धारावाहिक उपन्यास भाग 05 : सुलगते ज्वालामुखी
धारावाहिक उपन्यास
सुलगते ज्वालामुखी
लेखिका – डॉ अर्चना प्रकाश
‘‘फैमिली कोर्ट की नोटिस के तीन महीने पूरे हो चुके है शम्मों! हमें आज ही कोर्ट पहु°चना जरूरी है!’’ वेदान्त बोले।
‘‘क्या आज ही सब कुछ जो जायेगा?’’ मुशीरा ने पूछा?
‘‘तुमने साथ दिया तो हम आज विवाह बन्धन में ब°ध जायेंगे!’’ वेदान्त ने बताया।
जस्टिस वागला और अधिवक्ता के रमानी के सम्मुख वेदान्त व मुशीरा ने विवाह के हलफनामे पर दस्तखत किए, एक दूसरे को फूलों का हार पहनाया और पति पत्नी के प्रगाढ़ रिश्ते में बन्ध गये। गवाही में जीनत व अहमद भी थे। कोर्ट से दोनों सीधा जीनत के घर आये। जीनत व अहमद ने खाने पीने की व्यवस्था पहले से कर रखी थी।
‘‘मुशीरा बाजी! ये आपके लिए विवाह की भेंट है हम दोनों की तरफ से!’’ गिफ्ट पैकेट मुशीरा को देते हुए अहमद बोले।
‘‘अहमद भाई! इसकी आवश्यकता नहीं थी।’’ ये मुशीरा थी। ‘‘अगर आपके अब्बू व अफजल भाई की मर्जी से ये विवाह होता तो वे आपको कितना कुछ देते। अब इस गरीब भाई की छोटी सी भेंट आपको लेनी ही पड़ेगी।’’ अहमद ने साधिकार कहा।
‘‘जीवन के इस मोड़ पर सिर्फ आप व जीनत ही तो हैं मेरे पास, मैं आपको मना नहीं कर पाऊ°गी! भाईजान!’’ मुशीरा उदासी से बोली।
वेदान्त ने अहमद का गिफ्ट पैकेज खोला उसमें चिकन जरदोजी का गुलाबी सूट और सुनहरी चूड़िया° मुशीरा के लिए थी और एक सोने की अंगूठी वेदान्त के लिए थी। वेदान्त ने अंगूठी पहन ली और अहमद को गले लगाते हुए बोले- ‘‘यार! तुमने तो सगे साले का फर्ज ही निभा दिया मेरे लिए।’’
‘‘बस! अपनापन जताने की यह छोटी सी कोशिश है! हमें शर्मिन्दा न कीजिए मेरे भाई!’’ अहमद बोले।
अब तक मुशीरा भी सूट व चूड़िया° पहन तर तैयार हो चुकी थी। सबने साथ बैठकर खाना खाया।
‘‘शम्मो! कितना अजीब रिश्ता है हमारा! कोई साथ नहीं किसी का सिर पर हाथ नहीं! फिर भी हम खुश हैं क्यों?’’ ये शब्द वेदान्त के थे।
‘‘हमारी खुशी में अपनों के छूटने का दर्द भी मिला हुआ है। आज जाना कि दर्द के बिना हर खुशी अधूरी है’’ मुशीरा बोली।
जीनत व अहमद के घर एक दिन रहने के बाद अगले दिन वेदान्त मुशीरा कोलेकर हनुमान सेतु मंदिर गये। वहा° के पुजारी से बात करके वहीं पर मुशीरा के साथ सात फेरे लेकर उसकी मा°ग में सिन्दूर भरा और गले में पतला सा मंगलसूत्र पहना दिया। पुजारी व सभी भगवानों का आशीर्वाद लेकर वे मुशीरा के साथ अपने किराये के कमरे पर आ गये।
मुशीरा को कमरे पर छोड़कर वेदान्त गये और हलवाई से पूड़ी सब्जी ले आये। दोनों ने साथ बैठकर भोजन किया। मुशीरा ने देखा छोटे से कमरे में सामान के नाम पर फोल्डिंग बेड, दरी चादर व चटाई, तथा शीशे के गिलास व दो तीन कप व प्लेटे चम्मच रखे हुए थे।
‘‘अब्बू अम्मी से मैं यही बता कर आई थी कि थीसिस के डेटाज का काम जीनत की मदद से पूरा हो पायेगा। इसलिए दो तीन दिन जीनत के घर रुकना ही पड़ेगा।’’ मुशीरा ने कहा।
‘‘तीन दिन तो हो गये तुम्हें?’’ वेदान्त ने पूछा
‘‘हा°! आज मुझे घर पहु°चना ही है विदू।’’
‘‘मैं तुम्हें शाम तक तुम्हारे घर के मोड़ पर छोड़ दू°गा! मगर फिर कब मिलोगी?’’ वेदान्त परेशान थे।
‘‘बहुत दयनीय स्थिति है उनकी! अपनी शादी का सच बताने में डरती हू°, क्या करू°?’’ मुशीरा संजीदा थी।
‘‘हमें हमारी शादी का सच उन्हें जल्द से जल्द बता देना चाहिए!’’ वेदान्त ने कहा
‘‘तुम्हें भी तो अपने घर वालों से सब सच बताना है?’’ ये मुशीरा
थी।
‘‘मैं इसी रविवार को गा°व जाऊ°गा और पूरे परिवार को सच्चाई बयान कर दू°गा।’’ वेदान्त बोले।
‘‘वो कैसे?’’
‘‘इस बार तुम पूरी तैयारी से मुझे शनिवार को उसी मोड़ पर मिलो! बाकी बाद में बताऊ°गा। वेदान्त बोले।
‘‘ठीक है बाबा! अब मैं चूड़ी मंगल सूत्र वगैरह पर्स में रख लू° और अपने पुराने सूट में ही घर के लिए निकलती हू°।’’ मुशीरा बोली।
शाम पा°च बजे वेदान्त मुशीरा को उसके घर के मोड़ तक छोड़ आये और शनिवार को दुबारा उसी जगह मिलने का वादा भी ले लिया। तीन दिन बाद ही शनिवार था और मुशीरा परेशान थी कि सिर्फ तीन दिनों बाद ही उसे फिर से अम्मी अब्बू को झूठा बहाना बताना होगा।
मुशीरा घर में दाखिल हुई तो अब्बू व अम्मी में किसी विषय पर गुफ्तगू चल रही थी। लेकिन अफजल भाई उसे बाहर ही मिल गये और उसे गले लगाते हुए बोले- ‘‘पिछले तीन दिनों तुझे देखा नहीं तो लगता था जैसे मेरा कहीं कुछ खो गया है! मन्नो मेरी शाम सहर तो तुझी से है!’’
‘‘जी भाईजान! मैं समझती हू°!’’ कहते हुुए मुशीरा आत्म ग्लानि से भर गई।
इतना निश्च्छल स्नेह व ममता रखने वालों के साथ वेवजह झूठ फरेब करना सरासर गलत है। मुशीरा यही सोच रही थी तभी अम्मी ने उसे देखते ही गले लगा लिया फिर उसकी पसन्द के गोभी के परा°ठे बना कर ले आई और उसे अपने हाथों से खिलाया। मुशीरा एकान्त चाहती थी, इसलिए थकान का बहाना बना कर लेट गई।
धर्म या जाति चाहे कोई भी हो नारी की समस्त चेतना सम्पूर्ण वफादारी सिर्फ पति व शौहर के साथ ही होती है। मुशीरा अब सिर्फ वेदान्त की थी और वेदान्त जो कहेंगे वही करने के लिए वह दृढ़प्रतिज्ञ थी।
‘‘अम्मी! इस साल थीसिस का काम बहुत बढ़ा दिया गया है। इसलिए गाइड सर के साथ एक दो दिन के लिए बाहर जाना पड़ेगा।’’ वह अम्मी से बोली।
‘‘इसीलिए तो लड़कियों को लोग ऊ°ची पढ़ाई कराने से कतराते हैं कि इसमें रात बिरात घर से बाहर रहना पड़ता है।’’ अम्मी ने जवाब दिया।
‘‘इसका मतलब अम्मी जान?’’ मुशीरा ने पूछा।
मतलब ये ‘‘कि कुछ लड़किया° भी पढ़ाई के बहाने से जाने क्या-क्या करती हैं?’’ अम्मी ने समझाया।
‘‘कहीं आप मुझ पर शक तो नहीं कर रहीं?’’ मुशीरा ने कहा। ‘‘मुझे अपनी परवरिश पर पूरा भरोसा है!’’ अम्मी तटस्थ थीं।
‘‘युद्ध और प्रेम में सब जायज होता है’’ मुशीरा के जीवन का अब यही सबसे बड़ा सच था।
‘‘अहमद भाई अस्वस्थ है साथ में थीसिस का काम भी है, इसलिए इसबार भी मैं जीनत के घर ही रुक जाऊ°गी। अम्मी जी!’’ मुशीरा पुनः बोली।
‘‘लेकिन तुझे जाना कब है?’’ इस बार अब्बू बोले।
‘‘आज शाम को ही जाना है अब्बू जी।’’ ये मुशीरा थी।
‘‘तो फिर जा सामान वगैरह ठीक से तैयार कर ले बेटी।’’ अब्बू प्यार से बोले।
‘‘अरे जी! अभी से क्यू° भेज रहे हो उसे? दोपहर का खाना खाने के बाद तैयारी करेगी मेरी लाडो!’’ अम्मी प्यार से बोली।
अम्मी व अब्बू के साथ दोपहर का खाना खाकर मुशीरा बैग इत्यादि लेकर ठीक चार बजे घर से चल दी। क्योंकि वेदान्त को ठीक चार बजे गली के नुक्कड़ पर मिलना था। वेदान्त के साथ मुशीरा जब उसके कमरे पर आ गई तब उसे चैन की सा°स गाई। अपना जरूरी सामान एक बैग में भर कर वेदान्त ने पहले ही तैयार कर लिया था। अब वे मुशीरा को लेकर अपने गा°व गाजीपुर के लिए चल दिये।
लगभग आधा घंटा चलने के बाद वेदान्त ने घर के ठीक सामने बाइक रोकी तो इंजन की आवाज सुन कर उनकी मा° बाहर आ गई। बेटे के साथ सुन्दर किशोरी देख वे चैंक पड़ी। लेकिन तब तक वेदान्त बाइक खड़ी कर के अम्मा के पा°व छू कर उनके गले लग चुके थे। वेदान्त के साथ ही मुशीरा ने भी सीता देवी के चरण स्पर्श किए तो उसे गले लगाते हुए- ‘‘बेटी! सदा सुखी रहो, जुग जियों का आशीर्वाद दिया।’’
‘‘अन्टी जी। आप बहुत अच्छी है! बिल्कुल मेरी मम्मी जैसी!’’ मुशीरा ने कहा तो वे गद्गद हो गई। ‘‘हर इन्सान बहुत अच्छा होता है लेकिन धर्म व जाति के विशेषणों से जुड़ते ही उनमें भेदभाव शुरू हो जाता है।’’ वेदान्त बोले।
सीता देवी उनका मु°ह ताक रही थी। ये बाते उनकी समझ से बाहर
थी।
‘‘ये हमारे साथ ही पढ़ती हैं अम्मा! इनका नाम मनीषा ठाकुर हैं। ये गा°व घूमने के लिए हमारे साथ आई हैं!’’ वेदान्त ने कहा।
‘‘ठीक है न! बउवा! कल इन्हें अपने खेत बाग खलिहान सब घुमा देव!’’ सीता देवी बोलीं।
‘‘चलो बेटी! अन्दर चल के बैग वगैरह कमरे में रख कर हैंडपम्प से मु°ह हाथ धोलो। तब तक हम तुम्हारे लिए चाय बनाते हैं।’’ सीता देवी बोली।
वेदान्त भी अपना बैग लेकर अम्मा व मुशीरा के पीछे चलने लगे।
‘‘देख बउवा! मनीषा का सामान अपनी बहन के कमरा मा रखा दे और अपन बैग बाबू जी के कमरे में ले जाओ!’’ सीता देवी वेदान्त से कहने लगी।
तीन चार कमरे व बड़ा सा आ°गन का कुछ कच्चा पक्का सा घर था। वेदान्त के पिता सरकारी अस्पताल में कम्पाउंडर थे और थोड़ी बहुत खेती बारी थी। जिससे पूरे परिवार का गुजारा आराम से हो रहा था।
सलवार सूट में लड़की के धर्म व जाति का अन्दाजा नहीं हो पाता है। मुशीरा को मनीषा बता कर वेदान्त ने अम्मा का भरोसा जीत लिया। एकान्त मिलते ही वे मुशीरा से बोले- ‘‘अपना नाम मनीषा याद रखना नहीं तो सब गड़बड़ हो जायेगी डार्लिंग।’’
मुशीरा ने भी हा° की सहमति में सिर हिला दिया और अम्मा के पास रसोई में चली गई।
‘‘आन्टी! आप वेदान्त के साथ बैठिये मैं चाय लेकर आती हू°!’’ वह सीता देवी से बोली।
कुछ ही देर में मुशीरा सिर से दुपट्टा ओढ़े हुए चाय नाश्ते की ट्रे लेकर आ गई। तीनों ने साथ बैठ कर चाय पी और नाश्ते में आलू साबूदाने के पापड़ खाये।
‘‘अब मैं चलती हू°, रात के खाने की तैयारी कर लू°! तुम लोग बैठो!’’ अम्मा बोलीं।
‘‘मा° जी! मैं भी आपके साथ चलती हू°!’’ मुशीरा ने आग्रह किया।
मुशीरा जिसे वे मनीषा समझ रही थी उनके साथ रात का खाना बनवाने में जुट गई।
क्रमशः