”फ्योंली के फूल” – कथाकार:सुधा जुगरान

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फ्योंली के फूल

                 

जया का तबादला सुदूर पहाड़ी गांव के सरकारी स्कूल में हो गया था। वह पशोपेश में बैठी सोच रही थी कि क्या करे? काफी सालों से उसकी पोस्टिंग अपने ही शहर व आसपास के लगे हुए स्थानों के स्कूलों में हो रही थी। इसीलिए वह किसी तरह से नौकरी चला पा रही थी पर इस उम्र में घर से दूर पवन को छोड़कर, कहां जाएगी और कैसे रहेगी। उसकी अभी 3 साल की नौकरी शेष थी। पवन इसी साल रिटायर हो गए थे। दोनो बच्चों की शादी करके वे ज़िम्मेदारियों से भी मुक्त हो गए थे। एक दिल कर रहा था, नौकरी ही छोड़ दे। लेकिन सरकारी नौकरी….? इतने में पवन कमरे में आ गए।
”तुम यहां बैठी हो, कब से ढूंढ रहा हूं…क्या हुआ?”
”कुछ नहीं,” वह अनमनी सी बोली।
”फिर उसी दुविधा में, मैंने कहा न अब जरूरत क्या है नौकरी की…छोड़ो नौकरी को,” पवन रोमैंटिक होते हुए बोले, ”अच्छा है, दोनों लम्बे टूर पर चलते हैं, पोस्ट हनीमून मनाते हैं,”
”मैं कितनी टेन्शन में हूं, तुम्हें मसखरी सूझ रही है,” जया झुंझलाती हुई बोली।
”अरे, इसमें टेन्शन वाली कौन सी बात है, मैं तुम्हें पहाड़ में रहने के लिए अकेले नहीं भेज सकता तो नहीं भेज सकता बस…दैट्स फाइनल,”
”तो तुम चलो मेरे साथ…दोनों वहीं रहेंगे, पोस्ट हनीमून वहीं मनाएंगे…” जया भी झूटमूट रोमैंटिंक होते हुए बोली। पवन ने इस अंदाज़ से उसे देखा के जया कि हंसी छूट गयी।
”अच्छा चलो, थोड़ी देर कहीं घूम आते हैं…तुम्हारा मूड ठीक हो जाएगा,” पवन बोले।
लेकिन उसका मूड ठीक न हुआ बल्कि उसने पवन का मूड भी खराब कर दिया। उसने अपने तबादले पर जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। पवन की चिन्ता नहीं थी। घर के आउट-हाउस में एक परिवार रहता था। वे पूरा खयाल रखेंगे पवन का और फिर वह भी आती जाती रहेगी। पर जो पवन हर वक्त उसके स्वास्थय व खाने पीने के लिए चिन्तित रहते हैं, उनके लिए उसे अकेले भेजना बहुत कष्टदायक था पर अपने विचार थोपना भी पसंद न था पवन को।
इसलिए शशी व किशोर को घर व पवन का ध्यान रखने को कहकर वह अपनी नौकरी पर चली गयी थी और आज ज्वाइन भी कर ली थी। वर्षों बाद आई थी पहाड़। कभी बचपन में आती थी, नानी दादी के पास, छुट्टियों में। पर तब के और अब के परिदृश्य में बहुत बदलाव आ गया था। ग्रामवासियों का वह आंचलिक भोलापन मानो मुंह छिपाकर कहीं दुबक सा गया था। गांव अब कस्बाई रूप ले चुके थे। उसे गांव की वह खुशबू नसीब न हो पाई जो उसकी यादों में बसी थी।
पर परिवर्तन जीवन का नियम है और समय उसका आधार। परिवर्तन तो आना ही चाहिए। गांव की पीढ़ी भी अब दूसरी, तीसरी सीढ़ी में प्रवेश कर चुकी थी। अपने रहने की व्यवस्था कर उसने गांव के कुछ प्रतिष्ठित लोगों से मुलाकात की। सरकारी स्कूल अभी गांव की बहुत बड़ी जरूरत थे। गांव का प्राकृतिक वातावरण भले ही उसके मन को बहुत भा रहा था पर पहाड़ों में रहने की आदत न होने के कारण उसे बहुत मुश्किल हो रही थी।
धीरेधीरे उसकी गांव की बेटियों, बहुओं और औरतों से जान पहचान होने लगी। गांव की अधिकतर लड़कियां अब दसवीं, बारहवीं पास तो करने ही लगी थी। जो पढ़ने में अच्छी थी, वे उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए शहरों का रुख कर रहीं थीं। लेकिन उसे खुशी हुई कि पढ़ने के कारण लड़कियों की विवाह की उम्र भी थोड़ी बढ़ गयी थी।
उसे 6 महीने हो गए थे यहां आए हुए। अब तो स्कूल आतेजाते, कई हाथ, टीचर दीदी को नमस्ते की मुद्रा में उठते। गांव की विवाहित या कुंवारी लड़कियां उसके आस पास मंडराती रहती या उसके पास आकर बैठ जाती।
कमसिन पहाड़ी, गोरी खूबसूरत, भोली बालाओं को देखकर, वह अभिभूत हो जाती। उनका अनछुवा, अनगढ सौंदंर्य, उसके लिए भी कुतूहल व आकर्षण का केंद्र था। तृप्ति, सौम्या, सचिना, सरिता, सविता….अब तो नाम व रंग ढंग का भी शहरीकरण हो चुका था। विवाहित बेटी, बहुओं के हाथों में मोबाइल, व उनकी वेशभूषा में भी काफी परिवर्तन आ चुका था।
अब न लगती बेटी और बहुएं अलग। सब एक जैसी खिलखिलाती, हंसती, बोलती, पहाड़ी नदी सी, उछलती, कूदती, उफनती सी दिखती। इन सभी लड़कियों में तृप्ति व सौम्या धीरे धीरे उसके बहुत नज़दीक आ गईं थीं। दोनों ने गांवों के स्कूल से बारहवीं पास किया था। दोनों ही विवाहित, पास के ही गांव से ही व्याह होकर आकर आईं थी।
23, 24 साल की, दोनो युवा, उम्र व खूबसूरती के वेग को थामे हुए, अपने अंदर जैसे एक तूफान सा समेटे हुए, जिस तूफान की वेगवती धारा पर बांध बना उनके सहचर दूर देश में कुक, व ड्राइवर की नौकरी करने चले गए थे।
”कितने साल से नहीं आया रे तेरा पति,” उसने सौम्या को छेड़ते हुए एकदिन पूछा।
”शैलेन्द्र को गए 2 साल हो गए दीदी, शादी के बाद 2 ही महीने रहा था,” शहरी लड़कियों की ही तरह सौम्या भी धड़ल्ले से पति का नाम लेते हुए बोली। बोलतेबोलते अनायास ही सौम्या की सुंदर आंखों में चंचल सपनीली चमक उभर आई थी।
”और तेरा,” वह तृप्ति की तरफ मुखातिब हुई।
”नरेश को गए तो 3 साल हो गए, अब छुट्टी आएगा, फिर चला जाएगा। वह अपने लगभग सवा दो साल के बेटे को खामोश निगाहों से ताकते हुए बोली।
जया की निगाहों ने दोनों की आंखों की खामोश वीरानगी को ताड़ लिया। कान गले हाथों में सोने के गहने, पति कमाने के लिए गया है…इसलिए संपन्नता की झलक दिखाई देती थी उनके रहन सहन में। जिनके बेटे या पति विदेशों में कुक, ड्राइवर या इसी तरह के दूसरे कार्यों के लिए गए हुए हैं, उनकी पत्नियों के पास रुपये पैसे की किल्लत नहीं दिखती। हर महीने बेटा या पति अच्छी घनराशि जो भेज देता है। पर क्या इन सुकुमारियों की आंखों की चमक स्थाई रख पाता है इनका हमराही,?
”दीदी शैलेन्द्र आ रहा है छुट्टी, एक हफ्ते बाद पहुंच रहा है,” खुशी से उमगते सौम्या ने एक दिन बताया। खुशी जैसे उसके अंगअंग से फूट रही थी।
उसकी सुदंर पनीली आंखों से फूटती, बहती प्रसन्नता जया को भी अन्दर ही अन्दर जैसे प्रेम रस में भिगो रही थी। अच्छी लग रही थी उसकी खुशी।
”दीदी, कुछ बताओ न, क्या करूं…सामने से थोड़े बाल काट दो मेरे, नीचे से बराबर भी कर दो…ब्लीच भी मिलता है भाष्कर की दुकान में, उसे लगा लूं?”
वह कुछकुछ बोले चली जा रही थी और जया उसकी आंखों में अपने प्रियतम के लिए पूरे संसार की खूबसूरती को अपने में समेटने की चाह को उसके दिल में हिलोरें लेते महसूस कर रही थी। जो 2 साल से उसने अपने अन्दर दबा रखी थी।
”कितने महीने के लिए आ रहा है?” जया उसकी उमगती खुशियों को आंखों से समेटते हुए बोली।
”2 महीने के लिए,” थोड़ी देर बाद सौम्या चली गयी। पर उसके ह्रदय में जैसे उसकी खुशी रचबस सी गयी। फिर 2 महीने तक न दिखी सौम्या उसे।
तृप्ति ने बताया। कुछ दिन घर पर रहकर, कुछ दिन के लिए पति के साथ अपने मायके और फिर घूमने के लिए जाएगी। वह उदास सी थी।
”तू क्यों उदास हो रही है,” जया उसके फूल से चेहरे को 2 उंगलियों से उठाती हुई बोली।
”नही, .उदास नहीं हो रही दीदी…बस ऐसे ही,”
”नरेश भी तो आने वाला था छुट्टी, क्या हुआ उसका,”
”इस साल नहीं आ रहा, अगले साल आएगा,” उसकी आंखों से टपटप आंसू टपकने लगे। उसके टपकते आंसू जया के ह्रदय में शूल की तरह चुभ कर बहुत कुछ बहाए दे रहे थे।
”तो अगले साल आ जाएगा,” वह उसका सिर सहलाकर, उसे दिलासा देती हुई बोली। बोलने को तो वह बोल गयी थी। पर तृप्ति के अन्दर अचानक उग आए, रेगिस्तान की मृग मरीचिका की प्यास…उसके खुद के ह्रदय को भी गहराई तक एक अजीब सी तृष्णा से भर गयी थी। तृप्ति उठ कर चली गयी थी।
जया बाहर आकर, खड़ी हो सामने खड़ी पहाड़ी को देखने लगी। बसंत ऋतु अपने उफान पर थी। जगह जगह पीले फ्योंली के फूल अपनी छटा बिखेर रहे थे। गर्मी आते ही ये मुर्झा जाएंगे। कितने सुंदर, कोमल, दिलकश, लुभावने लगते हैं ये फूल, जैसे उमंगों से भरपूर। किसी भी युवा ह्रदय में प्रेमरस घोलने में सक्षम।
ये युवा बेटियां बहुयें, जिनके पति या तो फौज में हैं या फिर विदेशों में पैसे कमाने के लिए गए हैं। अपनी फ्योंलियों को यूं तड़फता छोड़कर, पता नहीं क्यों तृप्ति की उदासी जया के ह्रदय को भी अनायास उदास कर गयी थी। इस उम्र में भी वह पवन से लम्बे समय तक दूर नहीं रह पा रही थी। उनके अपने आसपास होने का अहसास अजीब सा सुकून देता है। फिर ये युवतियां, जिनकी शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक जरूरतें, इच्छायें, भावनाएं, उमंगे…अभी अपने उफान पर हैं। कैसे थाम पाती होंगी ये अपने ह्रदय के आवेगों को।
लेकिन पैसा कमाने की प्यास और सुखद भविष्य की आस, इन प्रेम में पगी आत्माओं को एक दूसरे से दूर किए दे रही थी। रोजी रोटी के लिये गांव से क्या देश से भी पलायन इनकी नियति बन चुकी थी। कई बसंत आते हैं और गुज़र जाते हैं इनके जीवन में बस यूं ही, ऐसे ही, छू भी नहीं पाते हैं इनके ह्रदयों को। सोचकर उसके ह्रदय में भी बहुत कुछ रीत गया।
काफी दिनों तक तृप्ति भी न दिखी उसे। पता किया तो पता चला कि मायके गयी है कुछ दिनों के लिए, ‘चलो अच्छा है, कुछ दिन मन लग जाएगा उसका,” खुशी हुई उसे सोचकर।
काफी दिन बीत गये। स्कूल के फाइनल इम्तिहान चल रहे थे। इसलिए जया की व्यस्तता बढ़ गयी थी। एक दिन जया स्कूल से लौट रही थी कि पेड़ के नीचे के झुरमुट के पीछे निगाह गयी। एक युवकयुवती बैठे दिखायी दिए। मन ही मन मुस्कुरा गयी। गांव तक भी फैल गया है प्रेम रोग, अब गांव में भी प्रेम विवाह होने लगेंगे। जांत पांत से परे, अच्छा है। तभी युवती की जानीपहचानी खिलखिलाहट कानों में पड़ी। उसने तमक कर पीछे देखा और जड़ हो गयी. तृप्ति गांव के शंकर के साथ बैठी थी, कुछ इस अंदाज़ में जिसे सहज तो नहीं कहा जा सकता।
घबराकर वह जल्दीजल्दी कदम बढ़ाती हुई चली गयी। कहीं तृप्ति उसे देख न ले। उस दिन घर जाकर जया, अजीब से कशमकश में घिर गयी। जैसे तृप्ति के अन्दर की वीरानगी और आवेश उसके अन्दर एकसाथ समा गये हों।
काफी दिन लगे उसे उस दिन का मंजर भुलाने में। लेकिन फिर एकदिन उसका आमनासामना हो गया तृप्ति और शंकर से। उन्हें देखकर उस दिन भी वह जल्दीजल्दी कदम बढ़ाना चाहती थी। लेकिन पैर एक पत्थर से टकरा गया और न चाहते हुए भी मुंह से आह निकल गयी। तृप्ति की निगाह उस पर पड़ी और दोनों की निगाहें चार हो गयीं।
वह तेजी से घायल पैर का दर्द दबाए पहाड़ी रास्ते पर उतरती चली गयी। घर जाकर कपड़े बदल कर बैठी ही थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। उसने दरवाजा खोला। सामने तृप्ति खड़ी थी, चेहरे पर दिल चीरने वाली ठंडी खामोशी ओढ़े। बिना कुछ बोले वह वापस पलट गयी पीछेपीछे तृप्ति भी अन्दर आ गयी। जया पलंग पर बैठ कर एकाएक उठ आए अपने आवेश को काबू कर रही थी।
”दीदी,” तृप्ति उसके पैरों के पास बैठ, उसकी गोद में अपनी हथेलियों को रखती हुई बोली, ”बहुत नाराज़ हैं मुझसे,?”
”नहीं,” वह बिना उसकी तरफ देख कर बोली।
”तो फिर सवाल कीजिए, जो कुछ पूछना चाहती हैं…पूछ लीजिए,”
”क्या पूछूं तृप्ति” उसका कंठ अवरूद्व हो गया, ”क्या यह सही है, विश्वासघात कर रही है तू अपने पति के साथ…वो तुम्हारे लिए, पैसा कमाने के लिए दिन रात एक कर रहा है और तू?” बोलतेबोलते जया उत्तेजित हो गयी.
”दीदी, किसने कहा था नरेश को कि इतना कमा कि हम साथ न रह पाएं, कितना रोका था मैंने…कैसे जिंदगी बिताऊं, आप ही बताइए। नरेश फिर 2 महीने के लिए आएगा और सब्जबाग दिखाकर 3 साल के लिए चला जाएगा, आप ही बताइए दीदी…ये बूटी न खायी होती तो स्वाद भी न पता होता, पर जब प्रेम की बूटी एक बार खा लो तो इसका स्वाद भी तो पता हो जाता है न,”
तृप्ति की आंखें छलछला आयीं, ”तनमन की अपनी इच्छाएं हैं दीदी, इन सामाजिक रिश्तों से परे…इससे तो अच्छा था, मेरा विवाह होता ही नहीं,” वह जया की गोद में सिर रखकर फूटफूट कर रो पड़ी।
जया हतप्रभ सी तृप्ति को देखती रह गयी, फिर उसका सिर सहलाने लगी। तृप्ति का सिर सहलातेसहलाते सोच रही थी उसे भी नहीं करनी है अब नौकरी, वापस चली जाएगी पवन के पास। 3 साल का समय बहुत होता है। एकाएक उसकी आंखों से आंसुवों की अविरल धारा बहने लगी। इन अभिसारिकाओं के दर्द ने उसके ह्रदय को अंदर तक बींध डाला था।
गांव के अमूमन हर दूसरे घर की यही कहानी थी। पति पैसा कमाने के लिए या तो विदेशों में या फौज में। विदेश में रह रहा पति कब आएगा पता नहीं और फौज में भर्ती, देश की सीमा पर तैनात पति कब अपनी प्रेयसी से मिले बिना ही अलविदा कह जाए कौन जाने।
”तृप्ति,” उसने कुछ कहना चाहा। पर एकाएक तृप्ति अपनी रुलाई रोकती हुई दरवाजा खोलकर बाहर निकल गयी. बाहर का मौसम अचानक बिगड़ गया था। बादल गरज रहे थे। बिजली कड़क रही थी। उसने तृप्ति को आवाज देकर रोकना चाहा पर उसकी आवाज को अनसुना कर, वह तेजी से पहाड़ी रास्ता उतरती हुई भागती चली गयी थी और वह हताश सी उसे भागते हुए देखती खड़ी रह गयी।

कथाकार:सुधा जुगरान

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