धारावाहिक उपन्यास भाग 11 : सुलगते ज्वालामुखी

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धारावाहिक उपन्यास

सुलगते ज्वालामुखी

लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश

बढ़ती उम्र के साथ डा. सुनीता में अध्यात्मिक प्रभाव बढ़ रहा था। वे समझ चुकी थी कि प्रकृति के नियम अनोखे हैं। सुख दुःख, दिन रात, धूप छा°व सभी एक निश्चित अवधि के बाद विराम लेते ही हैं। ये अलग बात है कि दुःखद समय की छाप दिल से मिटाये नहीं मिटती। इन्सान अपने निर्णय व नजरिये के कारण कभी सुख या दुःख का भागी बनता है।

विजया की स्कूलिंग पूरी हो चुकी थी और वह कम्प्यूटर नेट आदि की विस्तृत जानकारी के साथ छोटी उम्र में ही परिपक्व हो चुकी थी। वह ये भी समझ चुकी थी कि यदि उसका कोई पिता होता तो बचपने से अब इन्टरमीडिएट की पढ़ाई तक एक बार तो अवश्य आता।

हाई स्कूल व इन्टर की परीक्षायें विजया नब्बे प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण कर चुकी थी एवं इन्टर के साथ ही उसने आल इंडिया प्री मेडिकल टेस्ट भी उत्तीर्ण कर लिया तो सुनीता की खुशी बेहिसाब थी। सुनीता ने विजया के रिजल्ट की खुशी में छोटी सी पार्टी रखी और कुछ गणमान्य लोगों को आमंत्रित किया।

‘‘वाउ ग्रेट माम! सरप्राइज पार्टी मैं टाइम से पहु°च जाऊ°गी।’’ विजया ने सुनीता को आश्वस्त किया।

पार्टी के अगले दिन सुनीता ने विजया के हाथ से गरीबों में भोजन व कपड़े भी ब°टवाये।

‘‘मम्मा आप मेरे लिए ज्यादा ही पजेसिव होती जा रही है। अब मैं बड़ी हो गई हू° आप सिर्फ नानी व नानू का ख्याल रखिये।’’ विजया ने कहा।

‘‘मेरा सब कुछ तो तू ही है! मैं हर पल तेरे साथ रहना चाहती हू°!’’ ये सुनीता थी।

‘‘मेरे कारण न तो आप नानू की देखभाल कर पाती है न अपने नर्सिंग होम में समय देती है। ज्यादा से ज्यादा तो आप मेरे पास नोएडा ही रहती है’’ डियर माम।

‘‘मुझे तेरी बेहद फिक्र होती है! मैं क्या करू°?’’

‘‘मेरे यहा° बहुत से दोस्त हैं जो मेरा ख्याल भी रखते हैं। माम!’’ ये विजया थी।

‘‘बेटा सच्ची दोस्ती और मौज मस्ती में फर्क होता है। बात यदि जाति व धर्म की हो तो ये याद रखना कि इन्सान व इन्सानियत हर जाति धर्म से ऊपर होता है। सच्चा प्यार जाति धर्म की दीवारे तोड़ता है।’’ सुनीता ने कहा।

‘‘माम! मुझे आपकी हर बात दिल से मंजूर है! मैं आपकी फैन हू° पर प्लीज मुझे बताइये वो कौन हैं जिसने आपके प्यार व जज्बातों को कुचल दिया’’, विजया ने कहा।

‘‘अब तू गलत ट्रैक पर जा रही है। तेरे नानी नानू बहुत कमजोर हो गये हैं इसलिए मुझे आज ही लखनऊ लौटना है’’ सुनीता बोली।
‘‘चलिए माम! मैं आपको एयर पोर्ट तक छोड़ आती हू°’’ विजया ने आग्रह किया।

लखनऊ की फ्लाइट में बैठे हुए सुनीता की आ°खों में देशराज का दोहरा चरित्र व अक्खड़पन पुनः कौंध गया और सफलता के चरमोत्कर्ष पर भी उनकी आ°खें नम हो गई।

क्रमशः

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