धारावाहिक उपन्यास भाग 08 : सुलगते ज्वालामुखी

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धारावाहिक उपन्यास

सुलगते ज्वालामुखी

लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश

8.

वस्तुतः सारी कायनात ही स्त्री पुरुष के प्रेम पगे अहसासों व अनुभवों पर ही टिकी है। लेकिन वही प्रेम जब जीवन की सबसे बड़ी गलती लगने लगे तब डा. सुनीता जैसी शख्शियत तैयार होती है।

डाॅ. सुनीता पा°डे लखनऊ के चिकित्सा विशेषज्ञों के बीच जानी मानी हस्ती बन चुकी थी। प्रसव, प्रसूति व स्त्री रोगों में उनका इलाज व जा°च परख अचूक थी। डा. पंकज, डाॅ. सर्वेश दूबे व डा. रंजन शर्मा आदि अनेकों डाक्टर उनके आकर्षक व्यक्तित्व से सम्मोहित थे।

‘‘इतनी सुन्दर सुयोग्य मैम अविवाहित कैसे?’’ डा. पंकज ने कहा।

‘‘क्या बात कर रहे हो! इस समय सभी जार्जियन्स सुनीता मैम के लिए श्रद्धा व सम्मान से भरे हुए हैं!’’ ये डा. रंजन थे।

डा. सुनीता की मम्मी डा. चित्रा और पिता डा. आशीष पा°डे भी किसी सुपर स्पेशलिस्ट सुयोग्य दामाद के सपने स°जो रहे थे। लेकिन जब भी वे सुनीता के सामने कोई रिश्ता रखते तो वह उसे तिनके सा उड़ा देती।

‘‘मम्मा! प्लीज मैं थकी हुई हू° ऐसी बोरिंग बातें मत करिये! शादी ब्याह के झमेले में मुझे नहीं फ°सना है।’’

‘‘ये लड़की तो कभी हाथ ही नहीं आती, जब भी शादी की बात करो काटने को दौड़ती है।’’ चित्रा बोली।

‘‘सुबह आठ बजे की निकली रात बारह बजे तक लौटती है।’’ डा. आशीष ने कहा।

‘‘जो भी पुरुष सहकर्मी इससे तिल भर भी नजदीकी बढ़ाने की कोशिश करता है ये उसे बुरी तरह लताड़ती है कि फिर वह इसकी तरफ कभी रुख न करें।’’ चित्रा पति से बोली।

‘‘एक से एक कार्तिकेयी डाक्टरों से भी सुनीता दूरी बना के रखती है।’’ डा. आशीष बोले।

‘‘अपनी योग्यता पर इतना घमंड भी ठीक नहीं! प्लीज आप इसे कुछ समझाते क्यों नहीं?’’ चित्रा ने पति से कहा।

‘‘मैं जल्दी ही कुछ करता हू°! तुम परेशान न हो!’’ ये डा. आशीष

थे।

डा. आशीष और डा. चित्रा के प्रयासों से चित्रा नर्सिंग होम ‘‘डा.सुनीता के लिए हजरत गंज में ही खुल गया जिसमें स्त्रियों व बच्चों का हर तरह का सस्ता व सफल इलाज होने लगा। डा. सुनीता की आस्था ईश्वर पर बढ़ रही थी, इसलिए उसने सप्ताह में एक दिन वृहस्पतिवार को मरीजों के मुफ्त इलाज का नियम भी बना दिया। अब दूर-दूर के शहरों से मरीज डाॅ. सुनीता के पास आने लगे। सस्ते व सफल इलाज के कारण डा. सुनीता मशहूर भी हो रही थी।

अखबारों में भी अक्सर ही डा. सुनीता की किसी न किसी विशिष्ट उपलब्धि की चर्चा अवश्य रहती। जिसे पढ़ते ही देशराज गर्व से फूले न समाते। ऐसी सुयोग्य नारी जिसके संसर्ग की लोग सिर्फ कल्पना कर सकते हैं, उसी का भरपूर उपभोग वे चार वर्षों तक करते रहे।

डा. आशीष और चित्रा डा. सुनीता के विवाह के लिए उतावले थे। आज दोनों तय करके बैठे थे कि सुनीता से विवाह के लिए हा° करवा कर ही मानेंगे। जैसे ही सुनीता घर आई डा. आशीष उसे प्यार से समझाने लगे।

‘‘बेटे अब हम तुम्हारी एक भी न सुनेंगे। तुम्हें डा. अविनाश के लिए अपनी सहमति देनी ही है। बेटे अविनाश बहुत अच्छा सर्जन है और मेरी दोस्त का बेटा भी है’’ चित्रा ने सहयोग किया।

‘‘माम! डैड आप दोनों अच्छे से समझ ले कि मैंने अविवाहित रहने का निश्चय किया है। मुझ पर न तो विवाह का दबाव बनाइये और न ही इस विषय की बार बार चर्चा होनी चाहिए।’’ सुनीता ने दृढ़ शब्दों में कहा।

‘‘तुम्हारे हठ और जिद के आगे हम दोनों ही लाचार है, फिर भी हमें तुम्हारा निश्चय गलत लग रहा है।’’ चित्रा ने उसे समझाने की कोशिश की।

‘‘मेरा निश्चय अटल है माम डैड!’’ सुनीता बोली।

यू° तो वृहस्पतिवार को अनेकों जच्चायें आती। किन्तु इस बार डा. सुनीता के सामने स्कर्ट टाप में गोरी चिट्टी षोडशी जननी खड़ी थी। जिसे देख कर सुनीता मुस्करा उठी तो प्रत्युत्तर में वह भी मुस्करा दी। डा. सुनीता के इशारे पर वह निःसंकोच लेबर रूप में चली गई। क्या नाम है तुम्हारा? सुनीता ने पूछा।

जी! लतिका शर्मा! वह बोली

‘‘इसके पिता साथ नहीं आये’’ डा. सुनीता उभरे हुए पेट की तरफ इशारा करते हुए बोली।

‘‘मैम! हम इन्टर में साथ पढ़ते थे, लेकिन अभी उसने मुझसे सारे सम्बन्ध खत्म कर दिये। उसका नाम विक्टर पाल था।’’ लतिका ने कहा।

‘‘अब कौन सा महीना है तुम्हारा? सुनीता ने पूछा ‘‘मैम! आठवा° पूरा हो चुका है लेकिन कल से दर्द बहुत है।’’ लतिका बोली।

‘‘तुम्हें अभी भर्ती होना पड़ेगा! आधे घण्टे में बच्चा पेट से बाहर होगा।’’ डा. सुनीता ने समझाया।

मुश्किल से आधे घण्टे के अन्दर ही लतिका ने सुन्दर सी बच्ची को जन्म दिया। अस्पताल के सभी कर्मचारी उसकी हिम्मत से अचम्भित थे।

न रोई न चीखी न डरी न घबराई। ऐसा लगा जैसे उसका मनोरंजन हो रहा था।

‘‘ये तो ऐसे व्यवहार कर रही है जैसे अस्पताल में तफरीह करने आई हो।’’ नर्स ने डा. सुनीता से कहा। ‘‘इन्जेक्शन लगवाने के लिए खुद ही हाथ आगे कर देती है। अस्पताल से जो भी खाना चाय बिस्कुट मिलता है सब दो मिनट में चट कर जाती है!’’ दूसरी नर्स बोली।

‘‘बच्ची को गोद में लेकर खिलौने की तरह प्यार करती है!’’ कहते हुए डा. सुनीता भी ह°स पड़ी।

पूरे अस्पताल का राउन्ड लेकर जब डा. सुनीता घर के लिए निकली तो लतिका व बच्ची गहरी नींद सो रहे थे। लेकिन अगले दिन सुबह आठ बजे पूरे नर्सिंग होम में तहलका मचा हुआ था। क्योंकि बेड न. आठ पर नन्हीं बच्ची सो रही थी। किन्तु उसकी षोडशी माता का कहीं पता नहीं था। सब नर्स, आया, व डा. सुनीता सभी हैरान परेशान थे।

‘‘आप सब ने रात कितने बजे तक उसे देखा?’’ डा. सुनीता पूरे स्टाफ से पूछ रही थी ‘‘मैंम! एक बजे रात तक हम सबने उसे गहरी नींद सोते देखा।’’ नर्सेज एक साथ बोलीं।

‘‘फिर?’’

‘‘मैम? दो बजे वह नहीं दिखी तो हमें लगा शायद टायलेट वगैरह गई होगी लेकिन तीन बजे से हम सभी उसे लगातार ढूढ़ ही रहे हैं।’’ एक नर्स ने कहा।

‘‘मैम! वो तो ऐसे गायब हुई जैसे गधे के सिर से सींग।’’ दूसरी नर्स बोली।

‘‘मुझे लगता है लतिका बच्ची छोड़कर भाग गई है!’’ ये डा. सुनीता थी। ‘‘मैम बच्ची बेहद सुन्दर है मगर इसे शिशुगृह भेजना पड़ेगा।’’ वार्ड आया बोली।

‘‘लाओ इसे मुझे दो! मैं इसे अपने घर ले जाऊ°गी। छः माह तक इसकी मा° लतिका का इन्तजार करू°गी। फिर इसे कानूनी तौर पर गोद ले लू°गी।’’ सुनीता ने कहा।

‘‘यस मैम! यू आर ग्रेट!’’ सब एक साथ बोले। ड्यूटी के बाद घर लौटते समय सुनीता बच्ची को अपने साथ ले आई। आते ही उसने बच्ची चित्रा की गोद में डाल दी।

‘‘माम! ये विजया, तुम्हारे लिए।’’

डा. चित्रा उसे सीने से लगाते हुए बोली- ‘‘बेहद प्यारी बच्ची है। ’’

‘‘इसका पिता विक्टर ईसाई और मा° लतिका शर्मा ब्राह्माण है। इसी कारण इसका नाम विजया विक्टर के अर्थ को सार्थक करेगा माम!’’ सुनीता ने कहा। ‘‘इसके नाम के साथ जाति बोधक कोई सम्बोधन न लगाना बेटा। जातीयता की पीड़ा अक्सर असहनीय हो जाती है।’’ चित्रा ने कहा तो कहीं सुनीता भी तड़प उठी। ‘‘जातीयता के दर्द का अहसास मुझे भी हे माम! कल ही मैं इसके लिए आया का प्रबन्ध करती हू°।’’

डा. चित्रा और सुनीता की सहमति से विजया की देखभाल के लिए प्रशिक्षित आया शुभा हेगड़े नियुक्त हो गई जो सुबह सात बजे से रात्रि दस बजे तक विजया की देखभाल करने लगी।

क्रमशः

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