से पानी-पानी तो रज्जाक मियाँ भी थे…बीवी की इज्जत न बचा पाने की नामर्दगी ने उन्हें झकझोर डाला था| उन्होंने दाँत किटकिटाकर अपने बाल नोचते हुए अपना सर दीवार पर दे मारा…तभी नज़ीर दाखिल हुआ| रात भर वह अपने दोस्त के घर छुपा रहा था, क्योंकि सडकों पर आतंकवादी दहशत फैलाये थे| वे हवा में गोलियाँ दागते… जवाब में गश्त देती सैनिक टुकड़ी गोलियाँ दागतीं…पेड़ों पर बने घोंसलों में कई परिंदे अपने पर एक साथ फड़फड़ाते| दिन भर अखरोट की लकड़ी और बेंत से सजावटी सामान बनाने का काम करके नजीर रात में लौटता था, लेकिन कल रात नहीं लौट पाया था| कमरे में आकर उसने सर की ऊनी टोपी उतारी-‘क्या हुआ अम्मी को?’

सबने एक दूसरे की ओर वीरान बुझी हुई आँखों से देखा| उन आँखों में जाने क्या था कि नजीर सहम गया| वह सब कुछ समझ गया था| लगातार ग्यारह वर्षों के खूनी संघर्ष ने कश्मीर घाटी के बच्चे-बच्चे के दिल में अपनी परिभाषा खंजर की नोक से लिख दी थी| यह घाटी बेगुनाहों के खून और बेईज्जती का बोझ ढोते-ढोते वीरान होती चली जा रही है| सियासी सनक में पिस रहे हैं भोले-भाले कश्मीरी और विधवा हो रही हैं बहारों में सोलहों श्रृंगार से खिली हुई घाटियाँ| जहाँ की वादियों में शताब्दियों से गूँज रहे थे हब्बा खातून के दर्दीले प्रेम भरे गीत, अब वहाँ बम के धमाकों की तबाही है|

खुर्शीद बी ने करवट बदली तो उनके मुँह से कराह निकल पड़ी| फरीदा तपाक से पानी ले आई| नजीर ने हाथ का सहारा देकर उन्हें पानी पिलाया, वे बुखार से तप रही थीं| सुबह से घर में चाय तक नहीं बनी थी| रसोई में डिब्बे और शरीर में दिल…खाली हो चुके थे| नजीर चुपचाप उठा, आधे घंटे बाद चाय का सामान और पावरोटी लिए लौटा| जुबैदा चाय बना लाई| बादाम, दाल-चीनी और इलायची में पका हुआ गर्म तल्ख कहवा किसी जमाने में रज्जाक मियाँ के दिमाग तक गरमी पहुँचा देता था| आज सादी चाय के पानी की घूंट हलक में आग की लपट सी उतरी, वे दीवार की ओर मुँह किए चाय पीते रहे| क्या नज़रें मिलाएँ लड़के से…यह कि वे उसकी अम्मी की इज्जत की हिफाजत नहीं कर सके? बड़ा बौना महसूस कर रहे हैं वे नजीर के सामने| अपनी खिचड़ी दाढ़ी के साथ हासिल हुए उम्र के तजुर्बात से वे खानदान में सराहे जाते थे| ईमानदारी और नेकनामी ने उन्हें मुहल्ले में खास व्यक्ति बना दिया था…आज मानो सब कुछ मिट्टी में मिल गया, वह भी अपनी औलाद के सामने ही| कमरे में चाय की चुस्कियाँ गूँजती रहीं और गूँजता रहा खौफनाक सन्नाटा, जो उस घर के हर शख्स के चेहरे से उतर कर फर्श और दीवारों को सहमा रहा था| बोसीदा घर पर दहशत तारी भी और घाटी में धुआँ हुए वजूद को अपने में समो लेना चाहती हो|

खुर्शीद बी का पोर-पोर दर्द से कड़क रहा था| बुखार में तपते फेफड़ों से गर्म साँसें बाहर निकलकर उन्हें सुला सी रही थीं| जोरदार रुलाई का भभका गले में गोले की तरह अटका था| काश रो पातीं…लेकिन वे तो अपराध भावना से जकड़ी थीं| कितनी बार रज्जाक मियाँ ने कहा था-‘चलो, जम्मू चल कर रहते हैं| जान बची रहे, तो घर तो बस ही जाता है|’ पर वे ही अड़ी रहीं, कैसे छोड़ें कश्मीर? इन्हीं वादियों में तो उनकी जवानी उठी, ढली…उनकी ज़िंदगी परवान चढ़ी| पूरे तीस बरस गुज़ार दिए रज्जाक मियाँ के साथ| नजीर अठ्ठाइस का हुआ चाहता है…नासिर दस बरस का था, निमोनिया में चल बसा, बड़ी बेटी सईदा भी आठ महीने की उम्र में चल बसी| तीन बच्चे जन्म ही न ले पाए…कच्चे गिर गए| वे आठ बार इसी घाटी में माँ बनीं…सुख-दुःख झेले| अब जब नजीर काम धँधे वाला हो गया और जब बहू तलाशने का अरमान अंगड़ाई लेने लगा, तो वे कश्मीर छोड़ दें? विस्थापन का दर्द झेलें? बढ़े दरख्त की क्या दोबारा जड़ें जमी हैं कहीं? हालाँकि कार्वेट मर्चेंट, फ्रूट मर्चेंट… बड़े-बड़े व्यापारी चले गए पंजाब, दिल्ली, मुंबई अपना कारोबार बचाने| हम शिकारे वाले कहाँ जाएँ? ठोस जमीन पर डल की लहरें कहाँ खोजें? न सेब अखरोट के बाग-बगीचे रहे, न केसर की क्यारियाँ…सब उजड़ गया| आतंकवादियों के खौफ में सोते-जागते सालों साल गुजार दिए हैं उन्होंने| दोनों लड़कियाँ खौफ के साये में ही कली से फूल बनीं| खुर्शीद बी खुद भी, वरना वो दिन भी थे जब कश्मीर की खूबसूरत वादियों में ब्याही जाने का उन्हें गर्व था| रज्जाक मियाँ का अपना शिकारा था| डल लेक की सतह पर दुल्हन सा सजा उनका शिकारा तैरता रहता| शिकारे का नाम बहुत सोच समझकर उन्होंने ‘न्यू अशोका’ रखा था| सैलानी पूरे-पूरे दिन उस पर सैर किया करते| खुर्शीद बी छोटी सी डोंगीनुमा नाव खेती सैलानियों के कहने पर फूल लातीं या अखरोट चिलगोजे| तब वे अखरोट की छाल से अपने दांत मोती जैसे चमकाती थीं| होंठ लाल दहक उठते थे…बड़ी सुंदर थीं वे तब| लेकिन उन्हें अपनी खूबसूरती का एहसास तक न था| दिन भर वे अपनी गृहस्थी में रमी रहतीं, बच्चों की परवरिश में रमी रहतीं और रज्जाक मियाँ की आँख के इशारे पर सौ-सौ जान से कुर्बान होती रहतीं| ज़िंदगी के अभावों के बीच भी उन्हें अपने शौहर पर नाज़ था|

शिकारे में सैलानियों के बैठते ही रज्जाक मियाँ शुरू हो जाते-‘जनाब, मशहूर है हमारा शिकारा| डल लेक की सैर करने वाले लोग हमें ही पूछते हैं कि कहाँ है रज्जाक मियाँ का शिकारा? इसीलिए तो इसका नाम ‘न्यू अशोका’ रखा| आराम से बैठ जाइए जनाब तकियों के सहारे…कंबल ओढ़ लीजिए| सर्दी बहुत है| मैं कांगड़ी गरम किए देता हूँ|’


रज्जाक मियाँ कांगड़ी में अंगारे भरकर उन्हें देते| सैलानियों के सुकून के साथ ही रज्जाक मियाँ की जानकारियों की पोटली खुलने लगती-‘जनाब, ये सामने महाराजा कर्ण सिंह की कोठी है| पिछले साल सर्दियों में डल का पानी जमकर बर्फ हो गया था…तो इस पर स्केटिंग की थी उन्होंने…खूब फिसले थे सैलानी इस पर…’ रज्जाक मियाँ हँसने लगते, सैलानी भी हँसते| रज्जाक मियाँ दुगने जोश से बताने लगते-‘ये पहाड़ पर पीछे की तरफ अकबर का किला है, इस तरफ सबसे ऊँचा ये शंकराचार्य का मंदिर है| थोड़ा चढ़कर जाना पड़ता है पर रास्ता अच्छा है| जी हाँ… पहाड़ी रास्तों जैसा ही तो होगा न| ये स्वीमिंग बोट है देखिए उस तरफ देखिए… दिखा न! इधर वॉटर स्वीमिंग करते हैं| एक मिनट का दो रूपया लगता है| ये सामने जो दो पहाड़ दिख रहे हैं न…वो जहाँ जुड़ते हैं वो पंच सितारा होटल है| उसी में रुके थे शम्मी कपूर साहब अपनी यूनिट के साथ…अरे वही ‘कश्मीर की कली’ फिल्म बनी थी न, अब क्या बताएँ जनाब, इसी शिकारे पर शम्मी कपूर साहब शूटिंग से निपटकर आराम फरमाते थे…मेरी बीवी के हाथ का कहवा उन्हें बहुत पसंद था|’

‘हमें भी पिलवाइए मियाँ…कश्मीरी कहवा|’

‘कहवा तो जनाब कश्मीरी ही होता है, अभी लीजिए|’ और बेंतों के झुरमुट के नज़दीक वे शिकारा रोक देते| वहीँ खुर्शीद बी अपनी छोटी सी नाव पर होतीं कहवा बनाने का सामान और बिस्किट लिए| डल लेक पर बेंतों के झुरमुट के बीच शिकारे में बना कहवा सैलानियों को दुगना लुत्फ और गर्मी देता| इस मेहमाननवाजी का कभी वे अतिरिक्त पैसा नहीं लेते सैलानियों से|

‘देखिए जनाब उधर दो स्पेशल शिकारे खड़े हैं न उनमें इंदिरा गांधी आकर रूकती हैं? जब वे रूकती नहीं हैं न तो शिकारा मैं चलाता हूँ|’

रज्जाक मियाँ का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता| यही तो बातें हैं जो उन्हें सैलानियों के बीच चर्चित करती हैं| उनके कहने के लहजे पर रीझ जाते थे वे और घंटों सैर करते रहते डल लेक पर| रज्जाक मियाँ मेम साऽबों को बड़े अदब से वॉटर लिली के फूल तोड़कर देते| बच्चों के लिए उनके शिकारे में छोटी सी पतवार भी थी| उनका मानना था कि सैलानी मौज-मस्ती के लिए कश्मीर आते हैं, तो हमें भी उनका पूरा ख्याल रखना चाहिए| सैलानियों के पास चाहे जैसा कैमरा हो, रज्जाक मियाँ फिल्मी पोज में फोटो भी खींच देते थे उनकी|
डल लेक श्रीनगर की जान थी| क्या नहीं था उस पर| पूरा का पूरा बाज़ार शिकारों पर सजा रहता| कपड़े, राशन, फल, फूल, मक्खन, मछली, चाय, बिस्कुट… खुर्शीद बी अक्सर शिकारों पर से ही सौदा सुलुफ करतीं| दिन के बारह घंटे रज्जाक मियाँ के शिकारा पर ही गुज़रते| मई-जून का महीना उनके लिए ईद का महीना साबित होता| पूरे दिन शिकारा सैलानियों में व्यस्त रहता और झुटपुटा होते ही जब हाउसबोट रौशनी और चहल-पहल से आबाद होने लगतीं तब अपने ऊँघते शिकारे को किनारे पर खड़ा कर रज्जाक मियाँ के जिस्म में सुकून तारी होने लगा| अपने छोटे से घर में बच्चों की चहक के बीच खुर्शीद बी मटन का सालन पका रही होतीं या पालक गोश्त| दूर कश्मीरी भट्ट के घर पक रहे कड़म के साग की खुशबू खुर्शीद बी के पकाये पालक गोश्त में घुल मिलकर एक नई महक पैदा कर देती| खुशबुओं का मिलन दिलों का मिलन था… न हिंदू न मुसलमान… पहचान बस कश्मीरी… चाहे भट्ट हों या रज्जाक मियाँ… सबके सब कश्मीर घाटी के बाशिंदे| यह उन दिनों की बात है जब नजीर और नासिर दीनी तालीम के लिए दरगाह जाते थे| छोटे-छोटे फिरन और ऊनी टोपियाँ पहनकर| रज्जाक मियाँ भी फिरन पहनते, सिर पर ऊनी टोपी, पैरों में कश्मीरी जूते… उनके गोरे लाल गालों पर तराशी हुई काली दाढ़ी होती और चमकीली जवान आँखें… कि अचानक इन आँखों में दहशत तारी होने लगी| कश्मीर सुलग उठा| आतंकवाद का दानवी पंजा कश्मीर की वादियों पर कहर बनकर टूट पड़ा| न बारिश हुई न ओले गिरे, न हिमपात हुआ लेकिन डल झील के तैरते बगीचे, स्वीमिंग बोट, हाउस बोट, शिकारे सब बियाबां में तब्दील होने लगे| निशात बाग, शालीमार बाग, नसीम बाग, चश्मेशाही, नगीन लेक, चार चिनार सब पर खूनी शिकंजा कसता गया| हजरत बल की अजान दूर से भी नसीब होना मुश्किल हो गया| समय रिसता रहा| गोलियाँ, बम, हथगोले मानो कश्मीर का शगल बन गए और रज्जाक मियाँ चौंक पड़े? सियासी ताकतों ने तो जन्नत में भी दखल देना शुरू कर दिया? अल्लाह! क्या होगा अंजाम इनका? कश्मीर की हसीन वादियों के गुण गाते हुए रज्जाक मियाँ सैलानियों को शेर सुनाते थे-‘अगर फिरदौस बररुए जमी अस्त…अमी अस्त, अमी अस्त|’ लेकिन इस फिरदौस का अमन चैन? कहाँ गया वो सुकून? और इसके पहले कि वे अपने फिरदौस के लिए जार-जार आँसू बहाते, बवंडर उनके घर में भी पैबिस्त हो गया| गोलियों की आवाज़ सुन-सुन कर आठ महीने की सईदा अल्लाह को प्यारी हो गई| फिर नसीर गया निमोनिया में और कश्मीर की तरह ही रज्जाक मियाँ भी उजड़ गए| अपनी हैरत भरी आँखों से वे देखते रहे कश्मीरी पंडितों और कश्मीरी मुसलमानों का भागना| विस्थापन का दर्द समूचे कश्मीर में फैल गया| भागते हुए भी कितने गोलियों से भून दिए गए, कोई गिनती है? मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों ने पहले भी देश का बंटवारा कर बेगुनाहों के खून की नदियाँ बहाई हैं और अब कश्मीर की भी छीना-झपटी सियासी सनक का ही तो सबूत है| फिर चाहे यह सनक अपनी हवस अमरनाथ तीर्थ यात्रियों पर खाना खाने के दौरान गोलियाँ बरसा कर पूरी कर रही हो या बसों, ट्रकों से कश्मीरियों को उतार-उतार कर जंगलों में ले जाकर गोलियों से भून कर पूरा कर रही हो| घरों में घुसकर मर्दों का कत्ल और औरतों की अस्मत लूटना तो बड़ी मामूली सी बात है इनके लिए| दुनिया के देशों के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ, अमेरिका जैसे विश्व के सबसे अधिक ताकतवर देश के राष्ट्रपति जब भारत के दौरे पर आते हैं तो सियासी सनक चित्तीसिंग में पैंतालीस सिखों की निर्मम हत्या करके अपनी कौन सी ताकत का सबूत देना चाहती हैं? लश्कर-ए-तोइबा के आत्मघाती हमले, हवाई अड्डों पर तबाही मचाने की धमकी, बांदीपुरा और खन्नाबल के थर्रा देने वाले हमले और लाल किले का वाकया| कोई हिसाब है इस सबका? पाकिस्तानी अखबारों ने खुलेआम ऐलान कर दिया था कि हरकतुल मुजाहिदीन के लोग शीघ्र ही जम्मू-कश्मीर में रमजान के पवित्र महीने में हमला करेंगे और उनका सबसे ज़ोरदार हमला होगा रमजान के सत्रहवें दिन जब बद्र की लड़ाई लड़ी गई थी|

दोपहर ढलते ही तीन फौजी घर के सामने आए और रज्जाक मियाँ को बुलाने लगे-‘हम आर्मी पोस्ट से आए हैं| तुम्हारा बेटा और तुम हिजबुल मुजाहिदीन के आदमी हो| चलो बाहर निकलो|’

खुर्शीद बी बुखार में चीख पड़ीं-‘कौन कहता है हम उनके आदमी हैं…बरसों से इसी घाटी में रह रहे हैं…कोई उँगली तो उठाए|’

‘कल तुम्हारे घर में उनके आदमियों ने खाना खाया|’

‘सच है जनाब|’ रज्जाक मियाँ आगे बढ़े-‘लेकिन खुदा कसम मैं अपनी रग-रग से कश्मीरी हूँ| शिकारा चलता था जनाब मेरा| बच्चे से जवां हुआ यहीं…इन्हीं वादियों के गुण गाते-गाते…किसी से भी पूछ लीजिए|’

‘फिर खाना क्यों खिलाया तुमने?’

‘नहीं खिलाते तो वे हमें गोलियों से भून डालते|’

फौजियों के पास जिरह का वक्त न था| वे रज्जाक मियाँ और नजीर को पकड़कर ले गए| फौजी गाड़ी मानो खुर्शीद बी के कलेजे को चीर गई| वे पीछे-पीछे दौड़ीं| अपना कुरता सामने से फाड़ डाला-‘छोड़ दो उन्हें हम कश्मीरी हैं…अपने कश्मीर की खातिर ये देखो…रात भर छातियाँ नुचवाई हैं मैंने…हम बेगुनाह हैं…छोड़ दो उन्हें…|’

लेकिन उनकी पुकार पर फौजी गाड़ी के पहिये चल गए और पुकार वहीँ दफन हो गई| वीरान कच्ची सड़क को वे फटी-फटी आँखों से देखती रह गईं…आँखों के सामने अँधेरा छा गया…लेकिन अपनी आखिरी कोशिश में भर ताकत जीप की दिशा की ओर दौड़ी पीछे-पीछे रोती बिलखती दोनों लड़कियाँ| खुर्शीद बी का संतुलन बिगड़ गया| पैर झाड़ी में उलझ गया और एक बड़े से नुकीले पत्थर पर वे गिर पड़ीं| माथा फट गया| जमीन ढलवाँ थी, लुढ़क कर वे दूसरे पत्थर पर सिर के बल गिरीं| चोट गहरी और जानलेवा थी| लहू उबलकर नाक, कान, आँखों से बहने लगा| अंतिम साँस लेते हुए भी खुर्शीद बी के होठों पर बस यही रटन थी…’हम कश्मीरी हैं… हम कश्मीरी…|

  • कथाकार संतोष श्रीवास्तव

1 thought on “कहानी : शहीद ख़ुर्शीद बी – कथाकार संतोष श्रीवास्तव

  1. बहुत-बहुत शुक्रिया राजुल जी मेरी कहानी प्रकाशित करने के लिए।

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