कहानी : सुखमनी- डॉ अमिता दुबे

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सुखमनी



‘गुलशन के दार जी! दो दिन हो गये अपनी सुखमनी नहीं दिखायी दी’ सरदारनी रुमाल कौर ने पति से पूछा। कुछ कह गयी थी क्या ?
‘कौन सुक्खी’ सरदार बलवंत सिंह के स्वर में कोई उत्साह नहीं था। उनका स्वर कुछ रूखा लगा था रुमाल कौर को।
‘अच्छा तुसी सुक्खी को भुल्ल गये। रुमाल कौर को आष्चर्य मिश्रित दुख हुआ वह कुछ आगे कहतीं कि इससे पहले सरदार जी अपनी विषेश शैली में ग्राहकों को बुलाने लगे- आओ जी! चा पी के जाओ जी, परौठे खा के जाओ जी आओ जी। रुमाल कौर को लगा आज सरदार जी की आवाज में वह सोंधापन नहीं है जिसके लिए लोग उनकी प्रशंसा करते हैं।
सरदार बलवंत सिंह को सरकारी नौकरी से रिटायर हुए पाँच बरस हो चुके हैं। रिटायरमेण्ट के बाद एक बरस तो उन्होंने खूब सैर-सपाटा किया। कभी किसी रिश्तेदार के यहाँ तो कभी किसी दोस्त के घर। अपने शहर में भी और बाहर भी। पत्नी को साथ लेकर तीर्थस्थलों का भ्रमण भी कर आये। गुरुद्वारों में मत्था टेका तो माता की चढ़ाई भी चढ़ डाली। लेकिन यह सब कितने दिन चलता। आखिर लौटकर सबको घर ही आना होता है।
सरदार जी का छोटा परिवार है दो ही बेटे हैं दोनों अपनी-अपनी गृहस्थी में मगन। दोनों के दो-दो बच्चे। बड़ा बेटा चण्डीगढ़ में छोटा बरेली में सरदार-सरदारनी अमृतसर में। जब से रिटायर हुए हैं तब से कई बार बेटा-बहू अपने पास हमेशा के लिए रहने को बुला चुके हैं। दोनों पति-पत्नी बच्चों की बात को टाल जाते हैं। पिछली बार बड़े बेटे ने तो साफ-साफ कह दिया था-‘दारजी और बीजी! अब आपका अमृतसर में कुछ नहीं रखा है। छोड़ो यहाँ का मोह सबकुछ बेच-बाचकर या तो चण्डीगढ़ में मकान ले लो या बरेली में। वैसे यहाँ इतना बड़ा घर है बिकने पर दोनों जगह मकान लिया जा सकता है। छः महीने चण्डीगढ़ रहो और छः महीने बरेली। हमें भी किराये के मकानों से छुट्टी मिले। आप भी खुश हम भी खुश।
बलवंत सिंह जानते हैं दोनों बेटों के घरों में उनकी और पत्नी की गुजर नहीं है। बड़ी बहू सीधी-सादी है पर बेटा गुलशन बेढ़ब है हर समय उतावली में रहता है ‘करो या मरो’ की शैली में। बहू पर ही चिल्लाता रहता है बिना सोचे-समझे कहीं भी शुरू हो जाता है। बोलते समय भूल जाता है कि क्या कहने वाली बात है क्या नहीं। वहीं दूसरा बेटा जोगिन्दर धीर-गम्भीर है धीमी आवाज में बात करता है सबको मान-सम्मान देता है सबसे मिलता-जुलता है तो उसकी बहू बेढ़ंगी है। फैशन की तो वह पुतली है। सारा दिन साज सिंगार में लगी रहती है। टी0वी0-पिक्चर की दीवानी बच्चों के लिए उल्टा-सीधा खाना बनाकर टी0वी0 के आगे बैठ जाती है क्या मजाल उठकर कोई काम सुन ले। जोगिन्दर को फैक्ट्ररी के काम से महीने में बीस दिन बाहर रहना पड़ता है ऐसे में बहू की मनमानी चलती है पूरे घर में। इस बहू के साथ सलीकेदार रुमाल कौर की गुजर नहीं तो तेजतर्रार गुलशन से पिता की नहीं पटने वाली। यही कारण है कि बुढ़ापे की ओर बढ़ते हुए एक दूसरे के साथ कदम से कदम मिलाते हुए सरदार-सरदारनी ने अमृतसर में ही रहने का निर्णय लिया। उनके इस निर्णय से बच्चे नाराज हो गये। जब-तब खरी-खोटी सुनाते रहते हैं जिसे दोनों एक कान से सुनकर दूसरे से निकाल देते हैं। दो लड़खड़ाते कदम एक दूसरे का हाथ थामकर जीवन जीने की कोशिश में लग गये हैं।
शुरू से ही रुमाल कौर को बेटी की बड़ी तमन्ना थी। उन्होंने तो बेटी का नाम भी रख लिया था- ‘सुखमनी’। पहली बार जब वे माँ बनने वाली हुईं तो बड़ी-बुढ़ियाँ आशीर्वाद देतीं- ‘पुत्तर ही होवे’ तो वे सोचतीं सुन्दर सी बिटिया क्यों नहीं ? सपने बुनतीं बेटी को गुड़िया की तरह सजा-सँवारकर रखेंगी। उसके रूप में अपना बचपन दोहरायेंगी। बेटे गुलशन के आने पर सब की तरह उन्हें बहुत खुशी नहीं हुई थोड़ी-थोड़ी हुई। पति उनके मनोभावों को जानते थे इसलिए समझाया था ‘क्यों मन छोटा करती है रब की बन्दी! वाहे गुरु तेरी इच्छा जरूर पूरी करेंगे।’
गुलशन डेढ़ बरस का ही था कि उनके पैर फिर भारी हो गये। रुमाल कौर फिर सपनों की लड़ी पिरोने लगीं। नन्हें-नन्हें गुलाबी हाथ पैरों वाली सुखमनी धंुघराले घने भूरे बालों वाली सुखमनी। गुलाब की तरह खिलने वाली सुखमनी। लेकिन इस बार भी उन्हें सुखमनी नहीं मिली मिला जोगिन्दर। इस बेटे को कई वर्षों तक उन्होंने लड़की बनाकर रखा। खूब सजाया-सँवारा लेकिन भगवान का दिया बेटा बेटी कैसे बन जाय। फिर पति ने समझाया- दोनों बेटों को लाड़-दुलार कर। पाल-पोसकर बड़ा कर अब बहू बनकर आयेगी तेरी ‘सुखमनी’। रुमाल कौर ने भी समझौता कर लिया। इंतजार करने लगी बहू के रूप में सुखमनी के आने का।
बड़ी बहू बड़ी सोणी कुड़ी मिली। साँवले रंग की पर एक आनोखी मासूम छवि थी उसके मुख पर। रुमाल कौर के दिल में उतर गयी वो। वह अपनी बहू के लाड़ करती उसे बेटी की तरह रखती जैसे हथेली का छाला। थोड़े दिन सब ठीक चला। बहू सास के अनुसार सजती-सँवरती, खाती-पीती। एक दिन बेटे गुलशन के कमरे में आती हुई आवाज ने रुमाल कौर के सारे अरमान धो डाले- ‘बेटा बहू पर बरस रहा था यह क्या नौटंकी बनी घूमती रहती हो पूरे घर में। तुम्हें देखकर कोई कहेगा तुम कितनी पढ़ी-लिखी हो। जिसके लिए मैंने तुम्हें पसन्द किया कहाँ गयी तुम्हारी आधुनिक जीवन शैली। मैं देख रहा हूँ तुम तो गँवार से भी बदत्तर हो।’
बहू कह रही थी- ‘मैं क्या करूँ तुम्हारी माँ मुझे जैसे रहने को कहती हैं मैं वैसे ही रहती हूँ। इसमें मेरी क्या गलती है। वैसे हमें यहाँ रहना ही कितने दिन है फिर तुम जैसे रखोगे रहूँगी। यह मेरा असली रूप थोड़े ही है।’ आगे की खिलखिलाहट रुमाल कौर नहीं सुन पायीं। यह तो अच्छा हुआ कि बहू-बेटे को अगले ही दिन जाना था नहीं तो रुमाल कौर बहुत परेशान हो जातीं।
फिर जोगिन्दर की षादी के समय उन्होंने सुखमनी का सपना नहीं पाला। दूध का जला छाछ फूँक-फूँककर पीता है। इस बार उन्होंने कुछ नहीं सोचा न कुछ कहा। यह बहू तो और एक हाथ आगे निकली। अमृतसर से हनीमून मनाने मनाली गयी और वहीं से माँ की तबियत खराब है कहकर मायके चली गयी। पूरा एक महीना माँ के पास रुककर बेटे के पास बरेली चली गयी। तब से फिर कभी इतना रुकी ही नहीं कि रुमाल कौर उसमें ‘सुखमनी’ को ढूँढ़ सकतीं। कुल मिलाकर सुखमनी को पाने की इच्छा अधूरी ही रह गयी उनकी।
बलवंत सिंह मेहनती आदमी थे। रिटायमेण्ट के पाँच वर्श बाद भी उनका कसरती बदन ढीला नहीं पड़ा था। वे देख रहे थे रुमाल कौर कुछ सुस्त हो रही है। उन्होंने एक निर्णय लिया ढाबा खोलने का निर्णय वह भी स्वर्ण मन्दिर के सामने। पहले पहल तो रुमाल कौर ने हँसी उड़ायी- ‘जिन्दगी भर फाइलें काली-पीली कीं अब चले हैं ढाबा खोलने वह भी घर से तीन किलोमीटर दूर।’ सरदार जी ने समझाया था- ‘रब का दिया अपने पास भतेरा है। बेटे, पोता-पोती सब। बस नहीं है तो कोई काम। क्यों न हम जग सेवा करें। भूखे को खाना खिलाना तो सबाब का काम है। हम कम दाम में अच्छा खाना खिलायेंगे। उतने ही पैसे लेंगे जितनी लागत लगनी है। कोई गरीब-गुरबा आ जायेगा तो मुफ्त भी खिला देंगे। तू आलू, गोभी, मूली के परौठे कितने अच्छे बनाती है। सोच तेरा समय कितना अच्छा बीतेगा। घर में पड़ी-पड़ी बुड्ढी हो रही है। घर से निकलेगी तो बदल-बदलकर सलवार कमीजें पहनेगी। बाल रँगेगी तो बुड्ढी से जवान लगेगी और सबसे बड़ी बात घर की दीवारों से बात करने की जगह इंसानों से बोलेगी-बतियायेगी। और हम अपने ढाबे का नाम रखेंगे ‘सुखमनी दा ढाबा’। बलवंत सिंह ने रुमाल कौर की दुखती रग को मानो सहला दिया हो।
एक बार फिर बलवंत सिंह और रुमाल कौर को जीवन जीने का उद्देश्य मिल गया। मुँह अंधेरे उठकर दोनों पैदल ही चल पड़ते स्वर्ण मन्दिर की ओर पवित्र सरोवर में स्नान करते। गुरुद्वारे में मत्था टेकते और लग जाते अपने काम पर। रास्ता चलते लोग सुनते- आओ जीकृ ‘चा पी के जाओ जी परौठे खा के जाओ जी, कृआओ जी।’ ‘सुखमनी दा ढाबा’ चल निकला। कम पैसे में चोखा माल। गरमा गरम परौठे के साथ चटनी, दही चाहे नमक मिलाओ या चीनी, घर के बने अचार का स्वाद अलग से। साथ में गरम-गरम दूध वाली मसालेदार चाय। धीरे-धीरे लोगों को सरदार जी के विषेश शैली में गा-गा कर पुकारने वाली आवाज की आदत लग गयी।
वहीं ढाबे के एकान्त कोने में एक दिन चुपके से आकर बैठी एक उदास-उदास लड़की पर रुमाल कौर की निगाह ठहर गयी। परौठे के लिए आलू तैयार करना भूलकर वह एकटक उसे देखने लगीं। लड़की ने दुपट्टे से सिर ढक रखा था उसका मतलब गुरुद्वारे में मत्था टेक कर आयी थी। कितनी सोणी कुड़ी है जी रूमाल कौर ने पति के टोकने पर फुसफुसाकर कहा। पति ने आँखें तरेरी और फिर पुकारने लगे आओ जीकृ ‘चा पी के जाओ जीकृकृपरौठे खा के जाओ जीकृआओ जी‘। रुमाल कौर काम छोड़कर लड़की के पास आ गयी। लड़की अपनी धुन में थी।
रुमाल कौर ने निहाल होते स्वर में पूछा- ‘तुसी क्या लोगे जी! आलू परौठा, गोभी परौठा कदा पनीर परौठा‘। ‘सिर्फ चाय’ लड़की ने बिना ऊपर देखे कहा। ‘खाली चाय हुँकृसुबह-सुबह खाली चाय से तो कलेजा जलता है। जी पुत्तर एक परौठा तो खाना ही होगा। कहकर रुमाल कौर लौट आयीं। लड़की ने कोई विरोध नहीं किया जब चाय के साथ गरमा गरम आलू का परौठा उन्होंने ढ़ाबे के नौकर बिट्टू से भिजवाया। अनमने सी वह लड़की चाय की चुसकियों के बीच परौठा खा गयी दही, अचार चटनी की ओर उसने देखा तक नहीं। बीस रुपये का नोट बिट्टू को थमाकर वह ढाबे से बाहर निकल आयी। बिट्टू पुकारता ही रह गया-‘बचे हुए पैसे तो ले लो बहन जी।’
बाद में वह लड़की रोज सुबह आठ-साढ़े आठ के बीच ढाबे में आने लगी। रुमाल कौर की अपनत्व भरी बातों ने उसकी झिझक कम कर दी। अब वह मुस्कुराने लगी थी। बाद के दिनों में वह सरदार जी को बिट्टू की तरह पापा जी और रुमाल कौर को बीजी कहने लगी थी। उसने अपना नाम स्नेहा बताया था और यह भी कहा था कि यहाँ एक कालेज में पढ़ाती है दिल्ली की रहने वाली है यहाँ कमरा किराये पर लेकर रहती है। स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकना उसे बहुत अच्छा लगता है। सारी परेशानियाँ मानो समाप्त हो जाती हैं।
बलवंत सिंह और रुमाल कौर को उसके आने का इंतजार रहने लगा था। कभी वह परौठा खाती और कभी कहती बीजी आज चार पराठै बाँध दो मैं टिफिन लायी हूँ। घर के पास जो होटल है उसमें बहुत बुरा खाना मिलता है। रुमाल कौर तो उसे ‘सुक्खी’ कहकर सम्बोधित करती थी। जब वह जाने लगती तो सारे काम छोड़कर उसके सिर पर हाथ फेरती और बुदबुदाती ‘मेरी सुखमनी मेरी सुक्खी कितना तरसाया है तूने। अब कहीं खो न जाना।’
बलवंत सिंह रुमाल कौर के पागलपन पर हँसा करते एक दिन स्नेहा ने पूछ ही लिया पापा जी! यह सुखमनी या सुक्खी कौन है और बीजी मुझे इस नाम से क्यों पुकारती हैं? बलवंत सिंह ने रुमाल कौर की ओर देखकर हँसते हुए जवाब दिया था – तेरी बीजी सठिया गयी है पुत्तर! जानती है यह सुखमनी या सुक्खी के लिए पिछले चालीस बरस से पागल है कहती है अब जाकर तेरे रूप में इसे अपनी बेटी मिली है जिसे इसने कभी जनम ही नहीं दिया हाँ जनम देना जरूर चाहती थी। पागल है न बुड्ढी जो इस दुनिया में आयी ही नहीं उसे ढूँढ़ती फिर रही है।’
एक बार स्नेहा छुट्टियों में 15 दिन का कहकर दिल्ली गयी। रुमाल कौर और बलवंत सिंह यह सोचकर उदास होने लगे कैसे रहेंगे सुक्खी के बिना पन्द्रह दिन। स्नेहा पाँच दिनों में ही लौट आयी और रुमाल कौर के गले लगकर सिसकते हुए कहने लगी बीजी! मैं नहीं रह पायी आपके बिना! न जाने इतने दिन कैसे रही। बीजी! मैंने अपनी माँ को नहीं देखा लोग कहते हैं बहुत सुन्दर और ममतामयी थीं वो। मुझे उनकी सूरत ममता भरा स्पर्श कुछ भी याद नहीं। मैं जब तीन वर्श की थी तब ही वह भगवान के पास चली गयी थीं। आप से मिलकर मुझे अपनी माँ बहुत याद आयीं। ऐसा लगा मुझे माँ ही मिल गयी बीजी! मुझे कभी मत छोड़ना अब!’ ‘हाँ पुत्तर हाँ हम इकट्ठे ही रहेंगे।’ कहते-कहते रुमाल कौर रोने लगीं और उन्हें रोता देखकर बलवंत सिंह की भी आँखें भर आयीं।
आज चौथा दिन था जब स्नेहा के आने का समय बीत गया था। बलवंत सिंह का मन काम में नहीं लग रहा था रुमाल कौर भी मुरझा गयी थीं। यह पहला मौका था जब उनकी सुक्खी बिना बताये गायब हुई थी। एक बार बीमार पड़ी थी तो दूसरे दिन ही फोन कर बता दिया था कि बीमार हूँ इसलिए नहीं आ पायी। दोनों को नहीं पता कि वह कहाँ रहती थी किस कॉलेज में पढ़ाती थी। उसका मोबाइल भी बंद था।
तभी बिट्टू भागता हुआ आया उसके हाथ में अखबार था। आँखों में आँसू भरे थे रुआँसी आवाज में कह रहा था- ‘पापा जी! देखिये तो यह तो अपनी सुखमनी दीदी की फोटो है अखबार में छपा है उन्होंने फाँसी लगा ली।’
‘ला दिखा’ कहते हुए रुमाल कौर और बलवंत सिंह ने एक साथ गैस और स्टोव बंद किये गैस पर आलू का परौठा बन रहा था तो स्टोव पर चाय खौलने वाली थी। बिट्टू के हाथ से अखबार लेकर बलवंत सिंह खबर पढ़ने लगे। छपा था – कॉलेज की प्रवक्ता स्नेहा चौरसिया ने अपने कथित पति या प्रेमी से लैपटॉप पर बातें करते हुए अपनी षादी की साड़ी से फंदा लगाकर झूल गयी। जिसकी वीडियो रिकार्डिंग उसके कथित पति या प्रेमी ने अपने लैपटॉप पर देखी। पन्द्रह किलोमीटर गाड़ी दौड़ाकर वह लड़की के कमरे तक पहुँचा तब तक लड़की मर चुकी थी। पुलिस आत्महत्या के कारणों को ढूँढ रही है। विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि स्नेहा चौरसिया ने घर वालों की मर्जी के बिना विनय सिंह से शादी की थी। विनय के घर वाले उसे बहू मानने को तैयार नहीं थे। इसलिए वह किराये पर घर लेकर रहती थी। विनय अपने माता-पिता के साथ रहता था। घटना के दिन विनय से उसकी लम्बी कहासुनी हुई थी। वह माँ बनने वाली थी और विनय पर दबाव बना रही थी कि जल्दी से जल्दी उसे अपने घर ले जाये या उसके साथ आकर रहे। विनय लगातार उससे रुकने को कह रहा था। वह रो रही थी उसके रोने पर विनय ने गुस्से में कह दिया था- ‘तुमसे रिश्ता जोड़कर तो मैंने मुसीबत मोल ले ली। क्या करूँ कि तुमसे पीछा छूटे।’ स्नेहा की रुलायी बढ़ गयी उसने रोते हुए कहा -‘लो मैं तुम्हारा पल्ला छोड़ देती हूँ।’ विनय के देखते ही देखते उसने अलमारी से शादी की साड़ी निकालकर फंदा बनाया और पंखे से लटक गयी। जब तक विनय पहुँचा तब तक वह मर चुकी थी।
रुमाल कौर धार-धार रोने लगीं। ‘हाय मेरी सुक्खी हाय मेरी सुखमनी।’
बलवंत सिंह ने उनके हाथ से अखबार छीनकर उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। बेवकूफ औरत वह हमारी सुखमनी नहीं थी वह तो कोई स्नेहा चौरसिया थी। जो हमारी कुछ नहीं लगती। हमारी सुखमनी इतनी कायर नहीं हो सकती।
दो लड़खड़ाते कदम एक दूसरे का हाथ थामकर बिना सुखमनी के सहारे के फिर चल पड़े। हाँ, उसके बाद किसी ने सरदार जी की वह लुभावनी आवाज फिर नहीं सुनी- आओ जी. ‘चा पी के जाओ जीकृ परौठे खा के जाओ जीकृआओ जी।’ ‘सुखमनी दा ढाबे’ की रौनक कहीं गुम हो गयी थी।

  • डॉ अमिता दुबे

सम्प्रति
सम्पादक, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान,
6 महात्मा गांधी मार्ग, हजरतगंज, लखनऊ
चलभाष संख्या : 9415551878
email – amita.dubey09@gmail.co

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