धारावाहिक उपन्यास भाग 07 : सुलगते ज्वालामुखी

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धारावाहिक उपन्यास

सुलगते ज्वालामुखी

लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश

7.

मुशीरा दो दिनों में ही वेदान्त के घर परिवार से घुलमिल गई थी। वेदान्त के माता पिता भी मुशीरा से बेहद प्रभावित थे। अपने मन के किसी कोने में शायद वे ऐसी ही पढ़ी लिखी बहू की कामना भी कर रहे थे। आखिर उन्हें क्या पता कि जिसे वे मनीषा समझ रहे थे वास्तव में वह मुशीरा थी।

एक सच्चाई ये भी है कि कोई भी बच्चा जन्मते ही अपने माथे पर हिन्दू मुसलमान या दलित की पहचान ले कर नहीं आता। ये समाज और परिवार जन्म लेते ही बच्चे में जाति व धर्म का ऐसा ठप्पा लगा देते हैं जो मृत्यु पर्यन्त तक लगा ही रहता है। मुशीरा सच्चे दिल से वेदान्त की हो चुकी थी, न हिन्दू न मुसलमान।

शाम के समय वेदान्त अपने पिता सत्यशरण के साथ घर के बाहरी बरामदे में बैठे थे। गा°व के ही कुछ गणमान्यों के साथ धर्म व राजनीति पर चर्चा हो रही थी।

‘‘जो भी पार्टी सत्ता में आती है, अपनी ही जाति वालों को नौकरी व दूसरी सुविधायें देती हैं।’’ सत्यशरण कह रहे थे।

‘‘सरकार ऊपर से तो ये दिखाती है कि जाति धर्म से देश बड़ा है और जनता की सुविधा के लिए सरकार कटिबद्ध है।’’ ये माधो कोरी थे।

‘‘किन्तु सभी योजनाऐं हाथी दा°त की तरह ही सामने आती है!’’ सत्यशरण ने तर्क दिया।

‘‘इस देश में जाति और धर्म की जमीनें बहुत सख्त बेहद पथरीली है। कोई शब्द, कोई औजार बडे़ से बड़ा आश्वासन इसे तोड़ नहीं सकता।’’

वेदान्त ने कहा। ‘‘पूरा भारत जातिवाद और धर्म के ज्वालामुखी सा सुलग रहा है और सुलगता रहेगा।’’ माधो कोरी ने जोड़ी।

‘‘आजादी के सत्तर वर्षों के बाद भी मुसलमान बहू या दामाद के नाम पर धार्मिक उन्माद बढ़ता है और मार काट शुरू हो जाती है क्यों?’’ वेदान्त ने कहा।

तभी मुशीरा चाय ले आयी। मुखिया निर्भय सिंह चाय का कप उठाते हुए बोले- ‘‘कम्पाउन्डर साब लड़की संस्कारी है पढ़ी लिखी होकर भी सबके सामने सिर ढके हैं।’’

सुन कर सभी ह°स पड़े और वेदान्त मुस्कराकर रह गये वेदान्त के साथ मुशीरा भी मुस्करा दी फिर बोली-

‘‘चचा! बड़ों के सामने सिर क्यों नहीं ढकू°गी? भारत की आत्मा यहा° की सभ्यता व संस्कृति ही तो है।’’

‘‘ठीक कहती हो बेटी!’’ मुखिया जी बोले फिर पूछा- ‘‘यहा° तुम्हें कैसा लग रहा है?’’

‘‘बहुत अच्छा! यहा° की तो हवा भी शरीर में स्फूर्ति भर देती है।’’ मुशीरा ने कहा।

‘‘चलो तुम्हें गा°व घुमा लाऊ°! चलोगी?’’ वेदान्त ने पूछा।

‘‘हा° मुझे बहुत अच्छा लगेगा!’’ मुशीरा ने प्रयुत्तर दिया।

वेदान्त और मुशीरा निकलने को हुए तभी वेदान्त की छोटी बहन रश्मि दौड़कर आ गई और बोली- ‘‘मुझे भी चलना है भैया।’’

‘‘हा° चल!’’ वेदान्त ने कहा।

‘‘नहीं’’ कहते हुए वेदान्त की मम्मी आ गई! ‘‘ये लड़की! जब से भाई आया है, तब से सब भूलकर उसी के पीछे लगी है। चल, उसे घूम आने दे और तू थोड़ी देर मेरा हाथ बंटा ले।’’

‘‘ऊ° मुझे घूमना है!’’ कहते हुए रश्मि ने अपना विरोध किया।

वेदान्त और मुशीरा दोनों ने मा° की बात का अर्थ समझा और मुस्करा कर एक दूसरे को देखा। आओ! वेदान्त ने मुशीरा से कहा फिर रश्मि की ओर देख कर बोले- ‘‘अभी आते हैं रश्मि। बस दस मिनट। तब तक तू मा° की बात सुन ले फिर जहा° कहेगी, तुम्हें भी घुमा लायेंगे अच्छा।’’

वेदान्त ने मुशीरा को खेत दिखाये जिनमें अरहर और गेहू° के पौधे लहलहा रहे थे।

‘‘चारों ओर हरियाली देख कर मन कितना खुश है?’’ मुशीरा ने कहा और अपना दुपट्टा अरहर की बालियों पर लहरा दिया।

‘‘अरे तुम तो नृत्य के मूड में आ गई! ये प्रकृति ऐसी ही है कि इसमें मन संगीत से भर उठता है।’’ वेदान्त ने कहा।

‘‘ये सामने नहर बह रही है चलो इसमें पैर डाल कर बैठते हैं।’’ मुशीरा बोली।

दोनों नहर के किनारे पानी में पा°व लटका कर बैठ गये। वेदान्त मुशीरा के दोनों हाथ अपने हाथों में लिए थे। मुशीरा वेदान्त के कन्धे पर सिर रखे थी।

‘‘शम्मो! यहा° पास ही में बहुत अच्छा शिवालय है चलो तुम्हे दिखाते है।’’ वेदान्त उठकर खड़े हुए तो मुशीरा ने भी हाथ बढ़ा दिया। वेदान्त ने मुशीरा का हाथ पकड़ कर खींचा और वह भी उठ खड़ी हुई। दोनों ने शिवालय में दर्शन किया और घर लौट आये।

अगले दिन प्रातः ही वेदान्त मुशीरा को लेकर लखनऊ आ गये। किन्तु पूर्व निश्चित योजना के अनुसार परिवार को अपने विवाह की सच्चाई न बता सके। जिसका उन्हें बेहद अफसोस भी था।

‘‘तुम्हें कमरे पर छोड़ कर मैं यूनीवर्सिटी जाऊ°गा और चार बजे तक आ जाऊ°गा!’’ वेदान्त मुशीरा से बोले।

‘‘मुझे भी पा°च बजे तक घर पहु°चना जरूरी है। तुम तैयार रहना। मैं आते ही तुम्हे छोड़ने चलू°गा!’’

‘‘जल्दी आना! अकेले बहुत बोर हो जाती हू°! ठीक है।’’

‘‘तुम सामने होते हो तो हिम्मत बनी रहती है।’’ ये मुशीरा थी।

‘‘हिम्मत तुम्हारे अपने अन्दर कम नहीं है शम्मो और अभी तो हमें बहुत लम्बा सफर तय करना है।’’

‘‘अच्छा बाबा जाओ जल्दी। और आना भी जल्दी से।’’

वेदान्त कमरे से निकल गये और ठीक पा°च बजे आकर उन्होंने मुशीरा के हाथ में नया मोबाइल फोन पकड़ा दिया।

‘‘अब दो तीन दिन जब तक तुम अपने घर रहोगी इसी से काम चलाना पडे़गा। तुम पास नहीं होगी तो तुम्हारी आवाज तो सुन सकू°गा।’’ वेदान्त बोले।

‘‘मेरा भी बैग वगैरह सब तैयार है अब जल्दी से मुझे घर के मोड़ तक छोड़ दो।’’ मुशीरा ने कहा।

वेदान्त मुशीरा को उसके घर के मोड़ पर छोड़ने गये तो बोले- ‘‘मेरे प्यार पर भरोसा रखना शम्मो! मैं दोनों परिवारों को मना कर अपनी खुशिया° हासिल करू°गा!’’ मुशीरा मुस्कराते हुए घर की तरफ चल दी।

वेदान्त उसे रात में दो तीन बार फोन करते। प्रेम, मनुहार गिले शिकवे सब इतने गुपचुप तरीके से होता कि किसी को फुसफुसाहट की भनक तक न लगती।

‘‘अगले हफ्ते ही मैं अपने अन्तर्जातीय विवाह का सारा रहस्य अपने परिवार में उजागर कर दू°गा।’’ वेदान्त फुसफुसा रहे थे।

‘‘पिछली बार क्यों नहीं कहा? किसी ने रोका था क्या? डरपोकू जी!’’ अब मुशीरा बुदबुदाई।

‘‘इसी रविवार को किला फतह करू°गा तुम देखना शम्मो!’’

‘‘गुडलक! जल्दी करो क्योंकि मेरे अब्बू व अम्मी को भी तुम्हीं समझा पाओगे! मैं उनसे डरती हू°!’’ मुशीरा बोली।

‘‘एक बार सारी बात सबके सामने हो जाय फिर जो हो निपट लेंगे।’’ ये वेदान्त थे।

‘‘मुझे पता है कि आन्टी अंकल थोड़ी डा°ट फटकार के बाद मान जायेंगे। लेकिन मेरे अब्बू व दोनों भाई इस विवाह के लिए कभी राजी न होंगे।’’ मुशीरा दुःखी स्वर में बोली।

‘‘बस तुम उनके साथ प्यार से रहो! बाकी सब मैं करू°गा!’’ वेदान्त ने ढाढ़स बन्धाया।

इस बार वेदान्त गा°व गये तो मुशीरा के साथ खिचवाई हुई अपनी फोटो भी ले गये। जब सारा परिवार रात्रि भोजन में व्यस्त था, उस समय वेदान्त वही फोटो अम्मा बाबू जी के बिस्तर के पास लगा आयें। भोजन के बाद जब सीता देवी अपने कमरे में सोने गई। तो सामने ही वेदान्त व मुशीरा की फोटो लगी देख उल्टे पैरों वापस लौटकर वेदान्त से पूछने लगीं-

‘‘ऐ बउवा! ये फोटू कैसी है? इसमें तुम्हारे साथ मनीषा भी है?’’

अब तक वेदान्त की बहन रश्मि भी आ चुकी थी, सब एक साथ वेदान्त के उत्तर की प्रतीक्षा में उसकी ही ओर देख रहे थे।

‘‘अम्मा! हमने आपसे पूछे बगैर इससे कोर्ट में शादी कर ली हैं। अगर आप लोग इसे अपनी बहू नहीं मानेंगे तो मुझे इसे अपने साथ लखनऊ में रखना पड़ेगा।’’ वेदान्त धीर गम्मीर आवाज में बोले।

सभी हैरान से वेदान्त का मु°ह देख रहे थे। जैसे किसी को विश्वास ही न हो रहा हो। तभी वेदान्त फिर बोले- ‘‘अम्मा! अब हम और मनीषा पति पत्नी है।’’ तभी वेदान्त के पिता सत्यशरण वेदान्त पर गुर्राये-

‘‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमसे पूछे बिना ये सब करने की? मन तो यही कर रहा है कि टा°गे तोड़ के घर से ही निकाल दे तुम्हें!’’

वे कुछ डंडा ढूढ़ने का उपक्रम करने लगे और माहौल गर्म हो गया था। वेदान्त सिर झुकाये खड़े थे कि जो होना है हो जाय। तभी सीता देवी वेदान्त के बगल में आ कर खड़ी हो गई और पति व पुत्र में बीच बचाव के अन्दाज में बोली- ‘‘इतने बड़े जवान लड़के को कोई डंडो से पीटता है क्या? चार दिन के लिए बिचारा घर आवे, खेत, गोरू के सब काम करै फिर डंडे भी खाये? आखिर ये क्यू°?’’ सीतादेवी ने तरेरती आ°खों से पति को देखा!

‘‘यही तो हम भी सोंचत हैं कि सपूत जउन किए है सब सब ठीक है। मनीषा बिटिया भी तो हमें अच्छी लगती थी। क्या काबिल बहुरिया लाये हैं। तुमरे सपूत।’’ सत्य शरण बोलने के साथ ही ही ही कर ह°सने लगे तो उनके साथ सभी ह°स पड़े। वेदान्त की जान में जान आई।

यद्यपि घर के सभी लोग सो चुके थे, किन्तु वेदान्त की आ°खों से नींद कोसो दूर थी। वे परेशान थे कि जब मनीषा के मुशीरा होने का भेद खुलेगा तब क्या होगा। वेदान्त उठ कर आ°गन में टहलने लगे। नीला आस्मा° तारों से भरा था और वेदान्त सितारों से बाते करने लगे। उन्हें लगा टिम टिमाते तारे उन्हें समझा रहे है कि जहा° चाह होती है, वहा° राह निकल ही आती हैं।

ब्रह्मावेला में वे आकर अपने बिस्तर पर गहरी नींद सो गये। सुबह की किरणें चेहरे पर पड़ते ही वे उठे और हैन्ड पम्प से मु°ह हाथ धो कर फ्रेश होकर पिता के साथ ही बरामदे में पड़े तख्त पर बैठ गये।

तभी सीता देवी-चाय ले कर आई और दोनों के हाथों में एक-एक गिलास पकड़ाते हुए बोली- ‘‘अब मेरी बहू को घर लाने की बात भी तय हो जानी चाहिए।’’ तभी वेदान्त बोले – ‘‘अम्मा° मनीषा का असली नाम मुशीरा खान हैं। हम दोनों बहुत मुश्किल में घिरे हैं कि जैसे ही मुशीरा के घरवाले ये सच जान पायेंगे। वे हम दोनों को जिन्दा न छोड़ेंगे।’’

‘‘इतनी बड़ी गलती कैसे हो गई तुमसे बेटवा?’’ सत्यशरण ने पूछा।

‘‘साथ-साथ पढ़ाई करते एक दूसरे दोस्ती हुई फिर लगाव बढ़ गया और हम दोनों ने कोर्ट में शादी कर ली।’’ वेदान्त बोले।

वेदान्त तखत से उतर कर जमीन पर अपनी अम्मा° के घुटनों में सिर रख कर पुन बोले- ‘‘अम्मा° तुम हमें लातन घूसन मारो, गारी देव! हमें सब मंजूर है।’’

वेदान्त आ°सुओं से रो रहे थे और उनके माता पिता की आ°खों से भी अश्रुधारा बह रही थी। दोनों ने वेदान्त को कन्धे से पकड़ कर उठाया और अपने बीच बैठाया। सीता देवी आ°चल से अपने और वेदान्त के आ°सू पोछते हुए बोली- ‘‘इस तरह जान की जोखिम के समय माता पिता के अलावा तुम्हारा साथ कौन देगा।’’

‘‘जो होना था हो चुका, अब उसे मनीषा ही बना रहने दो। गा°व में बात फैलेगी तो नाहक तनाव उठ सकता है। अब ये बात हम तीनों के बीच ही रहेगी।’’ सत्यशरण ने कहा।

‘‘हम दोनों हमारे बेटे के साथ है और मुशीरा हमरी बहू है, बस! ’’सीता देवी बोली और वेदान्त को प्यार से गले लगा लिया।

‘‘चल अब नहा धो के नाश्ता कर ले बेटा! बा°के बिहारी सब ठीक करेंगे!’’ सीता देवी पुनः बोली फिर वे चली गईं।

सत्यशरण बेटे की पीठ पर हाथ फेर कर उसे ढाढ़स देने का अनकहा उपक्रम कर रहे थे फिर वे भी नित्य कर्म के लिए चले गये।

माता पिता दोनों से अभयदान पाकर वेदान्त स्वयं में स्फूर्ति महसूस कर रहे थे। मुशीरा को सारी खुशखबरी देने की बेताबी में वे जल्दी से नाश्ता करके घर से निकलते ही फोन मिला कर मा° बाबूजी से हुई सारी बातें उसे बता दीं फिर बोले- ‘‘समझो आधी जंग हम जीत चुके हैं शम्मों।’’

खुशी से मेरा तो दम ही निकला जा रहा है! लेकिन मेरे घर वालों को तुम कैसे मनाओगे? ये मुशीरा थी।

‘‘मैं कल ही तुम्हें लेने आ रहा हू°?’’

‘‘कल क्यों अभी क्यों नहीं?’’

‘‘ठीक है मुझे अपने घर के मोड़ पर ठीक ग्यारह बजे मिलना।’’ वेदान्त बोले।

‘‘ओ! के! बाय!’’ ये मुशीरा थी।

वेदान्त सजी संवरी मुशीरा को लेकर अपने कमरे में पहु°चे और यू° अलिंगनबद्ध हुए कि कमरे के खुले दरवाजे का भी ध्यान न रहा। थोड़ी ही देर में मुशीरा का°पती सी आवाज में बोली- ‘‘विदू! दरवाजा खुला ही रह गया।’’

वेदान्त एकदम से मुशीरा से अलग हो कर पहले दरवाजा बन्द किया फिर जमीन पर बिछी चटाई पर बैठ गये।

‘‘तुम कहो तो मैं कल ही तुम्हारे अब्बू व भाइजान से बात करू°?’’ वेदान्त बोले।

‘‘नहीं अभी नहीं प्लीज! मैं खुद ही मौका देखकर तुम्हें बताऊ°गी।’’ मुशीरा का प्रत्युत्तर था।

‘‘आज अच्छे से रेस्टोरेन्ट में डिनर करके इस खुशी को दुगना करते हैं!’’ वेदान्त ने सुझाव दिया।

‘‘ठीक है! उसके बाद तुम मुझे मेरे घकर के नुक्कड़ तक छोड़ आना।’’

‘‘वो क्यों?’’

‘‘क्यों कि आज रुकने का मैं घर में बता कर नहीं आई हू°।’’ ये मुशीरा थीं!

चलो चलते हैं!

वेदान्त मुशीरा को बाइक पर बैठा कर चल दिये।

क्रमशः

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