लघुकथा संग्रह:मुस्कुराती चोट-संतोष श्रीवास्तव

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मुस्कुराती चोट

लघुकथा संग्रह

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

चुनिंदा लघुकथाएँ एवं विमर्श

समर्पण:

लघुकथा को, लघुकथा के लिए, लघुकथा के द्वारा ……

मुझको इनाम की चाहत नहीं  दुआ दीजै 

दुआएं उम्र भर का साथ निभा देती हैं।

अपने लिये सुदृढ़ जमीन रची है लघुकथा ने
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लघुकथा ने पिछले दशकों से अब तक अपने लिए एक सुदृढ़ जमीन रची है।पहले पत्रिकाओं में मात्र फिलर के रूप में इस्तेमाल होने वाली लघुकथा अब कथात्मक साहित्य में अपनी जगह बना चुकी है और इसका पूरा श्रेय जाता है पत्रिकाओं के संपादकों को और विभिन्न साहित्यिक संस्थाओ द्वारा लघुकथा पर आयोजित सम्मेलनो को। जब मैं मुम्बई टाइम्स ऑफ इंडिया में पत्रकार थी ।वहाँ से सारिका, धर्मयुग ,माधुरी पत्रिका निकलती थी। अक्सर इन पत्रिकाओं में लघुकथा को फिलर के रूप में लिया जाता था। तब मैंने लघुकथा के विधान को समझा। मुझे लगा लघुकथा अपने आप में एक महत्वपूर्ण विधा है जिसका कलेवर छोटा है पर सोच व्यापक ।उन्हीं दिनों सारिका के संपादक कमलेश्वर जी ने लघुकथा अंक निकाला। जिसमें संपादन सहयोग मेरा था। ढेरों लघुकथाएँ आईं पर अधिकतर व्यंग्य से जुड़ी ।व्यंग्य प्रधान लघुकथाएँ हरिशंकर परसाई जी ने भी लिखी। पर उन्हें छोटे-छोटे व्यंग्य कहना उचित है लघुकथा नहीं ।सारिका का लघुकथा अंक पाठकों के बीच विशेष जगह नहीं बना पाया। दशक आठवाँ था और लघुकथा अपनी जगह बनाने के लिए संघर्षरत। कमलेश्वर जी ने लघुकथा आंदोलन में लघुकथाकारों को वरीयता दी।और उसे यथार्थ की जमीन मिली। ।कथ्य की विविधता को लेकर लघुकथा में शैली के स्तर पर व्यापक प्रयोग हुए। भाषा के गठन में बदलाव आया ।
सारिका ने फिर जोखिम उठाया और श्रेष्ठ लघुकथाएं और समांतर लघुकथाओं के अंक निकाले ।इन विशेषांकों ने लघुकथा को चरमोत्कर्ष के ठिकाने दिखाए। पाठक भी बटोरे। मेरी सारिका में छपी पहली लघुकथा “गलत पता” पर दूरदर्शन के लघु फिल्म निर्माता रवि मिश्रा की नजर पड़ी और उस पर फिल्म बनी जो मेट्रो चैनल पर प्रसारित हुई। इस फिल्म ने लघुकथा की ओर मेरा रुझान पैदा किया और तब से  सिलसिला जारी है।
लघुकथा कभी भी उपेक्षित नहीं रही। यह बात दीगर है कि इस विधा की ओर लेखकों का ध्यान धीरे-धीरे गया ।पत्रिकाएँ भी लघुकथाओं को अपने कलेवर में स्थान देती रहीँ और पुस्तकें भी प्रकाशित होती रहीँ। मेरा तो लघुकथा की ओर ऐसा रुझान हुआ कि आलम यह था कि जिस भी पत्रिका में मेरी लघुकथा छपती पाठकों का खूब प्रतिसाद मिलता। मुझे लघुकथा लिखने में आनन्द आने लगा ।
तभी पटना से लघुकथा पुरोधा डॉ सतीश राज पुष्करणा का एक पोस्टकार्ड प्राप्त हुआ ।”आपका चयन लघुकथा सारस्वत सम्मान के लिए किया गया है ,कृपया स्वीकृति दें।” 
मेरे लिए यह अचानक मिला बेहतरीन तोहफा था ।यह आयोजन अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में अखिल भारतीय लघुकथा प्रचार प्रतिष्ठान के द्वारा किया जा रहा था। पटना में मेरी मुलाकात बलराम अग्रवाल, सुकेश साहनी, डॉ मिथिलेश कुमारी मिश्र, अनीता राकेश ,पुष्पा जमुआर,रामेश्वर काम्बोज आदि लघुकथाकारों से हुई ।उस वर्ष दिल्ली में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में मधुदीप जी से भी मिलना हुआ और संयोग कुछ ऐसा कि अगले वर्ष का लघुकथा सम्मान भी मेरी झोली में ।
पटना से ही अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा आयोजित लघुकथा सृजनश्री सम्मान के लिए मेरा चयन किया गया। 
लघुकथा की पत्रिकाओं आरोह अवरोह,संरचना आदि में भी मेरे लघुकथा पर आधारित लेख और लघुकथाएं डॉ सतीश राज पुष्करणा और कमल चोपड़ा जी ने लगातार छापीं। मेरे सामने एक बड़ी चुनौती आ गई कि लेखन को पूरा लघुकथा की ओर ही मोड़ना पड़ेगा ?? पंजाबी की लघुकथा की पत्रिका मिन्नी में भी मेरी लघुकथाएं श्याम सुंदर अग्रवाल द्वारा अनुवाद करके प्रकाशित की गई ।श्याम सुंदर अग्रवाल जी ने मुझे अंबाला में होने वाले लघुकथा सम्मेलन में आमंत्रित भी किया पर मैं जा नहीं पाई।
बाज़ार लघुकथा का अनुवाद मराठी में ने पत्रिका के लिए किया। पंजाबी और मराठी में हुए इन अनुवादों ने दोनों लघुकथाओं को पंजाबी और मराठी के पाठकों तक पहुंचाया। कुछ लघुकथाओं पर अन्य भाषाओं में अनुवाद का कार्य अभी जारी है। 
मैं मानती हूं कि साहित्य की किसी भी विधा का लेखन क्यों न हो लेखक को समाज के प्रति जागरूक , जीवन मूल्यों के प्रति सचेत और जमीनी सच्चाईयों से जुड़े रहकर ही लेखन करना होगा। तभी लेखनी को स्थायित्व मिलता है।
मेरी चुनिंदा लघुकथाओं का यह संग्रह लघुकथा के समीक्षकों की पारखी नजर से गुजरकर विमर्श के आयामों तक पहुंचा है। विमर्श के ये आयाम मेरे लिए लघुकथा का मार्ग प्रशस्त भी कर रहे हैं और चुनौती भरा भी।
ये क्या उठाये कदम और आ गई मँज़िल
मज़ा तो तब है के पैरों में कुछ थकान रहे 
  • संतोष श्रीवास्तव 

14 अगस्त 2020 

अनुक्रम

लघुकथा जीवन का सत्य है-डॉ कमल किशोर गोयनका

1)अपने पराए
2)औरंगजेब
3)जोखिम
4)डाली से टूटा पत्ता
5)झूठ का सच
6)नकाब
7)नया मोड़
8)बारिश
9)फैसला

संवेदनीयता को नुकीलापन देती लघुकथाएँ‌ -बी एल आच्छा

10)सती

11) भेंट क्वार्टर

12)असली आनंद

13)चिता

14)काला इतवार

15)तीस साल बाद

16)पर्दा गिर चुका था

17)मिलावट का जहर

 लघुकथाओं पर एक नज़र – बलराम अग्रवाल

18)मुस्कुराती चोट
19)सौदा
20) बुखार
21) मनी आर्डर फॉर्म
22) मजहब नहीं सिखाता
23)  बाजार
24) आदत
25) शहीद की विधवा
26) मंगलसूत्र
27) सवाल वोट का था

 निम्न वर्ग , वंचितों को केंद्र में रख कर बुनी गई लघुकथाएँ – पवन जैन

28)व्यापार
29)गोपू और आम
30)मजबूरी

दिशा बोध कराने वाली लघुकथाएं – सतीश राठी

31)श्राद्ध
32)निगरानी
33)नीलामी
34)पश्चाताप
35)रोबोट
36)अकेला
37)विजेता
38)गरीब की बरसात

अपने समय को प्रत्यक्ष करती लघुकथाएँ-डॉ सतीशराज पुष्करणा

39)गलत पता
40)तेल के कुएं
41)विभीषण विश्लेषण
42)सीधी रेखा
43)कलेजे में धुआँ
44)लोटा
45)एहसास
46)संतुष्टि
47)डर

संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाओं का मंतव्य- हीरालाल नागर

 48)गिद्ध
49)कीमती भोग
50)गौ माता
51)काश
52)उषा की दीपावली
53)अंतिम विदाई
54)गूंगी  

विशिष्ट पहचान रखती लघुकथाएं –रूपेंद्र राज‌‌


55)मौत निश्चित है
56)विडंबना
57)बुजदिल
58)टिप्स लेना मना है
59)बेटी पढ़ाओ
60)तलाश

61)असली नशा
62)आस
63)करिश्मा
64)कीमती भोग
65) दावेदार
66)प्यार ऐसा भी
67)बंद
68) रंगभेद
69)असमंजस
70)गिरवी

सार्थक सामयिक लघुकथाएँ-प्रमिला वर्मा


71)छूटने का दर्द
72)निर्णय
73) अभावों का बदला
74) आतंक और इंसानियत
75) ममता
76) पैर पसारता लॉकडाउन 
77)गुलाबी चुनरी
78)ग्रहण
79)चौथी बेटी
80)वचन
81) किन्नर
82) मुखौटा
83)मोह्ताज

लघुकथा जीवन का सत्य है

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लघुकथा का संसार अब लघु नहीं रह गया है वह भारत भर में देखा जा सकता है। जैसे आप इंद्रधनुष को आकाश में देखते हैं और पूरा भारत एक साथ देखता है। लघुकथा जीवन का राग विराग रहित जीवन का सत्य है। लेकिन सत्य ऐसा जो मर्म का स्पर्श करे मन को विफल कर दे और पाठक को सोचने तथा कहने को विवश करे। लघुकथा भी साहित्य की अन्य विधाओं के साथ कला की साधना है। यह साधना ऐसी हो जो हर लघुकथा को रचना बना दे और उसमें जीवन का सत्य उभरता ,चमकता दिखाई दे ।

आज लघुकथाकारों की लंबी सूची दिखाई देती है। इनमें काफी  अलघुकथाकार भी हैं पर वे भी लघुकथा आंदोलन को व्यापक बनाते हैं।

लघुकथा  के प्रति मैं बहुत आशावान हूं। कमल चोपड़ा जैसे लघुकथाकार यश के बिना ही लघुकथा संसार का विस्तार कर रहे हैं और बलराम अग्रवाल लघुकथा को स्वच्छ शास्त्र देने का प्रयत्न कर रहे हैं और भी अनेक लघुकथाकार है जो निष्ठा से लघुकथा की आत्मा को भारतीयता से ओतप्रोत कर रहे हैं। संतोष श्रीवास्तव उन्हीं में से एक नाम है।

उनकी लघुकथा अपने पराए  संवाद पर रची गई है ।विदेश में एक भारतीय और पाकिस्तानी अपने पराए की बात करते हैं और विभाजन के लिए स्वयं अपनों को ही दोषी ठहराते हैं। इसमें सच्चाई है पर यह पाकिस्तान की ओर से अधिक है। सरहदें मनुष्य ही बनाता है। उनकी रक्षा के लिए भी मनुष्य ही लड़ता है और अपने-अपने पक्ष के सैनिकों के मरने पर शहीद मानता है। दोनों देशों में जनता शांति से रहना चाहती है लेकिन यह भी ध्यान रखना होगा कि पाक की आतंकवादी हरकतें अब बर्दाश्त के बाहर हैं। गंगा जमुनी संस्कृति की चर्चा होती है पर गंगा का सौहार्द से यह संस्कृति नहीं बनती इसमें जमुना को भी मन से हिंदुओं के साथ जुड़ना होगा। 

औरंगज़ेब लघुकथा पिता विरोधी पुत्र को औरंगजेब के रूप में प्रस्तुत करती है।औरंगजेब इतिहास का सबसे काला चरित्र है। उसने पिता को कैद में रखा और शिवाजी को भी धोखे से बंदी बनाया और असंख्य हिंदुओं पर अत्याचार किए। यह लघुकथा पुत्र के पिता के प्रति कर्तव्यों का स्मरण दिलाती है। लेकिन बेटों की दुनिया पिता से भिन्न होती है और भारत में तो बेटे पिता की संपत्ति पर अपना अधिकार समझते हैं। युवा पीढ़ी को पारिवारिक मूल्यों को समझने तथा जीवन में उतारने की आवश्यकता है।

जोखिम लघुकथा पुलिस के अत्याचार तथा स्त्री की व्यवस्था की दयनीय लघुकथा है ।पुलिस द्वारा निर्दोष व्यक्ति को जबरदस्ती जीप में बैठाने का दृश्य मैंने आपातकाल में तिहाड़ जेल से निकलते हुए देखा था और इसी प्रकार पत्नी और बच्चे बापू कहते हुए दौड़ती जीप के पीछे भागे थे। ठेकेदार के रूप में आदमी का ऐसा ही चरित्र प्रायः होता है। लेकिन स्त्री अपने सतीत्व की रक्षा के लिए मजबूरी छोड़कर अंधेरे में गांव से चली जाती है। पर उसका भविष्य कैसा होगा लघुकथा में स्पष्ट न होकर भी स्पष्ट है।

 कि स्त्री आज भी अकेली है। उसे अपने यौन शोषण से बचना है और बच्चों को भी पालना है और शिकारियों के बीच ही जीना है। यह नियति कब बदलेगी।

डाली से टूटा पत्ता एक अपंग स्त्री की जिजीविषा की लघुकथा है। ऐसी स्त्री होती है और सारे कष्टों के साथ जीती है। यह मनुष्य की ताकत है ।अवरोधों और बाधाओं के बीच जीने की ताकत। मनुष्य को ऐसा ही होना चाहिए। इसमें प्रकृति का सौंदर्य भी देखा जा सकता है।

झूठ का सच कहानी वृद्धों की त्रासदी की लघुकथा है। एक पिता 6,7 बच्चों का पालन पोषण कर रहा है परंतु 6,7 बच्चे एक पिता का पालन पोषण नहीं करते। यह हमारे पारिवारिक जीवन तथा मूल्यों के क्षय होने की त्रासदी है। इस प्रसंग में उषा प्रियंवदा की कहानी वापसी बड़ी प्रसिद्ध हुई ।वृद्ध जीवन पर कम लिखा गया है। लेकिन जो लिखा गया है वह त्रासद है। वृद्ध सबको होना है पर युवावस्था में आदमी सोचता है कि वह वृद्ध नहीं होगा। इस सत्य से भागना जीवन से भागना है।

नकाब लघुकथा मुस्लिम समाज पर एक तीखा व्यंग्य है ।नकाब जीवन नहीं है क्योंकि वह जीवन को छुपाता है। उसे आवरण में रखता है। ईश्वर की रचना को आदमी अपनी तरह से लपेट कर जीना चाहता है और वह यह इच्छा तथा बंधन दूसरों पर लगता है। यह नकाब स्त्री की मौलिक स्वतंत्रता एवं मानवाधिकार पर चोट है। यह तीखा व्यंग्य है कि जो नकाब  का विरोध करती है वही नकाब बनाने का काम करती है।

नया मोड़ आज की लड़की की नई आवाज है। बलात्कार के दंश से दशकों शताब्दियों से पीड़ित स्त्री उस से मुक्त होने के लिए नई नैतिकता रचती है। बलात्कार शरीर का होता है आत्मा का नहीं। शरीर बेचना अपराध है पर बलात्कार होने पर स्त्री का क्या अपराध है ।लघुकथा की नायिका एक नया जीवन शुरु करती है।

बारिश में भारतीय समाज की शुद्ध मानसिकता का चित्रण है। हम अपने स्वार्थों के साथ जीते हैं और आवश्यकता न हो तो दूसरे व्यक्ति के अधिकारों को ठुकरा देते हैं पर अब स्थिति बदल रही है। सोच बदल रही है लेकिन छोटे शहरों ,कस्बों में ऐसी मानसिकता अभी दिखाई देती है।

भारतीय समाज में ऑनर किलिंग की घटनाएं होती रहती हैं यह पहले भी होती थी और अब भी होती हैं ।प्रेमचंद्र जी की ही एक कहानी है जो ऑनर किलिंग पर लिखी गई है। समाज में ऊंच-नीच की प्रवृत्ति इतनी गहरी है कि अभी उसे मिटने में काफी समय लगेगा। ईश्वर सबको समान रूप से पैदा करता है और सभी एक समान जीवन जीवित जीते हैं और मरते हैं। यह भेदभाव मनुष्य ने बनाया है और अब तक असंख्य लोगों की हत्या कर चुका है। जीवन महत्वपूर्ण है लेकिन जीवन से बड़ा सम्मान हो जाता है। यह हमारे जीवन की त्रासदी है। फैसला लघुकथा ऑनर किलिंग की अच्छी लघुकथा है।

  • डॉ कमल किशोर गोयनका

अपने पराए

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सुखविंदर कौर आग्रह सहित मेहमानों की प्लेट में व्यंजन परोस रही हैं ।

“खाओ जी, खुशी का मौका है। बेटा हरभजन दुश्मन की कैद से छूटकर आया है।”

 सरदार जी अपने मित्र राय साहब की पीठ पर हाथ रखते हुए कहते हैं

” रात ज्यादा होने की फिकर न करना यार, गाड़ी से तुम्हारे होटल छुड़वा देंगे। वैसे दुबई में रात बड़ी रौनक रहती है। मुझे तो मुंबई खूब याद आता है। पर क्या करें कारोबार के चक्कर में दुबई आ बसे।”

  रात तीन बजे पार्टी समाप्त हुई ।दुबई की सड़कें वाकई चहल-पहल भरी हैं

” क्या नाम है ड्राइवर साब आपका?” “वही जो आपके देश के महान कॉमेडियन का था….. महमूद ,बहुत बड़ा फैन हूं मैं उनका।”

“आप यहीं दुबई से हैं।”

“नहीं मुल्तान यानी कि पाकिस्तानी। आपके देश का सबसे बड़ा दुश्मन।” 

वह हो हो कर हंसने लगा ।

“बताइए जनाब ,क्या मैं आपको दुश्मन लगता हूँ ? क्या आपको नहीं लगता कि सरहदें मिट जाएँ ? खून खराबा बंद हो ?कब तक हम अपनों को जमीन के टुकड़ों के लिए खोते रहेंगे?”

राय साहब उस आम आदमी की बड़ी सी सोच पर दंग थे ।

“हाँ महमूद, हम भी यही चाहते हैं। तुम पाकिस्तानी हम हिंदुस्तानी। पर खून तो हमारा एक ही है न । कभी मुल्क भी हमारे एक ही थे ।पर बुरा हो इन अंग्रेजों का……”

महमूद ने सहसा गाड़ी रोक दी। “जनाब, अंग्रेज तो पराए देश के थे। उनका काम ही फूट डालने का था ।पर हम तो पराए नहीं थे ।फिर ???

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औरंगजेब

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गाइड बता रहा था –“इस छोटे से झरोखे से शाहजहाँ ताजमहल का दीदार करते थे। गद्दी पाने की चाह में औरंगजेब ने चालाकी से उन्हें इस महल में ताउम्र नजरकैद रखा था ।उसका कहना था कि अपने प्रेम को जीवित रखने के लिए शाहजहाँ ने ताजमहल बनवा कर करोड़ों रुपए बर्बाद किए, शाही खजाना खाली कर दिया ।मुगल हुकूमत का अस्तित्व संकट में आ गया।”

उसके साथी आपस में कहने लगे कि कितना अत्याचारी था औरंगजेब अपने ही पिता को कैद कर लिया।

रजत जहाँ के तहाँ मूर्तिवत खड़ा था । साथियों के इस वाक्य ने उसे बेचैन कर दिया था ।

उसके पिता शहर के करोड़पति व्यापारी उमेश राय….. पांच सितारा होटलों की चेन पूरे उत्तर प्रदेश में फैली है उनकी। उमेश राय साहित्यकारों की बहुत मदद करते हैं। साहित्यिक आयोजनों के लिए होटल का कॉन्फ्रेंस रूम और चाय नाश्ता स्पॉन्सर करते हैं। शहर के  बुद्धिजीवी वर्ग ने उन्हें दानवीर ,खुले हाथों मदद करने वाले आदि विशेषणों से नवाजा है। 

पिता के खर्च को धन लुटाना समझ कर रजत ने चालाकी से उनकी संपूर्ण संपत्ति अपने नाम करवा कर उनसे कहा

“आप तो दोनों हाथों से धन लुटाते हैं पिताजी, इस तरह तो व्यापार ठप्प हो जाएगा। वैसे भी अब आपकी भजन पूजन की उम्र है। मैं संभालता हूँ व्यापार।”

उन्हें अब अपने घर में बेबस सा रहना पड़ रहा था। रजत ने मानो उनके हाथ बांध दिए थे।

उसके साथी उसे आवाज दे रहे थे

” चलो रजत ,अभी तो पूरा किला घूमना बाकी है।”

लेकिन कहाँ है रजत वहाँ तो औरंगजेब खड़ा है।

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जोखिम
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ईट के भट्टों से उठते धुएं के गुबार में वह आँखें मिचमिचाती देख रही है। मंजर जानलेवा है। पुलिस की जीप उसके निर्दोष पति को जीप में बैठाकर ले जा रही है। भीड़ के मजमे में पैरों तले खिसकती जमीन पर वह लड़खड़ाती भागी अंधाधुंध ……कि बंदूक चलने की आवाज ने उसे पथरा दिया ।पुलिस ने उसके पति को दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला ।जैसे अक्स हो गया है उसकी डबडबाई आंखों में पति का दौड़ता, गिरता, तड़पता और पथराता हुआ जिस्म….. एक चीख कुचली नागिन सी बिलबिलाई…” नहीं मत मारो उसे ” लेकिन चीख ने दम तोड़ दिया। रोते कलपते बच्चों को छाती से चिपकाए उसने अपना सर दीवार पर पटका और माथे के लहू को हथेलियों पर रगड़ने लगी ।
ज्यादा दिन शोक नहीं मना पाई वह पति का। ठंडे चूल्हे ,खाली बर्तनों ने उसे ईंट के भट्टे की ओर जाने को मजबूर कर दिया।
” इनकाउंटर हुआ है तेरे पति का।”
ठेकेदार ने लार टपकाते हुए उसके जिस्म के उभारों को घूरा और खैनी मलने लगा ।
“हम जानते हैं वह निर्दोष था ।उसे फंसाया गया था ।पुलिस को अपनी वर्दी में बिल्ला बढ़ाने के लिए किसी को तो मारना था ना।”
खैनी गाल में दबाते हुए उसने हाथ झटका।
“तू चिंता मत कर, हम हैं ना”
कानून के रखवालों की साजिश और सत्ता के वहशी खेल की शिकार थी वह ।उसका सर्वांग हाहाकार कर उठा ।कहां से लाएगी वह अपने बच्चों की थाली में भात?? कैसे बचाएगी अपने घर के टूटे छप्पर को मौसम की मार से?? तो क्या ठेकेदार के आगे समर्पण करना होगा?? रात भर वह अपने मासूम निर्दोष पति को याद करते हुए चिंता के बवंडर से घिरी रही। पौ फटने को है। फैसला अभी करना होगा। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं ।
उसने सोते बच्चों को कंधे पर उठाया और अंधकार में गांव से बाहर जाती पगडंडी पर उतर गई।.

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  डाली से टूटा पत्ता

मेडिकल रिपोर्ट विनय के हाथोँ मे थरथरा रही थी। मोटर न्यूरान डिज़ीज़ …..यानी अब कभी सुजाता चित्र नही बना पायेगी।कभी ब्रश और रँगो की दुनिया मे नही लौट पायेगी….मशहूर चित्रकार सुजाता दास ….कई एकल प्रदर्शनियो और 15 नेशनल अवार्ड की विजेता सुजाता दास अपाहिज होकर बिस्तर पर सारी उम्र गुजारेगी? “नही वह ऐसा नही होने देगा,वह अपनी मेहबूबा के लिये ज़मीन आसमान एक कर देगा।“

          बरसो इलाज चला।महँगी दवाईयाँ,महँगी फिजियोथेरेपी,आयुर्वेदिक इलाज भी,योगकेन्द्र भी। कोशिश ,आश्वासन और इस सबके बीच सुजाता के जिस्म की बेहिसाब पीडा…अब उसके हाथ उसके इशारो पर चलने से इँकार करते है। पैर उठ्ने और सेंडिल पहनने से इँकार करते है और धीरे धीरे इस इंकारी ने ज़बान पर भी कब्जा करना शुरू कर दिया है। लेकिन सुजाता की जिजीविषा कम नही हो रही है,वह इस इंकारी से कठिन संघर्ष कर रही है। उसे जीना है ,मुस्कुराना है,अपँगता को हराना है। संघर्ष कठिन है…थाली से एक निवाला उठाकर मुँह तक पहुँचाने मे पूरा दिन गुजर जाता है।….लेकिन आज पूरी शक्ति से वह उठी है…अपने लुँज पुँज हाथो से दीवार का सहारा लिया है…धरती थरथराई है….धरती या वह स्वयँ…या वह कैनवास जहाँ तक रेंगने मे उसे एक घँटा लगा…पेंसिल उठाने मे पँद्र्ह मिनिट…रेखाएँ बनाने मे दो घँटे, रंग भरने मे एक घंटा। विनय जब ये खुशखबरी लेकर घर आया कि स्टेट गव्हमेंट उसे इलाज के लिये अमेरिका भेजने का खर्च उठा रही है तो वह दंग रह गया….सुजाता फर्श पर गिरी हुई थी लेकिन आँखो मे सौ सौ दीपको की चमक थी …गिरी हुई हालत मे ही उसने कैनवास की ओर इशारा किया.. वहाँ डूबते सूरज के पीले उजास में गुलमोहर के झड़े हुए फूलों के बीच से एक हरा पत्ता अपने कोमल डंठल पर मुँह उठाए झांक रहा था ।

पतझड़ की विदाई का वासंती उत्सव पूरे दृश्य को मानो केनवास में समेटे था। सुजाता की आँखें चमक रही थीं।  उसने विनय से कहा 

“देखो मैं कर सकती हूँ। मैंने बना लिया चित्र  विनय।”

 विनय ने उसके सूजे हुए हाथों को अपने हाथ में लेकर थपथपाया ” हाँ तुम कर सकती हो।  तुमने बेहद खूबसूरत चित्र बनाया है।  तुम सक्षम हो सुजाता ।”और उसकी आँखों से दो बूँद आँसू सुजाता की हथेलियों पर चू पड़े।

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झूठ का सच
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जॉगिंग पार्क में सुबह की सैर के दौरान  वटवृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर तीनों बुजुर्ग  बतिया रहे थे।
” जब रिटायर नहीं हुआ था तो बेड टी ,नाश्ता, लंच बॉक्स ,आयरन किये कपड़े ,पॉलिश किए जूते समय पर मिल जाते थे और मैं पत्नी के सेवा भाव से गदगद उस पर कुर्बान था पर अब!!!!”
“पूछिए मत, अब तो चाय के साथ अखबार भी 11 बजे तक मिलता है जब पूरा परिवार पढ़ लेता है।”
” मेरी बहू तो मुझे घर में टिकने ही नहीं देती सुबह 10 बजे रोटी सब्जी का टिफिन थमाकर रवाना कर देती है। महीने भर का लोकल रेलवे पास बेटे ने बनवा दिया है। दिन भर चर्चगेट से विरार अप डाउन करते रहो। रात 8 बजे ही घर लौटने की परमीशन है।” 
“वर्मा जी तो मज़े में हैं, मिसेज़ वर्मा नहीं है तो क्या हुआ, बेटा बहू खूब ध्यान रखते हैं।”
वर्मा जी की आंखें 6 साल के बच्चे के पीछे दौड़ते व्यक्ति पर पड़ी उनका बेटा भी उन्हें ऐसे ही दौड़ाता था ।यह बेटे के प्रति मोह ही तो है जो उनसे झूठ बुलवाता है कि वह मज़े में हैं। क्या फर्क पड़ता है ऐसा करने में ?
उनकी तो उम्र बीत गई। बेटे को क्यों बदनाम करें।
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नकाब
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स्वात घाटी…… उनके हाथों की चाबुक बरस रही हैं कोमल बदन की किसी सलमा, नजमा, रेहाना पर क्योंकि उनके चेहरों से नकाब जरा से सरक गए हैं और उनके हाथों ने थाम रखी है किताबें कॉपियां पेन …..सदियों की जहालत के खिलाफ …..
सिलाई मशीन के साथ साथ वह भी थरथराती है। टीवी पर फिल्म ब्रेक के विज्ञापनों से गुजर रही है। अम्मी से उसका भी सवाल था कि
सिर से पैर तक नकाब क्यों??
क्यों हमारे हिस्से पढ़ाई नहीं?? 
क्यों हम महज़ एक वस्तु ??
या नकाब में छिपी महज़ एक जिंदा लाश?? अम्मी के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। वह प्रतिदिन सिलाई मशीन पर नकाब सीने का काम ही तो करती है। हर बार यह मानकर कि उसने सिल चुके नकाबो के अंदर एक शोला दबा दिया है ।कभी तो भड़केगा ।शोले की आग अब भड़कती नज़र आ रही है।
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नया मोड़
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मां, बाबा उसे पिछले 15 दिन से घर में कैद किए हैं ।
क्यों माँ, क्यों नहीं मुझे कॉलेज जाने दे रही हो? सहेलियों से मिलने नहीं दे रही हो?”
“नासमझ मत बन। दुनिया की निगाहों का सामना कर पाएगी ?”
” मैंने किया क्या है आखिर ?”
अब की बार उसकी आंखों में मां को डरावने बादल घुमड़ते नज़र आए ।उन्होंने आहिस्ते से कहा 
“बलात्कार हुआ है तेरा। समाज के डर से ही तो बाबा ने रपट दर्ज नहीं कराई। मैं तो तेरे भविष्य को लेकर चिंतित हूं। अब कौन करेगा तुझसे शादी?”
” जो इंसानियत से भरा होगा वही करेगा शादी। बीमार मानसिकता वाले इस खबर को चटखारे लेकर एक दूसरे को सुना रहे होंगे।”
उसकी आंखों के बादल सहसा आंधी में बदल गए ।
“बलात्कार मेरे शरीर का हुआ है मेरा नहीं। मेरे भीतर की लड़की पूरे मान सम्मान से अभी भी जिंदा है ।लज्जित तो मां तुझे तब होना था अगर मैं अपनी हवस मिटाने को, या रुपयों के लिए अपने शरीर को बेचती ।उस नाली के कीड़े को तो मैं कब का दफन कर चुकी कीचड़ में ।तुमने बदनामी के डर से fir दर्ज़ नहीं की,फिर मुझ बेगुनाह को ये कैद क्यों ? “
उसने तेज़ी से मोबाइल पर अपनी सहेली को फोन लगाया कि जैसे तेज आंधी में घर के दरवाजे खिड़कियां शोर करने लगे।
” आधे घंटे में हम सिटी मॉल में मिल रहे हैं। बाजीराव मस्तानी देखेंगे और महाराजा में लंच लेंगे।”
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बारिश

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मुंबई की धुआंधार बारिश की चपेट में था महानगर ।निचले भागों में तो घुटने घुटने पानी भर चुका था। विवेकी बाबू का चार मंजिल की बिल्डिंग में पहली मंजिल पर टेरेस फ्लेट था। टेरेस से पानी सीधा कमरों में घुसने लगा ।थोड़ी ही देर में हल्का फुल्का सामान कमरों में भरे पानी में तैरने लगा। घर के सभी प्राणी पानी उलीचने में लग गए। पर वे जितना उलीचते पानी  लौट लौट कर उतना ही भरता जाता।

” अरे, फोन करो घसीटाराम को। समझ में नहीं आ रहा पानी लौट लौट कर क्यों आ रहा है।”

आवाज मोहिनी की थी ।जो  घसीटाराम मेहतर को घर की दहलीज तक पर खड़े नहीं  होने देती थीं। वह दरवाजे पर आ भी जाता तो बाल्टी भर पानी डाल जगह पवित्र करती थीं। कभी कंपाउंड की सफाई कर उनके दरवाजे पीने को पानी या चाय मांगता तो पैसे टिका देतीं।

” जा  होटल में पी ले जाकर ।”

उसके जाते ही दरवाजे पर अगरबत्ती लगा देतीं। कमरों में अगरबत्ती की खुशबू भरने लगती।

“मुआ ,नालियां साफ कर खुद भी नाली जैसी बदबू मारता है । गांधी जी ने वैष्णव जन कहकर इन्हें सर चढ़ा लिया। वरना क्या मजाल कि ये ड्योढ़ी चढ़ें। “

मगर आज ……..

विवेकी बाबू ने फोन लगाकर उसे बुलाया ।इतनी भारी बारिश में भी वह दौड़ता हुआ आया। घुटनों तक पैंट चढ़ाए, तवे जैसा काला, पीली आँखों वाला घसीटाराम दरवाजे से कमरों में भरे पानी में  पैर डुबोता रसोई घर से होता हुआ टेरेस तक गया। घुटने के बल बैठ कमीज की बाँहे चढ़ाईं और नाली में हाथ डालकर ढेर सारा कचरा निकाला । नाली खुलते ही पानी तेजी से बह चला। कमरों में रह गई कीचड़ जिसे साफ कर पूरे घर को कपड़े से पोछ कर सुखा डाला । घर चमक उठा। घसीटाराम विवेकी बाबू के दिए हुए मेहनताने के रूपए गिन ही रहा था कि मोहनी की रसोई घर से आवाज आई 

“सुनते हो ,चाय बिस्किट दे दो उसे। बेचारा इतनी बारिश में आया। नहीं आता तो हमें तो पानी बर्बाद ही कर डालता।”

बारिश थम चुकी थी ।पानी उतर गया था।

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         फैसला

     आज फैसला सुनाया जाना था।वे अदालत की सबसे आगे की पँक्ति में बेहद गमगीन बैठी थीं। उनके तीस वर्षीय पुत्र नवीन को मृणाल के दोनो भाईयों विशाल और विवेक ने चाकुओं से गोद डाला था और खून से लथपथ लाश झाडियों में फेंककर फरार हो गये थे।लेकिन नवीन कोई मामूली घर का लडका नहीं था,उसके पिता आई ए एस ऑफीसर थे।इसलिए हत्यारे पकडे गये और तीन साल तक चलने वाले केस का नतीजा आज कुछ ही पलों में आने वाला है। अचानक उन्होंने अपना बुझा हुआ चेहरा पास बैठी मृणाल की ओर उठाया,जिसकी वजह से नवीन आज दुनिया में नहीं है लेकिन उसी की गवाही ने उनके मन को धोकर निर्मल कर दिया।

”मैं ब्राम्हण हूँ और नवीन दलित था। हमारे सम्बन्ध को परिवार वाले अपनी इज़्ज़त पर धब्बा समझते थे। घटना की शाम मेरे दोनो भाईयों ने पीट पीट कर मुझे बेहोश कर दिया। उन्हें लगा मैं मर चुकी हूँ और वे नवीन का खून करने उसके ऑफिस से लौटने का इंतज़ार गली के मोड पर करने लगे।“ और वह फूट फूट कर रो पडी थी।

न्यायाधीश का फैसला था….”गवाहों और साक्ष्य के आधार पर यहाँ पूरा मामला “ऑनर किलिंग” का है। गवाहों को पेश करने में ज़्यादा वक्त लगा,अपराधियों ने सबूत मिटाए,गवाह तोडे, मृणाल जी पर प्राणघातक हमला किया अत; अदालत विशाल और विवेक के लिए फाँसी की सज़ा मुकर्रर करती है।“

अदालत से बाहर आते ही उन्होंने मृणाल को गले से लगा लिया…”शुक्रिया बेटी।“

मृणाल ने झुककर उनके कदम छुए। धर्म निरपेक्ष देश में धर्म और जाति के नाम पर अपनी अपनी ज़िन्दगियाँ खोकर दोनो ने सूने रास्तों की ओर एक साथ कदम बढाए।

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संवेदनीयता को नुकीलापन देती लघुकथाएँ

संतोष श्रीवास्तव की कतिपय लघु कथाओं से साक्षात्कार समाजशास्त्र के कई पन्नों को दृश्यात्मक बनाता है। कहीं मामूली सा जीवन जीती कामवाली का चमकदार हौसला है। कहीं पुरानी प्रथाओं के नए-नए अर्थ खोजने वाला पत्नीत्व है तो  कहीं सांसारिक मोहमाया में आ आसक्ति अनासक्ति के द्वंद का फलसफा है। कहीं दांपत्य जीवन में सांवले गोरे के सौंदर्य बोध का अतिक्रमण करता जीवन व्यवहारों का सौंदर्य है। कहीं परिवार का पेट पालने के चक्कर में अपनी अस्मिता को ठेस पहुंचाती विवशता का दर्द है ।कहीं सांप्रदायिक नजरिए में अपना पराया करती मजहबी मानसिकता का त्रासद  परिदृश्य है। कहीं तीन तलाक की क़ानूनी लड़ाईयों में सिसकता दांपत्य है ।कहीं प्रेम के अवांछित प्रसंगों में नारी को ही लांछित करती पुरुष सामाजिकता का दंश है ।नए तकनीकी आविष्कारों की रोबोट संस्कृति के समानांतर पति संचालित पत्नी की रोबोटी जैविकता है। कहीं अपने ही भ्रष्ट कृत्यों से अपने ही खून की मौत की शोकांतिका है और भी कितने ही कोण होंगे इस संग्रह की लघु कथाओं के ।

समकालीन जीवन ,अच्छे बुरे, संगत विसंगत ,पुराने नए जैविक तकनीकी स्पर्शों अंतर्द्वंदों की मनःस्थितियों जीविका के संघर्षों को नुकीले अंत से बेधते  होंगे।

“मंगलसूत्र” यूं तो स्त्री के दांपत्य और सौभाग्य का पारंपरिक प्रतीक है। पर वही निम्न वर्गीय मंदा के जीवन की चुभन है। झोपड़ी में दारू पियेला पति की मार और घरों में काम करने वाली बाई की तरह मिलने वाली मजदूरी से मंदा इतनी त्रस्त है कि मंगलसूत्र की चुभन पति के मरते ही स्वाभिमान में सुखांत बन जाती है।

जीवन की रोजमर्रा त्रासदी मंगलसूत्र बिक जाने के बाद इस मर्मान्तक फुसफुसाहट में व्यक्त होती है ।

“भौत चुभता था ताई ।”

यही मंगलसूत्र प्रतीक है पारंपरिक दांपत्य का और यही चरमांत में त्रासद जीवन की दासता से मुक्ति का भी।

लेखिका ने मंदा के अति निम्न वर्गीय कामकाजी चरित्र में भी अस्मिता और मातृत्व के परिश्रम की कमाई और स्वाभिमान के गुण इस तरह उगाए हैं कि वह समाज सेविका मनोरमा की नजरों में भी बड़ी बन गई है ।बड़े सेठ द्वारा फैक्ट्री में काम और भेजी गई मदद को भी वह विनम्रता से इंकार कर देती है और घरों में काम से मिलने वाली कमाई से ही घर चलाने की सामर्थ्य दिखाती है ।बनावट भी बेहतर है लघुकथा की ,क्योंकि मंदा में मातृत्व और बच्चों के सुख का ख्याल भी बहुत गहरा है ।पति की दारू खर्ची की बचत और मंगलसूत्र बेचकर बच्चों की वर्षों से दबी इच्छाओं की पूर्ति उसके वात्सल्य को स्पर्शिल बना देती है। परिवेश की बुनावट उस लघुकथा को जितना यथार्थ रूप देती है 

मुंबईया हिंदी इन अनपढ़ पात्र की जबान पर चढ़कर मंदा की अंतड़ियों के दर्द को खासा उभार देती है । यो कथा गति में पेच है सेठ द्वारा भेजी गई मदद और नौकरी के, पर एक निर्णायक सा भाव उस मामूली से पात्र में इस तरह चुना गया है कि मंदा का चरित्र और लघुकथा का चरमंत व्यंजक बन जाते हैं। शीर्षक और लघुकथा का अंत एक सुगठित विन्यास बन गए हैं।

” सती” लघुकथा शीर्षक से जितनी पुरानी लगती है उतने ही नए परिवेश में जीवन की सार्थकता का नया अंदाज। सतीत्व को नया अर्थ देने वाली इस लघुकथा में जीवन परक दायित्व को चरम मूल्य की प्रतिष्ठा मिली है ।बीमार पति की सेवा में एक स्त्री भोगकाल के उन सभी सवालों को डिजाइनर कपड़ों के प्रदर्शनी अंदाज को, मॉल की चहलकदमियों को, गहनों के आकर्षण प्रदर्शन और भविष्य की चिंता किए बगैर बैंक अकाउंट को शून्य पर लाकर त्याग की प्रतिमूर्ति बन जाती है ।भोगकाल की सहेलियां उसके दुख दर्द में सहायक न बनकर इस परिस्थिति में पिज्जा बर्गर के स्वाद और मॉल थिएटर की मस्ती का बखान फोन पर करती हैं। लघुकथा को पति की तेरहवीं की शोकांतिका के परिदृश्य में बुना गया है। रिश्तेदारों की मौखिक तसल्लियों के बीच लेखिका ने दो विरोधी रंगों वाले परिदृश्य को चुना है। जहां सुखान्तिका  के समय के स्वाद, मॉल थिएटर हैं ।पर दुखांततरी में इन सब पर कसाव्दार नियंत्रण पति सेवा को भी जीवन मूल्य बना देता है। सखियों की लप-लपाती स्वादु जबाने भी उसे भटकाती नहीं है। बल्कि सब कुछ स्वाहा करके भी वर्षों तक पति की सेवा ही चरम बन जाती है ।लेखिका  इस चरम को लघुकथा की पंच लाइन  बना देती है नए अर्थ भरकर ।डॉक्टर कहता है 

“आप तो सती हैं ,केवल पति के साथ चिता में जलने से ही सती नहीं होती।” विरोधी परिदृश्यों की योजना, सहेलियों रिश्तेदारों की अन्यमनस्कता, अपने ही जीवन के सुखद दुखद अनुभूतियों का विन्यास इस लघुकथा को सपाट नहीं होने देता। निश्चय ही मूल्यपरक है यह लघुकथा।

“भेंटक्वार्टर” अपने घर के प्रति आसक्ति अनासक्ति का द्वंद है ।वृद्धावस्था में अपने घर के प्रति मोह इस कदर हावी है सत्संगी महिला में कि वह इसी फिक्र में है कि उसके मरने के बाद रघु द्वारा दिलाया गया घर धार्मिक संस्थान का हो जाएगा। ईंट ईंट से मोह मगर शर्त यही कि कोई सत्संगी ही वहां रहकर मकान मालिक बन  बना रह सकता है।

लेखिका ने इस वृद्ध सत्संगी महिला की बीमारी, उसकी सांसों के उतार-चढ़ाव जिंदगी की घटती हुई प्रत्याशा का दृश्य इस तरह बुना है कि घर के प्रति आसक्ति बढ़ती चली जाती है।

पर कोई सत्संगी वारिस नहीं है। बड़ी मुश्किल से खरीदे घर की, मगर उसे धार्मिक संस्थान को देने में यही मोह रेशा रेशा काबिज है लेकिन कथागति और अंतर्द्वंद तब नया मोड़ लेते हैं जब नाटक का विजुअल संदेश वृद्धावस्था की गिनी हुई सांसों में इस तरह घुल जाता है कि यही वृद्व नारी सर्वथा अनासक्त होकर घर का दान करने के लिए सहयोगी को ट्रस्ट ऑफिस में फॉर्म भरवा कर दान करने के लिए कहती है।

कथानक में यही द्वंद का भंवर फल सफे की तरह बुना गया है। सत्संगी और निरूपाय मन भी कितना अनासक्त ।मगर जब कोई प्रेरक मिल जाता है तो अनासक्ति कुलांचे भरती है त्याग के लिए।

“असली आनंद” लघुकथा देह सौंदर्य और व्यवहार सौंदर्य के समांतर अनुभव से उपजा विवेक है ।फ्लैशबैक की तरह चौंकाने वाली यह लघुकथा इस वाक्य से शुरू होकर कौतूहल पैदा करती है।

” मां मुझे वन्दना पसंद है “दरअसल सांवले रंग की हीन भावना और गौर वर्ण की सौन्दर्य ग्रंथि जब लॉक डाउन की व्यवस्था में व्यवहार की आत्मीयता से साक्षात्कार करती है तो सांवले पन की ग्रंथि हवा हो जाती है युवक में। अपनी मां को पहली नजर में वन्दना को नापसंद करने वाला युवा कुछ दिन बाद यकायक अपनी मां को वन्दना को पसंद करने के लिए फोन करता है। इससे न केवल मां को आश्चर्य होता है बल्कि संस्कार और शालीनता का सौंदर्यशास्त्र सांवले रंग पर अतिक्रमण कर जाता है। देह के सौन्दर्य की तुलना में संस्कारों का सौंदर्य न केवल अंतरंग है बल्कि दांपत्य के भविष्य की चांदनी भी ।अलबत्ता यह संयोग ही था लॉकडाउन में व्यवहार में झांकने का। पर संदेश तो है ही कि देह रंग ही प्रेम का प्रतिमान नहीं ।व्यवहार और संवाद के शालीन रंग देह रंग की तुलना में अधिक आकर्षक एवं व्यक्तित्व प्रदर्शक होते हैं। दांपत्य के उजले रंग व्यवहार में लंबायमान रहते हैं ।युवा युवती के बीच के संवादों से यह लघुकथा आकर्षण को उपजाती है और उसका संक्रमण युवक का नजरिया ही बदल देता है। मनोग्रन्थि और व्यक्तित्व के आंतरिक गुणों को खोलने में यह लघुकथा प्रभावी है।

“चिता” का कथानक तो सामान्य है पर उसके भीतर व्यवस्था के रंग जरूर हैं। बड़ी सेठानी के बीमारी में हवेली में मालिश करने आने वाली बाई सेठ के बद -रंगों को सहन करती रहती है। सिर्फ इसलिए कि 4 बच्चों का पेट पालने के लिए उसके आदमी की आय  अपर्याप्त है लेकिन सेठानी के मरने के बाद उसकी चिंता काम छूट जाने की है। लघुकथा का शीर्षक इस मायने में बहुत व्यंजक है। एक तरफ सेठानी की चिता जल रही है ।दूसरी तरफ मालिश वाली जीवित ही आर्थिक चिंता में जल रही है। अलबत्ता इस लघुकथा का अंत भी आर्थिक व्यवस्था की चिंता के ताप में तब लपट सा बन जाता है जब सारे परिदृश्य पर चौकस नजर रखने वाली छोटी सेठानी उसे घर की सीढ़ियों पर ही रोक कर कहती है 

“अपने घर जा । अम्माजी रही नहीं तो तेरा यहां क्या काम ।”

विवशता में चारित्रिक  स्खलन और सारे कारनामों पर सांकेतिक पर्दा डालने का चातुर्य इस लघुकथा को व्यंजक बना देता है।

“काला इतवार” लघुकथा की जमीन मजहबी रंगों में खून से सनी है। हिंदुओं में हिंदू नाम और मुस्लिमों में मुस्लिम नाम से गाना गाते हुए भीख मांगने वाला अहमद आखिरकार सारे सांप्रदायिक हो हल्ले में अपनी ही जात वाले से मार दिया जाता है पराई जात का समझ कर ।पेट के लिए भीख मजहब नहीं देखती पर मजहबी रंग पेट की भूख को कहां समझ पाते हैं। संवादी शैली में रची इस लघुकथा में आवेश है, तकरार है, मजहबी भाषा के ख़ौलते तेवर हैं, मारकाट की धार है, नफरतों की झन्नाहट है और अंत  भी चौंकाने वाला ।संदेश यही कि नफरतों की चाकूई धारें अपनों को ही चीर देती हैं। अशोक हो या अहमद आखिर खून तो इंसानी है ।और वह भी निहत्थे भिखारी बालक का ।पेट भरने के लिए निकला युवा संगीत की थाप से ही कुछ बटोर लेता है पेट के लिए लेकिन मजहबी रंग अपने ही पेट को चाकू

 दिखा जाते हैं कत्ल के काले इतवार में ।शिल्प और संवेदना में यह लघुकथा प्रभावी है। इंसानियत के दर्जे को घटाकर मजहबी हैवानियत पर प्रहार करने के लिए। शीर्षकों के चयन में लेखिका बहुत चौकस है।

“तीस साल बाद” लघुकथा तीन तलाक पर केंद्रित है ।जुबेदा के अब्बा और अम्मा 30 साल तक कानूनी पेंच लड़ाते रहे सिर्फ इसलिए कि लड़की पैदा हुई थी। वही लड़की जुबेदा 30 साल तक अम्मी की लड़ाई को संगठन और कानून से लड़ती रही ।जब जीत हुई तो अम्मा के मुंह में मिठाई का टुकड़ा रख दिया। एक सधे हुए वाक्य ने तीस साल की तकलीफ देह यात्रा को इस तरह रख दिया मिठाई का टुकड़ा अम्मा के मुंह में  तकलीफदेह अतीत सहित घुलने लगा। लघुकथा यों तो सामान्य है पर उसके अंतिम वाक्य में एक रासायनिक अनुभूति लघुकथा को संवेदनीय बना देती है ।

“पर्दा गिर चुका था” लघुकथा पति पत्नी और प्रेमी के त्रिकोण की है ।प्रेमी की हत्या कर दी गई पर समस्या सामाजिक मनोविज्ञान की है ।पति द्वारा पत्नी के प्रेमी राहुल की हत्या पर न राहुल के लिए उंगली उठती है न हत्या के लिए पति पर। उठती हुई सामाजिक उंगलियां यही कहती हैं 

“हद है ब्याहता को यह सब क्या शोभा देता है।”

न राहुल के लिए शोक न हत्यारे पति पर कोई तंज।हत्या और उम्रकैद या फांसी के बीच एक नारी की कातर मनःस्थिति है। सामाजिक नजरों में लांछनों को सहने और जूझने की ।लेखिका ने पुरुषवादी समाज के चरित्र को जितना लक्षित किया है उतना ही पुरुषवादी समाज द्वारा नारी के चरित्र के मर्यादाओं को गढ़ने की एकांतिक मनोवृत्ति को भी। नारी के अंत स्थल में एक उदास कारुणिक सी व्यथा की लहरों का काव्यात्मक स्पर्श देकर इस लघुकथा को भाव संवेदी बना दिया है।

“रोबोट” की जमीन टेक्निक और ह्यूमन टच की है ।अमेरिका से लौटा पति जिस शान से होटलों में रोबोट सेवा का चित्र खींचता है वह पत्नी के लिए करिश्माई है। कस्टमाइज्ड टेबल कुर्सी कंप्यूटर लॉग, रोबोटिक सरवर और 74 लाख में मशीनी सेवक। पर यही पति भारत में खाना खाते हुए पत्नी से कहता है -“यार पापड़ और हरी मिर्च भी लाओ न ।”

लिहाजा बिन लागत खर्च की यह पत्नी ही जीवित रोबोट है। सारे आदेशों का प्रफुल्ल मनोभावों के स्पर्श के साथ पालन के लिए ।रोबोट कथा का मशीनी अंदाज और पति का पत्नी के लिए आदेशात्मक सा अंदाज लघुकथा का चरमांत है। बहुत सधे हुए तरीके और बॉडी लैंग्वेज के साथ मनोभावों को जोड़ देने के कौशल से प्रभावी बन जाता है -जाती हुई पत्नी को देख उस ने पलकें झपकाईं।

“मिलावट का जहर “अवसाद की मनो व्यथा है पर भ्रष्टाचार में अपने ही पुत्र को खो देने की व्यथा इसे संघनित कर देती है ।सीमेंट की मिलावट से बने नदी के पुल के ढह जाने से छह लोगों की मृत्यु कसक नहीं बन पाती। महज खबर बन जाती है ।अलबत्ता जांच और मुकदमे बाजी के साथ सजा के विचार फड़फड़ाने लगते हैं लेकिन थाने से आई फ़ोन की घंटी रोम रोम में बजती है। आपके बेटे रोहित की बाइक पुल टूटने से दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। मौके पर ही रोहित की मृत्यु हो गई। यह फोन की घंटी ही वातावरण और व्यथा को इतना गहरा कर देती है कि जीत के सिवा कुछ बचता नहीं। लघुकथा की बुनावट में इस कारुणिक दृश्य को संजोने की विजुअल भाषा है।
 संतोष जी की लघुकथाएं बिन कथानक के नहीं आती इसलिए मोड के वक्रिल पंथ और बाहर भीतर के द्वंद यथार्थ एवं मनोविज्ञान को अनदेखा नहीं करती ।कुत्सित यथार्थ भी आ जाए पर दिशा तो मूल्यपरक ही रहती है ।जिस परिवेश को वे छूती हैं उस परिवेश के बोली ,भूगोल को सदैव हिलगाय रखने के कारण वे सहज और स्पर्शिल बन जाती हैं ।अनावश्यक पंच लाइनों के चमत्कार की अपेक्षा वे लघुकथाओं को उस शीर्ष तक पहुंचाकर कोई वाक्य जरूर जड़ देती हैं जो लघुकथाओं की संवेदनीयता को नुकीलापन दे सके ।संवादों के जरिए कथा विन्यास को जीवंत और चरित्रों के भीतर झांकने  का कौशल भी इन लघुकथाओं की विशिष्टता बन जाता है ।ये लघुकथाएं सपाटपन से ,अनावश्यक उलझाव से कथानकीय पेंचों से मुक्त हैं इसीलिए इनके संदेश और संवेदनाएं संप्रेषणीय हैं ।

  • बी एल आच्छा

सती 

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दस वर्ष की असीम पीड़ा का अंत। आज उसके प्रति सरजू प्रसाद की तेरहवीं है। घर में मेहमानों का तांता लगा है। सब उसके उदास चेहरे को देख तसल्ली बंधा रहे हैं 

,”शोक न करें ।उन्हें अपनी पीड़ा से मुक्ति मिल गई ।ऐसा सोचेंगी तो आप को शांति मिलेगी ।”

10 वर्ष से उसके पति पहले ब्रेन हेमरेज फिर गुर्दों की बीमारी से बिस्तर भोग रहे थे। आखिरी महीनों में तो बोल भी नहीं पा रहे थे ।पैर निष्क्रिय सब कुछ बिस्तर पर ही।

उसका बैंक अकाउंट शून्य हो गया। बीमारी का भारी खर्च। गहने बेचने पड़े। घर गिरवी रखना पड़ा।

10 वर्ष वह भी उनकी तरह ही रही उनके जैसा ही परहेज वाला भोजन खिचड़ी ,दलिया,सूप। बाहर की दुनिया उसके लिए दिवास्वप्न हो गई।

एक वह भी समय था जब सहेलियों के साथ सिनेमा, थिएटर, मॉल, पिकनिक ।अभी उम्र ही कितनी थी। सहेलियां फोन पर बतातीं।

” आज मॉल गए थे हम लोग ।बहुत बढ़िया डिजाइन के कपड़े आए हैं। बाहर ही खाना खाया ।तुम्हारी पसंद का ।तुम्हें याद करके ।पिज़्ज़ा बर्गर लीची का जूस। “

शुरू शुरू में तो सब उसके पति की तबीयत का हाल चाल पूछने घर आती थीं, तबीयत के बहाने रिश्तेदार भी कई कई दिन घर में जमे रहते। शहर घूमते मजा करते।

लेकिन अब न सहेलियाँ घर आतीं न कोई रिश्तेदार। बस वह थी और बीमारी से जूझते सरजू प्रसाद ।मेहमान एक-एक कर विदा हो गए आखरी में डॉक्टर आए ।वह उनके सामने हाथ जोड़े रो पड़ी।

” अरे रोती क्यों है आपने तो पति की सेवा का अद्भुत उदाहरण पेश किया है। 10 वर्ष तक आप तिल तिल  जलती रहीं। आप तो सती हैं ।केवल पति के साथ चिता में जलने से ही सती नहीं होती।”

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भेंट क्वार्टर

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दयालबाग में अब सन्नाटा है उनके संगी साथी लगभग सभी दुनिया से विदा हो चुके हैं। मौत का भय उन्हें भी सताने लगा है ।न जाने कैसे निकलेगी जान ।अकेली हैं। कोई पानी देने वाला भी नहीं ।ऊपर से इस घर की माया……. दीवारें, किवाड़, आंगन मानो पुकार पुकार कर कहते हैं हमें छोड़कर न जाना। बहुत प्यार करती हैं वे अपने घर को।मगर खाली-खाली जिंदगी ..खाली घर…. जैसे भी वीरानियों को और बढ़ा देता है।

उनकी नजर अपने पलंग से होती हुई कमरों को लांघती आंगन में लगे अनार के पेड़ पर जाकर ठिठक जाती है। अनार फलों से लदा है। दिनभर उन पर चिड़ियाँ फुदकती हैं। छूटता नहीं इस घर का मोह। बड़े बेटे रघु ने उनके लिए यह घर खरीदा था। पर वह खुद सत्संगी नहीं है। बेच भी तो सकते नहीं किसी को ।परिवार में कोई सत्संगी हो उसे ही मिलता है घर। वरना मरणोपरांत दान कोष में चला जाता है। यही नियम है दयालबाग का।

हाय, उनके बाद यह घर दान हो जाएगा ?जाने कौन आकर रहेगा ? वे व्याकुला जाती हैं।

“चलिए माता जी, सत्संग का समय हो गया ।आज तो इंजीनियरिंग कॉलेज के विद्यार्थी नाटक भी खेलेंगे । गुरु महाराज जी नेपाल से लौटे हैं। दरी चादरों की सेल होगी।”

अब शरीर साथ नहीं देता ,पर सत्संग में बिला नागा जाती है वे।

सुमन बहन जी का हाथ पकड़ वे रिक्शा में जा बैठीं।

“सुमन अब तो ज्यादा दिन की जिंदगी बची नहीं । घर की चिंता सताती है।मेरे बाद यह घर रघु को तो मिलने से रहा ।वह सत्संगी नहीं है न।”

“भेंट कर दो माताजी ।”

“भेंट कर दूं ?इतनी मुश्किलों से रघु ने खरीदा ।कह कह कर थक गई कि सत्संगी हो जा ।पर सुनता नहीं। अब जिंदगी का क्या भरोसा। हम आज है कल नहीं।”

“जीते जी भेंट कर देंगी तो आपका नाम दान कर्ता की लिस्ट में हमेशा याद रखा जाएगा और नहीं करेंगी तो मृत्यु के बाद इस पर दयालबाग का अधिकार तो होना ही है।”

सत्संग हॉल आ गया था।

उनका मन न सत्संग में लगा ,न सेल में। सत्संग के बाद सुमन ने थरमस में से चाय और बिस्किट दिए 

“एक घंटे का नाटक है। पूरा देख कर चलेंगे। आप दवाई ले लो ब्लड प्रेशर की।”

” अब दवाई भी काम कहां करती है। पता नहीं जान किस मोह में अटकी है।”

नाटक जैसे उनकी अंतरात्मा के लिए सबक था। नाटक में दिखाया गया। मर कर आत्मा भटक रही है। बड़े चाव से बनवाए अपने घर के आस-पास ही मंडरा रही है ।हाय मेरा घर ,हाय मेरा घर । 

चौंक पड़ीं वे।उनकी आत्मा मर कर इसी तरह भटकती रही तो!!!! वे सिहर उठीं। फिर उनका मन नाटक देखने में नहीं लगा। कोई पीछे से बोल रहा था ।

“छोड़ दो मोह। राधास्वामी दयाल के चरणों में लौ लगाओ ।”

” मुझे कल ही ले चलो सुमन ट्रस्ट के ऑफिस। फॉर्म भरवा दो मेरा। भेंट कर दूंगी अपना घर।”

उन्होंने कसकर सुमन का हाथ पकड़ा। हाथ बर्फ सा ठंडा था।

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असली आनंद 

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“माँ मुझे वंदना पसंद है।”

रोहन ने फोन पर सूचना दी ।

“अरे ,तूने तो कहा था लड़की पसंद नहीं ।काली है ।घरेलू है ।तुझे चाहिए सोशल इवेंट्स में तेरे साथ बिल्कुल मॉडर्न दिखती पत्नी हो ।”

“,माँ कहा न वंदना पसंद है ।बाकी बातें लॉक डाउन खुलने के बाद तुम्हारे पास पहुंच कर बताऊंगा।”

कहते हुए रोहन ने फोन काट दिया। सामने जोशी जी खड़े थे ।

“क्या लेंगे डिनर में, अब क्या बताएं। आपकी ठीक से खातिर नहीं कर पा रहे हैं। सोसाइटी के कंपाउंड में जो सब्जी आ आती है ।लेना पड़ता है। कोई ऑप्शन भी तो नहीं है।”

वह देख रहा है पिछले 20 दिनों से इस घर के संस्कार ,शालीनता ।लड़की देखने आया था। 

लेकिन एयरपोर्ट से वंदना के घर बैरंग वापस आना पड़ा। सारी उड़ाने रद्द कर दी गई थी। पहले जनता कर्फ्यू उसके तुरंत बाद 21 दिन का लॉक डाउन। ट्रेनें, फ्लाइट सब बंद। वह अटक कर रह गया। शुरू में तो  वंदना बिल्कुल पसंद नहीं आई थी। गहरा सांवला रंग ,बात-बात पर झेंपती ,अक्सर खामोशी रहती ।पर इन 20 दिनों में उसके  व्यवहार और चेहरे पर मौजूद शर्माने की अदा ने उसे इतना प्रभावित किया कि उसने शादी के लिए हां कह दी।

आज वंदना का सवाल था 

“रोहन जी ,आप बहुत मॉडर्न हैं पर मैं………. मुझे तो घरेलू कामों में, किताबें पढ़ने में और कविताएं लिखने में जो आनंद आता है वह किसी में नहीं…… क्या इन बातों के बावजूद भी आप शादी के लिए तैयार हैं।”

” वंदना जी आनंद ढूंढने से नहीं मिलता ।अनायास मिल जाता है ।जैसा मैंने आपमें पाया।”

वंदना ने पहली बार पलकें उठाकर रोहन को गौर से देखा ।पहली बार उसके मन में अपने सांवले रंग पर हीन भावना नहीं आई। पहली बार सांवले रंग के कारण उसे ठुकराए जाने वाले लड़कों पर तरस आया।

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चिता

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जलती चिता की लपटें उसे भी जलाए डाल रही थीं। उसे प्यार करने वाली बड़ी सेठानी का पार्थिव शरीर थोड़ी देर में राख हो जाएगा। अब उसका क्या होगा?

बीस बरस की थी वह तबसे बड़ी सेठानी की मालिश टहल करती आ रही थी ।वे थीं भी दयालु, परोपकारी। उसके लिए कितना कुछ किया। मायके जातीं तो उसे भी साथ ले जातीं। उसने भी बड़ी सेठानी की सेवा में कोई कसर न रखी। उन्हीं की खातिर बड़े सेठ की ज्यादतियां सहती रही ।समर्पित होती रही उनके आगे।  जाति की नाई थी तो क्या। मारवाड़ी घराने की बड़ी सी हवेली में वह रच बस गई थी। करती भी क्या ? सैलून में हजामत का काम करने पर भी उसके पति को इतना नहीं मिलता था कि चार बच्चों सहित उसका पेट पाल सके।

शमशान भूमि से सब चले गए। वह भी बोझिल कदमों से हवेली की ओर चली गई ।अभी सीढियां चढ़ ही रही थी कि छोटी सेठानी ने वहीं रोक दिया।

” अपने घर जा। अम्माजी रही नहीं तो तेरा यहां क्या काम?

कहते हुए जैसे बरसों से खामोशी से सब कुछ देखती आ रही बड़े सेठ  के कारनामों पर छोटी सेठानी ने पर्दा डाल दिया ।

शाम धीरे-धीरे काली रात की ओर कदम बढ़ा रही थी।

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काला इतवार

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लोकल ट्रेन में वह हाथ में पकड़े दो पत्थरों को बजाकर गाना गाते हुए भीख मांग रहा था। उसे अपनी जाति नहीं मालूम थी ।उसे यह भी नहीं मालूम था कि वह राम के कुल का है या रहीम के कुल का। वह सड़क पर पैदा हुआ था। सड़क उसे अहमद नाम से पुकारती थी तो वह अहमद हो गया।

 “ऐ तानसेन की औलाद। बंद कर गाना। काट कर फेंक दूंगा ट्रेन के बाहर।”

 वह सहम गया। देखा कुछ लोग माथे पर तिलक लगाए उसकी ओर बढ़ रहे थे।

” काट दो साले को ।मुसलमान है ।”

“नहीं ” वह पूरे बल से चीखा ” मेरा नाम अशोक है। हां अशोक ।”

“अरे यह तो हिंदू है ।चलो चलो ।”

वह सहम कर ट्रेन की पिछली सीट के फर्श पर बैठ गया। अब की बार कुछ लोग “अल्लाह हो अकबर” के नारे लगा रहे थे।

” मारो मारो इसे भी ।हिंदू बताता है खुद को।”

चाकू अहमद के सीने के पार हो गया। वह काला इतवार था अपने ही लोगों के हाथों कत्ल हुआ काला इतवार।

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तीस साल बाद

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समाज सेविका जुबैदा खुशी-खुशी घर लौटी ।

“अम्मा हम जीत गए। तीन तलाक की इतने सालों की हमारी लड़ाई पर हमारे फेवर में सुप्रीम कोर्ट और दिल्ली हाई कोर्ट ने मुहर लगा दी। अब आसान नहीं है तीन बार तलाक कहकर पत्नी से छुट्टी पा लेना । तीन साल और उससे अधिक जेल भी हो सकती है जनाब शौहर को ।”

अम्मी के बेसाख्ता आँसू निकल पड़े। काश, आज से 30 साल पहले बना होता है ऐसा कानून ।जब जुबेदा महीने भर की थी लड़की पैदा करने के जुर्म में तीन तलाक कहकर उसे सारे अधिकारों से वंचित कर दिया था जुबैदा के अब्बा ने । 30 सालों तक उसने खुद को मिटा कर पाला है जुबेदा को। जुबैदा ने भी शादी न करने का फैसला लेते हुए समाज सेवा का व्रत ले लिया।

मिठाई का डिब्बा बढ़ाते हुए जुबेदा और संगठन की अन्य महिलाएं खुशी से भरी चहकते हुए बोलीं

” खाइए खाला जान, माजी के दुख से उबरिये। देर आयद दुरुस्त आयद ।”

हाँ,बिल्कुल तुम सब की जीत हमारी जीत है।”

मिठाई का टुकड़ा अम्मा के मुंह में अपने तकलीफदेह अतीत सहित घुलने लगा।

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पर्दा गिर चुका था

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मंच पर जैसे 19वीं सदी लौट आई है। कलाकार डूबकर अभिनय कर रहे हैं। आजादी के मतवालों को फांसी दी जा रही है ।जेल की अंडा सेल …….अंतिम प्रार्थना कराता पंडित , बेड़ियों से जकड़े पांव लकड़ी के फर्श पर चरमर,झनझन करते और संग संग दौड़ता मशालची। जलती मशाल के रुह कँपा देने वाले दृश्य को देखकर वह सिसक पड़ी। राहुल अब इस दुनिया में नहीं है। उसे प्रेम करने के जुर्म में उसके पति ने राहुल को जहर देकर मार डाला। पकड़ा गया। जुर्म पति ने खुद कबूला, राहुल के संग उसके प्रेम संबंधों को नमक मिर्च लगाकर अदालत में वकीलों ने खूब उछाला।

लोगों की जुबान कैंची सी चलने लगी। “हद है ,ब्याहता को यह सब क्या शोभा देता है? अमीर घराने की ससुराल ।कोई कमी थी क्या जो मन भटका।” सब उसी पर फिकरे ताने कस रहे थे। कोई भी राहुल की हत्या पर शोक प्रगट नहीं कर रहा था ।कोई भी उसके पति को अपराधी नहीं कह रहा था। हत्यारा नहीं कह रहा था।

पति जेल में बंद अपनी फांसी की सजा को माफ कराने की जद्दोजहद में रातों की नींद खो चुका था ।अगर फांसी नहीं हुई तो उम्र कैद ।

अब उसकी जिंदगी बिना पतवार की नाव जैसी है। 

दूर तक किनारा नजर नहीं आ रहा है। प्रेमी और पति को खोकर समाज की लांछना के रहते, वह लहरों से कैसे  जूझ  पाएगी। उसके चारों ओर उमड़ते सागर की विशाल लहरें थीं,वह देख रही थी सब कुछ का अंत होते…….

नाटक खत्म हो चुका था और पर्दा गिर चुका  था।

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मिलावट का जहर

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टीवी खोलते ही पहली खबर……. नदी पर का पुल टूटने से छह की मौत!!! अंदाजा लगाया जा रहा है कि पुल मिलावटी सीमेंट से बना था ।इसीलिए यह बड़ा हादसा हुआ।

वह सिर पकड़ कर सोफे पर बैठ गया। इस पुल को बनाने का ठेका उसे ही दिया गया था और उसने मिलावटी सीमेंट के कारण काफी रुपया कमाया था। अंदाजा नहीं था कि दूसरे ही साल पुल थोड़ी सी बारिश में ही टूट जाएगा। वह भावी आशंकाओं से नर्वस हो रहा था। जांच कमीशन बैठेगा। उसकी पोल खुलेगी। मुकदमा चलेगा। मान सम्मान तो गया एक तरफ ।लेने के देने पड़ जाएंगे।

उसका दिमाग चकरा गया। छै की मौत यानी छै लोगों का हत्यारा!!

तभी फोन की घंटी बजी। फोन पत्नी ने उठाया 

“क्या ……और एक लंबी चीख घर के दरवाजे दीवारों को तोड़ती उसके कानों तक पहुंची।

” रोहित र र रो… वह दौड़ा आया ।पत्नी के हाथ से फोन छीन कानों से लगाया।

” हम संपत नगर थाने से बोल रहे हैं। आपके बेटे रोहित की बाइक पुल टूटने से दुर्घटनाग्रस्त हो गई। मौके पर ही रोहित की मृत्यु हो गई। लाश पोस्टमार्टम के लिए गई है ।आप थाने में आकर क्लेम करें।”

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लघुकथाओं पर एक नज़र

रचनात्मक साहित्य का उद्देश्य है—संसार और समाज की पुनर्रचना। मेरी दृष्टि में, रचनात्मक साहित्य वह है जो कला-विवेक को मनुष्य की एक समग्र अवधारणा की ओर अग्रसर करता है।

हमारा सामाजिक ढाँचा मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने की बजाय दान-पुण्य की अथवा मदद करके आत्मतुष्टि प्राप्त करने की भावना से अधिक जुड़ा है। लेकिन दान-पुण्य और मदद करके आत्मतुष्टि प्राप्त करने की भावना को भी ‘संदेह’ और ‘आशंका’ का ग्रहण लग चुका है। ‘संदेह’ और ‘आशंका’ का ग्रहण को कमल चोपड़ा की लघुकथा ‘साँसों के विक्रेता’ और चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘व्यवहारिकता’ में बखूबी व्यक्त हुआ है। संतोष श्रीवास्तव ने भी अपनी लघुकथा ‘मुस्कराती चोट’ में उसे छुआ है—

“माँ, इससे इन किताबों के पैसे मत लो। इसके काम आएँगी।”

“कुछ नहीं होता इससे, हम फ्री में देंगे और यह रद्दी पेपर के मालिक से किताबों के पैसे ले चाट-पकौड़ी में उड़ा देगा। इनके बस का नहीं है पढ़ना।”

गरीब आदमी के चरित्र को संदेह की दृष्टि से देखने वाली इस अभिजात्य सोच से त्राण आसान नहीं है। ‘मुस्कराती चोट’ की स्थापना यद्यपि यह नहीं है, वह इससे कहीं आगे बालमन की उस ललक तक विस्तृत है जो अभावों में पलकर भी, कष्ट सहकर भी पुस्तकों और अध्ययन-मनन से जुड़ना चाहती है।

‘सौदा’ का कथ्य कुछेक की समझ में क्लिष्ट रह सकता है। इसके कथ्य को लेखिका ने जानबूझकर संकेतात्मक रखा है जिसे हम मर्यादित लेखन की श्रेणी में भी रख सकते हैं। यह पति के निकम्मेपन से त्रस्त पत्नी द्वारा उससे उसी के स्तर का बदला लेने की मनोवैज्ञानिक योजना की कथा है।

‘बुखार’ सरकारी क्षेत्र में कार्यरत कर्मचारियों के भ्रष्ट, अनैतिक और संवेदनहीन व्यवहार की  कथा है।  ‘मनीऑर्डर फॉर्म’ पारिवारिक प्रेम और लगाव को लीलते जा रहे आर्थिक दबावों को व्यक्त करती है। ‘मजहब नहीं सिखाता’ फिल्मी स्टाइल की प्रस्तुति बनकर रह गयी है। ‘बाज़ार’ भी अपनी बात को उस तीक्ष्णता और गहनता से पाठकों के समक्ष नहीं रख पाती है, जिसके साथ उसे रखा जा सकता था। ‘आदत’ मनुष्य जाति के अर्थ-केन्द्रीय चरित्र की बजाय व्यक्ति-विशेष के अर्थ-केन्द्रीय चरित्र की कथा बनकर रह गयी है। लघुकथा के पात्रों का चरित्र व्यक्ति-केन्द्रित न होकर व्यापक समाज-केन्द्रित अथवा समाज के किसी बड़े वर्ग के चरित्र तक विस्तृत होना चाहिए। ‘शहीद की विधवा’ में जिन तथ्यों का उल्लेख है, वे आधे-अधूरे प्रतीत होते हैं; इसी कारण यह लघुकथा शहीद की विधवा पर आरोप-पत्र बनकर रह गयी है; और इसी कारण शहीद के असहाय बूढ़े माता-पिता के प्रति पाठक की संवेदनापरक सहानुभूति प्राप्त करने में असफल रह गयी है।

‘मंगलसूत्र’ को स्त्री-विमर्श की उच्च-स्तरीय लघुकथाओं में ससम्मान रखा जा सकता है।  समाज-सेविका मनोरमा को इस लघुकथा में स्थूल चरित्र की बजाय गरीब महिलाओं के प्रति पारंपरिक दृष्टि के रूप में रेखांकित किया जाना चाहिए। झोपड़पट्टी में रहने वाली तीन बच्चों की माँ मंदा इस लघुकथा में यथार्थत; प्रगतिशील सोचवाली आधुनिक महिला के रूप में चित्रित हुई है। लघुकथा का अंत मंदा के चरित्र को विशेष ऊँचाई देता है, देखिए—

सहसा मंदा ने बेटी को आवाज दी :

“रे छन्नो, ताई के लिए गिलास में लिमका ला। बड़ी बॉटल मंगाई है ताई। बच्चे तरस गए थे।… तीनों की किताब-कॉपी भी खरीद ली। मंगलसूत्र बेचकर।”मंदा उनके नजदीक आकर फुसफुसाई, “भोत चुभता था ताई मंगलसूत्र।”

‘सवाल वोट का था’ को बालमन की सरलता, सहजता; शिक्षा के क्षेत्र में व्याप्त शैक्षिक अनियमितताओं तथा राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त धूर्तताओं के चित्रण के लिए तो याद रखा ही जा सकता है; उसके शीर्षक की अन्योक्तिपरकता के कारण भी विशेष लघुकथा की श्रेणी में रखा जा सकता है। सिलेबस के सवालों से बाहर आते ही बच्चे अपने सहज रूप में प्रकट हो जाते हैं, इस मनोवैज्ञानिक तथ्य को गुलेरी जी की लघुकथा ‘पाठशाला’ और बलराम की लघुकथा ‘गंदी बात’ से लेकर ‘सवाल वोट का था’ तक नि;संकोच  रेखांकित किया जा सकता है। यह शीर्षक मधुदीप की एक लघुकथा के शीर्षक ‘चिड़िया की आँख कहीं और थी’ की याद दिला देता है।

रचनाकी गहराई को पहचानने की सामान्य पाठक की क्षमता और विवेक शक्ति आमतौर परभावात्मक एवं काल्पनिक प्रसंगों में उलझ कर रह जाती है। प्रत्येक रचना की योजना कहीं-कहीं जटिल भी हो जाती है और उसके अनेक स्तर भी होते हैं। इन जटिल बिंदुओं पर पाठक को समीक्षक की सहायता की आवश्यकता महसूस होती है। यद्यपि समीक्षक भी कभी-कभी सामान्य पाठक जैसा, ऐसा आकलन कर देता है, जिसकी अपेक्षा उससे नहीं रहती;फिर भी, किसी कृति की अच्छाई-बुराई, स्थायित्व या क्षणिकता का निर्णय करने के लिए अध्ययन के आधार पर समीक्षक कुछ महत्वपूर्ण बिंदु पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता ही है। ये बिंदु पाठक के रसबोध को गहरा और व्यापक भी बनाते हैं, ऐसा विश्वास किया जाता है।

  • बलराम अग्रवाल

मुस्कुराती चोट

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तराजू पर रद्दी तौलते हुए 12 वर्षीय बाबू की नजर लगातार स्कूल की उन किताबों पर थी जिसे रद्दी में बेचा जा रहा था।

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” स्कूल नहीं जाता तू ?अजीब है तेरे माँ-बाप जो तुझसे काम कराते हैं।”

घर की मालकिन ने तराजू के काँटे पर नजर जमाए कहा। तभी उनकी कॉलेज के लिए तैयार होती लड़की ने कहा ।

“माँ ,बाल मजदूरी तो अपराध है न?  “हाँ बिल्कुल पर अनपढ़ मां-बाप समझे तब न।”

बाबू को बुरा लगा।

“स्कूल बप्पा ने भेजा था मेमसाब ,पर उनके पास किताबों के पैसे न थे। इसलिए पढ़ाई रुक गई।”

“माँ इससे इन किताबों के पैसे मत लो। इसके काम आएंगी।”

“कुछ नहीं होता इससे, हम फ्री में देंगे और यह रद्दी पेपर के मालिक से किताबों के पैसे ले चाट पकौड़ी में उड़ा देगा। इनके बस का नहीं है पढ़ना।”

बाबू ने चुपचाप रद्दी के पैसे चुकाए  और  बोरा उठा सीधा घर पहुँचा।उसने बोरे में से किताबें निकाल कर अलग रख दीं। फिर बाकी की रद्दी का बोरा लेकर वह  रद्दी पेपर के मालिक के पास पहुँचा। मालिक ने रद्दी तौल किनारे रखी।

“पैसे तो बचे होंगे तेरे पास। जा, सामने के ठेले से वड़ा पाव और चाय ले आ। फिर हिसाब कर ।”

बाबू सिर झुकाए खड़ा रहा ।

“अरे क्या हुआ ?जाता क्यों नहीं ?”

“रुपए खर्च हो गए मालिक ।”

“क्या !!!!तेरे बाप के थे जो खर्च कर दिए कामचोर।”

और चप्पल उतार उसने उसकी बेरहमी से पिटाई कर दी ।

चोट के बावजूद घर लौटते हुए वह मुस्कुरा रहा था । अब वह स्कूल जा सकेगा। उसके पास भी किताबें हैं।

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          सौदा

 हवलदार को प्रेमा की लत लग गई थी।हफ्ता वसूलने के नाम पर हर आडे दूसरे आ धमकता। चाहे प्रेमा खाना बना रही हो या बच्चों को सुला रही हो। वह आकर स्टूल पर बैठ जाता और जेब से पौवा निकाल हुकुम देता….”ऑमलेट बना खूब तीखा और जल्दी आ। तेरे इन पिल्लों के लिए मैं अपनी शाम बरबाद नही करुंगा।“

तँग आ चुकी है प्रेमा। छेदीलाल को बीवी की इज़्ज़त की ज़रा भी परवाह नहीं। जिस दिन से मार्केट में चायनीज़ फूड का ठेला लगाया है उसके हफ्ते भर बाद से ही उसने प्रेमा को भी दाँव पर लगा दिया है। ……” अब कहाँ से दूँ उस साले मगरमुँहा को हफ्ता। चार बच्चे जन कर तूने मेरा कबाडा कर डाला है। अगर इस तरह तू मदद करती है तो इसमें बुरा क्या है?

प्रेमा का मुँह खुला का खुला रह गया…”कैसा मरद है रे तू…बीवी का सौदा कर रहा है,इसीलिये ब्याह कर लाया था मुझे?” लात घूँसे और रात भर की रार…..

आखिर रोज़ रोज़ की मार खाकर प्रेमा ने हार मान ही ली। लेकिन आज दर्द के मारे पेट में मरोडे उठ रहे हैं…सुबह से एक निवाला भी पेट में नही गया। तभी छेदीलाल आते दिखा। प्रेमा ने पैंतरा बदला …”क्या साsब….मेरे ही पीछे पडे रहते हो आप? उधर देखो कैसा बाँका जवान है मेरा छेदी….”

उसकी मंशा समझ हवलदार की बाँछें खिल गईं “ये हुई न बात।“ और गिलास खाली कर वह उठ खडा हुआ। उसके कदमों की आहट प्रेमा की अँगारों सी सुलगती देह पर फूल बनकर बरसाने लगी।

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बुखार

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सरकारी अस्पताल में पर्ची बनवाने की लाइन लंबी थी ।बुखार में तपते बैजू को बेंच पर बैठा सुगना लाइन में लग गई ।करीब 20 मिनट बाद नंबर आने पर उसने पर्ची कटवाई और सौ का नोट आगे बढ़ाया।

” छुट्टा दो ,इधर भी बड़े-बड़े नोट हैं। “

 “छुट्टा नहीं है बाबू। “

“ठीक है डॉक्टर को दिखाने के बाद बाकी के ₹70 ले जाना। “

बैजू की हालत देख छुट्टे पैसों का इंतजार किए बगैर वह उसे डॉक्टर के पास ले गई। काफी देर के बाद बैजू के नाम की पुकार हुई। अंदर केबिन में डॉ मोबाइल पर बिजी था।

” 500 शेयर ले लो, लेकिन मार्केट देख कर लेना भाव तगड़े हैं ……तब तो वारे न्यारे, ऐसा करो हजार ले लो। हां ,शाम को मिलता हूं, दलाल स्ट्रीट में शगुन रेस्तरां के  कॉर्नर पर। “

“डागदर बाबू बैजू का ताप बढ़ता जा रहा है।” नर्स ने होठों पर उंगली रख इशारा किया “देखती नहीं डॉक्टर साहब बिजी हैं फोन पर।” फोन रख डॉक्टर ने बैजू की जांच की।

 “धूप लग गई है ,ऊपर से ताड़ी पी होगी ।तुम लोगों की यही तो कमजोरी है। पैसा मिला नहीं की ताड़ी में उड़ाया। दवा लिख रहा हूं 3 दिन बाद आकर दिखाओ। “

बैजू का शरीर दर्द से फटा जा रहा था ।वह खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। पर खड़ा होना पड़ा ।बाहर निकलकर सुगना के सहारे वह कंपाउंडर की खिड़की तक आया। कंपाउंडर ने दवा की शीशी और पुड़िया में बंधी गोलियां थोड़ी ही देर में खिड़की पर रख दी। 

डेढ़ सौ रुपए दो। 

सुगना बैजू को बेंच पर बैठा भागी-भागी पर्ची के काउंटर पर गई ।वहाँ दूसरा आदमी  बैठा था।

” वह खाना खाने गया है ,अब उसकी शाम को ड्यूटी है,शाम को आओ।”

 “आप दे दो भैया। दवा लेनी है ।”

‘अरे हम कैसे दे ?क्या प्रूफ है कि तुमने ₹100 दिए थे ,ऐसे तो कोई भी आकर मांग सकता है।” वह दौड़ी दौड़ी कंपाउंडर के पास गई ।

“भैया एक ही दिन की दवा दे दो, बाकी की दवा कल ले जाएंगे “

“और जो मिक्चर बनाया उसका क्या करूं, पैसे नहीं है तो दवा क्यों बनवाई ?”

सुगना ने एक नजर बेहोश से हो रहे बैजू पर डाली फिर हथेली में दबे 100 के नोट को लाचारी से देखा। जिसमें से ₹50 तो रिक्शा वाले को ही घर तक पहुंचने के देने पड़ेंगे।

बुखार कंपाउंडर की खिड़की और पर्ची काउंटर से उतरकर सुगना को दबोच ले रहा था।

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मनीआर्डर फॉर्म
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गांव से शहर आकर स्टील कारखाने में मजदूरी करते और हर महीने गांव में पत्नी चंदा को मनीआर्डर करने के बावजूद 6 महीने की बचत गणेशी ने गिनकर देखी। इतने रुपयों में वह गांव जाकर ठाठ से दीवाली मनाएगा। कारखाने से दिवाली बोनस भी तो मिलेगा। रुपए पर्स में रख कर उसने अपने दोस्त महेश को फोन लगाया।
” यार तेरी भाभी से बात करा न रात को” 
“रात क्यों अभी कर लो, हम अम्माजी की दवाई लेकर तेरे घर ही तो आए हैं “
थोड़ी देर बाद चंदा की मीठी आवाज सुन गणेशी काबू खो बैठा ।
“अगले हफ्ते आ रहा हूं ,बता तेरे लिए क्या लाऊं? “
चन्दा की बस हूं हां 
“देख चंदा ,महानगर से आ रहा है तेरा गणेशी। वह भी 6 महीने बाद। जानती है, ठसाठस भरी लोकल में धक्के खाते सफर करते कैसे पसीने छूटते हैं ।खाने का ठिकाना नहीं। ठंडा, बेस्वाद वड़ापाव ,कटिंग चाय …….जिस दिन मनीआर्डर की लंबी लाइन में लगना पड़ता है उस दिन वह भी नसीब नहीं। ऊपर से आधे दिन की मजदूरी भी कटती है ।मैं भी तुझे क्या टेंशन की बातें बताने लगा। तुझे तो जुहू चौपाटी की सैर कराने का मन है मेरा।”
” अरे नहीं –नहीं हम कैसे आएंगे उधर ? अम्मा का जानलेवा गठिया ,कौन करेगा उनकी देखभाल ?”
“अरे दो-चार दिन को ही तो लाऊंगा। देखना समंदर ,बाप रे, किनारे खड़े हो तो पांव के नीचे से रेत खिसकती लगती है। लगता है जैसे अब बहे समंदर में ।हां, बता क्या लाऊं तेरे लिए ? “
“इधर के बुरे हाल हैं ।छप्पर टूट गया है ।अम्मा की दवा ,मालिश के तेल का ठिकाना नहीं। छोटू को रोज बुखार आ जाता है ।मत आओ, रेल किराया भी मनीआर्डर में जोड़कर भेज दो ।” गणेशी को लगा वह खुद को खो रहा है और धीरे-धीरे मनी ऑर्डर फॉर्म में तब्दील हो रहा है।

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मज़हब नहीं सिखाता

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किसी ने उसकी पीठ में छुरा भोंका है। खून की गर्म धार शर्ट ,जींस को भिगोती पिंडलियों तक महसूस हुई है। मूर्छित होने से पहले उसने खून से रंगे छुरे वाले हाथ देखे हैं …..सलीम… रुखसाना का भाई सलीम !!

वह मूर्छित है पर दिमाग जाग रहा है। उसके आसपास जुटती भीड़… एंबुलेंस …अस्पताल के गलियारे में दौड़ा कर ले जाता स्ट्रेचर… ऑपरेशन टेबल पर वह…. उस पर झुके डॉक्टर अंधकार….  अंधकार …..साँसें थम रही हैं ।

उस पर झुकी रुखसाना का झील सी गहरी आंखों वाला मासूम चेहरा 

“अकेले नहीं जाने दूंगी तुम्हें अतुल, प्यार किया है तुमसे। हमारा प्रेम रूहानी है, जिस्मानी नहीं। कहा था न तुमने? हम उस पार मिलेंगे ।जहाँ मजहब की दीवारें हमारी राह में न हों। अतुल, अतुल …. आ रही हूँ मैं भी ।

गहरा अंधकार ….आह

अस्पताल में भगदड़ मच गई ।रुखसाना ने पर्स से ब्लेड निकाल अपनी कलाई की नस काट डाली। 

शहर में दंगा भड़क उठा ।

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बाजार 
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बकरीद के लिए कुर्बानी के बकरों का बाज़ार भरा था ।रहमत बाजार जाने की तैयारी कर रहा था। उसने जुबेदा को आवाज दी।
” चल तुझे बाहर घूमा लाऊं। बरसों से घर में कैद होकर रह गई है तू ।’
जुबैदा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। जब से उसके शौहर का इंतकाल हुआ है वह अपने जेठ रहमत के खर्च पर जिंदा है ।पर पढ़ी-लिखी जुबेदा कर भी क्या सकती है। छोटे मोटे काम उसका जेठ करने नहीं देता ।तो घर में रहकर पूरा घर संभालती है और जेठ जेठानी के बच्चे पालती है।जिठानी इन दिनों मायके में है। जुबैदा की कोई औलाद नहीं। शादी के साल भर बाद ही उसका शौहर डेंगू से चल बसा। 4 साल हो गए वह हाड़ माँस का रोबोट बन कर रह गई है ।जिसने पुकारा हाज़िर।जिसने जो कहा कर दिया ।ज़बान खोले भी तो किस बिना पर… रहमत के एहसान तले दब गई है वह।
बाजार में बकरे ही बकरे थे ।रहमत ने उसे टीन के शेड के पास खड़ा होने को कहा और एक बकरे को अच्छी तरह परखने लगा ।सौदा पक्का होते ही वह बकरे के गले में बंधी रस्सी पकड़े एक पठान से दिखते आदमी से बतियाने लगा। जुबेदा ने देखा पठान ने नोटों की मोटी सी गड्डी रहमत को दी । पठान के कदम उसके नजदीक आते गए ।
रहमत बकरे की रस्सी पकडे घर आ गया।।बाज़ार उठ चुका था।
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आदत

दोनो ने अपने अपने मछली और फूलों के खाली टोकरे बरामदे की दीवार पर टांग दिये। गोबर लिपे फर्श पर चटाई बिछाते हुए उषा बोली-“अगो बाई भोत टैम बाद मिल रए रे अपुन”

”हऊ…धंधाइच मगज मारी का। मरने के वास्ते तक टैम नईं। ला ठेचा(मूँगफली,लहसुन,मिर्ची की कुटी चटनी) मी बनाती,तू जवारी का पीट भिंजो”

चूल्हे की आँच में सिंकती जवारी की सौंधी रोटियों ने एक सुवास भर दी जो उषा के फूलों से गमकते घर को मीठे एहसास से भरने लगी। दोनो सखियों ने भरपेट खाना खाकर चटाईयों में पास पास लेटकर ढेरों बातें कीं। रात के किसी पहर में उषा की आँख लग गई पर नीलू जागती रही। समझ नहीं पा रही थी कि नींद आ क्यों नहीं रही है? पोटली में रखे मोगरे ,गुलाब की खुशबू से मन अकबका गया। क्यों बार बार प्यास लग रही है? बचैनी में करवटें बदलत बदलते वह थक चुकी थी।
सुबह उषा की नींद खुली तो देखा बगल से चटाई नदारत। उसने बरामदे में झाँका तो देखा, मछली का गँधाता टोकरा सिरहाने रखे नीलू गहरी नींद सो रही है।

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        शहीद की विधवा

कैप्टन जयदीप करगिल युद्ध में शहीद हो गये थे। उनकी पत्नी सारिका मेरी अंतरंग मित्र थी। अमेरिका में होने की वजह से तुरंत नही जा पाई थी उसके पास….चार साल बाद आज मिल रही हूँ।देख रही हूँ सारिका सम्हल गई है, जयदीप के शून्य को स्वीकार कर लिया है उसने…लेकिन यह मेरा भ्रम था। उसने उस शून्य में प्रभात को ला खडा किया है।घर में जयदीप के बूढे माता पिता और सारिका …प्रभात निर्द्वंद आता,सारी सारी रात सारिका के साथ कमरे में बिताता। रोक भी कौन सकता था उन्हें ।पहल मैंने ही की..” तुम दोनो शादी क्यों नहीं कर लेते ?”

वह हँसी ….”शादी करके शहीद की विधवा होने का गर्व खो दूँ? सारी उम्र बहुत कुछ करके भी शायद इतना मान सम्मान न पाती ,जयदीप को मरणोपराँत दिया गया परमवीर चक्र,समाजसेवी सँस्थाओं की भारी मदद ,ये नौकरी,जयदीप की पेंशन …..क्या मिलेगा शादी करके,शारीरिक सुख? वो तो मिल ही रहा है न प्रभात से …

मैं अवाक ….लडखडा गये कदमों को सम्हाला मैंने। सारिका मुझे स्टेशन तक छोडने के लिए अपनी बाइक निकाल रही थी। जयदीप के माता पिता मुझे पहुँचाने गेट तक आए,माताजी ने कुछ कहने के लिए होठ खोले ही थे कि पिताजी ने बरज दिया..”देखो तुम प्रभात की चर्चा नही करोगी।“

”हाँ नही करुँगी। पर यह दोस्त है उसकी,समझा सकती है उसे।“

”नही, जिन्दगी अब इसी तरह गुजारनी है यह तय है …छाती पर रखा यह बोझ सहना ही होगा ..हम कुछ नही कर पाएँगे। न तुम न मैं। शहीद बेटे के माँ बाप से भी बढकर होती है शहीद की विधवा ..दो निवाले को भी तरस जाएँगे हम।“

मैं कतरा कतरा मरते दोनो के वजूद को देखती ही रह गई।

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मंगलसूत्र

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झोपड़पट्टी के नजदीक समाज सेविका मनोरमा की गाड़ी रुकी ।गाड़ी को बच्चों ने घेर लिया। खबर हर एक झोपड़ी तक पहुँच गई

” मनोरमा ताई आई हैं।”

औरतें झोपड़ियों से निकल उनके  संग संग चलने लगीं।

“भोत बुरा हुआ ताई ।मंदा का मरद  नाले मेइच मर गया ।”

“भोत दारु पियेला था । पाँव फिसल गया नाले में।”

वे मंदा के झोपड़े के सामने खड़ी हो गईं । मंदा चूल्हे पर भात पका रही थी। बच्चे थाली लिए बैठे थे।

” कैसी है मंदा ।आज मैं तेरे ही लिए आई हूँ। तेरे पति के मरने की खबर सुनकर।देख शहर के बड़े सेठ जी ने तेरे लिए मदद भेजी है। फैक्ट्री में काम भी दिला दूंगी तुझे ।”कहते हुए उन्होंने रुपयों से भरा लिफाफा उसकी ओर बढ़ाया ।

मंदा खड़ी हुई। उनके पैर छुए।

“भोत दया है आपकी ताई पर मेरे को मदद नईं चईए। कमाती न मैं। बिल्डिंग में झाड़ू पोछा बर्तन करके ।”

” हाँ पर उतने में तेरा गुजारा कैसे होगा। तीन बच्चे हैं तेरे। पति की कमाई भी तो…… ।”

“अच्छे से होगा ताई। पहले भी होता था न। मरद तो अपनी कमाई दारू में उड़ा देता था। उल्टा रोज मारता था मुझको। आधी-आधी रात तक गाली गलौज, उठापटक। एक रात भी चैन से नहीं सोई।”

वे मंदा के चेहरे पर पीड़ा की रेखाएं स्पष्ट देख रहीं थीं। 

सहसा मंदा ने बेटी को आवाज दी।

” रे छन्नो, ताई के लिए गिलास में लिमका ला। बड़ी बॉटल मंगाई है ताई। बच्चे तरस गए थे। तीनों की किताब कॉपी भी खरीद ली। मंगलसूत्र बेचकर।”

मंदा उनके नजदीक आकर फुसफुसाई–” भोत चुभता था ताई मंगलसूत्र।”

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सवाल वोट का था

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आज दसवीं ए की छात्रा अनुपमा पूरे विद्यालय का प्रतिनिधित्व करेगी। सोच कर वह बहुत खुश है। उसने सभी उत्तर कंठस्थ कर लिए हैं। दो दिन पहले ही उसे प्रधानाध्यापक के कक्ष में बुलाया गया था। कक्ष में सभी अध्यापक बैठे थे। प्रधानाध्यापक ने कहा था

” देखो अनुपमा, पार्टी अध्यक्ष आने वाले हैं ,जो तुमसे विद्यालय संबंधी प्रश्न ही पूछेंगे ।बिल्कुल मत घबराना। सहजता से जवाब देना।”

” जी सर ,कहते हुए उसने कक्षा अध्यापक त्रिपाठी सर द्वारा दिए संभावित सवाल और उनके जवाब सभी को पढ़कर सुना दिए।

पार्टी अध्यक्ष के स्वागत में विद्यालय साफ सुथरा जगमगा रहा था। मुख्य द्वार पर  छात्राओं ने रंगोली बनाई। छात्रों ने फूलों की तोरन टांगी। उत्सव जैसा माहौल था। सभा को संबोधित करने के बाद अध्यक्ष महोदय  कक्षाओं के  निरीक्षण हेतु चल पडे । अध्यापकों का झुंड पीछे – पीछे चल रहा था तथा प्रधान अध्यापक साथ में।

अध्यक्ष महोदय ने कक्षा में प्रवेश करते ही  सामने खड़ी छात्रा से पूछा “क्या नाम है आपका”

“जी  अनुपमा।”

‘दोपहर में ठीक भोजन मिलता है, संतुष्ट हैं उससे ?”

“जी, बहुत बढ़िया खिचड़ी रहती है।”

“कुछ सांस्कृतिक गतिविधि होती हैं स्कूल में, भाग लेते हो।”

” जी, नाटक,वादविवाद,नृत्य होते है ।दूसरे स्कूलों की  प्रतियोगिताओं में भी भाग लेते है।”

” वाह अनुपमा! यह तो बहुत बढ़िया बात है। आपके रहने के इलाके में तो अब कोई  समस्याएं… ? वो तो अब नहीं के बराबर होंगी।”

जी…. जी नहीं, बल्कि दुगनी हो गई हैं।”

” क्या !!!!”अध्यक्ष महोदय के चेहरे से मुस्कुराहट गायब हो गई। 

इस विद्यालय में अधिकतर झोपड़पट्टी के बच्चे पढ़ने आते हैं जहाँ से सर्वाधिक वोटों की उम्मीद है। चुनावी दौरा नाकामयाब हो रहा है। वोट हाथ से फिसलते नज़र आ रहे हैं ।

अध्यापक त्रिपाठी ने आंखें तरेरी। अनुपमा ने नजरें झुकाते हुए कहा

” सर यह सवाल मुझे दिए गये  सिलेबस से बाहर का है। “

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 निम्न वर्ग , वंचितों को केंद्र में रख कर बुनी गई लघुकथाएँ


संतोष श्रीवास्तव जी की कथायें निम्न वर्ग , वंचितों को केंद्र में रख कर बुनी गई हैं।उनकी कथाओं के पात्र हमारे  रोजमर्रा के कार्यकलापों से जुडे है। हम उनके व्यवहार एवं जीवन चर्या से परिचित है, परंतु उनमें जो कथाकार को दिखता है,सामान्य जन नजर अंदाज कर जाते हैं। उस वर्ग की भावनाओं, संवेदनाओं से जोड़ने ही लघुकथा की रचना होती है।

हमें रोज एक आवाज सुनाई देती है, ‘रद्दी , टीन टप्पर , कबाड़ हो तो बेचों।’ यह आवाज देने वाले अधिकांश 12 से 15 साल के बच्चे होते हैं, उन्हीं में से एक बच्चा है, “बाबू”, यही मुख्य किरदार है ‘मुस्कराती चोट’ लघुकथा का। 

बाबू को रद्दी बेची जा रही है,घर मालकिन की नजर तराजू पर है, बाबू की नजर उन स्कूल की किताबों पर है जो रद्दी में बेची जा रही है, जिनके लिए वह तरसा है, झिड़कियाँ सही है और स्कूल से भी निकल दिया गया है।

मालकिन की कालेज जाने वाली लड़की कहती है:

“माँ ,बाल मजदूरी तो अपराध है न? 

 “हाँ बिल्कुल पर अनपढ़ मां-बाप समझे तब न।”

वह उन पुस्तकों के पैसे न लेने को भी कहती है, परंतु वे कहाँ मानने वाली जो तराजू पर नजर गड़ाये बैठी हैं। पैसे चुका कर बाबू वह पुस्तकें घर में रख देता है,और शेष रद्दी लेकर खरीदने वाले मालिक की दुकान पर जाता है, जिसने उसे रद्दी खरीदने हेतु पैसे दिये थे। लाई रद्दी तोलने पर उसे अंदाजा हो जाता है, इतनी रद्दी खरीदने पर दिये गये पैसों में से कुछ पैसे उसके पास बचे होंगे, इन पैसों से उसे बडा पाव और चाय खरीद कर लाने को कहा। उसके पास पैसे नहीं बचे होते है, क्योंकि वह पैसे तो उन स्कूल की किताबों की रद्दी के चुका आया है।

तब दुकानदार गाली गलौज करता है और उसे चप्पल से पीटता है, जिससे उसे चोट लग जाती है।

चोट के बावजूद वह मुस्कुराते हुए घर लौटता है, क्योंकि उसके पास किताबें हैं, अब वह स्कूल जा सकेगा।

इस कथा में कथाकार ने मरती हुई मानवीय संवेदनाओं को सहजता से रेखांकित किया है।मालूम है बाल मजदूरी अपराध है, किताबों न होने से स्कूल से निकाला जा चुका है, पर समाज चुप है,वह जगाने से भी नहीं जागता है। रचनाकार ने बाबू को न निरीह दिखाया है, न ही मजबूर बल्कि वह सशक्त है, उसने चोट की कीमत पर किताबें खरीदी हैं, जिसे वह मुस्कुराते हुए सह गया।

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उत्तरदायित्व के निर्वाहन में अक्षम पति द्वारा पैसा कमाने की सहूलियत हेतु पति पत्नी के संबधों को तार – तार करती कथा “सौदा” मन को झकझोर देती है। अपने ऊपर हो रहे अत्याचार से निरीह पत्नी इस सौदे का बदला इस प्रकार लेती है कि पति भी शारीरिक रूप से और मानसिक रूप से घायल हो जाये।  

कथा की पहली लाइन ही पत्नी की वेबसी दिखती है

‘हवलदार को प्रेमा की लत लग गई थी। हफ्ता वसूलने के नाम पर हर आडे दूसरे आ धमकता।’

पति की न केवल सहमति है उसका हुक्म है

‘अगर इस तरह तू मदद करती है तो इसमें बुरा क्या है?’

पत्नी विरोध में तिलमिलाती है

“कैसा मरद है रे तू…बीवी का सौदा कर रहा है, इसीलिये ब्याह कर लाया था मुझे?” 

पीड़ित और निरीह व्यक्ति में बदला लेने की प्रवृत्ति बलवती हो जाती है, और वह उसी माध्यम से अपने पति से बदला लेने का यत्न करती है।

कथा का चरम बिंदु निम्न वाक्य से पूर्ण हुआ है।

उसके कदमों की आहट प्रेमा की अँगारों सी सुलगती देह पर फूल बनकर बरसने लगी। 

***

पारिवारिक मूल्यों की खुरदरी जमीन पर जब रिश्तों की चुभन असहाय हो जाती है तब रचना होती है ‘मंगलसूत्र ‘ कथा की।

यह कथा अपने आप में पूरी एक कहानी समाहित किये हुए है।

झोपड़पट्टी के नजदीक बने तीर के निशान देशी शराब की दुकान तक का रास्ता आसान करते ले है। शुरु में यार- दोस्तों के साथ आधी कमाई इन दुकानों को भेट चढ़ती है फिर भी गृहस्थी चलती रहती है और बाल बच्चे भी बडे़ होने लगते हैं। धीरे- धीरे शराब इंसान को पीने लगती है, और पूरी कमाई चाटने लगती है।

बच्चों के भूखे पेट माँ को बाहर निकलने को मजबूर करते है, पर उसे आता क्या है?  झाडू -बुहारी और बर्तन रगड़ना। यही काम अब उसकी जीविका के साधन बन जाते है। अब वह बच्चों को भरपेट खिलाने लगी है, उनमें ही अपना संसार देखती है। शराब की लत आदमी को दिनों-दिन तोड़ती रहती है, कमाई भी घटती जाती है।शराब की लत को पूरा करने के लिए अब वह औरत से पैसों की मांग करता है, गाली गलौंच और मार-पीट, अब रोज की बात हो गई है, फिर भी वह सहन करती रहती, घुटती रहती है।

इस कथा में यह कहानी चंद लाइनों में कही गई है, यही कथा का सौंदर्य है।

भोत बुरा हुआ ताई।मंदा का मरद नाले मेइच मर गया।”

“भोत दारु पियेला था। पाँव फिसल गया नाले में।”

यह मंदा के पति की अंतिम परिणति है, सहयोग के लिए मनोरमा ताई आई हैं, पर वह किरदार मजबूत है, सक्षम है, हांथ फैलाना उसे मंजूर नहीं है।

“भोत दया है आपकी ताई पर मेरे को मदद नईं चईए। कमाती न मैं। बिल्डिंग में झाड़ू पोछा बर्तन करके ।”

यह रचनाकार की विशेषता है कि वह अपने पात्र को लाचार नहीं दिखाना चाहती है। वह ऐसे समाज का निर्माण करना चाहती हैं जो दया पर नहीं अपने आत्मबल को मजबूत कर सिर उठा कर जीवन जी सके।

कथा की अंतिम पंक्ति उस किरदार की सारी व्यथा कथा कहती है, एवं पाठक के दिल दिमाग को उद्वेलित करने में सफल है।

“भोत चुभता था ताई मंगलसूत्र।”

कथा का अंत बेड़ियों की जकड़न से मुक्ति का अहसास कराता है।

***

व्यापारी के सभी कार्य – व्यवहार व्यापार ही होते हैं, वह दैनिक जीवन के हर काम को नफा – नुकसान की तराजू पर तौल कर ही करता है।

यह उक्ति चरितार्थ की है कथा ‘व्यापार’ में 

देश के चौथे नंबर के बिजनेसमैन श्री उदय प्रताप माहेश्वरी की मृत्यु हो जाती है उनकी शव यात्रा निकालने की तैयारी चल रही है। कंपनी के डायरेक्ट ने सोचा कि शव यात्रा का आँखों देखा हाल सभी टी वी चैनल से प्रसारित किया जाये। इसके लिए सभी इंतजाम किये जाते हैं।यह व्यवस्था करते हुए उनकी व्यापारिक बुद्धि सामने आ कर खड़ी हो जाती है।

जहाँ व्यापार आगे आ गया वहाँ भावनायें और संवेदनाएँ मरने लगती है। शव यात्रा में जहाँ कैमरे का फोकस लोगों की भावनाओं को कैद का होना चाहिए था वह फोकस रास्ते में पडने वाली दुकानों के साईन बोर्ड पर हो गया और यहीं पर व्यापारिक सोच हाबी हो गई। कंपनी के डायरेक्टर को यहाँ कमाई का जरिया नजर आने लगा, और रास्ते के सभी दूकानदारों से इस एडवरटाइजमेंट की अच्छी खासी फीस वसूल कर ली।

कथाकार ने कथा का समापन इस  व्यंग्यात्मक लाईन से किया कि:

“वाह तीरथ सिंह मेरी शव यात्रा का भी व्यापार कर डाला तुमने।”

लघुकथा विसंगतियों की कोख से जन्म लेती है, यह विसंगति जब कथाकार को दिखती  है तब कथा का जन्म होता है।

***

अस्पताल में गरीब की दुर्दशा का मर्मातक  चित्रण हुआ है “बुखार” शीर्षक की लघुकथा में। जब लाचारी और पीड़ा देखने से रचनाकार का मन भर आता है तब शब्द खुद व खुद कागज पर उतरने लगते हैं।

सुगना का पति बैजू बुखार से तप रहा है, वह डाक्टर को दिखाने उसे अस्पताल ले जाती है, पर्ची बनवाने हेतु लाईन में खडे़ खडे़  बीस मिनिट हो जाते हैं जबकि वह जल्दी से जल्दी डाक्टर को दिखा देना चाहती है।पर्ची बनने पर एक सौ का नोट बढा देती है वह छुट्टा नोट मांगता है, उसके पास भी फुटकर पैसे न होने के कारण बाद में सत्तर रूपये लेने को कहता है। सुगना  असमंजस में है, परंतु बैजू को डाक्टर के पास ले जाने की जल्दी में वह डाक्टर के पास भागती है।

काफी देर बाद बैजू का नम्बर आता है, वह बैजू को लेकर डाक्टर के केबिन  में पहुंचती है पर डाक्टर फोन पर बाते करने में व्यस्त हैं। वह बीच में अपनी समस्या रखती है परंतु उसे नर्स चुप करा देती है। फोन से फारिग हो डाक्टर उसको देखते हैं और अपनी भडा़स निकाल कर  तीन दिन की दवा लिख देते हैं।

वह दवा लेने कम्पाउंडर के पास जाती है,दवाईयों के एक सौ पचास रूपये की मांग की जाती है, उसके हाँथ में एक सौ का नोट बचा है, वह शीघ्र ही पर्ची के काउंटर की ओर भागती है, परंतु वहां पर दूसरा व्यक्ति बैठा है वह शेष सत्तर रूपये नहीं देता है, वह भाग कर फिर कम्पाउंडर से चिरौरी करती है कि एक दिन की ही दवा दे दें यहाँ भी उसे उल्टा सीधा सुनने को मिलता है।

यह सरल और सहज लघुकथा पल – पल पर गरीबी के अभिशाप को उधेड़ती है। लाचारी और विवशता से लडने को तैयार होने से पहले ही टांग तोड़ती है। अस्पताल जहाँ पर कुछ मरहम मिलने की उम्मीद होती है, वहाँ की हर खिड़की उनके घावों को हरा करती है। सहानुभूति एवं संवेदनाओं से रिक्त अस्पताल के कर्मचारी उनकी पीड़ा हरने के बजाय बढा़ने में सहायक होते है।

यह कथा सोचने पर मजबूर करती है कि क्या सामान्य जन इसी प्रकार पिसता रहेगा या कुछ परिवर्तन होगा ।

***

प्रतीकों के सहारे कथा बुनने हेतु विशेष कौशल की आवश्यकता होती है, जिसमें शब्दों की मितव्ययिता के साथ इशारों में अपनी बात संप्रेषित करने की कला में विशेषज्ञ होना चाहिए। ‘बाजार’ कथा इसका अच्छा उदाहरण है। 

जुबेदा के शौहर का इंतकाल उसकी शादी के एक साल बाद ही हो जाता है तब से वह अपने जेठ रहमत पर ही आश्रित है। घर के सभी काम और जेठ जेठानी की तीमारदारी में उसका जीवन कट रहा है।

बकरीद पर कुर्बानी हेतु बकरे की खरीद के लिए रहमत तैयार होता है, तब जुबेदा को बाजार घुमाने के लिए ले जाता है।

बाजार में जुबेदा को एक टीन के शेड पर खडा़ कर देता है। कुर्बानी के बकरों का बाजार भरा है, वह एक बकरे की जांच पड़ताल कर सौदा कर लेता है, और उसके गले में पडी़ रस्सी थाम लेता है। इसी बीच एक पठान से बात करता है। जुबेदा ने देखा पठान ने एक मोटी रकम रहमत को दी, पठान के कदम जुबेदा की ओर बढ रहे थे।

कथा का समापन निम्न लाईन से होता है:

“रहमत बकरे की रस्सी पकडे़ घर आ गया।बाजार उठ चुका था।”

इस अनकहे में सभी भाव समाहित है, पाठक को स्पष्ट हो जाता है कि रहमत ने जुबेदा का सौदा कर लिया है, और उस बाजार में उसे बली का बकरा बना दिया है।

***

‘मजहब नहीं सिखाता’ कथा का शीर्षक ही स्पष्ट करता है कि यह कथा दो मजहब मानने वालों के बीच की है। यह शीर्षक कथा को आगे पढने की जिज्ञासा उत्पन्न करता है।

कथा की शुरूआती लाईनें :

“किसी ने उसकी पीठ में छुरा भोंका है। खून की गर्म धार शर्ट ,जींस को भिगोती पिंडलियों तक महसूस हुई है। मूर्छित होने से पहले उसने खून से रंगे छुरे वाले हाथ देखे हैं …..सलीम… रुखसाना का भाई सलीम !”

सनसनी फैलाती है, रुखसाना के भाई सलीम  ने किसी का मर्डर कर दिया है। परंतु किसी ने उसकी पीठ में छुरा भोंका है, स्पष्ट करता है कि उसके साथ विश्वासघात हुआ है।

कथा की पर्तें धीरे – धीरे खुलती हैं और स्पष्ट हो जाता है कि रुखसाना के प्रेमी अतुल की हत्या रुखसाना के भाई सलीम ने की है।

अतुल अस्पताल में मौत से जूझ रहा है, उसे बचाने हेतु डाक्टर प्रयास कर रहे हैं,तभी रुखसाना भी पहुँच जाती है। वह कहती है:

“अकेले नहीं जाने दूंगी तुम्हें अतुल, प्यार किया है तुमसे। हमारा प्रेम रूहानी है, जिस्मानी नहीं। कहा था न तुमने? हम उस पार मिलेंगे ।जहाँ मजहब की दीवारें हमारी राह में न हों। अतुल, अतुल …. आ रही हूँ मैं भी।”

इधर अतुल के प्राण पखेरू उडते है, तभी रुखसाना ब्लेड से कलाई की नस काट लेती है।

कथा का अंत “शहर में दंगा भड़क उठा।”

की लाईन से किया गया है।

इस कथा की विशिष्टता है शब्दों की मितव्ययिता एवं कथानक का गठन। कथा का ताना बाना इस प्रकार से बुना  गया है कि बहुत कम शब्दों में पाठक के सामने एक बिम्ब उभर आता है।

जहाँ मामला  हिंदू – मुस्लिम किरदारों के बीच हो वहाँ स्थिति व्यक्ति या परिवार के हाथ से निकल जाती है और मजहबी जामा पहना दिया जाता है, जिसकी परिणति तो दंगा ही  है।

***

  गरीब परिवार की दुर्दशा, उसके सपने उसकी इच्छाओं की परिस्थितियों के सामने बलि चढ़ती रहती है।’मनीआर्डर फार्म’ कथा में रचनाकार ने एक परिवार की चूरचूर होती आकांक्षाओं का मर्मातक चित्रण किया है।

गणेशी गाँव से आकर शहर की स्टील कारखाने में काम करता है, प्रति माह गाँव मनीआर्डर से पैसे भेजता है, और कुछ पैसे बचाता भी रहता है। 6 माह बाद उसे बचे हुए पैसे काफी लगने लगते हैं, जिससे वह घर जाकर दीपावली मना सकता है। अंटी में थोडे़ से पैसे होने पर इच्छायें जागने लगती है, उसे अपनी पत्नी की याद आने लगती है। अपने मित्र को फोन कर उससे बात करता है, महानगर की व्यस्त जिंदगी से परिचित कराते हुए दीपावली पर घर आने की बात करता है तथा क्या उपहार चाहिए पूंछता है। गाँव में परिवार की समस्याओं का सामना करती उसकी पत्नी की स्वयं को क्या आवश्यकता हो सकती है।वह न नुकुर करती है, परंतु गणेशी उत्साहित है वह अपनी पत्नी को समुद्र दिखाना चाहता है और उसका जीवंत चित्र फोन पर ही सुना देता है। अंततः पत्नी बोल ही देती है :

“इधर के बुरे हाल हैं ।छप्पर टूट गया है ।अम्मा की दवा ,मालिश के तेल का ठिकाना नहीं। छोटू को रोज बुखार आ जाता है ।मत आओ, रेल किराया भी मनीआर्डर में जोड़कर भेज दो ।” 

कथा में लोक लुभावन महानगरीय जिंदगी एवं समुद्र तट का जीवंत चित्रण है, पर यह सब  चंदा को अपने परिवार की समस्याओं के सामने फीका लगता है।उसकी  कर्तव्य परायणता के आगे गणेशी के सपने धरे के धरे रह जाते हैं और  अंततः “गणेशी को लगा वह खुद को खो रहा है और धीरे-धीरे मनी ऑर्डर फॉर्म में तब्दील हो रहा है।

: ‘गोपू और आम’ संतोष श्रीवास्तव की भावना प्रधान कथा है। जिसका कोई सहारा न हो वह पेड़- पौधों में ही सहारा  ढूंढ लेते है। वनस्पति में भी जीवन होता है, बोल नहीं सकते तो क्या? भावनाओं को तो समझ सकते हैं।

गेंदाबाई का बेटा गोपू आठ साल की उम्र में ही उनका साथ छोड़ कर चला गया परंतु उस आम के पेड़ के सहारे वे उसे जिंदा रखे हुए है जिसे गोपू ने अपने नन्हें हाथों से रोपा था।आम खाकर गोपू ने गुठली मिट्टी में दबा दी थी,कुआँ पर हाथ धोने गया तो पैर फिसल गया, वह कुआँ में गिर गया और भगवान को प्यारा हो गया, पर उसकी लगाई गुठली में जीवन का संचार हो गया।गेंदा बाई सात साल से उस आम के पेड़ की देखभाल अपने बेटे की तरह ही कर रहीं है।दिन – प्रतिदिन उनका स्नेह बढ़ता ही रहता है, और इस साल उस पेड़ ने मीठे रसीले फल दिये है।फल तुड़वाकर कर उन्हे बच्चों के बीच बांट रही है,और गोपू को याद कर रही है।

गोपू का दोस्त किसना आमों को बाजार में बेचने की सलाह देता है। उसके जबाव में उन्होंने कहा: “अरे लानत है ऐसे पैसे पर ।जानता है न किसना। आम के हर फ़ल में गोपू बसा है ।क्या मैं अपने गोपू को बेच दूँ?”

कथा का यही समापन बिंदु है, जो नायिका की भावनाओं को स्पष्ट करने में सक्षम है।

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मौलिक अधिकारों के हनन और गरीब की विवशता को चित्रित किया गया है एक आश्चर्यचकित कर देने वाली लघुकथा ‘मजबूरी’ में। यह सत्य घटनाएँ भावनाओं को ताक में रख कर रोज घट रही हैं।

गेंदा बाई गाँव की मेहनत कश गृहणी है, जो खेती किसानी के कामों में मजदूरी करके परिवार का पालन पोषण कर रही है। माहवारी होने पर पेट दर्द , चक्कर आने के कारण काम से छुट्टी लेना पड़ती है, जिससे दैनिक पगार से पैसे कट जाते है। गर्भ धारण पर लम्बे समय की छुट्टी हो जाती है। उसके सामने इस समस्या से निजात पाने का एक रास्ता है। वह भी डाक्टर के पास पहुँच गई और बच्चादानी निकालने का अनुरोध करने लगी।बच्चादानी न रहने पर माहवारी की समस्या से निजात पा जायेगी और वह बिना छुट्टी लिए काम कर सकेगी।

मातृत्व अवकाश की सरकारी योजनाओं का लाभ  असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को नहीं मिल पाता है। यहाँ तक की ठेकेदारी प्रथा में लगातार काम करने वाले मजदूरों को कोई छुट्टी तक नहीं मिलती है।बीमार होने पर उनकी दिहाड़ी मारी जाती है।

कथा की पंच लाईन उनकी दुर्दशा पर सोचने मजबूर करती है:

“गरीब का चूल्हा तभी जलेगा जब हारी बीमारी न हो उसे……. पत्थर बना रहे पत्थर।”

पवन जैन

व्यापार

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सभी समाचार चैनलों के फोन खटखटाए उदय प्रताप फाइनेंस कंपनी के डायरेक्टर तीरथसिंह केडिया ने।

“देश के चौथे नंबर के बिजनेसमैन श्री उदय प्रताप माहेश्वरी की शव यात्रा है उन की कोठी से मुक्ति धाम तक पूरी कवरेज चाहिए।” 

फोन रखते ही तीरथ सिंह के दिमाग में बिजली सी कौंधी।  चींटी की चाल से चलती शव यात्रा के रास्ते में जितनी भी दुकानें हैं उन पर भी तो कैमरा फोकस होगा ।यह तो मुफ्त की पब्लिसिटी है दुकानों की । चालीस साल उदय प्रताप माहेश्वरी के कोष को विभिन्न स्रोतों से खूब भरा है तीरथ सिंह ने  और  उसकी इस बात का लोहा उदय प्रताप महेश्वरी भी मानते थे।  लेकिन वह यह काम किसी दूसरे को नहीं सौंपेगा। उसने खुद ही सभी दुकानों के मालिकों को मिलने आने को कहा। उदय प्रताप माहेश्वरी के रुतबेदार सेक्रेटरी तीरथ सिंह का कहा कौन डालता? सब तीरथ सिंह के बंगले पर आपातकालीन मीटिंग में शामिल हुए। दुकानों की पब्लिसिटी के लिए बड़ी रकम वसूल कर तीरथ सिंह शव यात्रा की संपन्न हो चुकी तैयारी वाले हॉल में पहुँचा 

फूलों से पैरों से गले तक ढके उदय प्रताप का चेहरा देख तीरथसिंह की आँखे जेब में रखे नोटों के बोझ से झुक गईं। झुकी आँखों ने उदयप्रताप माहेश्वरी के किंचित मुस्कुराते चेहरे को देखा । उन्हें लगा मानो वे कह रहे हैं 

“वाह तीरथ सिंह मेरी शव यात्रा का भी व्यापार कर डाला तुमने।”

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गोपू और आम
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गेंदाबाई चबूतरे से एक -एक आम उठाकर बच्चों के झुंड में बाँट रही थी। “लो खाओ ,मीठा दशहरी, शक्कर की पोटली।”
झाड़ के सारे पके आम आज ही तुड़वाए हैं गेंदाबाई ने।
‘ लो तुम भी लो, मेरे गोपू ने झाड़ लगाया था। आम खाकर हाथ में गुठली ले दौड़ा दौड़ा गया और बाग की मिट्टी पलट कर गुठली रोप दी ।इस झाड़ में तो मेरा गोपू ……..
वो पिछले सात सालों से यह बात बार-बार दोहराती आ रही है । सात साल पहले गोपू आम की गुठली रोपकर कुएं पर हाथ धोने गया और फिसल कर कुएं में जा गिरा। कुएं की दीवार से सिर टकरा कर खूनाख़ून हो गया। डॉक्टरों ने आठ साल के गोपू को मृत घोषित कर दिया ।गेंदा बाई बेसहारा हो गई ।
“काकी झाड़ के सब आम बाँट देती हो। कुछ बाजार भी पहुँचा दिया करो। चार पैसे घर आएंगे।”
गोपू के दोस्त किशन ने सलाह दी। और दीवार से टिक्कर आम चूसने लगा ।
“अरे लानत है ऐसे पैसे पर ।जानता है न किशना। आम के हर फ़ल में गोपू बसा है ।क्या मैं अपने गोपू को बेच दूँ??
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मजबूरी

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“डॉक्दरनी बाई, हमाओ ऑपरेसन कर दो ।”

अचानक गेंदा को सामने देख डॉ चौक गई ” काहे का ऑपरेशन गेंदा? क्या तुम भी बच्चादानी निकलवाना चाहती हो?”

” जी हाँ, रख कर करेंगे भी क्या? है तो चार बाल बच्चे। उन्हें लिखा पढ़ा दें। नहीं तो बो भी हमाई तरह गन्ना के खेत से गन्ना काटेंगे ।ठेकेदार की डांट फटकार सुनेंगे ।”

गेंदा डॉ के सामने स्टूल पर बैठ गई ।वह बच्चादानी  निकलवाने को मजबूर है ।

“क्यों ऐसा कर रही हो ? पन्द्रह दिन में चारऔरतें मेरे पास आ चुकी हैं।”

अभी तो और आएंगी मैडम ,मजबूर हैं हम ।ठेकेदार एक दिन की छुट्टी के ₹500 काट लेता है और छुट्टी तो लेनी पड़ती है, पेट से हो , माहवारी से हो ऐसे में पेट में दर्द ,चक्कर  आते तो आते ही रहते हैं।”

” तुम लोग आवाज क्यों नहीं उठाती? सरकार औरतों के लिए कितना कुछ कर रही है।”

गेंदा के चेहरे पर मजबूरी, दुख ,पीड़ा के साथ खिन्नता भी थी ।

“अब हम तक तो पहुंची नहीं सरकार की बात और ठेकेदार का क्या ,हमें निकाल कर दूसरी रख लेगा ।गरीब का रखना क्या, निकालना क्या ।हारी बीमारी न हो उसे……. बस पत्थर बना रहे। तभी तो चूल्हा जलेगा डॉक्टरनी बाई।

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दिशा बोध कराने वाली लघुकथाएं

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 वर्तमान समय में जो लघुकथाएं लिखी जा रही हैं उनके विधागत स्वरूप और रचना प्रक्रिया को लेकर सतत बहस चल रही है। लघुकथा ने अपने पूर्व स्थापित स्वरूप को नई दिशा में विस्तारित भी किया है। लघु प्रेम कथाएं भी परिदृश्य में शामिल हो चुकी हैं। लघुकथा की गहन ग्राह्यशक्ति इस विस्तार का कारण बनी है। लघुकथा का अकादमिक स्वरूप विकसित हो चुका है। लघुकथा विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में शामिल होने लगी है। ऐसे दौर में लघुकथा में लेखकों की संख्या भी बढ़ती जा रही है।

श्रीमती संतोष श्रीवास्तव पिछले कुछ वर्षों से अच्छी लघुकथाओं को लेकर सामने आई हैं ।उनकी कुछ चिंतन परक  लघुकथाओं की चर्चा जरूरी लगती है। रेल दुर्घटना में लापता पति का श्राद्ध पत्नी की आँखों में पति के जीवन के कष्ट तो हैं लेकिन एक सांत्वना भी है कि सरकार की ओर से मिलने वाले ₹5 लाख से 3 जवान बेटियों के विवाह की चिंता से मुक्त हो सकेगी। श्राद्ध के लिए पूरियां तलते हुए उसके हाथ थम जाते हैं जब बैसाखियों में अपने पति को सामने जीवित खड़ा पाती है। श्राद्ध शीर्षक की इस  लघुकथा में गरीब जीवन की व्यथा है कि, सामने जीवित खड़े पति को देखकर वह भौंचक्की रह जाती है कि, पति के जीवित लौटने की खुशी मनाए या जवान बेटियों की जवानी का श्राद्ध कर दे ।गरीबी की यह पीड़ा लघुकथा की सार्थकता को अच्छे से स्थापित करती है। 

आम चूसते हुए दुर्घटनाग्रस्त बेटे गोपू की याद में माँ उसके लगाए पेड़ के सारे आम हर वर्ष बच्चों में बांट देती है। उसकी संवेदना है कि हर फ़ल में उसे गोपू बसा दिखता है ।शीर्षक, कथा की संवेदना को व्यंजित नहीं कर पाता है। करिश्मा लघुकथा में विलायती बहू के प्रति पूर्वाग्रहों से ग्रस्त सास की विचारधारा को उसकी बेटी सकारात्मक रूप से झूठी प्रशंसा कर परिवर्तित कर देती है। सकारात्मक भाव वाली इस लघुकथा में विषय को नवीन तरीके से प्रस्तुत किया गया है।

 निगरानी लघुकथा भी समाज में व्याप्त  हिंदू मुस्लिम विद्वेष के कारण अकेली यात्रा कर रही लड़की के मन में  पूर्वाग्रह ग्रस्त होकर उपजे संदेह की कथा है। जाति से कोई व्यक्ति खराब या अच्छा नहीं होता है। इस बात को यह लघुकथा अच्छे तरीके से स्थापित करती है ।अकेली यात्रा कर रही लड़की का खाली कोच में यात्रा कर रहे मुस्लिम युवकों से डरना ,नीचे की सीट लेने के उनके आग्रह को संदेहवश ठुकराना , उनके सहज वार्तालाप पर भी शंका करना और भोजन के ऑफर को ठुकराते हुए उनकी प्रत्येक गतिविधि पर शंका करती वह अकेली लड़की जब अपने गंतव्य पर उतरने लगती है तो, वही मुस्लिम लड़का उसे बहन का संबोधन देकर उसका सूटकेस उतारता है। कथा का समापन सकारात्मक है लेकिन लड़की के मन का एकतरफा अंतर्द्वंद उसके भीतर के साहस विहीन नकारात्मक पक्ष को सायास प्रस्तुत करने की चेष्टा लगता है। फिर भी यह लघुकथा जातिगत विद्वेष और शंका ग्रस्त  दुर्भावना को समाप्त करने की दिशा में एक मजबूर ताकत के रूप में हमारे समक्ष खड़ी दिखती है ।लघुकथा का प्रवाह सहजता से आगे बढ़ता है जो लेखकीय शिल्प की विशेषता के रूप में सामने आता है ।

नीलामी नई पीढ़ी के विदेश चले जाने से उपजे वृद्ध माँ के दर्द की अंतर्व्यथा है ।बेटा विदेश चला गया है ।मकान नीलाम हो रहा है और बेटा माँ को वृद्धआश्रम में रहने की सीख देकर गया है। दरअसल यह लघुकथा वर्तमान समय की ग्लोबलाइजेशन के दुष्परिणामों से उपजी कथा है ।अपना भविष्य बनाने के चक्कर में नई पीढ़ी द्वारा पुरानी पीढ़ी की  उपेक्षा, उसे अकेला छोड़ देना और जो माँ बाप अपने बच्चों का भविष्य बनाने के चक्कर में अपनी सारी जमा पूंजी ,स्थाई संपत्तियां बर्बाद कर देते हैं , उनके कष्ट की सर्वव्यापी कथा है ।इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और कई  लघुकथाएं सादृश्यता के साथ सामने आई हैं फिर भी लेखिका ने अलग तरीके से नवीन शिल्प के साथ विषय को प्रस्तुत किया है। 

पश्चाताप संतोष जी की कतिपय श्रेष्ठ लघुकथाओं में से एक लघुकथा है ।विवाह के बाद स्त्री का अघोषित शोषण पति के द्वारा होता रहता है ।वह अपना समूचा गुस्सा ,कुंठा, फ्रस्ट्रेशन सदैव अपनी पत्नी पर निकालता है और पत्नी फिर भी उसके सुख की कामना करती है। यह पुरानी पीढ़ी के भारतीय पति पत्नी की कथा है ।स्त्री की सहनशीलता उसका दुर्गुण तो नहीं होता। पुराने समय के परिवार इसीलिए बने रहे। आज की नारी प्रगतिशीलता के साथ सामान्य से सामान्य से मुद्दों पर भी  असहनशील होकर सीधे तलाक की ओर प्रस्थान कर जाती है और परिवार टूट जाते हैं। यह एक दिशा बोध वाली लघुकथा भी है ।उसके जीवन के उत्तरार्ध में पुरुष का सबसे बड़ा  सहारा उसकी पत्नी ही होती है। जीवन की आपाधापी से निवृत्त होकर, वह उसी के साथ उसके सहारे से जीवन जीना चाहता है ।पत्नी के स्वास्थ्य की पूरी चिंता करता हुआ वह वृद्ध पुरुष सुबह की सैर में पार्क में आकर उससे कभी करेले का जूस उसके मधुमेह के लिए लाने की बात करता है, तो कभी ग्रीन टी ।चिड़ियों की चहचहाहट को पत्नी के नव ब्याहता  स्वरूप की चहक से जोड़ते वक्त स्त्री का क्षोभ निकल कर सामने आता है। वह पति के द्वारा की गई पिटाई का संकेत से जिक्र करती है, और कांच की तरह किर्च-किर्च हुए रिश्ते को सामने लाकर रख देती है ।मर्द का पश्चाताप और उसकी अपराध  स्वीकृति के साथ रिश्ते को सहेजने की दोनों की चाहत के साथ लघुकथा समाप्त होती है। शिल्प के स्तर पर, भाषा के स्तर पर, संवादों के गठन के स्तर पर, लघुकथा उत्कृष्ट रूप में सामने आती है। संवादों में छुपी सांकेतिकता, उनका मर्म ,उनकी संवेदना पाठक को भीतर तक भिगो देती है। स्त्री-पुरुष के रिश्तो पर एक सार्थक लघुकथा के रूप में यह हमारे सामने आती है।

संतोष जी की रोबोट लघुकथा तकनीक के इस युग की सुख-सुविधाओं पर केंद्रित लघुकथा है ।जैसे जैसे तकनीकी विस्तार होता जा रहा है ,लेखन के लिए भी नवीन आयाम खुलते जा रहे हैं। रोबोट के माध्यम से  भले ही तकनीकी युग की विशेषताएं बतला कर पति अपनी पत्नी को प्रभावित करता है, लेकिन शीघ्र ही उस संवेदनविहीन  युग से बाहर आ जाता है और अपनी पत्नी से बोलता है- “मनुष्य मशीन हो गया । यार ,पापड़ और हरी मिर्च लाओ न ।”

यहां बोस्टन शहर के रोबोट की तारीफ करने के बावजूद उसे मटर पनीर की सब्जी के साथ नींबू और गर्म फुलका परोससी पत्नी ही अच्छी लगती है। कथ्य नवीन है और उसका निर्वाह शिल्प की खूबसूरती के साथ किया गया है।

अकेला उस गांव की कथा है जहां आज भी जंगलराज चलता है। आज भी गांवों में जातिगत भेदभाव सवर्ण और निचली जाति के बीच का वर्ण संघर्ष सतत बना हुआ है। इंसान और इंसानियत की स्थापना नहीं हो पाई है। अपितु नैतिकता का स्तर पहले से अधिक गिर चुका है। प्रेमचंद के जुम्मन चौधरी और अलगू शेख जैसी निर्णय करने वाली पंचायतें भी अब नहीं हैं। जैसे-जैसे पंचायतों में धन की आवक बढ़ी है वैसे वैसे वहां का भ्रष्टाचार ,पंचों की निरंकुशता भी बढ़ी है ।नत्थू लोधी को गौ हत्या का दोषी मानकर पंचायत गांव में उसका हुक्का पानी बंद कर गंगा स्नान का अंधा आदेश देती है। गाय के साथ हुई दुर्घटना नत्थू के सिर पर लाद दी जाती है और वह बेचारा अवाक खड़ा यह सोचता रह जाता है कि, इनके खेतों के लठैत तो जानवर क्या आदमी को भी मार डालते हैं। ताकतवरों की पंचायत में निरीह नत्थू के दर्द को लेखिका ने पैनेपन के साथ प्रस्तुत किया है।

विजेता एक और नवीन विषय को लेकर रची गई लघुकथा है। सारे देश में कचरे का प्रदूषण है। प्लास्टिक के कचरे की समस्या समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही है। प्रधानमंत्री के सतत प्रयास भी सार्थकता नहीं प्राप्त कर  पा  रहे हैं। लेखिका ने प्रदूषित हो रहे हिमालय के ऊपर बिखरे हुए कचरे को अपनी लघुकथा की विषय वस्तु बनाया है। पर्वतारोहियों के द्वारा शिखर पर फेंके गए कचरे को अपने साथ लेकर आने वाली पर्वतारोही नायिका के साहस और सफलता की सकारात्मक कथा है। जो छोटे से गांव से आने के बावजूद अपनी पर्वत श्रृंखलाओं को साफ सुथरा रखने की इच्छा रखती है। यह एक नवीन विषय है जिसको अच्छे तरीके से, निर्वाहित करते हुए लिखा गया है। 

गरीब की बरसात एक संवेदना विहीन मालकिन की कथा है जो बारिश के सुहावने मौसम में गर्म पकोड़ो के साथ कॉफी की चाहत में अपनी नौकरानी का शोषण कर उसे देर तक रोक लेती है। उसके दुख दर्द कि उसे कोई चिंता नहीं होती। जब उस गरीब नौकरानी का लड़का आकर उसे यह बताता है कि “आई घर चल ,नाले का पानी घर में घुस आया है।” 

तो मालकिन उस लड़के को निर्ममता से कह देती है कि 

“अरे तू काहे को आया रे, पता तो है कि गरीब के घर बरसात ऐसे ही आती है।” यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। ऐसे समाज पर शर्म आती है ।

कुल मिलाकर संतोष जी ने जिन लघुकथाओं को रचा है, वे सामाजिक विसंगतियों पर ,एवं संवेदनहीनता पर सीधे-सीधे चोट कर एक लाइट हाउस की तरह दिशा बोध का कार्य करती हैं।

  • सतीश राठी 

श्राद्ध

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अपने पति मंगतराम के श्राद्ध में ग्यारह ब्राह्मणों को उसने बुलाया था। श्राद्ध का सारा इंतजाम हो चुका था और वह पूड़ियाँ तलने बैठी थी । गर्म तेल में पूड़ी डालते हुए उसके आँसू छलक आए ।

‘जिंदगी भर खटता रहा ।

तीन जवान बेटियों के ब्याह की चिंता में कभी चैन से सो न सका और मर कर भी बेटियों का इंतजाम कर गया। दुर्घटना में मरे और लापता हुए व्यक्तियों को सरकार पांच पांच लाख रुपया मुआवजा ………

“अम्मा ,बापू !”

उसके पूड़ियाँ तलते हाथ वहीं के वहीं थम गए। दुर्घटना में लापता हुआ पति  सामने बैसाखियों के सहारे खड़ा था।  उसके मन में हौल सा उठा ।

“अब श्राद्ध किसका करे? पाँच लाख रुपयों का या बेटियों की जवानी का???

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निगरानी

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ट्रेन के सेकेंड एसी कोच में वे चार थे। उनके बीच सोनल अकेली । कोच लगभग खाली था। इक्का-दुक्का मुसाफिर अगली सीटों पर थे ।सोनल की ऊपरी बर्थ थी।

” आप चाहें तो सीट बदल सकती हैं।” उनमें से एक ने कहा।

” नीचे की बर्थ में आप आ जाइए, ऊपर हम चले जाते हैं।”

“नहीं- नहीं मैं ठीक हूँ। शुक्रिया।”

सोनल ने पर्स उठाया और वॉशरूम चली गई। वॉशरूम से उसने पापा को फोन लगाया

” पापा पूरी बोगी लगभग खाली है। और मेरे आमने सामने की सीटों में चार मुस्लिम हैं। बार-बार मुझसे बात करने की कोशिश कर रहे हैं।”

” गार्ड को बोल कर रखो बेटा। घबराओ नहीं। जरा सी शंका पर रेलवे  पुलिस को फोन करना ।भरोसा नहीं है इनका। कब क्या कर बैठें ।

वह सतर्कता से अपनी सीट पर आई। नीचे रखी अटैची भी उसने ऊपर की बर्थ पर रख ली।

” अब आप सोएंगी कैसे ?नीचे अटैची ठीक ही तो रखी थी।”

सोनल ने कुछ जवाब नहीं दिया ।भूख लगी थी पर घबराहट के मारे टिफिन खोला ही नहीं ।वे चारों अपने टिफिन खोल कर एक दूसरे को अपना खाना शेयर करने लगे ।

“आप भी लीजिए ।”

उनमें से एक ने टिफिन उसकी ओर बढ़ाया।

” जी मेरे पास है ।शुक्रिया ।”

बेहद नम्रता से उसने कहा और टिफिन खोलने लगी। वे चारों हंसते बोलते खाना खाते रहे। सोनल बावजूद सतर्कता के बेहद घबराई हुई थी। उसे बार-बार बर्थ के नीचे रखा उनका बैग खींचकर खोलना संदेह में डाल रहा था। क्या पता बैग में क्या रखे हैं। 

रात को 2 बजे उनमें से एक बैग लेकर कहीं चला गया।

‘ हे भगवान ,बम रखने गया है क्या। अब क्या होगा ।टिकट कलेक्टर भी एक बार भी नहीं आया ।कहीं उनसे मिला हुआ तो नहीं है ।यह नीचे की सीट क्यों ऑफर कर रहे थे ।कहीं इनका इरादा…….वह पसीने पसीने हो उठी। 

उसकी नजर बराबर घड़ी पर थी। कब तीन बजेंगे और कब उसका स्टेशन आएगा ।

ट्रेन आधा घन्टे लेट स्टेशन पर पहुँची। उनमें से एक उसकी अटैची लेकर कोच से उतारने लगा।

“नहीं रहने दीजिए न।”

” कोई लेने आएगा क्या? संभाल कर जाना बहन। रात भर हम भी सो नहीं पाए ।चार मनचले झांसी से चढ़े थे। एक से चार नंबर की सीट पर ताश खेलते रहे शराब पीते रहे ।भाई जान तो उधर ही खाली सीट पर बैठे उनकी निगरानी करते रहे। पूरी बोगी में आप अकेली, फर्ज तो अपना भी बनता है न बहन ।

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नीलामी

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नीलामी के स्वर उनकी भूख से ऐंठती अंतड़ियों में मानो तेज़ चाकू चुभा रहे हैं । डायबिटीज की मरीज हैं वे।भूख भी तो जल्दी-जल्दी लगती है। मुन्ना से कितनी बार कह चुकी हैं थोड़ा सूखा नाश्ता उनके कमरे में रख दे लाकर।

 “माँ मांग लिया करो न किरन से ।इन छोटे मोटे कामों में मुझे मत उलझाया करो ।”

मुन्ना और बिट्टी की खातिर वे खुद को भूली रहीँ थीं। 4 साल का मुन्ना और 6 साल की बिट्टी और डुप्लेक्स घर का कर्ज छोड़कर चल बसे थे मुन्ना के पापा ।तब से नौकरी में जी तोड़ मेहनत। शरीर को शरीर नहीं समझा। अपनी इच्छाओं, अरमानों का गला घोंट वे बच्चों का भविष्य संवारती रहीँ। चींटी की तरह अपने से बड़ा वजन ढोती रहीं। पाई-पाई घसीटती रहीं, जोड़ती रहीँ पर नहीं पटा पाईं घर का कर्ज और नहीं रोक पाईं मुन्ना को लंदन जाने से।  नीलामी के स्वर जो सेठ महावीर सराफ ने कर्ज वसूली के लिए  उनके घर को नीलामी पर चढ़ाया था और भी ऊंचा होकर कमरे की दीवारों से टकरा रहे हैं ।पर वे उतने नहीं चुभ रहे जितने मुन्ना के ये वाक्य 

बिट्टी जीजी के घर तुम मना कर रही हो रहने को तो वृद्ध आश्रम में ही तब तक रहना होगा जब तक मैं तुम्हें लंदन नहीं बुला लेता। साल 2 साल तो लग ही जाएंगे ।

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पश्चाताप 
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सुबह की सैर पर आए दोनों पार्क की बैंच पर बैठ गए ।
“करेले का जूस ले कर आता हूं।”
“नहीं रहने दो आज मन नहीं है ।”
“फिर ग्रीन टी ?”
“नहीं यूं ही बैठते हैं कुछ देर….चंपा के पेड़ पर बैठी चिड़ियों का शोर कितना अच्छा लग रहा है।”
‘ तुम भी तो ऐसे ही चहकती थी ,जब ब्याह कर लाया था तुम्हें ।”
“पर तुम्हें पसंद कहां था !!जब भी आईना देखती हूं गालों पर तुम्हारी उंगलियों के निशान नजर आते हैं ।घर के किर्च किर्च हो चुके कांच के बर्तन ,सहमे बच्चे !!”
पल भर को सन्नाटा …..
“क्यों याद करती हो वह सब ।”
“भूलता भी तो नहीं कुछ ।एक पल भी सुकून का नहीं गुजार पाई ।पूरी उम्र इसी में खप गई ।प्यार जाना ही नहीं ,क्या होता है।”
मर्द के हाथों में औरत के हाथ थे।
” बहुत दुख दिया तुम्हे मैंने। अपनी कुंठा, फ्रस्ट्रेशन सब तुम पर निकाला। ईश्वर मुझे कभी माफ नहीं करेगा ।नर्क मिलेगा मुझे नर्क ।”
“नहीं, ऐसा न कहो। सारी उम्र तुम्हारे साथ गुजारी है। हमेशा ईश्वर से तुम्हारा भला ही चाहा ।”
दोनों के आंसू एक-दूसरे का कंधा भिगो हो रहे थे 
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रोबोट 

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अमेरिका के बोस्टन से लौटकर वह खाना खाते हुए पत्नी को बतला रहा था–

“पता है अमेरिका में अब रेस्तरां में रोबोट ग्राहकों का ऑर्डर भी लेंगे और परोसेंगे भी।”

पत्नी ने मटर पनीर की सब्जी उसे परोसते हुए आश्चर्य से पूछा-” क्या वाकई ।”

“हाँ ये रोबोट्स पाँच बैटरियों  से चलेंगे। इनकी कीमत 74 लाख है।

“नींबू दो यार ।”

“अभी लाई ।”

कहती हुई पत्नी किचन में गई और प्लेट में नींबू काटकर ले आई, साथ में गर्म फुलका भी। पति ने सब्जी में नींबू निचोड़ते हुए कहा –

“रोबोट से सेवा लेने के लिए ग्राहक को कंप्यूटर पर लॉग इन करवाया जाता है। तब उसके सामने एक कस्टमाइज्ड टेबल कुर्सी खुल जाती है। ग्राहक के उस कुर्सी पर बैठते ही रोबोट ऑर्डर लेता है, किचन तक पहुंचाता है और रोबोटिक सर्वर से उसका ऑर्डर टेबल पर सर्व हो जाता है ।”

“वाह जीना कितना आसान ।”

“मुझे तो यह वेस्ट ऑफ मनी लगा। मनुष्य मशीन हो गया। यार पापड़ और हरी मिर्च भी लाओ न ।”

पत्नी पापड़ सेकने किचन की ओर जाने लगी । जाती हुई पत्नी को देख उसने पलकें झपकाईं। 

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अकेला

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पंचायत ने फैसला सुनाया –“किसान नत्थू लोधी को गौ हत्या का दोषी पाया गया है ।पंचायत गाँव में उसका तथा उसके परिवार का हुक्का पानी बंद कर उसे गंगा नहाने का आदेश देती है। गंगा स्नान से लौटने के बाद ही आगे का फैसला होगा ।

किसान नत्थू लोधी बहुत गिड़गिड़ाया-” कहाँ से लाएंगे हुजूर गंगा मैया तक जाने का पैसा ।वह तो कोसों दूर बहती है ।”

“जाना तो पड़ेगा।” पंचों में से एक बोला ।जो हमेशा नत्थू लोधी के खिलाफ रहता था  क्योंकि उसने  मुफ्त में उसकी गाएं जंगल में चराने से इनकार कर दिया था । तबसे वह खुन्नस खाए है।

“जानबूझकर गौ हत्या नहीं की सरकार, खेत में खड़ी फसल चल रही थी खदेड़ा तो नाले में जा गिरी और” …… “तो खा लेने देते फसल। पेट भर जाता तो अपने आप चली जाती ।दूध नहीं पीते क्या गौ माता का ।”

“हाँ हाँ, खा लेने देते।”

पंचायत में उपस्थित सभी ने एक स्वर में कहा।

नत्थू लोधी अवाक था… शब्द मुंह से नहीं निकल रहे थे।”इनके खेतों में तो लठैत लगे हैं, जानवर क्या आदमियों को भी मार डालते हैं, पर आज पंचायत में सभी इकट्ठे और मैं अकेला।”

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विजेता 

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एवरेस्ट विजय दल के साथ उसका भी फूल मालाओं से स्वागत हो रहा था। “देखो हमारे गाँव की बेटी को। बिना किसी ट्रेनिंग के एवरेस्ट तक जा पहुँची।”

हिमालय की तराई में बसे उसके छोटे से गाँव से सभी लोग जलसे की जगह पर इकट्ठा थे। माइक पर दिल्ली से आए पत्रकार पर्वतारोहियों के विषय में बोल रहे थे। जब उसकी बारी आई वह अपनी कुर्सी से उठी

‘ रुकिए महोदय”

सभा में सन्नाटा छा गया। उसके गांव के लोग भी सकते में आ गए ।जाने क्या कहने वाली है यह ।

वह मंच की सीढियाँ चढ़कर माइक तक पहुँची

” महोदय ,क्या मैं कुछ निवेदन कर सकती हूँ।”

क्यों नहीं, आप तो विजेता पर्वतारोही दल के साथ हिमालय की चोटियों से लौटी हैं। आपके इस अभियान पर हम गौरवान्वित हैं कि तराई के एक छोटे से गाँव की …….

“यही तो मैं कहने आई हूँ महोदय ।मैं हिमालय की चोटियों पर पताका फहराने नहीं गई थी ।न ही मेरा नाम एवरेस्ट विजय में शामिल करें। मैं तो अपनी देवभूमि हिमालय पर से कचरा हटाने गई थी। आप विजय पताका फहराते हैं पर हिमालय की चोटियों पर कितना कचरा फैलाते हैं। इसी कारण तो हमारी देव नदियां मैली हो रही है।” सहसा सभागृह उसके नाम की जय जयकार से गूँजने लगा ।पर्वतारोही नजरें नीची किए बैठे थे और वह फूल मालाओं से लद चुकी थी ।

गरीब की बरसात

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रिमझिम फुहारों से भीगते  जामुन, इमली और नारियल के पेड़ों को वे बालकनी में खड़ी अपलक निहार रही थीं। ठंडक बढ़ गई थी। हवाएं भी तेज हो गई थीं। बालकनी से अंदर वे अपने कमरे में आ गईं और रात को अधूरी पड़ी किताब उठाकर आराम से सोफे पर बैठ गईं।पांव सामने रखी तिपाई पर पसार दिए ।

“मैं जाऊं दीदी ,बरसात तेज होती दिख रही है।”

” अरे वाह इतने सुहावने मौसम में पकौड़े नहीं खिलाएगी?”

” दीदी देर”

” देर वेर कुछ नहीं ।जा गोभी, आलू, प्याज के मिक्स पकोड़े बना ।साथ में फेंटी हुई कॉफी।” 

और वे किताब के पन्नों में खो गईं। रिमझिम फुहारें पेड़ों से गुजरती मधुर ली में उन तक पहुंच रही थीं। विकास के साथ कितनी ही बरसातें इस तरह सड़क पर भीगते हुए…… समंदर की इठलाती लहरों में अठखेलियां करते गुजारी हैं ।अब विकास तो लंदन में….. और वे यहां एकाकी ……. 

बारिश तेज हो गई थी ।उन्हें पता ही नहीं चला कब सड़कें पानी से लबालब हो गईं। वे तो गरमा गरम पकौड़े और कॉफी के साथ बारिश का मजा ले रही थीं।

 तभी डोर बेल बजी।

 “आई, घर चल ।नाले का पानी घर में घुस आया है। बिस्तर, चटाई पानी में तैर रहे हैं। राशन के कनस्तर घर के बाहर बह कर आ गए हैं।”

” अरे तू काहे को आया रे ।पता तो है गरीब के घर बरसात ऐसे ही आती है।

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अपने समय को प्रत्यक्ष करती लघुकथाएं

लघुकथा के इतिहास में 90 का दशक स्वर्ण काल रहा है ।90 के दशक के पूर्व लघुकथाओं में व्यंग्य एक अनिवार्यता के रूप में लिया जाता था। उसके पश्चात इस अनिवार्यता को नकार दिया गया और यदि किसी लघुकथा में स्वाभाविक रूप में आया तो उसका स्वागत भी किया गया ।ऐसे ही समय में एक नाम सामने आया जिसका नाम संतोष श्रीवास्तव है। संतोष मुम्बई में रहा करती थी और उनकी व्यंग्यपरक लघुकथा “गलत पता” काफी चर्चित हुई थी। इस लघुकथा में एक भिखारी मंदिर की सीढ़ियों के पास कथडी बिछाकर कटोरा रखकर बैठ जाता है और आने जाने वालों से “भगवान के नाम पर इस भूखे मोहताज को कुछ देते जाना ऐ सेठ, ओ माई ।”

परन्तु सुबह से शाम हो जाने पर जब वह अपना कटोरा देखता है तो उसमें थे मुट्ठी भर चावल और ₹2 । वो वहां से उठकर हताश निराश चल पड़ता है।चलते चलते उसे एक स्थान पर रोशनी दिखाई पड़ती है । वह एक शराबखाना था। वह वहीं कटोरा रखकर बैठ जाता है। यहां उसके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता जब उसका कटोरा सिक्कों से भर जाता है। आसमान की ओर देखते हुए उसके मुंह से निकलता है -“वाह भगवान रहते कहीं और पता कहीं और का बताते हो।” यह अंतिम वाक्य व्यंग्य परकता लिए हुए लघुकथा को ऊंचाइयों तक पहुंचा देता है ।इसमें जो व्यंग्य आया है वह इतने स्वाभाविक ढंग से आया है कि लघुकथा के प्राण बन जाता है।

संतोष की यह विशेषता रही है कि विषय के स्तर पर उनकी लघुकथाओं में प्रशंसनीय विविधता है जिसे हम उनकी विभिन्न लघुकथाओं में देखेंगे और विचार करेंगे।

“तेल के कुएं “इस लघुकथा में जीवन की सच्चाई और व्यावहारिकता को महत्व देने का प्रयास है जिसे प्रतीकों के माध्यम सहित स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। जीवन की सच्चाई एवं व्यवहारिकता यह है कि पानी हमारा जीवन है ।इसके बिना जीवन असंभव है ।इससे हमें ऑक्सीजन मिलती है तथा कृषि को जीवन मिलता है। तेल पेट्रोल से हमें पैसा मिल सकता है किंतु पानी हमारा जीवन है ।अतः तेल पेट्रोल की अपेक्षा पानी हमारे लिए अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण है। इसमें यह स्पष्ट करने का प्रयास है कि व्यवसाई लोग जो धरती से तेल की आस लगाए बैठे थे निराश हो जाते हैं। पानी निकलता देख कृषक पात्र प्रसन्न हो जाता है । वो खुशी से चिल्ला उठता है

” तेल से भी कीमती पानी! पानी के छह कुँए। वह ऊपर हाथ उठाकर चिल्लाया “वाह भगवान देते हो तो छप्पर फाड़कर। “

यह एक विचारोत्तेजक लघुकथा है जो बढ़ती धन लिप्सा प्रवृत्ति पर बहुत ही सलीके से प्रहार करती है

संतोष की एक और महत्वपूर्ण लघुकथा है विभीषण विश्लेषण जिसमें इसका शीर्षक इस लघुकथा के भाव को स्पष्ट करता है कि घर का भेदी लंका ढाए।  इसे प्रतीकों के माध्यम से लेखिका ने अपनी अभिव्यक्ति प्रदान की है। इसी में एक अन्य संदेश भी परोक्ष रूप से संप्रेषित हो रहा है कि घमंड का सिर सदैव नीचा होता है। वह चाहे बरगद जैसा विशाल व्यक्तित्व ही क्यों न हो। इस लघुकथा की यह पंक्तियां इस बात को प्रत्यक्ष करती हैं” सही कहा बरगद दादा ,तुम्हें धराशाई करने के लिए ही तो तुम्हारी बिरादरी का इस्तेमाल तुम्हारे खिलाफ करती हूं ।”और उसने मुग्ध दृष्टि से अपने लकड़ी के बेंट को निहारा। बरगद शर्मिंदा था । इस लघुकथा में यदि और गहराई तक डूबें तो यह आज की गलीज राजनीति पर भी कटाक्ष करती प्रतीत होती है ।की कैसे आज के नेता विपक्षियों के विरुद्ध उन्हीं के सदस्यों को तोड़कर यानी अलग करके उन्हीं का दुरुपयोग उनके विरुद्ध करते हैं ।यानी यह बहुआयामी लघुकथा जीवन के अनेक पक्षों को उजागर करते हुए शुभ संदेश देती है कि अपने घर परिवार दल और देश के प्रति सदैव ईमानदार हो। आपस में चाहे जितने भी मतभेद हो शत्रुओं के साथ न मिलो। उन्हें सहयोग न करके सदैव अपने घर परिवार एवं दल के प्रति समर्पित एवं निष्ठावान रहो।

संतोष की लघुकथा में पर्याप्त विषय वैविध्य है। इस विविधता के दर्शन उनकी लघुकथा ,”सीधी रेखा” में भी होते हैं ।यह ऐसी नायिका पर केंद्रित लघुकथा है जो अपने पिता की गंभीर बीमारी के कारण है सहज ही  असहज हो गई है ।स्क्रीन पर पापा के दिल की धड़कनों का उतार-चढ़ाव देखती है जो धीरे-धीरे रुक कर एक सीधी रेखा में बदलता प्रतीत होता है। इसी मनोविज्ञान के कारण ही इस लघुकथा की नायिका पदमा श्रेष्ठ चित्रकार होते हुए भी आवश्यकता अनुसार सीधी रेखा नहीं खींच पाती है। वह जब भी खींचती है तो अपने पिता के दिल की धड़कनों के उतार-चढ़ाव सी टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं खींचती है जो उसे सीधी प्रतीत होती हैं।

लघुकथा में नायिका की मां और उसकी शिक्षिका कल्पना सकारात्मक एवं प्रस्तुत लघुकथा के लिए सटीक एवं उपयुक्त भूमिका का निर्वाह करते हुए नायिका पदमा को सही राह पर ले आती है ।संतोष अपने लेखन में इस प्रकार गंभीर हैं कि उनकी प्रायः लघुकथाएँ बिना गंभीर चिंतन मनन के सहज संप्रेषित नहीं हो पाती। वस्तुतः लेखिका की सोच यह है कि पाठक को लघुकथा को आकार की दृष्टि से लघु होने के कारण अन्य विधाओं से किसी भी अर्थ में कमतर नहीं समझना चाहिए। अपितु उस पर गंभीरता से चिंतन मनन करना चाहिए।

इस लघुकथा की यह पंक्तियां संप्रेषण के संदर्भ में बहुत अधिक महत्व रखती हैं ।पदमा के पापा जब आईसीयू में थे तो पद्मा ने अपने पापा को जीवन के लिए जूझते हुए देखा ।उसने स्क्रीन पर पापा की दिल की धड़कनों का उतार-चढ़ाव देखा जो धीरे-धीरे रुक कर एक सीधी रेखा में बदल गया। इसकी श्रेष्ठता में इसकी प्रतीकात्मकता  के अतिरिक्त इसकी सटीक भाषा शैली और शीर्षक की अति महत्वपूर्ण भूमिका है।

किसी भी विधा का सृजन हो उसमें अपने समय की के सच की अभिव्यक्ति अनिवार्य है ।संतोष ने अपनी प्रत्येक लघुकथा में इस बात का ध्यान रखा है। उनकी एक लघुकथा ,”कलेजे में धुँआ “है जिसमें नशे में चूर होती युवा पीढ़ी को केंद्र में रखकर नशाखोरी का विरोध बहुत ही कलात्मक ढंग से किया गया है। इस लघुकथा में इकलौते पुत्र के पिता की गहरी पीड़ा को प्रत्यक्ष किया गया है। जो पुत्र लिख पढ़ तो नहीं सका अपितु नशीले पदार्थों के धंधे में लिप्त होते हुए स्वयं भी नशे में डूब गया। इस लघुकथा में बेटा अपने वैसे पिता के हाथ में नशीले पदार्थ की पुड़िया दे जाता है जिसने कभी मानवता सच्चाई एवं ईमानदारी की राह नहीं छोड़ी। पिता को बेटा कहता है 

“कोई इन्हे लेने आएगा तो पैसे लेकर दे दीजिएगा। “

अगले दिन एक व्यक्ति लेने आता है। किन्तु वह एक ही थैली ले जाता और एक के ही पैसे दे जाता है । जब वो चला जाता है तो पिता के हाथ से बची थैली और उस व्यक्ति द्वारा दिए गए वैसे भी गिर जाते हैं ।ऐसी स्थिति में पिता अपने को असहाय और असहज महसूस करता है। संतोष ने पिता का चरित्र ऊंचा उठाने एवं लघुकथा को सकारात्मक उद्देश्य तक पहुंचाने हेतु इन पंक्तियों का खूबसूरत सहारा लिया। पिता ने गिरे हुए नोटों में से एक नोट पर फर्श पर बिखरा पाउडर समेटा और सिगरेट की तरह गोल करके होठों पर रखकर माचिस की तीली दिखाई।

पिता ने ऐसा यह सोचकर किया कि किसी के तो कलेजे को छलनी करेगी यह बची थैली। इस लघुकथा में शिल्प एवं कथानक दोनों ही एक-दूसरे के अनुकूल हैं । जिससे यह लघुकथा श्रेष्ठता की श्रेणी में सहज ही चली आई है।

कथनी करनी के अंतर को लेकर असंख्य लघुकथा कारों ने असंख्य लघु कथाएं लिखी हैं। उन लघुकथाओं में से कुछ ऐसी ही लघुकथाएं पढ़ने में आई है जो अपनी श्रेष्ठता ,कथानक के सटीक शिल्प के कारण बखूबी सिद्ध करती है ऐसी ही कतिपय श्रेष्ठ लघुकथा है “लोटा”  इसमें शिक्षक बच्चों को पढ़ाते हुए कहता है -” चोर डाकू जन्मजात नहीं होते ।हमारा समाज और घर का विपरीत वातावरण ही चोर डाकू पैदा करता है।” और इस संदर्भ में वह डाकू मंगल सिंह की कहानी सुनाता है ।जिसमें वह बचपन में स्कूल से किसी सहपाठी की पेंसिल ले आता है तो उसकी मां उसे कहती है अब ले आता है । चुपचाप रख ले ,किसी को बतइयो मत”

धीरे धीरे वह डाकू बन जाता है। ऐसा वातावरण ही सारी बुराइयों की जड़ है। यही शिक्षक जब घर पहुंचता है तो बेटे के हाथ में मुरादाबादी लोटा देखता है। वह अपने बेटे से पूछता है” कहां से लाया?” वह संकेत करते हुए बताता है अपने कुँए का पानी पीने आए थे जाते-जाते लोटा भूल गए। दौड़कर दे आऊँ। ” यह  शिक्षक अपने बेटे से कहता है” चल अंदर चल बड़ा हरिश्चंद्र बनता है ।” संतोष ने इस लघुकथा के माध्यम से कथनी करनी का अंतर बहुत ढंग से समझाते हुए ऐसे लोगों पर गहरा कटाक्ष किया है जो पाठक के हृदय में गहराई तक जाकर चुभ जाता है ।यही भाव लघुकथा को ऊंचाइयां प्रदान कर जाता है।

आजकल प्रेम विवाह कोई बड़ी बात नहीं है । किंतु यह सब धनाढ्य परिवारों में होता है। गरीब सवर्ण अभी भी प्रेम विवाह पसंद नहीं करते। इसी विषय पर चोट करती संतोष की एक लघुकथा “एहसास” है जिसमें एक गरीब ब्राह्मण की मंझली बेटी अग्रवाल जाति के लड़के से शादी कर लेती है। इस पर मां बिगड़ते हुए कहती है “अरे इससे तो कुँए खाई में डूब मरती कुलच्छीनी,कुलतारिणी मेरा जन्म ही  अकारथ कर दिया।” इस पर उसकी बड़ी बेटी कहती है “अब शादी कर ही ली है तो रोने कलपने से क्या फायदा।” छोटी लड़की जिसने गुप्त रूप से साहू जाति के लड़के से विवाह कर लिया था। किंतु बड़ी बहन इस रहस्य से अवगत थी ।उसने भी अपनी बहन का सहयोग करते हुए इस विवाह को गोपनीय ही रखा था किंतु मां के उत्तेजित स्वरों ने छोटकी को विचलित कर दिया तो उसने कहा “अकरथ क्यों किया अम्मा? क्या अपना घर बसाना अपनी जिंदगी जीना  गुनाह है?”

छोटकी और बड़की की आपसी मंत्रणा के पश्चात छोटकी ने अपने विवाह की घोषणा कर दी क्योंकि अब उसके पति की नौकरी लग गई थी। किंतु इस बार आशा के विपरीत माँ न रोई न कलपी अपितु कॉपियां जांचती बड़की के आगे से कॉपियां खींचते हुए -“तुमसे तो इतना भी नहीं हुआ कि किसी को पसंद कर शादी कर लेती ।जानती तो हो कि बात में कूवत नहीं।

यह अंतिम भाग  ही पूरी लघुकथा का आधार है ।जिस पर यह लघुकथा अपनी श्रेष्ठता के साथ खड़ी प्रत्येक पाठक को संदेश बहुत ही करीने से प्रस्तुत कर रही है ।इसका शीर्षक भी अपनी सार्थकता पूरी तरह सिद्ध करता है। संतोष की एक अन्य विशेषता यह है कि वे समय के साथ साथ चलना पसंद करती हैं। यह मैं नहीं उनकी लघुकथाएं बोलती है। इस संदर्भ में उनकी लघुकथा सन्तुष्टि का सहज ही अवलोकन किया जा सकता है कि किस प्रकार आज का लगभग प्रत्येक व्यक्ति बेईमानी की राह पर शान से चलते हुए गर्व का अनुभव करता है। नायिका को टिकट की खिड़की से मिले शेष पैसों में पांच का खोटा सिक्का मिला जिस पर उसकी दृष्टि बाद में पड़ी। जब इत्मीनान से गाड़ी की सीट पर बैठ कर उसे पर्स में डालने लगी तो उसके मुंह से अकस्मात निकला “हद है बेईमानी की।” आगे चलकर  अमरुद बेचने वाली को पांच का सिक्का मिला कर दस रुपये देते हुए खरीदे गए अमरूदों में से एक बड़े अमरुद को काटकर नमक लगाने को कहती है लेकिन अमरुद बेचने वाली के हाथ से छूटकर उसकी टोकरी में गिर जाता है। तो अमरुद वाली बिना ध्यान दिए एक दूसरा अमरुद लेकर उसे काटने लगती है ।  हालांकि अमरुद बेचने वाली के हृदय में ऐसा कोई बेईमानी का भाव न था ।वही कहावत यहां चरितार्थ होती है कि चोर की दाढ़ी में तिनका क्योंकि उसने उसे खोटा सिक्का दिया था उसे लगा कि उसे बेईमानी के तौर पर वह दूसरा अमरुद दे रही है। तात्पर्य यह है कि वर्तमान में प्रायः आदमी एक दूसरे को ठगने लूटने में लगा है ।

परोक्ष रूप से दिल मिला देने वाला व्यंग्य लिए यह लघुकथा किसी भी पाठक को आत्मचिंतन हेतु विवश कर देती है। यही इस लघुकथा की विशेषता है कि अपने समय को व्यंग्यपरक शिल्प देते हुए आज के समाज का सटीक चित्रण करती है ।इसका शीर्षक भी व्यंग्यपरक है जो बार-बार पढ़ने वाले को झिंझोड़ता है ।

आज का युग निर्विवाद रूप से अराजकता का युग है। वह क्षेत्र चाहे राजनीति का हो,व्यवसाय का हो अथवा समाज का कोई भी क्षेत्र हो आज का समय भ्रष्टाचार एवं अराजकता में पूरी तरह डूबा हुआ है

इसके साक्षी तमाम संचार माध्यम है जिससे हमें अपने समय की पूरी पूरी जानकारी मिलती रहती है 

।विशेष अपराधों से समाचार पत्र भरे पड़े रहते हैं ।उनमें बलात्कार और हत्या के समाचार प्रमुख हैं ।ऐसी स्थिति में संतोष जैसी प्रखर लेखिका कैसे चुप बैठ सकती थी ।अन्य जागरूक साहित्यकारों की भांति उसने भी अपनी लघुकथा में इन विषयों पर केंद्रित लघुकथाएं लिखी है ।विशेष रूप से उल्लेखनीय कथा ” डर “में

एक  वर्ष 9 वर्ष की लड़की की मां के भीतर सहज उपजे डर की कथा है

चंदा को रोटी सेकते हुए महेश एक 8 वर्षीय बच्ची के साथ हुए बलात्कार एवं बाद में उसकी हत्या के विषय में बताता है। वह कहता है “और तो और मंदिर में हुआ यह सब। वह भी 7 दिनों तक।” चंदा के कानों में महेश के शब्द जैसे 

जी रहे थे 

और उसकी बेटी मुनिया महेश  को दौड़ दौड़ कर रोटी परोस रही थी । महेश खाना खाकर अपने काम पर चला गया। 

चंदा की आंखों में मुनिया को लेकर डर समा गया था । मुनिया जब मां से खेलने हेतु बाहर जाने को पूछती है तो वह झुंझलाते हुए मुनिया को अपने से चिपका लेती है ।

मां के इस बदले व्यवहार को देखती हुए मुनिया सोचती है। कि आज माँ को क्या हुआ ? मुनिया का यह सवाल दीवारों से टकराकर लहूलूहान था। 

यह वाक्य इस लघुकथा को अपनी प्रतीकात्मक भाषा के कारण कलात्मक बना देता है। वस्तुतः यही वाक्य इस लघुकथा की आत्मा है जो किसी भी पाठक को जहां स्तब्ध करता है वही यह सोचने पर विवश भी करता है कि यह भ्रष्टाचार एवं अराजकता जो अपने चरम को स्पर्श कर रही है कभी उसका डाउनफॉल भी होगा।

संतोष की लघुकथाओं को पढ़कर मैं इस निष्कर्ष पर आ पहुंचा हूं कि उनकी लघुकथाओं को गंभीरता से लेने तथा उनका मूल्यांकन करने की आवश्यकता है कारण विषय वैविध्य और समसामयिकता के प्रति लेखिका की गंभीरता जहां प्रशंसनीय है वहीं इनके विषय का प्रतिपादन एवं सुशिल्पन किसी को भी सहज आकर्षित करता है।

मैं संतोष के लगातार निर्बाध रूप से बढ़ते कदमों को लघुकथा के शिखर तक पहुंचने की अपेक्षा करता हूं ।मुझे विश्वास है वह दिन दूर नहीं जब संतोष भी लघुकथा को विकास देने वालों में पहली पंक्ति में होगी ।

  • सतीश राज पुष्करणा

गलत पता

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वह अपनी फटी कथड़ी और तुचका कटोरा लिए नीम की छाँव से लंगड़ाता उठा ।दूर पहाड़ी पर मंदिर का झंडा लहराता देख आस बंधी।” मंदिर!! भगवान का घर!! वाह ,आज तो थोड़ी ही देर में भरपेट खाना खाऊंगा ।”

वह बड़ी आशा से मंदिर की सीढ़ियों के पास कथड़ी बिछाकर कटोरा रख बैठ गया।

” भगवान के नाम पर इस भूखे मोहताज को एक पैसा देते जाना, ऐ सेठ ,ओ मांई।”

 सुबह से शाम हो गई अंधेरा घिरने लगा। भक्तों की भीड़ इक्का-दुक्का में बदल गई ।उसने कटोरा टटोला ।बस एक मुट्ठी चावल और 70 पैसे।  दिन भर चिल्लाते रहने का इतना ही प्राप्य। थके कदमों से वह पहाड़ी से नीचे उतरा। प्यास के मारे गले में कांटे उठ रहे थे। पेट अलग भट्टी की तरह सुलग रहा था ।निराशा, थकन ,भूख और प्यास के मारे चला नहीं गया। फिर भी वह लड़खड़ाता चलता ही रहा। एक जगह से मद्धिम सी रोशनी  देख उसने आंखें फाड़ी। वह एक शराबखाना था। लोग आ जा रहे थे। सामने ही एक आदमी उबले मसालेदार चनों का खोमचा लिए खड़ा था ।उसने पूरी रेजगारी के चने लिए और वहीं बैठ कर हबड़ हबड़ खाने लगा ।बीच-बीच में कटोरे से टकराते सिक्कों की आवाज उसने सुनी ज़रूर पर तब तो बस चने थे और वह था। खोमचे वाले ने बीड़ी सुलगाई तो उसे भी एक दी। वह धीरे-धीरे बीड़ी पीता रहा। पीकर उसने जाने के लिए कथड़ी,कटोरा उठाया। तभी एक और सिक्का कटोरे में गिरा। उसने आश्चर्यचकित हो सिक्कों से भरा कटोरा कथड़ी पर पलट दिया। एक,दो,तीन …ओह पूरे तीस रूपये। विभोर हो उसने अंधेरे आसमान पर अपनी चमकती आंखें गड़ा दी ।

“वाह भगवान …. रहते कहीं और हो, पता कहीं और का बताते हो ।”

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तेल के कुएँ

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चेतू आँखें मल मल कर  सपने के बारे में सोच रहा था। रात उसे सपना आया था कि गाँव के चारों ओर तेल के कुएँ ही कुएँ हैं । वह  दूर-दूर तक चटकी सूखी धरती और धूल मिट्टी के गुबार से भरा हुआ अपना गाँव देखने लगा। गाँव में न कुएँ थे न नदी।पानी के लिए कोसों दूर जाना पड़ता। सरकारी वादे कागजी इबारत बन कर रह गए ।गरीबी भुखमरी ने लोगों के मन से आत्मविश्वास को खत्म कर शक और अंधविश्वास के बीज बो दिए थे । चेतू अपने खेतों की दुर्दशा देख रो पड़ा ।

कैसे हरे भरे खेतों को पाला मार गया। पर्याप्त पानी न मिलने से खड़ी फसल सूख कर धरती में समा गई ।दो वक्त की रोटी जुटाना भी मुश्किल हो गया।  वह अपना सपना सुनाने दौड़ा दौड़ा मंदिर गया। पंडित जी कथा बांच रहे थे। वह उनके सामने साष्टांग लेट गया और एक ही सांस में सपना सुना दिया।

“अरे चेतू सपना तुझे ब्रह्म मुहूर्त में दिखा है। जरूर सच होगा ।”

यानी कि मालामाल होने के दिन आ गए!!!

तेल के कुएँ की बात सुनकर गाँव के लोग कुदाल लेकर खुदाई में पिल पड़े ।पहला कुदाल चेतू का ।हज़ारो हाथों ने मिलकर पूरे दिन में छह कुएँ खोद डाले। पहले तरल सा कुछ निकला। लोग खुशी से चिल्लाए। पर दूसरे ही पल सबके चेहरे बुझ गए। तेल कहाँ!!! यह तो पानी है ।

चेतू खुशी से नाच उठा ।तेल से भी कीमती पानी। पानी के छह कुएँ !! वह ऊपर हाथ उठा कर चिल्लाया 

“वाह भगवान देते हो तो छप्पर फाड़ कर।”

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विभीषण विश्लेषण
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घने जंगल में विशाल बरगद की लकड़ियाँ काटते काटते लकड़हारे को प्यास लगी। वह पेड़ से नीचे उतरा और कुल्हाड़ी को पेड़ से टिकाया ।फिर कटी हुई  लकड़ियों को बटोरकर उसने ढेर बनाया और उस पर कुल्हाड़ी रखकर पानी पीने नदी की ओर चल दिया। दोपहर की गुनगुनी धूप से चमकती बरगद की डालियां इठला इठला कर झूम रही थीं। हवा कभी बरगद पर चढ़ती ,कभी महुआ पर। कभी बेर के कँटीले झुरमुट में समा जाती। बरगद के पेड़ की डालियों को हवा ने खूब हिलाया, खूब झुमाया। सांय सांय की आवाज जंगल में गूँज  रही थी। कुल्हाड़ी को लगा डालियाँ  इठला कर मानो  उसके बौनेपन का मजाक उड़ा रही हैं ।
“अरे ,इतना क्यों इठलाते हो बरगद दादा ,भले ही मैं तुम्हारे सामने तिनका हूँ, पर जब चलती हूँ तो तुम जैसे विशालकाय पेड़ों को पल भर में धराशायी कर देती हूँ।”
बरगद ने अपनी छतनारी डालियों को देखा। कुल्हाड़ी की घमंड भरी बात सुनी, समझी और दूसरे ही पल में अपनी डालियाँ हिला-हिलाकर ठहाके मारने लगा ।
‘अरे बहन ,चलती तो तुम खूब हो। उठती भी बहुत खूब हो ।पर किस के बल पर ? मेरी ही बिरादरी के बल पर न? वह न हो तो तुम काम करने के लायक भी नहीं हो ।”
कुल्हाड़ी बरगद की ऐसी बातें सुन सन्न रह गई ।उसने अपने शरीर में धँसे लकड़ी के बेट पर नजर फ़िसलाई और शर्मिंदा होकर लकड़ी के ढेर में मुँह छुपा लिया।
बरगद जोर-जोर से हंसता रहा। उसकी हँसी जंगल में गूँजती रही और कुल्हाडी पर छुरियाँ चलाती रही। कुल्हाड़ी थोड़ी देर तो मुँह छुपाए रही पर अचानक उसका विवेक जागा। उसने लकड़ी के ढेर से मुँह बाहर निकाला और मुस्कुराते हुए बोली
” सही कहा बरगद दादा ,तुम्हें धराशायी करने के लिए ही तो तुम्हारी बिरादरी का इस्तेमाल तुम्हारे खिलाफ करती हूँ।” कहते हुए उसने अपने लकड़ी के बेट को निहारा ।
अब शर्मिंदा होने की बारी बरगद की थी।

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सीधी रेखा

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तमाम कोशिशों के बावजूद पद्मा सीधी रेखा नहीं बना पा रही थी।

” जब तक तुम्हारा रेखाओं में हाथ नहीं बैठेगा तुम्हारे लिए चित्रकारी सीखना नामुमकिन है।”

वह असहाय नजरों से कल्पना मैडम की ओर देखने लगी। तब तक कल्पना मैडम दूसरी छात्राओं के चित्रों की ओर मुड़ गई थीं। वह जल्दी-जल्दी ड्राइंग कॉपी पर चित्र बनाने की कोशिश करने लगी। चित्र बन रहे थे पर जहाँ सीधी रेखा की जरूरत थी वहाँ उसकी पेंसिल उसकी  विद्रोह पर उतर आती। कल तक सभी  रेखा चित्र बनाकर सबमिट करने हैं। प्रादेशिक डिप्लोमा कोर्स के इम्तहान के लिए ।मगर उसके सभी चित्र सीधी रेखा की वजह से अधूरे हैं।

छात्राओं में उसे लेकर खुसर पुसर चल रही थी ।

“पता नहीं क्या हो गया है पद्मा को इतनी अच्छी चित्रकार और सीधी रेखा पर अटक जाती है ।”

“मुझे तो सनकी नजर आती है।”

“सनकी नहीं अड़ियल ।नहीं खींचनी है मतलब नहीं खींचनी है सीधी रेखा।” कड़वी ,तीखी मुस्कुराहटें, दबी दबी हँसी उसकी ओर रेंगने लगी ।

पद्मा घबरा गई –“ममा, ममा बचाओ।” कल्पना मैडम तेजी से उसकी तरफ आईं।

” क्या हुआ पद्मा ,तुम ठीक तो हो ।”

वह पसीने पसीने हो रही थी। छात्राओं में से एक दौड़ कर पानी ले आई ।उसके चेहरे को छींटों से तरबतर किया। और जल्दी-जल्दी कॉपी से हवा करने लगी।

” तुम्हारी मामा को बुलाया है आती ही होंगी। घर जाकर आराम करो। अभी इम्तहान में पूरा महीना शेष है। सब ठीक हो जाएगा ।”

अचानक कल्पना मैडम को पद्मा के प्रति वात्सल्य और कोमलता से भरा देख छात्राएं विस्मित थीं।  पदमा की ममा आधे घंटे में इंस्टीट्यूट आ गई। “आप लोगों को पदमा की वजह से जो परेशानी हुई उसके लिए माफी चाहती हूँ।अब नहीं होगा ऐसा। है न पद्मा?” कहती हुई ममा उसे घर ले गई। कल्पना मैडम छात्राओं की ओर मुड़ी “कल से कोई भी पद्मा को परेशान नहीं करेगा। “

छात्राएं उत्सुक थीं–” आखिर हुआ क्या है मैडम ?”

कल्पना मैडम ने बताया कि पदमा की माँ कह रही थी कि  पद्मा के पापा जब आई सी यू में थे तो पदमा ने अपने पापा को जीवन के लिये जूझते हुए देखा।  उसने स्क्रीन पर पापा के दिल की धड़कनों का उतार-चढ़ाव देखा जो धीरे-धीरे रुक कर एक सीधी रेखा में बदल गया था। 

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कलेजे में धुँआ
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 वे पेंशन ऑफिस से बाहर निकले ही थे कि चौराहे के मोड़ से बेटा दौड़ता हुआ उनके पास आया और उनके कुर्ते की जेब में प्लास्टिक की थैलियां रखते हुए बोला।
” बाबू आप घर जा रहे हैं, इसे हिफाजत से रखना। कोई आएगा लेने दे देना” और आनन फानन में उड़न छू हो गया। समझ गए दोनों में नशा है ।थैलियों के साथ ही बेटे के लिए देखे ख्वाब भी जेब में सिमट कर रह गए । बेटा पढ़-लिख कर ऑफिसर बनेगा।वे तो जिंदगी भर क्लर्क रहे लेकिन बेटा तो ऑफिसर बने। लेकिन बेटे ने उनकी उम्मीद ख़ाक में मिला दी। पत्नी के देहांत के बाद घर बिखर गया था। बेटा हाथ से निकल चुका था। नशे के धंधे के साथ नशे का शिकार हो चुका था। दो बेटियां बिन ब्याही ।रिटायरमेंट के बाद पेंशन ऑफिस के चक्कर लगाते लगाते ओंकार बाबू के जूते घिस गए थे ।
शाम को दरवाजा खड्का।कहीं पुलिस की रेड तो नहीं? दरवाजे पर एक लड़का खड़ा था। समझ गए। उन्होंने भीतर से लाकर दोनों थैलियां उसे पकड़ाई।
“एक ही चाहिए। दूसरी कल ले जाऊंगा।रूपये गिन लीजिये।”और जवाब का इंतजार किए बिना रफूचक्कर हो गया। रुपए उनके हाथ में तीखा दंश चुभो रहे थे। जिंदगी भर की नेक नामी बेटे ने मिट्टी में मिला दी थी। दूसरी थैली उनके हाथ से फिसल कर फर्श पर गिर कर खुल गई। रुपयों की गड्डी भी नीचे गिर गई ।दोनों बेटियां दीवार से लगी अपने असहाय बाबू को देख रही थी। उन्हें वे इतने असहाय कभी नहीं लगे थे। दोनों ने देखा कि बाबू ने गिरे हुए नोटों में से एक नोट पर फर्श पर बिखरा पाउडर समेटा और सिगरेट की तरह रोल करके होंठों पर रख कर माचिस की तीली दिखा दी।
” किसी के तो कलेजे को छलनी करेगा यह नशा ।”और वे धुंए में डूब गए।
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लोटा

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मास्टरजी बच्चों को पढा रहे थे….”चोर,डाकू जन्मजात नही होते। हमारा समाज और घर का विपरीत वातावरण ही चोर,डाकू पैदा करता है। डाकू मँगलसिंह की कहानी मालूम है तुम लोगों को ,जब छोटा सा था मँगलसिंह तो स्कूल में अपने सहपाठी की सुन्दर पेंसिल देखकर रीझ गया। उसने माँ से वैसी ही पेंसिल की फरमाइश की पर माँ ने ध्यान नही दिया। बालक मन जो ठहरा ….ले आया उठाकर उसकी पेंसिल अपने घर। माँ ने देखा तो बोली…” अब ले आया है तो चुपचाप रख ले किसी को बताइयो मत।

’बस इसी हौसले ने बढते बढते एक दिन उसे डाकू बना दिया। तो बच्चों ऐसा विपरीत वातावरण ही सारी बुराईयों की जड है।“

छुट्टी का घँटा बज चुका था, धोती की चुन्नट सम्हाले मास्टरजी लपक लिए घर की ओर। अभी आँगन का दरवाज़ा पार किया ही था कि छुटका दौडता हुआ आया,उसके हाथ में मुरादाबादी पीतल का कलईदार लोटा था। …”अरे ये लोटा कहाँ से लाया?”

छुटके ने आँगन के पार पेडों के पीछे की पगडँडी की ओर इशारा किया। चार छ्ह ग्रामवासी सिर पर पोटली रखे कतारबद्ध चले जा रहे थे।

“अपने कुएँ का पानी पीने आए थे, जाते जाते लोटा भूल गए,दौडकर दे आऊँ बापू?”

 “चल अंदर …बडा हरिश्चँद्र बना है।“ मास्टरजी ने छुटके को एक चपत लगाई और लोटा लेकर हाथ से तौलने लगे …”पूरे किलो पक्के वजन का लगता है।“           

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एहसास

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 घर में हाहाकार मच गया। दो दिन से गायब मंझली की खबर आई कि उसने चुपचाप  अग्रवालों में शादी कर ली।

 “हे भगवान, बेटा नहीं दिया तो कम से कम मोहल्ले में इज्जत से तो जीने देता। तीन बेटियां और लाचार बाप। पुरोहिताई में क्या इतना पैसा मिलता है कि बेटियां ब्याही जाएं। क्या करे बाप भी।”

 “बस करो अम्मा, रोने कलपने से क्या फायदा ,अब तो शादी कर ही ली न मंझली ने।” बड़की ने स्कूल के लिए तैयार होते हुए कहा ।

“अरे, इससे तो कुए खाई में डूब मरती कुलतारन,कुलच्छनी। मेरा जन्म भी अकारथ कर दिया।”

 अकारथ क्यों किया अम्मा।अपना घर बसाना ,अपनी जिंदगी जीना क्या गुनाह है?”

 छुटकी ने कहा। बड़की ने खामोश नजरों से छुटकी की ओर देखा। छुटकी का कितना बड़ा राज उसके दिल में दफन है। रास्ते में छुटकी ने कहा

 जिज्जी अम्मा को अभी बता देते हैं कि हमने भी महीना भर पहले गौरव साहू से शादी कर ली है ।हम तो गौरव की नौकरी लगने का इंतजार कर रहे हैं।”

 शाम को फिर घर में विस्फोट हुआ। बड़की ने छुटकी की शादी हो जाने की घोषणा कर दी और टेबल पर कॉपियां जांचने लगी। अब की बार अम्मा न कलपीं न रोईं। उन्होंने कॉपियां जाँचती असमय बूढ़ी हुई बड़की के सामने से कॉपियां खींच परे कीं।

” तुझसे तो यह भी नहीं हुआ कि किसी को पसंद कर शादी कर लेती। जानती तो है कि बाप में कूवत नहीं है

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संतुष्टि

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 टिकट खिड़की से टिकट और बाकी पैसे उठाकर वह तेजी से प्लेटफार्म की ओर भागी। चर्चगेट लोकल प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। उसने झपट कर चढ़ते हुए खिड़की वाली सीट ले ली। हाथ में पकड़ा पांच का सिक्का पर्स में रखने के लिए उसने मुट्ठी खोली तो देखा सिक्का खोटा था।

‘ हद है बेईमानी की।’ वह बुदबुदाई।

 “पेरु ( अमरूद)दस का तीन ले ताई (दीदी)।”

 अमरुद लिए एक घाटी( महाराष्ट्र के मूल निवासी) औरत ने आवाज लगाई। उसने पांच के खोटे सिक्के में एक सिक्का और मिला कर 10 के तीन अमरूद ले लिए ।फिर एक बड़ा सा अमरुद उसकी ओर बढ़ाया।

” काटकर नमक लगा दे”

 अमरूद वाली चाकू लेने गेट के पास रखी अमरूद की टोकरी की ओर बढ़ी। कि उसके हाथ से अमरूद छूटकर टोकरी में गिर पड़ा ।उसने वैसा ही दूसरा अमरूद काटा और नमक लगाकर ले आई ।

अमरुद बदल लाई बेईमान जो मैंने छांटा था वही दे।”

 और अपना मनपसंद अमरुद कटवाकर वह मज़े से खाने लगी।

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डर

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“मालूम है आठ साल की बच्ची के साथ छै सात मुस्टंडों ने जबरदस्ती की।”

 चंदा के रोटी सेकते हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए। आग की लपट पूरे शरीर में महसूस हुई।

 “और तो और मंदिर में हुआ यह सब। वह भी सात दिन तक। मंदिर में तो अपराधी को भी पुलिस नहीं पकड़ती। उसके बाहर आने का इंतजार करती है।”

 महेश के शब्द जैसे छन्न छन्न तवे पर गिर रहे थे।  उसकी 9 बरस की बेटी मुनिया महेश को दौड़ दौड़ कर रोटी परोस रही थी।

” नामुरादों ने मजे लेने के बाद पत्थर से उसका सिर कुचलकर सड़क पर फेंक दिया।”

 कहते हुए महेश ने आखरी निवाला मुंह में डाला और काम पर चला गया। चंदा ने मुनिया को अपने से चिपका लिया ।उसकी आँखों में मुनिया को ले कर डर समा गया।

 माँ मैं फुटबॉल खेलने जाऊँ। आज 1:00 बजे से मैच है।”

 “नहीं बंद कर यह वाहियात खेल। लड़कों के संग खेल कर तू बिगड़ती जा रही है ।”

उसने कसकर मुनिया को अपने से चिपका लिया। मुनिया चकित हो चंदा को देख रही थी। आज माँ को क्या हुआ ?

सवाल दीवारों से टकराकर लहूलुहान था।

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संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाओं का मंतव्य

 कितना कठिन होता है किसी रचनाकार की रचनाओं के बारे में लिखना । मैं पिछले कई महीनों और कई हफ्तों से परेशान हूँ , लेकिन संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाओं पर नहीं लिख पा रहा , जबकि उनकी लघुकथाएं एक नहीं , दो – दो बार पढ़ चुका । उनकी लघुकथाओं के बारे में पूरी ईमानदारी से कहा जा सकता है कि वे अपने कथ्य में महत्वपूर्ण लघुकथाएं हैं , जो अपने समय और समाज की जीवन स्थितियों पर पैनी नजर रखती हैं और उन स्थितियों का उद्घाटन बड़े सलीके से करती है । सामान्यतः हिन्दी लघुकथा ने अपने शिल्प , भाषा और शैली पर बात करने की गुंजाइश खत्म कर दी है । फिर भी उसकी प्रविधि का जो चौतरफा गुणगान हो रहा है , उसे कुछ लघुकथा लेखक ही हासिल कर पाये हैं । लघुकथा लिखने की नई से नई तकनीक भी अब नयी नहीं रह गयी है । क्योंकि उसका पिष्टपेषण हो रहा है । दुहराव हो रहा है । फिर भी एक नयी उम्मीद की तरह लघुकथा लेखन की तरफ अब भी देखा जा रहा है , जो कि वह हिन्दी कथा साहित्य के पाठ्यक्रम में शामिल होने के अधिकार को अर्जित कर चुकी है । कुछ योग्य और स्वनाम धन्य लघुकथाकारों का दावा है कि उनकी लघुकथाएं- महाराष्ट्र , गुजरात जैसे अहिन्दी प्रदेशों के विश्वविद्यालयीन हिन्दी पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जा रही हैं । बहरहाल , संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाएं भी महाराष्ट्र बोर्ड के ग्यारहवीं बारहवी की युवक भारती पुस्तक में पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं । यह मेरे लिए कतई आश्चर्य का विषय नहीं है । उनकी लघुकथा हैं भी अपने कथ्य और भाषा तथा शिल्पगत विशेषता में उत्कृष्ट । इनकी दस – बारह लघुकथाएं पढ़कर जाना कि उनमें सामाजिक अन्तर्विरोधों की जबरदस्त पहचान है और उसे व्यक्त करने का अपूर्व कौशल है । ‘ बाजार ‘ , ‘ गिद्ध ‘ , ” कीमती भोग ‘ , ‘ गौमाता ‘ , ‘ काश ‘ , ” उषा की दीपावली ‘ , ‘ अंतिम विदाई ‘ , ‘ गूंगी ‘ , और ‘ आदत ‘ आदि लघुकथाओं से संतोष श्रीवास्तव के लघुकथा लेखन की पड़ताल की जा सकती है । विशेषताओं के मद्देनजर एक खास विशेषता जो यहां उल्लेखनीय है कि वे इकहरी नहीं है । वे अपने दोहरे कथा व्यक्तित्व के कारण शिल्प में अपनी मल्टीपल अभिव्यक्ति में विशिष्ट हैं । इनका भाववादी और यथार्थवादी पक्ष एक – दूसरे के साथ दोनों  अर्थगुंफित हैं- जबकि आम लघुकथाओं में दुहरी कथा – वृत्ति देखने को नहीं मिलती । उदाहरणार्थ- ‘ बाजार ‘ लघुकथा को ही लें । यह लघुकथा दो स्तर पर काम करती हैं । बकरीद का त्योहार है । रहमत अपने छोटे भाई की विधवा जुबैदा से कहता है- ‘ चल तुझे बाहर घुमा लाऊं । बरसों से घर में कैद- होकर रह गई तू । ‘ जुबैदा की कहानी अत्यंत पीड़ादायक है , जिसे लेखिका ने चंद पंक्तिओं में लिख दिया है । 4 साल हो गए वह माँस का रोबोट बनकर रह गई है , जिसने पुकारा हाजिर । ‘ ‘ माँस का रोबोट ‘ शायद यह शब्द ही पहली बार किसी ने इस्तेमाल किया होगा । इसकी अगली कथा में जुबैदा को बाजार में उसके जेठ ने सेक्स दलाली के बीच ला खड़ा कर दिया । अंतिम पंक्ति देखें- ‘ रहमत बकरे की रस्सी पकड़े घर आ गया । बाजार उठ चुका था । शिल्प की यह बारीकी सचमुच देखने लायक है । समाज के ‘ लूपहोलों ‘ पर लेखिका की गहरी नजर है । ‘ गिद्ध ‘ कहानी इस नजरिये से और भी गहरा दखल रखती हैं । ‘ गिद्ध ‘ को कई प्रतीकों और प्रतिमानो में प्रयोग किया जाता है । हालाँकि यह पक्षियों में ‘ रीयर ‘ रह गया है । मगर समाज के कुछ ठेकेदार हैं , जो समाज की सेवा में वृद्धाश्रम ‘ चला रहे तो कोई विधवाश्रम । ‘ गिद्ध ‘ लघुकथा में भी दो कथायें हैं । एक ओर विधवा आश्रम के सर्वेसवा रूस्तम जी का अचानक देहांत हो जाना , दूसरी तरफ साम्प्रदायिक दंगों का भड़क जाना । रूस्तम जी पारसी है- उनकी देह का माँस आखिर गिद्ध ही खायेंगे , मगर साम्प्रदायिक दंगे में तो औरतों का जिन्दा मांस मिल रहा है , नोचने के लिए । अंतिम पंक्ति हैं- ‘ और असली गिद्धों का पहचानना मुश्किल हो रहा था । ‘ इसी प्रकार उनकी अन्य लघकथाओं पर भी बात कर सकते हैं । जैसे कि लघुकथा ‘ कीमती भोग ‘ जिसमें इसकी शुरूआती कथा हिन्दू धर्म के पाखंड का भंडाभोड़ करती है , तो दूसरी धर्म के असली उद्देश्य की मीमांसा करती है । इस लघुकथा में भी दो कथाए हैं । अंतिम पंक्तियों को पढ़कर लघुकथा ‘ कीमती भोग ‘ का निहितार्थ समझा जा सकता है- ” मंदिर के पिछवाड़े के अंधेरे में इसी धन की जगमगाहट है । इस धन से जुड़े हैं बड़े – बड़े अधिकारी , पुजारी , धर्म के ठेकेदार । मूर्ति ने एक आह भरी मुस्कराहट से घंटे की ओर देखा … ” मैं इन धर्म के ठेकेदारों के लिए यहां नहीं हूं । वह देखो मेरा सच्चा भक्त । वह नहीं होता तो मैं खंडित हो पाताल में समा जाती । ” घंटे ने देखा मंदिर के कोने में एक व्यक्ति अपने सामने बैठे भूख से रोते अनाथ बच्चे को दोने में से बूंदी और केले के टुकड़े खिला रहा था । लघुकथा ‘ गौमाता ‘ को देखें या ‘ काश ‘ को सामाजिक जीवन की , घर – परिवार की अंदरूनी स्थितियों को उजागर किया है । उन्होंने यह कहने और बताने का प्रयास किया है कि व्यक्ति दुहरो मानसिकता से अभी मुक्त नहीं हुआ हैं । एक तरफ वह ‘ गौशाला के लिए लाखों रूपये दान दे रहा है और दूसरी तरफ उसकी मां वृद्धाश्रम में बिना दूध और फल फूट के दुबली होती जा रही है । काश ! लघुकथा में और भी दिलचस्प वाकया है । एक औरत है जो विधवा और महिला आश्रम चला रही है । महिला आश्रम चलाते हुए जिन्दगी गुजार दी उसने , मगर अचानक उनके छोटे देवर की मौत हो गई और उसकी देवरानी को उसके पिता ने महिला आश्रम चलाने को वहां इसलिए नहीं छोड़ा , क्योंकि वे अपनी बेटी की शादी करना चाहते हैं । पुष्पा सोचती है कि काश , उसके लिए भी किसी ने ऐसा सोचा होता । संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाओं में एक स्थिति बड़ी निराशाजनक है- कथा में किसी न किसी की मौत का जिक्र जरूर आता है । ये लघुकथायें निराशा और हताशा का वातावरण का निर्माण तो करती हैं , मगर दूसरे क्षण लघुकथा में एक बिन्दु ऐसा भी दिखाई देता है , जिसमें सृजनात्मकता है , उम्मीद है और नवनिर्माण की आकांक्षा । जिन लघुकथाओं में यह सोच विद्यमान है , निश्चय ही वह साहित्य में उनका स्थान ऊंचा है । जैसे कि ‘ उषा की दीपावली ‘ और ‘ अंतिम विदाई ‘ जैसी लघुकथाओं में लघुकथा लेखन के सृजन पक्ष को रेखांकित किया गया है , ‘ उषा की दीपावली ‘ में यह स्पष्ट रूप से लिखा गया है कि दीपावली का उत्साह है चारों तरफ । मगर उसका उल्लास तो और कहीं है । जो दीपावली के दूसरे दिन दिखाई देता है । यह अंतिम पंक्तियों से स्पष्ट हे- ‘ जल्दी जल्दी पकवानों से शैलियां भरी और दौड़ती हुई एक साँस में सीढ़ियों उतर गई … अब वह थी और जमादार की काँपती हथेलियों पर पकवान की थैली । उषा की आखों में हजारों दीप जल उठे । यह वैचारिक आंदोलन और आदमी का आत्म – सौन्दर्य ही लेखक – पाठक के लिए महत्वपूर्ण है कथाकार संतोष श्रीवास्तव की लघुकथाएँ इनसान की बेहतरी के लिए है और उनका लेखन सतत जारी है । यह उनके लेखन का अमीष्ट भी है ।

  • हीरालाल नागर

गिद्ध 
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अनाथ आश्रम में मुर्दनी छाई थी। आश्रम के सर्वेसर्वा सबके चहेते रुस्तमजी यानी अब्बू का अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया था। रुस्तमजी की सबसे लाडली रूपा सहमी हुई उनके शव के पास बैठी थी। सुबह ही तो रुस्तम जी ने रुपा से कहा था “शहर में कर्फ्यू लगा है। बिना दूध की काली चाय पीनी पड़ेगी” चाय पीते हुए ही वे कुर्सी से नीचे गिर पड़े थे……… और अब रुस्तम जी के पार्थिव शरीर पर मसालों का लेप लगाकर दुखमेनाशीनी यानी अंतिम संस्कार के लिए दख्मा( टॉवर ऑफ साइलेंस )पर रख दिया गया ।
रूपा को जैनी समझा रही थी ‘अब्बू महान थे। अभी थोड़ी देर में गिद्ध आएंगे और अब्बू की पार्थिव् देह से अपनी भूख शांत करेंगे ।जैसे जीवित रहते हुए वे हम सबकी भूख शांत करते थे। वे मरने के बाद भी परोपकार कर रहे हैं।”
रूपा आंखें फाड़े आकाश की सीमा नापने लगी। कहीं एक भी गिद्ध न था ।ये अपशकुन कैसा ?
शहर में सांप्रदायिक दंगों की आग चरम पर थी। बेकसूर लोगों की गिनती दंगों में मारे गए लोगों में शुमार होने लगी ।गिद्ध वही मंडरा रहे थे ।कई शरीरों का मांस जो मिल रहा था। दख्मा गिद्धों के भारी पंखों की आवाज से वीरान हो गया था ।औरतों के जिंदा शरीर को भी गिद्ध नोच रहे थे। और असली गिद्धों को पहचानना मुश्किल हो रहा था।
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कीमती भोग 
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दूर पहाड़ी पर सफेद पत्थरों से बना बहुत खूबसूरत और उतना ही पुराना मंदिर आज ज्यादा ही चहल-पहल से भरा है ।सभी जगह चर्चा है कि देवी की मूर्ति की आँख से एक आँसू टपका है ।लोग कयास लगा रहे हैं कि छोटी छोटी कन्याओं से लेकर बड़ी उम्र की औरतों पर हो रहे अत्याचार को देखकर मूर्ति द्रवित है। हड़कंप मच गया ,मेला लग गया ।मूर्ति की आंख में आंसू??? मन्नतों का अंबार लिए लोग कतार में है ।मंदिर का घंटा एक पल भी नहीं रुक रहा है। जय जयकार और घंटे की अनवरत ध्वनि से मंदिर गूंज उठा है। थककर घँटे ने मूर्ति की ओर देखते हुए कहा
” रोको माँ, तुम तो सब जानती हो न। देख रही हो न, उन अरबपतियों को जो करोड़ों का धन चढ़ा रहे हैं ।छोटी बड़ी अभिलाषाओं के लिए तुम्हारे चरणों में धोक दे रहे हैं। तुम्हारी आंख के आंसू लोग अंजलि में ले होठों से लगा रहे हैं। पण्डों को तो देखो। कैसे चढ़ावे पर झपट रहे हैं, फल ,मिठाई और रुपयों को गायब कर रहे हैं। मंदिर के पिछवाड़े के अंधेरे में इसी धन की जगमगाहट है ।इस धन से जुड़े हैं बड़े बड़े अधिकारी ,पुजारी, धर्म के ठेकेदार।”
मूर्ति ने एक आह भरी मुस्कुराहट से घंटे की ओर देखा…..
” मैं इन धर्म के ठेकेदारों के लिए यहां नहीं हूं। वह देखो मेरा सच्चा भक्त ।वह नहीं होता तो मैं खंडित हो पाताल में समा जाती।”
घंटे ने देखा मंदिर के कोने में एक कृशकाय व्यक्ति अपने सामने बैठे भूख से रोते अनाथ बच्चे को दोने में से बूंदी और केले के टुकडे खिला रहा था ।
घँटा चकित था भोग तो चढ़ाया नहीं उसने!! फिर ??
 और मूर्ति अपने कीमती भोग से गदगद।
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गौ माता 
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“गौ माता की रक्षा के लिए हमें ही कदम उठाना होगा ।आखिर हमारी संस्कृति की पहचान ही गौ माता है ।जहां गाय को माता के समान पूजा जाता है ।कितने शर्म की बात है कि हमारी गौ माता आज सड़कों पर लावारिस घूम रही है। कूड़ेदान में मुंह मार कर पेट भर रही है। मैं अपने निजी कोष से दस लाख रुपए गौ रक्षक ट्रस्ट को दान करता हूं ।”
उनकी जय जयकार से हॉल गूंज उठा। मालाओं से वे लाद दिए गए ।अपनी कार तक पहुंचते-पहुंचते जाने कितने कैमरे क्लिक हुए मीडिया के।…… उनके सफेद धोती, कुर्ते, काली बंडी और गांधी टोपी वाले रूप को उनके प्रशंसको ने अपने कैमरे में कैद कर लिया ।एक भव्य मुस्कुराहट सहित वे कार में बैठे ।तभी उनके सेक्रेटरी ने सूचना दी 
‘सर वृद्ध आश्रम में भी आज चेक भेजना है।” “भेजा नहीं अब तक ?”
“आपके साइन का इंतजार है सर ।”
“लाओ अभी कर देते हैं। इस बार फल दूध के ज्यादा रूपये लिखो ।पिछली बार मिलने गया था तो मां कमजोर दिखी थी ।”
उनकी जय जयकार के नारे फिज़ा में अभी भी गूंज रहे थे ।
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काश

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डेंगू से देवर के 30 वर्षीय पुत्र विनय की अकाल मृत्यु से थर्राया उनका ससुराल …… तेरहवीं के कर्मकांड, भोज आदि से निपटते ही पुष्पा के पिता हाथ जोड़कर खड़े हो गए। 

“इजाजत दें, पुष्पा को साथ ले जाने की। “

उन्होंने चकित हो पुष्पा के पिता की ओर देखा —“अरे ,यह क्या कह रहे हैं आप !इस घर की बहू है वह।हमारे साथ महिला आश्रम के कामों में हाथ बंटाएगी।

पुष्पा के पिता उनका बहुत मान सम्मान करते थे। अपने बल पर उन्होंने बाल विधवा होकर भी बड़े साहस, मुश्किलों और लानत मलामत के बाद अपने दिवंगत पति का जायदाद का हिस्सा पाया था। महिला आश्रम खरीदकर उम्र भर का अकेलापन विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं से बांटते हुए गहरी संतुष्टि से वे भरी रहतीं कि कम से कम परजीवी होकर तो नहीं रह रही हैं। पुष्पा के पिता थोड़ी देर खामोश रहे—

”  नहीं बहन जी ,अभी उसकी उम्र ही क्या है !पूरा जीवन पड़ा है। उसके भविष्य का हमें सोचना है ।अभी घाव ताजा है पर समय बीते देर नहीं लगती। भगवान एक दरवाजा बंद करता है तो दूसरा खोल भी देता है।” यानी दूसरा विवाह?? उन्होंने विस्मय  से पुष्पा के पिता की ओर देखा। मन में एक हौल सा उठा ।

काश, उनके लिए भी किसी ने इस तरह सोचा होता ।

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उषा की दीपावली 
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दादी ने नरक चौदस के दिन आटे के दीप बनाकर तुलसी चौरा सहित हर कमरे की देहरी जगमगा दी थी ।घर पकवान की खुशबू से तरबतर था गुझिया, पपड़ी, चाकोली से| मगर दस वर्षीय उषा को तो चॉकलेट और बंगाली मिठाईयां ही पसंद थीं। दादी कहती हैं कि 
“तेरे लिए तेरी पसंद की मिठाई ही आएँगी। यह सब तो पड़ोस, नाते-रिश्तेदारों, घर आए मेहमानों के लिए हैं।”
आटे के दीपक कंपाउंड की मुंडेर पर  जलकर सुबह तक बुझ गए थे ।
उषा जॉगिंग के लिए  फ्लैट से नीचे उतरी तो उसने देखा पूरा कंपाउंड पटाखों के कचरे से भरा हुआ था।
 उसने देखा जमादार उन दीपों को कचरे के डिब्बे में न डाल अपनी जेब में रख रहा था। कृशकाय जमादार कंपाउंड में झाड़ू लगाते हुए हर रोज उसे सलाम करता था ।
“तुमने दीपक जेब में क्यों रख लिए?”
” घर जाकर अच्छे से सेककर खा लेंगे ,अन्न देवता है न।” जमादार ने खींसे निपोरीं।
उषा की आंखे विस्मय से भर उठीं। तमाम दावतों में भरी प्लेटों में से ज़रा सा टूंगने वाले मेहमान और कचरे के डिब्बे के हवाले प्लेटों का अम्बार उसकी आंखों में सैलाब बनकर उमड़ आया। वह दौड़ती हुई अंदर गई । जल्दी जल्दी पकवानों से थैली भरी,और दौडती हुई एक साँस में सीढियाँ उतर गई…. अब वह थी और जमादार की कांपती हथेलियों पर पकवान की थैली ।उषा की आंखों में हजारों दीप जल उठे । 
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अंतिम विदाई 
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जामुन के पेड़ का दिल धक से रह गया। उसकी प्राणप्रिया मधुमालती पास के मौलश्री के पेड़ से जा लिपटी है । पूर्व की लाली अब धीरे-धीरे सुनहली होती जा रही है और पुरवईया के झोंकों में नौजवान मौलश्री के कोमल चिकने पात हवा में सरसरा रहे हैं । मधुमालती सिहर कर उससे कसकर लिपटी जा रही है। उसके बदन पर खिले दूधिया फूल मानो लजाकर घूंघट सा ओढ़ लेते हैं। हताश-निराश वह बुदबुदा उठा ।
“अभी तक तुम मेरी थीं न मधुमालती, पर अब मैं बूढ़ा हो चला हूं ।ठीक ही तो है। अब तुम्हें मुझसे रस रंग कहां से मिलेगा।” 
जामुन ने अपनी सूखी शाखों और तने को निहारा। जिन पर कोटर उभर आये हैं ।उसकी प्यारी मैना और तोते भी मौलश्री की शाख पर बसेरा कर चुके हैं । एक कराह उसके तने से उभरी और उसका रेशा रेशा चरमरा गया। 
हवा के झोंकों ने जामुन की जड़ों को हिला डाला। जड़ें मिट्टी छोड़ रही हैं। अंत निकट है। जामुन दाहिनी ओर झुक रहा है। उसकी शाखे भी चरमरा कर टूट रही हैं ।आसमान मानो धरती पर बिछ गया है जिसके अनंत फैलाव में वह बरसों झूमा है ।
गिरते-गिरते जामुन ने देखा मौलश्री की बांहों में झूमती मधुमालती के फूल उससे विलग हो जामुन के जर्जर तने पर आ गिरे।
“आह मधुमालती, तुम्हारा ये अंतिम स्पर्श…. अब मैं सुख से मर सकूंगा।” 

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गूँगी

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 बड़ी कोठी का राजसी वैभव देख महुआ की हिम्मत नहीं हुई कि वह सोफे पर बैठी निर्मला देवी के प्रश्नों का जवाब दे पाए। निर्मला देवी के सब्र का बांध टूट गया।

” बोलती क्यों नहीं, गूंगी है क्या?”

 उसने हाँ में सिर हिलाया। कैसे बताए कि वह सुन सकती है।बोल नहीं सकती। गले के ऑपरेशन में उसकी आवाज चली गई थी ।कंजर ,बसोडों के टोले की लड़की। दिन भर जंगल में माई बाबू के संग बाँस काटने, छीलने की मजदूरी में जुटी रहती ।ठेकेदार दाँत निपोर कर देखता 

“तेरे गट्ठर में बाँस कम बंधे हैं। सिर झुका, गिनूँ तो कितने हैं।”

 महुआ ठेकेदार की नीयत जानती थी। बाँस गिनने के बहाने ठेकेदार उसके नजदीक आना चाहता है ।

“इतना ढँक मूंदकर क्यों रहती है?  हम से परहेज कैसा?”

 महुआ के कानों में शब्द बरछी की तरह घुसे और आरपार हो गए ।उसने बाँस का गट्ठर उसके पैरों पर पटक दिया। ठेकेदार लहूलुहान हो गया। महुआ जिद कर गंगा मामी के पास मुंबई आ गई। बड़ी कोठी में मामा ही काम पर लगा गया था।

” तुझे छोटी मालकिन की सेवा करनी होगी ।”निर्मला देवी ने कहा ।

उसने हाँ में सिर हिला दिया ।छोटी मालकिन यानी निर्मला देवी के छोटे बेटे की पत्नी ।बेटा रंगीनियों में मस्त रहता। विलेपार्ले में  उसकी रखैल थी। वह आधी रात वहीं गुज़ार कर आता। और छोटी मालकिन की जरा भी परवाह नहीं करता ।वे खामोशी से पति के जुल्म सहतीं।महुआ धीरे-धीरे सब जान गई थी। उसे ताज्जुब होता उनकी खामोशी पर ।उसे ताज्जुब होता कि वह क्यों अपनी जिंदगी एक अमानुष के लिए बर्बाद कर रही हैं। सुबह छोटी मालकिन के शरीर पर उबटन लगाती महुआ ने उनकी हथेली पर उंगली से लिखा ” मैं तो गूँगी हूँ, ठेकेदार के विरोध में कुछ कह न पाई पर आप क्यों छोटे मालिक की ज़्यादतियां सहती हैं? कुछ कहती क्यों नहीं ?

छोटी मालकिन  सन्न रह गईं। वे एकटक गूँगी महुआ को देखती रह गईं। जबकि गूँगी वे खुद को पा रही थीं।

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विशिष्ट पहचान रखती लघुकथाएं

संतोष श्रीवास्तव हिंदी साहित्य के कथा लोक में अपनी अलग पहचान रखती हैं.गद्य साहित्य में उपन्यास ,कहानियों ,आलेख, वृतांत, यात्रा संस्मरण आदि कुशलता से निर्वहन करती आई हैं .लघुकथा के क्षेत्र में भी उंका नाम अपरिचित नहीं है। आप की कथाएं सामाजिक सरोकार से गहरे  जुड़ी हुई हैं.कथाओं में गहनता के साथ शैली की विशिष्टता इन्हें अलग से इंगित करने की क्षमता रखती है.
संतोष श्रीवास्तव  की कुछ लघुकथाएं समक्ष है जिसमें *तीस साल बाद* एक कथा में अल्पसंख्यक समाज की एक ऐसी विसंगति जो भारत जैसे अनेक धर्म, रीति ,रिवाज के मानने वाले देश की एक तरह से एक वर्ग के अधिकारों का हनन है.
विवाह एक समझौता है .हमारी न्याय व्यवस्था में धार्मिक मतानुसार कुछ कानून बनाए गए हैं ,जहां तीन तलाक एक ऐसा विवादित मुद्दा रहा जो कि धर्म विशेष की महिलाओं पर अत्याचार की तरह बरपा रहा .धर्म में संस्कार ,परंपराएं ,रीति-रिवाज़ परिवर्तन मांगते हैं.परिवेश और सामाजिक बदलाव में संस्कृतियाँ निरंतर स्वयं को बदलती रहती हैं .इसी उद्देश्य से तीन तलाक जैसी शरीयत का नाजायज़ प्रयोग कर महिलाओं के साथ अन्याय होता आया है.देश के सर्वोच्च न्यायालय का एक ऐतिहासिक फैसला धर्म विशेष की महिलाओं के हित में आया जो न्याय व्यवस्था की उदारता तथा धार्मिक विशेष की उत्पीड़ित महिलाओं की जीत है.
समाज दो घटकों से मिलकर बना है, जहां एक घटक का पिछड़ापन सामाजिक अव्यवस्था में व्याप्त  करती  है .जैसा कि यह कथा ऐसे ज़ख्मों को कहती है जिसमें मुख्य पात्र की माँ न्याय मिल जाने से स्वयं पर बीते हुए दुख को फिर से शिद्दत से अनुभव करती है .जहाँ भूतकाल अंधेरे से भरा है किंतु भविष्य रोशनी में नहाता दिखाई देता है .इस कथा का उद्देश्य इस वाक्य से पूरा होता है कि “मिठाई का टुकड़ा अम्मा के मुंह में अपनी तकलीफ दे अतीत सहित सहित घुलने लगा”.अतीत की कड़वाहट वर्तमान की मिठास से फीकी पड़ती दिखाई दी .एक महत्वपूर्ण विषय पर सार्थक कलम चलाई गई.
 *असली नशा* बहुत ही रोचकता से गढ़ी गई है .इस कथा की विशेषता इसकी संप्रेषणियता है जो कि कथानक  की शैली का महत्वपूर्ण अंग है .
कथा एक छोटे रेलवे प्लेटफार्म से प्रारंभ होती है रेल के एक अदना से कर्मचारी की कर्तव्यनिष्ठा का उल्लेख बहुत ही खूबसूरती से सांकेतिक रूप से किया गया .अपने कार्य के प्रति उसका समर्पण ही उसे कार्य के प्रति जिम्मेदार बनाता है .मौसम धूप का हो ,बारिश का हो ,चाहे आंधी तूफान का हो ,रेल के ट्रैक पर से गुज़रने से पहले वह लैंपपोस्ट जलाने के लिए मुस्तैदी से खड़ा रहता है .इस कथा में श्रम का महत्व भी दर्शाया गया है .श्रम जब केवल अर्थव्यवस्था के लिए न होकर एक जुनून बन जाए और जुनून भी इसलिए अपने श्रम को महत्वपूर्ण  आँकना.सदियों से कहा जा रहा है कि कोई काम बड़ा छोटा नहीं होता ,यहां पर यह बात लागू होती दिखाई देती है .इस कथा का पात्र जानता है उसका काम कितना महत्वपूर्ण है ,इसलिए वह उसे शिद्दत से करता है .बल्कि अपनी दिनचर्या का एक अंग समझकर करता है .इस बात से भी नहीं चूकता की भरी बरसात में उसे बीड़ी पीने की तलब है और लैंपपोस्ट को भी जलाना है किंतु एक ही दियासलाई से वह दोनों कार्य नहीं कर सकता .वह बीड़ी सुलगाने से अपनी क्षणिक तृप्ति से अधिक अपने कार्य को अहमियत देता है और लैंपपोस्ट जलाकर अपने कर्तव्य के असली नशे को पूरा करता है .कथा की शैली  प्रभावपूर्ण है .रोचकता अंत तक बनी रहती है तथा पाठक श्रम के महत्व को आत्मसात करता है.
इस कथा ने विचलित कर दिया. *आस*  शब्द में कितना कुछ छुपा होता है .
देश में पिछले कुछ वर्षों से युवाओं में विदेश के प्रति जो आकर्षण पनपा है वह हमारी पारिवारिक जड़ों को निरंतर कमजोर कर रहा है .पढ़े-लिखे युवाओं का विदेशों में जाकर स्थापित होना अभिभावकों के लिए अत्यंत दुविधा का कारण है.हमारे समाज में संतति बुजुर्ग मां-बाप के साथ रहे तो उन्हें सौभाग्यशाली माना जाता है. परिवार आर्थिक दृष्टि से नहीं वरन संवेदनात्मक  दृष्टि से मजबूत होना श्रेयस्कर है .
इस कथा में भी ऐसा ही कुछ दृष्टिगोचर हुआ.
एक माँ अपने अमेरिका गए बेटे के लिए कुछ सामान सहेज रही है .उन सामानों में वह कूट-कूट कर अपना स्नेह भर देना चाहती है .उसे लगता है यह सामान बेटे के हाथ लगते ही उसका सारा स्नेह उसे मिल जाएगा.माँ के लिए अब यही साधन बचा है  अपने वात्सल्य को पूरा करने के लिए .
कहानी का अंत भीतर तक द्रवित कर देता है जब पिता द्वारा सच छिपाया जाना पता चलता है.
सच बता देने पर पिता का मार्मिक उत्तर की इसी आस पर तो वह जिंदा है कि उसका बेटा जिंदा है .इस कथा की विशेषता इसकी संक्षिप्तता में संपूर्णता है.बहुत ही कम शब्दों में एक मार्मिक कथा बुनी गई जो अत्यंत प्रभावी बन पड़ी.

कभी- कभी पारिवारिक वातावरण को बिगाड़ने और संवारने का श्रेय सदस्यों के हाथों में होता है.अक्सर घरों में सास-बहू की ठनती रहती है.जिसमें यदि बहू सास की पसंद की न हो तो बात और भी बिगड़ने लगती है .घरों में सास और बहू के रिश्तो पर अनेक रचनाएं लिखी गई .यह भी देखा जा रहा है कि जबसे महिला रचनाकारों का साहित्य में सक्रिय पदार्पण हुआ है तब से ऐसे विषय और भी प्रचारित-प्रसारित हुए हैं .कहीं व्यंग्य के रूप में तो कहीं प्रताड़ना के रूप में इस पर लिखा-पढ़ा जाता रहा है .
“करिश्मा” में सास संस्कारी हैं तथा चाहती है कि बहू भी सारे संस्कार सीख जाए ,क्योंकि बहु विदेशी है,जिसकी भाषा तक सास समझ नहीं पाती.केवल हाव-भाव से समझती है कि बहू जरूर  बुरा-भला कह रही होगी .जिसका लाभ परिवार में एक शरारती सदस्य उठाता है और सास को बहू के प्रति और भी भड़काता है.
समाज में भी कुछ ऐसे ही शरारती तत्व होते हैं जो समाज की सुचारू व्यवस्था तथा संवेदनशील मुद्दों पर भड़का कर अव्यवस्था फैलाने का प्रयास करते हैं .
इस कथा में एक नए दृष्टिकोण के साथ कथा की पात्र सास की बेटी सास और बहू के बीच संबंधों को मधुर करने के उद्देश्य से उसके विदेशी भाषा में कहे गए शब्दों को सकारात्मक रूप से अपनी माँ को बताती है.माँ का बहू के प्रति तीक्ष्ण रवैया कुछ नरम पड़ता है और बेटी की युक्ति घर के माहौल को शांत रखने में कारगर सिद्ध होती है और यही अप्रत्याशित *करिश्मा *होता है .कथा में पारिवारिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण हुआ है.

सामाजिक संबंधों के स्वार्थ की की पोल खोलती कथा *दावेदार* ऐसे भयावह सच को समक्ष लाती है जिसमें रिश्तो के स्वार्थ की सँडांध से समाज घुटन महसूस करता है .
एक असहाय स्त्री को जब सहारे की आवश्यकता होती है तो कोई सामने नहीं आता .कोई नहीं चाहता कि एक बेसहारा स्त्री का विपरीत परिस्थितियों में साथ दे दिया जाए.हर व्यक्ति चाहे नजदीकी परिवार का हो या फिर दूर की रिश्तेदारी का असली चेहरा दिखाती है यह कथा .
मन का मन से भावनात्मक संबंध भी इस कथा में उजागर हुआ है ,जो बिना किसी संबंध के जुड़ाव को दर्शाता है.कथा में जहां मानवीय प्रवृत्ति की कृत्रिमता दिखाई देती है वही बेनाम रिश्तो की हकीकत भी.
लालच व्यक्ति का सबसे कमजोर भाव है .इस लालच के पनपते ही नैतिक-अनैतिक की पहचान विलुप्त हो जाती है.केवल स्वार्थ ही दिखाई देता है .
अपने जीवन को अभावों से झेलती अकेली स्त्री की मार्मिक कथा.बहुत कम शब्दों में पूरा जीवन कहने की क्षमता संतोष जी के शब्दों का सामर्थ्य है .
अंतिम पंक्तियां रिश्तो का सच कहने के लिए सटीक बन पड़ी शायद “उनकी रगों का खून पानी बन चुका था”.मुहावरे खून का पानी बन जाना बहुत सटीकता से प्रयुक्त हुआ .कथा का एक अनोखा स्वभाव होता है जो न कहा गया हो उसे भी पंक्तियों के बीच पढ़ने से समझा जा सकता है.
प्यार के कितने ही रूप, कितने ही रंग हैं .प्यार जहां सुखद एहसास है ,वही कचोटता  दर्द भी .कथा *प्यार ऐसा भी*  एक मार्मिक चोट है ,जिस ने बलात्कार किया उसी से विवाह को बाध्य की गई स्त्री के मन पर क्या बीतती है .एक बलात्कारी के साथ पूरा जीवन उसे किस तरह से डसता है .हर बार उस बलात्कारी पति की समीपता उसे अपने ऊपर किये अत्याचार की याद ताजा कर देती है .इस तरह की मन: स्थिति का आकलन सहज नहीं लगाया जा सकता .उसके लिए पूरा जीवन ही प्रताड़ना से भरा हुआ है .
समाज क्यों ऐसे अन्याय करता है यह प्रश्न हर बार खड़ा होता है .
क्या यह उस स्त्री के लिए उचित न्याय है .
बलात्कारी की प्रवृत्ति एक कुत्सित मानसिकता है जिस समय यह वह यह घिनौना प्रयास कर रहा होता  है एक स्त्री के पूरे अस्तित्व को खत्म कर दिया जाता है ,उसका स्वाभिमान, उसका शील, उसका  मन सब जख्मी पड़े होते हैं .
उस पर स्नेह और सहानुभूति के फाहे रखने  की जगह उसी व्यक्ति से विवाह का फैसला कैसे न्याय हो सकता है .
एक ऐसी स्त्री की कथा पति चाहे बलात्कारी ही क्यों न हो उसे आदत हो जाती है .
यहां आदत एक नकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करती है शराब का सेवन और खुद को आग से दागना अब उसे नशे की तरह लगता है .
इस कथा ने भीतर तक विचलित किया.बार-बार उस स्त्री की मानसिक दशा की पीड़ा चित्रित करती है यह कथा एक मनोवैज्ञानिक असर भी छोड़ती है.

*बंद* विरोधाभास जहाँ किसी सकारात्मक पक्ष का नकारात्मक प्रभाव स्पष्ट दिखाई दे ,ऐसी स्थितियों को लिखना कुशल क्षमता का उदाहरण है .
एक गरीब स्त्री जो कि समाज सेवा में संलग्न रही.अपनी पूरी पूँजी गरीबों के उत्थान के लिए दान कर दी .एक तरफ पूजन है उसकी शव यात्रा का, उसके चाहने  वालों द्वारा और एक तरफ एक मजदूर की दयनीय व्यथा जो नगर बंद होने तथा उसके फलों के ठेले को भीड़ द्वारा उलट देने से उत्पन्न हुई ..
एक ओर वृद्धा समाजसेवी की शवयात्रा जा रही हैं तो दूसरी ओर गरीब अपने ठेले से गिरे फलों को बीन रहा है उसे चिंता है कि आज भी वह अपने बच्चों के लिए भोजन की व्यवस्था नहीं कर पाएगा .
एक मार्मिक द्वंद के साथ कई प्रश्न छोड़ देती है यह कथा .
भव्यता क्यों और किस लिए, मृत्यु पर भव्य शव यात्रा आखिर किस वर्चस्व को दिखाती है .
क्या मृतक की इच्छा इस भव्यता को देख सकती हैं अथवा कुछ लोगों के शकल को कहता है यह प्रदर्शन.
समाज सेवी की शव यात्रा की भव्यता और उन्मादी भीड़ यह भी भूल जाती है कि जिस शव यात्रा को ले जा रहे हैं वह उम्र भर केवल उन गरीबों का ही सोचती रही ,जिसके पेट पर आज फिर लात मारती निकलती जा रही है उस की शव यात्रा.
इस कथा में विरोधाभासी दृश्य तथा परिस्थितियों को बहुत ही सूक्ष्मता से दर्शाया गया है .कथा इतनी सरल और सहज है, चित्रात्मकता इतनी उत्तम है कि पढ़ते-पढ़ते पूरी कथा मानो सामने दिखाई देती है.

*रंगभेद* इस कथा की विशेषता इसकी पृष्ठभूमि है.
रंगभेद का दंश न केवल भारतीयों बल्कि विदेशियों ने भी सहा है .
रंग का काला-गोरा होना ही इस भेद का कारण नहीं है , कईं क्रांतियां हुईं वर्ग विशेष को लेकर .
कुछ ऐसे देश जिन्होंने गुलाम बना रखा था ,कुछ अनछुए देशों को जिनकी संस्कृतियाँ सभ्यता के उस पड़ाव तक नहीं पहुंच पाई थी जहां आधुनिकता कुचलना चाहती है नैसर्गिकता को.जहाँ लालच सिर चढ़कर बोलता है ,जहाँ वर्चस्व कायम करने का अर्थ हिंसा है ,हत्या है ,लूट है .चाहे वह भौतिक हो अथवा अभौतिक.
कथा में कहानी के गुण विद्यमान हैं .इसे कुशलता से लघुकथा में समाहित किया गया है .
लघुकथाओं में फ्लैशबैक एक ऐसी प्रक्रिया है जिस का सहारा लेकर आप क्षण विशेष की कथाओं में भूतकाल के संदर्भ को जोड़ सकते हैं.किंतु इसमें भी बहुत कुशलता की आवश्यकता होती है.
संतोष जी की कथाओ में अक्सर फ्लैशबैक प्रक्रिया का प्रयोग होता है जो कथा को कथा ही रहने देता है और लघुकथा की सार्थकता भी पूर्ण करता है .ऐसे ही एक उदाहरण यह कथा है.

*असमंजस* एक और ऐसी कथा जो वर्ग वाद को कहती है.
भारतीय समाज में अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व  रहा है.आज भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया में ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे .
गरीबी और अमीरी का जहाँ चोली-दामन का साथ रहा है ,वही अमीरी  गरीबों को अपना ज़रख़रीद गुलाम समझती है .
इस कथा में एक बड़ा खुलासा हुआ है, जहाँ मालिक के द्वारा नौकर की बेटी का नामकरण करते हुए अपने ही परिवार की किसी वृद्ध का नाम सुझाना और घर की बुजुर्ग का उसे टोकना कि वह एक नौकर को अपने परिवार का सम्मानित नाम कैसे दे सकता है.
कथा का अंत एक रहस्य का उद्घाटन करता है.साम्यवाद विचारों का मालिक कहीं यह अवश्य जानता है कि उसका साम्यवाद उसके व्यभिचार से पनपा है .
समाज में ऐसे कई उदाहरण है जब व्यक्ति स्वयं को न्याय संगत ठहराता  है जिसके पीछे कहीं न कहीं उसका अपराध बोध होता है .
इस कथा में वही अपराध बोध उभर कर आया है.पूंजीवाद और श्रमजीवी के बीच का यह संबंध शोषण व शोषित के समीकरण पर निर्भर है .
शोषण के तरीके  बदले हैं ,प्रवृत्ति नहीं.
कथा असमंजस एक ऐसे रहस्य को अनावृत करती है जिसमें समाज वाकिफ तो है किंतु किंवदंतियों की भांति स्वीकारता नहीं.

*गिरवी* हतप्रभ कर देने वाली कथा .
कथा केवल मॉब लिंचिंग की ही नहीं बल्कि कथा सामाजिक दायित्व की भी है, कथा उन्माद की है, कथा उस विश्वास की है जो लोगों में धीरे-धीरे कम हो रहा है .
हर तरह से यह कथा विमर्श को आमंत्रित करती है.इस कथा का भाव पक्ष जहाँ बहुत मजबूत है वहीं वैचारिक पक्ष भी कम मजबूत नहीं .
मार्मिकता के साथ संत्रास की स्थितियों को एक साथ संयोजित करना तथा  कथा की बुनावट में एक भी प्रश्न अपने में अछूता न रहा हो.
आलोचकीय  की दृष्टि से इसे पूरी तरह सोच विचार कर लिखा गया है .
बड़ी बहन के प्रेम विवाह पश्चात घर वालों का देर सबेर स्वीकारना ,इसके पश्चात बहन के पति का बिना पत्नी के गांव मिलने आना .गांव वालों का उसे न पहचानना और अति उत्साह में विदेश से आए व्यक्ति का गांव के बच्चों में चॉकलेट बाँटना.
कहीं न कहीं इस बात को इंगित करता है कि व्यक्ति में अपने लोगों के प्रति स्नेह  के भाव रखता था, जिन्हें वह सब में बांटना चाहता था .
जैसे प्रेम बांटने से बढ़ता है ,किंतु यहां प्रेम बांटने से उसे नफरत मिली और यह नफरत एक अपराध के रूप में परिणित हुई जो कि कस्बे में सक्रिय रहा होगा.उसके एवज उस विदेश से आए व्यक्ति को बच्चा चोर की गलतफहमी के रूप में चुकाना पड़ा.
अब तक यह कथा सामान्य चल रही है, एक व्यक्ति बुरी तरह भीड़ के द्वारा पीटा जा रहा है और कुछ लोगों द्वारा बीच बचाओ किए बिना उस घटना का वीडियो बनाया जा रहा है .स्वाभाविक सी बात है कि वीडियो बनाने वाले युवा हैं और उस वीडियो को शेयर करके जागरूकता फैलाना  चाहते हैं .
किंतु यहां यह सवाल भी उठता है कि कैसी जागरूकता .
भीड़ द्वारा मॉब लिंचिंग का यह प्रचार नहीं यदि यह प्रचार नहीं तो उन युवकों में उस पीड़ित व्यक्ति को बचाने का ख्याल क्यों नहीं आया.
अर्थात कहीं न कहीं यह प्रत्यक्ष दर्शी युवा भी उस मॉब लिंचिंग में बराबरी में शामिल है.
कथा अपने आप में बहुत प्रश्न छोड़ती  है.
आलोचना की दृष्टि से देखें तो विदेशी व्यक्ति को भी बिना जान पहचान गांव के बच्चों को इस तरह चॉकलेट बांटने की क्या आवश्यकता थी .
जहां तक वह पहली बार गांव जा रहा है बिना अपने ससुराल पहुंचे रास्ते में चॉकलेट बांटने क्यों रुक गया .
आलोच्य की दृष्टि को यदि दरकिनार कर दिया जाए तो यह कथा बहुत से सामूहिक प्रश्न खड़े करती है.
*मौत निश्चित है* कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी के चलते देश के भीतर जबर्दस्त आर्थिक ,राजनैतिक बदलाव आया है .
इस कथा की पृष्ठभूमि बड़े विमर्श को आमंत्रित करती है .
पूंजीवाद की बू आती है इस तरह के पलायन से .इस पर तो पूरे देश का ढांचा ही टिका हुआ है.जिस श्रमजीवी को देश का कर्णधार कहा गया उसको ही इस महामारी में उपेक्षित किया गया.
ह्रदय विदारक समाचार तथा तस्वीरें देखने को मिली पिछले दिनों .
इस कथा का शीर्षक सत्यापित करता है कि महामारी के चलते किस तरह से श्रमजीवी दोहरी मार झेल रहा है .आर्थिक रूप से कमजोर श्रमिक वर्ग जहाँ दो जून की रोटी कमाने प्रवासी होता है वही उसे भूखों मरने पर मजबूर कर दिया जाता है.
इस कथा में ऐसे कई तथ्य है जो सामाजिक विमर्श के विभिन्न विषयों से जुड़े हैं .साहित्य तभी सक्षम होता है जब उसमें विमर्श करने के तथ्य मौजूद हैं अन्यथा वे स्वात: सुखाय बनकर रह जाता है .
इसे समाज का दर्पण इसीलिए तो कहा गया है .
एक लेखक का दायित्व है कि वह समाज के समक्ष सच्चाई रखें .
सड़कों पर उतरते श्रमिक इतिहास रच रहे हैं और यह इतिहास इस कथा में दर्ज हुआ है जो एक दस्तावेज से कम नहीं.

*विडंबना* उत्तम संदेश देती वैचारिक लघुकथा है।श्राद्ध हिंदुओं का एक पवित्र पक्ष है जिसे पूर्वजों को याद करके दान-दक्षिणा आदि देकर मन की शांति के लिए मनाया जाता है.
हमारी भारतीय सनातन परंपरा में बहुत से ऐसे उत्सव, ऐसे विधान है जिनका संबंध सीधे तौर से प्रकृति से है तथा वैज्ञानिक रूप से उनका अपना महत्व है .
किंतु भारतीय संस्कृति की यह परंपराएं किन्ही विद्वान हाथों में आ गई जिन्होंने स्वार्थ सिद्धि के चलते कम लिखे पढ़े मनुष्य में इसे धर्म से जोड़कर बिना तर्क वितर्क के समाज में प्रचारित किया .
इस कथा की नायिका विभा पढ़ी-लिखी  है तथा घर- परिवार, परंपरा का निर्वहन  उसी आधार पर कर रही है .किंतु पति द्वारा उसे संस्कारों का ठीक से न समझ कर केवल दिखावा मात्र करने की उलाहना से उसका व्यग्र होना स्वभाविक है .वह तर्क भी देती है कि कौवों को खिलाने का वैज्ञानिक महत्व है जिसे धर्म से जोड़कर  पूर्णता देने की परंपरा बनाई गई ताकि पर्यावरण  में कौंवे अपना योगदान दे सकें .
इस कथा के माध्यम से समाज की सोच को भी उभारा गया जो केवल धर्म के आधार पर परंपराओं के प्रति रूढ़िवादी है.किंतु उसके असली महत्व को न समझ कर आडंबरों को बढ़ावा देती है .
नायिका पढ़ी लिखी स्त्री  के सुनियोजित क्रियाकलापों को भी ऐसे धर्म भीरु लोग शंका की दृष्टि से आज भी देखते हैं .
अपने उद्देश्य में यह कथा सफल होती है. कथा की भाषा शैली-प्रभावी बन पड़ी है.बहुत कम शब्दों में उत्तम संदेश प्रतिपादित हुआ है.

*बुजदिल*में एक ऐसा विषय जो समाज की धुरि को छूता है.
किसानों की आत्महत्या पर बहुत कुछ लिखा गया.किसानों की आत्महत्याओं के कारण जानकर आश्चर्य नहीं होता अब .
हमें यह अनुभव करने पर विवश कर दिया गया है कि यह गरीब ,बेसहारा और भीरु जाति है, इनका आत्महत्या करना तय है .
भारत की आर्थिक नीतियों में किसानों को क्या स्थान मिला है, किसानों के विषय में क्या सोचा गया है, आज इतने अनुदानों के पश्चात भी किसान को आत्महत्या करनी पड़ रही है. यह विषय वास्तव में चिंता और चिंतन का विषय है.
कथा की कथावस्तु बहुत मार्मिक है ,एक नए कलेवर की कथावस्तु, किसान की बेटी पर केंद्रित है .उसे भय है भीतर ही भीतर कि उसके पिता पर इन आत्महत्याओं का अनुकूल प्रभाव न पड़े ,क्योंकि कमोबेश आर्थिक स्थितियां उसके पिता की भी बहुत नाजुक है .उस पर परिवार के बच्चों की पढ़ाई तथा अन्य जवाबदारियों  का बोझ, बेटियों का भविष्य, पढ़ाने की चिंता ,पत्नी का चिंतित होना समग्र रूप से विपरीत प्रभाव डालता है .
परिवार के प्रति चिंता स्वाभाविक है तथा इन चिंताओं का सबसे सरल उपाय सभी अनिश्चितताओं से उभरने के लिए पिता का आत्महत्या कर लेना और बेटी द्वारा  उसे बुज़दिल कहना भले ही बुरा लग रहा हो .किंतु बेटी नहीं चाहती थी कि पिता इन परेशानियों से डर जाएं .
बल्कि हौसले और हिम्मत से उनका सामना करे, यथासंभव परिवार का साथ तो था ही. पिता का यह रास्ता अपनाना कहीं न कहीं बेटी को भी भीतर तक तोड़ जाता है और वह कह उठती है कि “पिता तुम बुज़दिल निकले”.
एक बहुत ही मार्मिक कथा जिसके माध्यम से किसान के दर्द को भी कहा गया तथा उसके परिवार की परिस्थितियों का भी जायजा लिया गया .
समाज के एक महत्वपूर्ण अंग की यह कथा अवश्य सोचने पर विवश करती है.

  पिछले एक दशक से यह पर सुन रहे  हैं बेटी पढ़ाओ ,बेटी बचाओ .
समाज में आए दिन बलात्कार के मामले बढ़ गए हैं.कोई दिन समाचार पत्र ऐसे समाचारों से अछूता नहीं जाता परिवार में बेटी पैदा होना पहले तो अभिशाप समझा जाता था और अब जहाँ बेटियों को भी पढ़ा कर अपने पैरों पर खड़ा होने का अवसर दिया जा रहा है वहां समाज में उनके प्रति बढ़ते अपराध चिंता जन्य हैं .
आए दिन कोई न कोई ऐसी अप्रिय घटना घट जाती है.जितना समाज संगठित हो रहा है अपराध उतने ही बढ़ रहे हैं .
आंकड़ों की मानें तो स्त्री के प्रति अपराध आधे से भी अधिक आँके गए हैं .
ऐसे में पुरानी परंपराओं पर एक नजर जाती है तब स्त्रियों को घरों में ही कैद किया जाता था .फिर प्रश्न उठता है कि यही विकास क्रम है जिसमें दूर निकल कर कुरीतियों को पुनः अपनाने के लिए एक वर्ग विवश हो जाए ?
जिस तरह इस नारे को बढ़ाया जा रहा है, गांव-गांव में बेटियों को पढ़ाने के लिए लोग आगे आए हैं किंतु ऐसी घटनाएं उन्हें फिर से पीछे धकेलती हैं .
यह एक वैश्विक समस्या है ,स्त्री की अस्मिता को तार-तार करना किस पौरुष का उदाहरण है.
“बेटी पढ़ाओ” में भी एक महिला अपने श्रम से बेटी को शिक्षा देती है किंतु समाज की घिनौनी प्रकृति उससे उसका भविष्य भी छीन लेती है .
ऐसे जाने कितने ही परिवार होंगे जिनको बलात्कार का दंश झेलना पड़ा.
जिस घटना का प्रभाव इस कथा पर पड़ा है ,वह सत्य घटना  है .
लघुकथा सत्य घटनाओं पर आधारित कथावस्तु का खंडन करती है ,किंतु इस घटना का कथानक बहुत ही कुशलता से मोड़ा गया है .
भले ही उस घटना का स्मरण होता है फिर भी उस घटना से इसके संबंध का दावा नहीं किया जा सकता, यही कथा कहने का कौशल है.

*टिप्स लेना मना है*  फिर से मानसिक दृढ़ता की एक कथा। संतोष जी की कलम जब ऐसे प्रश्नों को इंगित करती है तो वह केवल प्रश्न ही नहीं होते वरन् बहुत गंभीरता से दिए गए उत्तर भी होते हैं .
इस कथा के माध्यम से गरीबी और लाचारी के चलते ईमानदारी का अनुसरण ही कथा की खूबसूरती है.
कहीं न कहीं कथा कहने का उद्देश्य भी यही है.
कथाओं का अंत सकारात्मकता के बोध लिए हुए होना चाहिए ऐसा लघुकथाकार कहते हैं .
किसी एक का उल्लेख न करते हुए कहना चाहूंगी कि सुखी अंत का अर्थ यह नहीं कि किसी कथा  में केवल मुस्कान ही होठों पर तैरे.
एक सुखी अंत सुकून भी देने वाला भी होता है.
सामाजिक मूल्यों का सटीक आकलन करने वाला भी होता है ,फिर भले ही उस अंत में कोई टीस ही क्यों न छुपी हो.
जैसे कि संतोष जी की कथाओं में अंत एक टीस तो उत्पन्न करती हैं ,किंतु कहीं न कहीं अपने उद्देश्य में सकारात्मक भी होती हैं.
“टिप्स लेना मना है  में” एक और रमा की मानसिकता उजागर होती है कि वह एक गरीब वेटर को हीन भावना से देखती है ,वहीं दूसरी ओर अंकित के हृदय में मानवता बची है ,जिसके चलते उस वेटर की मदद करना चाहता है ,किंतु बेटर का एक उत्तर के उसके ऊसूलो को स्पष्ट कर देता है .
यहां पाठक की दृष्टि में वेटर महान हो जाता है.महानता बनाई नहीं जाती अर्जित की जाती है.
इस एक घटना ने रमा ने ऐसे लोगों को देखने का नजरिया जरूर  बदला है और यही इस कथा का उद्देश्य भी है.

*तलाश*  कभी न खत्म होने वाली एक तलाश.
ऐसे प्रेम की कथा जो अधूरा रह गया.
कथा के पूर्वार्ध में चित्रण का पूरा कथा पर असर है तथा पिछ्ले वर्ष की वादियों का कोहरा पूरी कथा पर छाया अनुभव होता है .
एक ऐसे हादसे का उल्लेख जिसने प्रेम की बसी -बसाई दुनिया उजाड़ दी .
कथा का तिलिस्म एक बर्फीले तूफान से शुरू होता है और अर्थहीन नीरवता में समाप्त.
इसके बीच की घटनाएं फ्लैश बैक में कही गई हैं.हालांकि उस फ्लैशबैक का कहीं उल्लेख नहीं एक शब्द से उसे फ्लैशबैक में बदला जा सकता है.
बर्फ के पहाड़ों पर पड़ी दरारें बर्फ में छिप जाती है उसमें गिर कर प्राणियों की  वह कब्रगाह बन जाती है.
अनुमान यही लगाया गया  है कि नायक अब लौटकर नहीं आएगा किंतु उसकी तलाश नायिका को अब भी है .
प्रेम का ऐसा रूप श्रंगार रस में विप्रलंभ कहलाता है जिसमें साथी का मिलना संभव नहीं किंतु उसका वियोग विह्वल कर देने वाला है . इस कथा में भी कहानी तत्व की प्रधानता है .
यह कथा काव्यात्मकता के समीप है.प्रेम और वियोग के दृश्यों को बहुत ही सूक्ष्मता से अंकित किया गया है.साथ ही प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन भी बहुत सुंदर संप्रेषित हुआ है.

*निर्णय*  नारी सशक्तिकरण की एक ऐसी कथा जिसमें विवाह के समय एक गंभीर निर्णय लिया गया.अपनी व अपने परिवार के अस्मिता को बचाने के लिए लालची ससुराल पक्ष को सबक सिखाने के लिए एक दृढ़ निश्चय कर शादी के लिए अस्वीकार करना हिम्मत और हौसले का काम है.
कथा का प्रारंभ कोर्ट मैरिज से होता है जहां नायिका अपनी मनपसंद के नायक से विवाह कर रही है.
विवाह के दौरान वह पुराने कटु अनुभव को याद करती है जिसमें उसने लालची बारातियों के संवाद सुनकर विवाह से इनकार कर दिया और अपने जीवन में आगे बढ़ गई थी .
विवाह भारतीय समाज में खासकर स्त्रियों के लिए एक अनिवार्य बंधन है ,परंपरा है.
समाज विवाह को अंतिम सत्य मानता है खासकर एक स्त्री के लिए .
यदि स्त्री अविवाहित है और अपने पैरों पर खड़ी है तब भी उस पर तरह-तरह के लांछन लगते हैं और यदि स्त्री परित्यक्ता है तब तो वह समाज के लिए एक शिकार की तरह हो जाती है .
नारी की विडंबना है कि आज के समय में भी स्वयं सशक्त होते हुए भी उसे समाज की कुछ ऐसी परंपराओं के समक्ष झुकना पड़ता है जिसे हम समझौता कहते हैं .किंतु इस कथा में  उसी समझौते को अस्वीकार करने का साहस दिखाया नायिका ने.वह अपने भविष्य को सुरक्षित करती है तथा ऐसे व्यक्ति से विवाह करती है जो उसकी अस्मिता तथा उसके  परिवार की मर्यादा को सम्मान देता है .
इस कथा के माध्यम से एक ऐसा संदेश उभर कर आया कि आज की नारी के लिए विवाह अंतिम सत्य नहीं है उसके लिए अपने भविष्य को संभालना, अपने पैरों पर खड़े होना सबसे पहले अपने प्रति दायित्व है .
एक बहुत ही अच्छे उद्देश्य से लिखी गई यह कथा.
फिर से इसमें फ्लैशबैक का प्रयोग हुआ और पूरी कथा को फ्लैशबैक के माध्यम से बहुत ही उत्तम तरीके से कहा गया.

*पर्दा गिर चुका था* कथा की शुरुआत एक मंचीय नाटक से होती है .
नायिका मंच पर नाटक देख रही है जिसमें 19वीं सदी का दृश्य दिखाई दे रहा है . जेल के कैदियों को बेतरह प्रताड़ित किया जा रहा है और एक मशाल लिए व्यक्ति दौड़ रहा है .
तभी नायिका अपनी पुरानी दुनिया में खो जाती है.जहाँ उसके प्रेमी की हत्या उसके पति ने की होती है और उसके अपराध में वह जेल में होता है .इस पूरे घटनाक्रम में नायिका को समाज में अपमान सहना पड़ता है .हत्या के अपराध पर भी उसके पति को समाज कुछ नहीं कहता .न ही उसके मृत प्रेमी के बारे से कोई बात होती है .यदि कोई लांछन लगता है तो वह उस स्त्री पर ,उस नायिका पर.
कथा एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव छोड़ती है .कथा का उत्तरार्ध एक तरह से सांकेतिक रूप से कहा गया है, इसी प्रकार का कारावास उस नायिका ने भी भोगा है जिसे वह नाटक के दृश्य में आत्मसात कर रही है और छटपटाहट है उसको उस कारावास से निकल जाने की.स्वतंत्रता की लड़ाई जैसे उसके भीतर भी चल रही है और तब कहीं जाकर उसे एक मशाल नजर आती है और वो मशाल उसके प्रेमी के रूप में साक्षात होती है .
किंतु उस मशाल को भी बुझा दिया जाता है और उसका पति ही इस अपराध में शामिल है .अब उसका जीवन निराधार है .उसके जीवन में कोई भी आशा नहीं बची.वे निराश मन से अपनी बची हुई जिंदगी को समेटने का प्रयास करती है और तभी फिर से मंचीय नाटक का पर्दा गिरते ही वह पुनः अपने वर्तमान में आ जाती है .
यहां पर भी परदा गिरने को उसके जीवन से जोड़ा गया है कि अब उसके जीवन में कुछ नहीं बचा.
एक बहुत ही कलात्मक कथा है यह .
इस कथा में संकेतों का प्रयोग किया गया इस कथा को आत्मसात करने के लिए इसके शब्दों में इस कथा को खोजना होगा,कथावस्तु को खोजना होगा, कथानक को खोजना होगा.

संतोष श्रीवास्तव जी की कथाएं समाज के ऐसे विषयों को छूती हैं जो निरंतर प्रश्न उठाते प्रतीत होते हैं.चाहे वह नारी अस्मिता हो ,चाहे वह किसानों की व्यवस्था हो ,चाहे वह श्रमिकों का जीवन हो, या फिर प्रेम की तलाश हो .
इन कथाओं में जीवन के ऐसे तत्व हैं जिनसे आप बाहर नहीं निकल सकते.कोई न कोई कथा कहीं न कहीं से आपके मन को अवश्य छूती है, क्योंकि ये विषय सामाजिक विषय हैं, जिनका सरोकार प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हर पाठक के साथ है .
संतोष श्रीवास्तव जी की कथाओं का संसार बहुत व्यापक है ,उनके विषय भी विस्तारित फलक के हैं और उनका कहन अद्भुत है .उनकी शैली संप्रेषण से परिपूर्ण है .सबसे महत्वपूर्ण है उनकी कथा में कथानक  बहुत ही कम शब्दों में बहुत कुछ बयान करने का हुनर रखते हैं.
संतोष जी के द्वारा लघुकथाओं के माध्यम से समाज को साहित्य की अनुपम भेंट लगातार दी जा रही है .

  • रूपेंद्र राज

मौत निश्चित है

************

दिहाड़ी मजदूरों के झुंड में वह भी काम मिलने की आस लगाए खड़ा था कि कारखाने और इमारत निर्माण के ठेकेदारों ने सूचना दी 

“घर जाओ तुम लोग और हफ्ता भर निकलना मत घर से। बहुत बुरा समय चल रहा है।कोरोना वायरस के कारण कारखाने बंद हैं। निर्माण कार्य रोक दिया गया है।”

उसने सिर से गमछा खोलकर पेट की कुलबुलाती अंतड़ियों पर कसकर बांध लिया ।महानगर के मच्छर ,कचरे से भरे ,बदबूदार नाले की दीवार से सटे उसके झोपड़े में खाली पेट लिए बच्चे भी तो इंतजार कर रहे हैं थाली में भात का।

इस बुरे समय में मौत निश्चित है ।फिर चाहे भूख से हो या कोरोनावायरस से।

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विडंबना 

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श्राद्ध का पांचवा दिन ।विश्वविद्यालय में पर्यावरणविद, प्राध्यापक  पत्नी विभा ने अपने दिवंगत ससुर के मनपसंद व्यंजन बनाकर पत्तल में कौऔ का ग्रास निकालकर पति से कहा 

“लीजिए  कौऔ  का ग्रास छत पर रख आइए ।फिर पंडित जी आ जाएंगे और मुझे भी यूनिवर्सिटी जाना है।”

“एक दिन छुट्टी नहीं कर सकती तुम? आज का दिन कितना महत्वपूर्ण है।” “

बेशक बाबूजी की स्मृति में हम शाम को झोपड़पट्टी में कंबल बांट आएंगे ।  कौऔ को तो रोज ही खिलाना चाहिए। वह पर्यावरण के कितने अधिक संरक्षक हैं।”

विभा जल्दी जल्दी तैयार हो रही थी। पंडित जी के आने तक रुकेगी तो पीरियड मिस हो जाएगा ।

“अच्छा तो  कौऔ को खिलाने का श्राद्ध से कोई लेना-देना नहीं ?धर्म से उसका कोई संबंध नहीं ?”

“यही तो विडंबना है कि जब धर्म से चीजें जोड़ी जाती है तब उसे लोग मान्यता देते हैं ।शायद इसीलिए इसे धर्म से जोड़ा गया । कौऔ की बीट से ही  पर्यावरण लहलहाता है ।मनुष्य को जीने का ……..

“बस करो विभा ,पुरखों की तोहीन मत करो , मैं करवा लूंगा पंडित जी से श्राद्ध का अनुष्ठान ।वैसे भी जब बाबूजी थे तुमने कौन सा उनका ध्यान रखा ।बेचारे खीर ,हलवा ,लड्डू के लिए तरसते चले गए।

“अरे” चौंक पड़ी विभा। डायबिटीज के पेशेंट के साथ एहतियात बरतने की उसकी  शुभाकांक्षा अवाक थी।

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बुजदिल

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दसवीं कक्षा की अंतर शाला कविता प्रतियोगिता का विषय था “अन्नदाता किसान” कविता लिखते हुए उसकी आंखों के आगे पिता की छवि थी। कर्ज ,गरीबी और जिंदगी की दुश्वारियों का सामना करते करते पिता थक चुके थे । अगर उसकी पढ़ाई फ्री नहीं होती तो छोटी दो बहनों सहित उसका पढ़ना भी मुश्किल था।

इस साल भी फसल ओले और पाला पड़ने से नष्ट हो चुकी थी। ट्रैक्टर खरीदने को लिया कर्ज जीने नहीं दे रहा था ।आए दिन किसानों की आत्महत्या की खबरें……..  वह देख रही थी अपने पिता की आंखों में निराशा ,सूनापन जिंदगी से विरक्ति ।

वह डर गई  थी।

उसने कविता लिखी 

मेरे अन्नदाता /उगाते रहना फसल/ कभी न करना आत्महत्या /जो बुजदिली का प्रतीक है ।

कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पाकर वह खुशी से भर उठी। शील्ड लेकर दौड़ती हुई घर गई ।लेकिन वहां …….कोहराम, मां की हृदय विदारक रुलाई और गमछे में झूलता पिता का शव था।उसके हाथ से शील्ड छूट गई ।वह पिता के पैरों से लिपट चीख कर रो पड़ी 

“तुम बुजदिल हो बाबू ,बुजदिल हो।”

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टिप्स लेना मना है

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सर्व करते हुए लड़के की नजरें गुलाब जामुन और समोसे की प्लेट पर थीं।  “सर चाय भी ले आऊँ?”

” अभी नहीं ,यह खाने के बाद ।”

अमित ने गुलाबजामुन चम्मच से काटते हुए कहा। लड़का आनन-फानन दूसरे ग्राहकों की ओर मुड़ गया।

” तुमने लड़के की ओर देखा। उसकी आँखों में टेंप्टेशन था। नजरें गड़ाए रहते हैं ये, तभी तो रेस्तरां का खाया हजम नहीं होता। “पत्नी रमा ने कहा ।

“गरीब है बेचारा ।तभी तो यहाँ काम करता है ।स्कूल जाने की उम्र है उसकी।” 

अमित ने लड़के को इशारे से बुलाते हुए कहा” दो चाय। और हाँ, चार समोसे और चार गुलाब जामुन भी पैक कर लाओ।”

काउंटर पर बिल चुका कर अमित और रमा गाड़ी की ओर चल दिए ।तभी लड़का दौड़ता आया-“सर आपका पार्सल वहीं छूट गया।” 

ओ थैंक्यू ,तुम्हें सेठ नहीं खिलाता यह सब ।”

“नहीं सिर्फ पगार, कुछ टूट फूट जाए तो पगार में से काट लेता है।”

“क्यों करते हो यह काम? पढ़ाई क्यों नहीं करते? तुम्हारी तो पढ़ाई करने की उम्र है अभी?”

उसने अपनी आँखें रगड़ कर पोछी।

“मेरी बहन अस्पताल में है। उसी के लिए यह नौकरी पकड़ी है। अगर बाबू होते तो यह सब नहीं करना पड़ता। वह लकवा से पीड़ित माँ और बहन के अस्पताल का और मेरी पढ़ाई का सब खर्चा उठाते, पर ……

“चलो अमित क्या पता इसकी कहानी में कितना दम है। नाहक टाइम वेस्ट करने से फायदा ?”

रमा ने बेसब्र होकर कहा। अमित ने पार्सल जबरदस्ती लड़के के हाथ में थमाते हुए कहा-“गॉड ब्लेस यू,इसे

रख लो हमारी तरफ से ।”

“नहीं सर, मेरी ईमानदारी मत डिगाईए। ग्राहकों से टिप्स लेना मना है।”

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बेटी पढ़ाओ

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समाज सेविका राधारानी “शिक्षित बेटी देश की शान” विषय पर भाषण देकर मंच से उतरी ही थीं कि हृदय विदारक सूचना मिली। उनकी एमबीए कर रही बेटी का बलात्कार और फिर…….

उन्हें संभाला उनकी मित्र गीता ने। घर के सामने एंबुलेंस उनकी बेटी की अधजली लाश को पोस्टमार्टम के लिए लेने आई थी। सामूहिक बलात्कार के बाद पेट्रोल डालकर जिंदा जला दिए जाने के बाद फूल सी बेटी का बस चेहरा बच गया था जलने से।

अपनी बिना पिता की बेटी को पढ़ाने के लिए उन्होंने कितने ताने ,कितना संघर्ष झेला था जबकि उनकी सास बिल्कुल नहीं चाहती थी कि बेटी की पढ़ाई पर खर्च हो ।वे तो जल्दी से जल्दी उसका विवाह कर देना चाहती थीं।लेकिन राधारानी अड़ गईं। बेटी को पढ़ाएंगे। लायकवर बनाएंगे ताकि वह जिंदगी का सामना कर सके। उसी के लिए उन्होंने प्रायमरी में अध्यापिका की नौकरी की और अपने खाली समय में समाज सेविका भी बनीं लेकिन  उनके वेतन से पढ़ाई असंभव थी इसलिए  बेटी को कोचिंग की नौकरी दिलवा दी ।

कोचिंग करके लौट ही रही थी वह कि…….

” कहा था , यह शाम की कोचिंग की नौकरी बंद करो। पर नहीं,तुम्हें तो महंगी पढ़ाई करानी थी,भले रात हो जाए लौटने में।  क्या फायदा हुआ इस सब का ?इससे तो अनपढ़ रहती तो जान तो बचती कम से  कम।”

सास के शब्द शूल से चुभे उन्हें। अपनी आंसुओं से भरी आंखें पोछ पूरी दृढ़ता से बोलीं 

“क्या कह रही हैं अम्माजी!! जान बचाने के लिए बेटी को ढक मूंद कर रखती  घर में ।क्या पढ़ने लिखने वाली लड़कियों का ही बलात्कार होता है। पढ़कर बेटियां अपना इंसाफ खुद करेंगी।”

बेटी का शव एंबुलेंस में रखा जा चुका था। सड़क के किनारे होर्डिंग पर एंबुलेंस की हेडलाइट ने रोशनी डाली। इबारत थी “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ।”

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तलाश
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भयंकर बर्फीला तूफान था। 120 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलती बर्फीली हवाएं सुरसा के मुंह की तरह सब कुछ को अपने में दबोचे ले रही थी ।वह बदहवास सी नीरज को पुकार रही थी– ‘नीरज कहां हो …कहां हो तुम.. नीरज …..

बर्फ की सुई सी चुभती बौछारें उसके चेहरे को छीले डाल रही थी। धीरे धीरे उसका शरीर सुन्न हो गया। बर्फ से नीले पडे उसके शरीर को स्ट्रेचर पर लिटाकर बचाव दल वाले अस्पताल ले गए। अस्पताल में वह 4 दिन रही। ऑफिस से सिर्फ 8 दिन की छुट्टियों पर नीरज के साथ न्यूजीलैंड घूमने आई थी। दो दिन भी खुशी के नहीं गुजार पाई कि ये हादसा !!हफ्तों बचाव दल ने बर्फ में दबे जिंदा मुर्दा लोगों को निकाला पर नीरज कहीं न मिला।
नीरज गया कहां …….स्कीइंग करते हुए नीरज उस खोह में समा गया जो पहाड़ो पर बर्फ होने के कारण पता ही नहीं चलती कि कहां है। यही अंदाजा लगाया सब ने ।
कितने साल गुजर गए।नीरज को बेतहाशा प्यार करने वाली रेखा वीरानियों में डूब गई। सांसे तो थी पर जिंदगी नहीं। आज भी आसमान को नजरों में कैद कर उसकी आँखे तमाम पहाड़ों पर नीरज को ढूंढ रही है। उन सूनी आंखों में बर्फ जमकर रह गई है। जिंदगी का हरापन बस ठिठक कर रह गया है।

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असलीनशा
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बारिश तो थम चुकी थी पर तेज़ हवाएँ चल रही थीं।वह अँधेरे प्लेटफॉर्म पर अंतिम लैंपपोस्ट को जलाने की तैयारी में था। सालों से वह इस ड्यूटी पर तैनात था। छै लैंपपोस्ट वाला गाँव का यह रेलवे प्लेतफॉर्म उसी के हाथों रोशन होता। ट्रेन आने वाली थी और आखिरी दो डिब्बों के रुकने की जगह पर घुप्प अँधेरा था। बीडी की तलब लगी थी पर माचिस की डिब्बी में एक ही तीली बची थी। जिससे लैंपपोस्ट की बत्ती जलानी थी। ऊपर से तेज़ हवाएँ।जैसे तैसे नसैनी से वह लैंपपोस्ट तक पहुँचा। माचिस का मसाला भी सील चुका था।बहुत कोशिशों के बाद तीली ने आग पकडी,बत्ती जली…,मन हुआ बीडी भी सुलगा ले पर तब तक ट्रेन आ चुकी थी। उसने झट से काँच चढा दी। प्लेटफॉर्म पीली रोशनी के उजास से भर गया। मुसाफिरों के चेहरे भी खुशी से चमक उठे। उसे लगा बीडी न सही पर असली नशा तो अब हुआ है।

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आस
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रात को ही बना ली थी उड़द की पिन्नी ,बेसन के लड्डू और मठरी ।मिर्च के अचार सहित सब चीजें पैक कर कुलवंत ने सफेद मफलर पर हाथ फिराया।…. जीतू कितना खुश होगा मफलर देखकर ।कब से फरमाइश कर रहा था इसकी ।
“जल्दी कर कुलवंत , बलवीर की फ्लाइट का टाइम हो रहा है।” कुलवंत के हाथ से सामान लेते उनकी आंखें झुकी थी।
” सरदार जी, जीतू से फोन पर बात जरुर करवा देना। वह तो अमेरिका जा कर भूल ही गया जैसे ।”
बिना जवाब दिए हुए वे मुड़े और बलवीर की गाड़ी में जा बैठे।
” फिर से यह सब!!! बता क्यों नहीं देते कि जीतू हवाई दुर्घटना में….” बलवीर की आंखों में मुरझाया सवाल था।
” डेढ़ साल से तो हिम्मत जुटा रहा हूं पर…. एक इसी आस पर तो जिंदा है कुलवन्त।क्या यह आस भी…
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करिश्मा 

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आज फिर पूजा घर से जोर जोर से घंटी बजने की आवाज आ रही थी। गौरी ने झांक कर देखा ।अम्मा तेजी से आरती का दीपक राधा कृष्ण की मूर्ति के चारों ओर घुमाते हुए बड़बड़ा रही थीं।

” हे भगवान मेरे ही भाग में यह सब लिखना था। विलायती बहू इतना सुना देती है और तुम बैठे देखते रहते हो।”

गौरी भी तंग आ गई थी। उसका बीकॉम का फाइनल ईयर था और जेनी भाभी अम्मा से लड़ने में बाज नहीं आती थीं। अम्मा की समझ में तो जैनी भाभी की अंग्रेजी आती नहीं थी। वे छोटे भैया से पूछतीं। भैया जो बताता उसे सुनकर वे जेनी भाभी पर खूब चिल्लातीं और रोतीं। आज अम्मा ने गौरी से ही पूछ लिया

” बता क्या कह रही थी वह ।तेरा भैया ले आया विलायती बहू ब्याह कर।और मेरे सिर पर ला बैठाया । उसे तो तमीज ही नहीं है बात करने की। बता क्या कहा उसने।”

गौरी ने पल भर सोचा फिर मुस्कुरा कर बोली 

“नाहक परेशान होती हो अम्मा, कितनी तो अच्छी है जेनी भाभी ।वह तो तुम्हारे लिए भला ही कह रही थी। कि अम्मा जी कितनी प्यारी हैं। विदेश का होकर भी मुझे ऐसे अपनाया है जैसे मैं उनकी बेटी हूँ। और तो और अम्मा वो तो आपके हाथ के बने अचार पापड़ की भी खूब तारीफ कर रही थीं। कल के कोफ्ते भी उन्हें बहुत पसंद आए थे। कह रही थीं अम्माजी के हाथों में जादू है ।”

अम्मा की आँखे चमकने लगीं।

” ऐसा कह रही थी सच्ची बता ।”

“और क्या झूठ बोलूंगी ।”

“गौरी तू तो मुझे आज से ही अंग्रेजी बोलना सिखा दे। कम से कम अपनी बहू से बतिया तो सकूंगी।”

एक बड़े तूफान को ढकेल कर गौरी मुस्कुरा रही थी।

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             दावेदार

   पिछले तीन वर्षों से रामरतन की विधवा सत्तर वर्षीय सुमित्रा एकाकी ज़िन्दगी जी रही थी। बेटा था लेकिन बारह साल का होकर ही निमोनिया से चल बसा। और कोई बच्चा न था उनके। रामरतन की मृत्यु के बाद सुमित्रा ने ससुराल,मायके के दरवाज़े खटखटाए .इस आस में कि कहीं किसी घर का कोना और रिश्तेदारों की सुरक्षा उन्हें मिल जाए पर हर ओर से नाउम्मीदी ही हाथ आई। थक हार कर सुमित्रा ने खुद को अपने ही घर में सीप में बंद मोती सा समेट लिया।वे खुद को अपने एकांत में ढालने लगीं। अस्थमा और म्धुमेह की मरीज़ थीं वे। चाहे जब तबियत बिगड जाती,अस्पताल ले जाने की नौबत आ जाती। उनकी देखभाल करने वाली मंदा हर बार ताने मारती …”कैसे रिशतेदार हैं आँटी आपके,कोई झाँकता तक नहीं।“

वे शून्य में ताकती रह जातीं “सब तकदीर का लिखा है,कौन मिटा सकता है।“

ज़िन्दगी की ज़रूरते बैंक,बिजली का बिल,घर का टैक्स,हाट बाज़ार निपटाते निपटाते आखिर उनकी साँसें चुक गईं। मंदा दरवाज़े की घँटी बजा बजा कर थक गई। पडोसियों ने दरवाज़ा तोडा,नाते रिश्तेदारों को खबर दी। तुरंत सब भागे आए …अब वे किसी की मौसी थीं,तो किसी की बुआ, किसी की मामी तो किसी की चाची….और लगभग दो करोड की प्रॉपर्टी पर अपना अपना हक जताने वाले सगे सम्बन्धी ।…उनकी जी जान से सेवा करने वाली मंदा रो रोकर हलकान हुई जा रही थी जबकि उनकी प्रॉपर्टी के दावेदारों की आँखों में चमक थी…शायद उनकी रगों का खून पानी बन चुका था।

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प्यार ऐसा भी
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देसी दारु चढ़ाकर जनार्दन के होश ठिकाने कहां थे। रत्ती पर उसकी अरसे से नजर थी। बंजारों के कबीले से दूर बहाने से वह उसे ले गया और रत्ती रात भर बलात्कार का शिकार होती रही।
सुबह जब सबके कानों तक खबर पहुंची,हड़कंप मच गया। कबीले के सरदार ने हुक्म सुनाया “जनार्दन को रत्ती से ब्याह करके उसे इज्जत की जिंदगी देनी होगी वरना इसका हुक्का पानी बंद।” जनार्दन जानता है अगर उसका हुक्का पानी बंद हुआ तो फिर कोई कबीला उसे पनाह नहीं देगा। 
रत्ती चार साल उसकी ब्याहता बन कर रही । चौथे साल सड़क दुर्घटना में जनार्दन चल बसा। बेआस, बेऔलाद की रत्ती दिन भर मेहनत कर अब उतना ही कमाती जितने में ठर्रे की बोतल, बीड़ी का बंडल और दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो जाए।
रत्ती ने ठर्रे की घूँट गले में उतारी और सुलगती बीड़ी जांघ पे दबा कर सिसकारी भरी “साला हरामी …. ठर्रा चढ़ाकर जब तक सुलगती बीड़ी से जांघ न दाग ले तब तक ……..मुई आदत पड़ गई है। नींद भी नहीं आती इसके बिना।”
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                                  बंद                                                                                                      

माथे पर तिलक लगाए भगवा झँडा फहराते वे खुली दुकानों के शटर बंद करवा रहे थे। आखिर गरीबों के हक के लिये सारी उम्र होम कर देने वाली उषा ताई का निधन हुआ था।शहर तो बंद होगा ही।बंद कराने में उन्होने पुलीस की मदद भी ली थी।अभी उसने अपने ठेले पर पके केले जमाने शुरू किये ही थे कि एक ज़ोरदार डँडा कमर पर पडा –“सुना नहीं,आज बंद है?” और भगवा झँडा समूह ने उसका ठेला फुटपाथ पर उलट दिया। वह आँसू भरी आँखों से केलों का पैरों तले कुचला जाना देखता रहा। आज फिर उसके बच्चों को भूखा ही सोना पडेगा।इस भागते दौडते शहर में वह छै लोगों का पेट मुश्किल से भर पाता है…….उस पर ये बंद ,हडताल ….गरीब का पेट ….रोज़ कुआ खोदना पडता है तब भर पाता है।उसने बचेखुचे केलों का पोटला बाँधा और ठेले पर रख सरपट भागने लगा। लाउड स्पीकर पर चीखती भगवा झँडा समूह की आवाज़ नारे लगा रही थी….”उषा ताई अमर हैं…अमर हैं।“ मुख्य सडक के मोड से उसने ठेला झोपडपट्टियों की ओर जाती ढलान पर उतार दिया …देखा…दूर सडक पर आहिस्ता आहिस्ता बढता जुलूस और जुलूस से घिरा उषा ताई का शव …फूलों से ढँका शमशान की ओर बढ रहा है।

एक ओर खत्म हो चुकी साँसों का बोझ था….दूसरी ओर साँसों को सहेजने की जद्दोजहद।

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        रंगभेद

बगीचे से फूल चुनकर वे जैसे ही मुडीं सामने विक्रांत था…..बिल्कुल एंजेली का हमशक्ल। उसने गाडी निकाली और “बाय ममा” कहकर ऑफिस चला गया।पूजाघर की ओर जाते हुए उन्हें लगा जैसे एंजेली उनके साथ साथ चल रहा है।एंजेली नीग्रो था जो रंगभेद का शिकार हो गया।तब वे ब्रिटिश हुकूमत के कठिन दौर से गुजर रहे देश दक्षिण अफ्रिका में थीं।एंजेली के पूर्वजों को उनकी ज़मीन से बेदखल कर गुलाम बना लिया गया था। सारे गुलाम बदहाली और भुखमरी के शिकार थे। जैसे ही डि क्लार्क ने राष्ट्रपति का पद सम्हाला दंगे भडक उठे।श्वेत अश्वेत एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए।तब वे मात्र सोलह साल की थीं और एंजेली को दिल दे बैठी थीं।दंगों के दौरान नौजवान एंजेली की रगों में खून उबलने लगा।उन्होंने लाख समझाया,अपनेहोने वाले बच्चे की बिनब्याही माँ बनने की दुहाई दी,पर एंजेली नहीं माना।उसके पिता को गोरी पुलीस के घोडों ने कुचल दिया था,भाई को मार डाला था।एंजेली विद्रोही बन गया था।वह जैसे ही घर से बाहर निकला,गश्त लगा रही पुलीस ने देखते ही गोली मार देने के आदेश का पालन करते हुए उसे गोली मार दी।सडक पर उसके बदन से निकला खून ही खून था जो थोडी ही दूरी पर पडी अँग्रेज़ की लाश के खून के सँग एकाकार हो रहा था।क्या ये खून बता सकता है कि इनमें से किसका खून नीग्रो का है और किसका अँग्रेज़ का ?

यह सवाल आज भी उनके एकाकी जीवन को गाहे बगाहे मथता रहता है।     

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असमंजस

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रोहित बाबू ने पूछा-” लड़की का नाम क्या रखा गोपाल?”

गोपाल ने हाथ जोड़े-” नाम तो आप ही रखेंगे सरकार। आपका दिया नाम….. गरीब घर की लड़की चंदा सी चमकेगी।” 

रोहित बाबू सोचते रहे। तब तक कोठी के महाराज ने मिठाई का डिब्बा लाकर स्टूल पर रख दिया। रोहित बाबू ने मिठाई गोपाल को देते हुए कहा- “जवाकुसुम । घर में जवा बुलाना।” गोपाल ने चमकती आंखों से डिब्बा थामा। 7 साल बाद गोपाल पिता बना है। फूल कर छाती तो चौड़ी होनी है। गोपाल के जाते ही कोठी में खुसर पुसर शुरू हो गई ।बड़ी माँ ने कहा -“अरे ,तुझे यह क्या सूझी रोहित? कोठी के नौकर की लड़की को अपनी परदादी का नाम दे दिया ।”

“हमें पता नहीं था बड़ी माँ परदादी का नाम। फिर बताएं क्या रखूं उसका नाम? मोहनी रखने को कह दूं?” वंशावली मंगवाई गई ।सात पुश्तें तलाशी गईं। परिवार में किसी का नाम मोहिनी तो नहीं।

” हाँ रख सकता है तू मोहिनी नाम। पर तुझे क्या पड़ी है नाम रखने की ?गोपाल को खुद रखने दे ।”

बड़ी माँ ने रोहित से कहा।

रोहित बाबू आँखें नहीं मिला सके। अब कैसे बताएं कि मोहिनी उन्हीं की तो …….

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गिरवी

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भीड़ उसे पेड़ से बांधकर लाठियों से पीट रही थी ।उसका अपराध था विदेश यात्रा से लौटते हुए गाँव के बच्चों को विदेशी चॉकलेट बांटना। जो भीड़ के अनुसार सरासर बच्चा चोरी का अपराध था ।नरेश अपने कुछ दोस्तों के साथ 35 किलोमीटर दूर स्थित हवाई अड्डे जा रहा था। नरेश के जीजाजी दुबई से पहली बार भारत आ रहे थे। पर दीदी नहीं आ रही थी। उन्हें नौकरी से छुट्टी नहीं मिल पाई थी। दीदी ने दुबई में प्रेम विवाह किया था। जिसे शुरुआत में नाराजगी फिर बाद में माँ पापा की स्वीकृति मिल गई थी। आज वह पहली बार अपने जीजाजी से मिलेगा ।

युवक को पिटते देख नरेश के दोस्त उसका वीडियो बनाने लगे ।जब तक कि पुलिस नहीं आ गई ।वीडियो उन्होंने तुरंत फेसबुक पर शेयर कर दिया ।

हवाई अड्डे पहुँचे तो फ्लाइट आए 2 घंटे गुजर चुके थे और जीजाजी शायद घर की ओर रवाना हो चुके थे ।नरेश घर लौटा तो हाहाकार मचा था ।चबूतरे पर जीजाजी की लाश रखी थी। आवाजें नरेश के कानों में पिघले सीसे सा प्रवेश कर रही थीं……

“बच्चों को चॉकलेट ही तो बांट रहा था बेचारा पर बच्चा चोरी के संदेह में मॉब लिचिंग का शिकार हो गया। देखो इस वीडियो को, कैसी भयंकर पिटाई हो रही है ।लेकिन बड़ा कलेजा है जी वीडियो बनाने वालों का ।बचाना तो दूर वीडियो बना रहे हैं ।भावनाओं को गिरवी रख चुकी है युवा पीढ़ी।”

नरेश को समझ नहीं आ रहा था कि लाश उसके जीजाजी की है या उसकी……

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निर्णय

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नवनीत और विभा की कोर्ट मैरिज के अवसर पर गवाह के रूप में हस्ताक्षर करते हुए पल भर को उसके हाथ कांपे…….. याद आया अपनी शादी का वह कड़वा दिन। वह दुल्हन का श्रृंगार किए धड़कते दिल से प्रतीक्षा कर रही थी उस सुनहले वक्त की जो कल का सवेरा होकर उसकी जिंदगी में आएगा।

बारातियों के कहकहे उस तक पहुंच रहे थे ।

“वाह नितिन ,गजब की तुम्हारी ससुराल। यह देखो समधी मिलन का झिरझिरा सस्ता सा शॉल और यह द्वारचार की थाली तो देखो। नहीं-नहीं चांदी की नहीं है गिलट की है । हमें क्या पता नहीं है कैसी होती है चांदी की थाली और कलशे, हंडे ,मंडप की सजावट सभी में कंजूसी। बेगार टाली है ।नितिन कहां फंस गया तू।”

कहकहे उसके कान में गर्म तेल जैसे लग रहे थे। नितिन के पापा ने दहेज के लिए भी सुरसा जैसा मुंह फाड़ा था। जयमाल के समय भी ।

“अरे आजकल तो फूलों के संग नोट भी माला में पिरोए जाते हैं। “

और पापा की खिसियानी हँसी, माँ के बहते आंसू ।

शक्ति जवाब दे गई ।हाथ में पकड़ी जयमाल उसने वापस ट्रे में रख दी “बहुत हुआ ,बंद करिए यह तानाकशी। ये शादी मुझे स्वीकार नहीं ।”

सन्नाटा छा गया था ।पापा माँ उसके सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहे थे 

“ऐसा मत बोल बेटी, जिंदगी बर्बाद हो जाएगी ।” 

“बर्बाद होने से बच गई माँ।”

कहती हुई व्ह कमरे में आ गई थी। उसी साल उसकी कॉलेज में लेक्चरर शिप लग गई थी। शादी करने का इरादा हमेशा के लिए त्याग दिया था। “मेम साइन करिए ।”

गले में फूलों की जयमाल पहने उसकी विद्यार्थी विभा कह रही थी। कड़वी घटना को परे ढकेल उसने सधे हाथों

से हस्ताक्षर किए ।

अब उसके मुंह में मिठास का लड्डू था।जो निश्चय ही उसके त्याग का सबूत था।

सार्थक सामयिक लघुकथाएं

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साहित्य की विभिन्न विधाओं में लिखने वाली संतोष श्रीवास्तव का हाल के वर्षों में लघुकथा में नाम तेजी से उभर कर आया है । वैसे वे लघुकथा की स्थापित लेखिका है। उनकी लघुकथाएँ सारिका, धर्मयुग और उस ज़माने के अन्य पत्र, पत्रिकाओं में भी पढ़ती आ रही हूं। उनकी लघुकथा गलत पता पर एक टैली फिल्म बनी थी। मुंबई दूरदर्शन निदेशक रवि कुमार मिश्रा के निर्देशन में 1 घंटे की यह फिल्म मेट्रो चैनल पर दिखाई गई थी।

सामयिक विषयों पर लेखिका की कलम खूब चलती है ।”गुलाबी चुनरी” लॉकडाउन में पलायन कर रहे मजदूरों की स्थिति का बयान करती है। उसी में से उठती है एक प्रेम कथा जो जिंदगी के कठोर यथार्थ की जमीन पर मंज़िल तो नहीं पाती लेकिन गुलाबी चुनरी के रूप में सहेज कर रखी स्मृतियाँ मिटती भी नहीं ।लेकिन जब झुग्गी में लगी आग से झुग्गी में रखे सामान सहित गुलाबी चुनरी भी जलकर खाक हो जाती है तो तड़प उठती है नायिका। प्रेम का ऐसा दिव्य रूप जो अमीरी गरीबी नहीं देखता ।बस दिलों में पैबिस्त हो जाता है। यह लघुकथा सच्चे प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।

“ग्रहण” दलित विमर्श को रेखांकित करती कथा है ।दलितों पर सवर्णों के अत्याचार किसी से छिपे नहीं हैं ।उनकी छाया तक पड़ जाना अशुद्धि का कारण होता था ।तब स्नान और मंत्रोच्चार ही सवर्णों की शुद्धि का मार्ग था। स्पेनी कवि लोरका कहते हैं” जब बहुत अधिक दुख सामने होता है तो व्यक्ति हथियार डाल देते हैं” शायद यह सब स्थिति से पलायन तो नहीं, हाँ परिस्थितियों के समक्ष हथियार डालना हो सकता है । दलितों ने बहुत भोगा है। ब्राह्मणवाद ने उनकी भावनाओं को ऐसा कुचला  है कि उनकी रीढ़ की हड्डी टेढ़ी हो गई। दलित जाति मानो दो पैरों पर खड़ा  जानवर है ।समय गवाह है कि दलितों की पीठ पर सवर्णों ने कितने हंटर बरसाए हैं ।उनके मुंह पर मैला फिकवाया है। और सवर्णों का मैला सिर पर ढोने को मजबूर यह जाति दबी कुचली हमारी हिंदू संस्कृति  का महान उदाहरण है। हिंदू संस्कृति के महान होने का गुणगान हर ग्रंथ में मिलेगा। परंतु, ग्रंथ में  दलितों का कोना गायब है। हमने क्या किया उनके साथ? यह अध्याय हिंदू संस्कृति में नहीं है ।बल्कि यह गाथा स्वयं दलित लेखकों ने हमारे समक्ष रखी।  कितनी बड़ी त्रासदी है हमारे महान होने की। कि, हमने एक वर्ग को कितना दुख दिया। उसकी छाया मात्र से हम अपवित्र हो जाते थे हमें स्नान करना पड़ता था। बात यहीं तक सीमित नहीं है इस बारे में हम निरंकुश शासक की तरह रहे।यह बहुत  अहम प्रश्न है जो सदियों तक हमें  मथता रहेगा। शायद हम अपने को क्षमा भी ना कर पाएँ। और यदि हम सोचते हैं कि  इसमें क्षमा की क्या बात तो शायद हम इस बर्ताव को कभी भुला नहीं पाएंगे ।एक दलित शिक्षक के मन की व्यथा ग्रहण के रूप में सामने आई और वह व्यथा में डूब गया। लघु कथा ग्रहण बहुत कुछ कहती है। इस बर्ताव को  शायद  आने वाली  पीढ़ी कभी भुला नहीं पाएगी। लेखिका ने बड़ी खूबसूरती से इसे ग्रहण से जोड़ा है ।ग्रहण उग्रह के पश्चात हिंदू धर्म में स्नान, दान का विधान है। 

कक्षा में विद्यार्थियों को ग्रहण के विषय में समझा रहे मास्टर अछूत हैं। अछूत की हृदय स्पर्शी बात इसी बिंदु से शुरू होकर इस वाक्य में…..कि” छाया अशुद्ध नहीं होती।” समाप्त होती है और यह वाक्य कथा की पंचलाइन बन जाती है। 

“मुखौटा” लघु कथा आज की सच्चाई को उजागर करती है। अपने स्त्री पक्ष के लेखों में स्त्री को बराबरी का स्थान  देने के पक्षधर  कितने ही लेखक हैं । जिनकी साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थिति है।

यह कथा पुरुष वर्चस्व का एक महत्वपूर्ण उदाहरण प्रस्तुत करती है। कितने ही ऐसे साहित्यकारों को हम जानते हैं जो अपने लेखों में कहानियों में स्त्रियों को बराबर का दर्जा देने के हिमायती हैं परंतु सच्चाई यह है कि वे अपने ही घर में स्त्री को प्रताड़ित करते रहते हैं। ऐसे साहित्यकारों को अन्य लेखक जानते समझते हुए भी उनकी इस कृत्य को अनदेखा करके बड़े-बड़े साहित्यिक कार्यक्रमों में लंबे लंबे भाषण देने  के लिए  इन्हें  आमंत्रित हैं ।और  यह  साहित्यकार वाहवाही लूटते हैं। यह कथा ‘मुखौटा’ ऐसी ही स्त्री की व्यथा को प्रस्तुत करती है ।जब एक लड़की अपने प्रिय कथाकार उमेश दीक्षित से मिलने पहुंचती है ।वह उमेश दीक्षित से इसलिए प्रभावित है कि उनकी रचनाएं स्त्री के पक्ष में होती हैं वे साहित्यिक समारोह में छाए रहते हैं।  कि वह लिफ्ट में मिली महिला के वाक्यों से हतप्रभ रह जाती है। दीक्षित जी से मिलने आईं हैं अभी तो वे शराब पीकर, ओह……. उसकी लेखक से मिलने की सारी चाहत भरभरा कर कच्ची ईंट के बने घर ढह जाने जैसी हो जाती है ।

लेकिन यहां प्रश्न उठता है कि आखिर अपने आप को साहित्यकार कहने वाला वर्ग क्यों खामोश है  स्त्री के पक्ष में बड़ी -बड़ी डींगे मारने वाला पुरुष लेखक जब घर में ही समानता, प्यार, सहयोग ,इज्जत नहीं दे पाता स्त्री को, तो ऐसे लेखन को धिक्कार है ।यह लघु कथा बहुत ही खूबसूरती से उठाई गई समस्या का समाधान तो नहीं पर सच्चाई को उजागर करती एक बेहतरीन कथा है।

“मोहताज” लघु कथा आज के समाज को रेखांकित करती तथा बुजुर्गों के प्रति युवा पीढ़ी की मनोदशा को प्रदर्शित करती एक ज्वलंत समस्या पर लिखी गई है ।अभी तक इस विषय पर अनेक कथाएं लिखी जा चुकी है लेकिन इनका समाधान मुश्किल है।

जमाना इतनी तेजी से बदल गया है कि पढ़े-लिखे पति पत्नी भी अपने सिद्धांतों को लेकर अपनी जिंदगी नहीं जी पा रहे  हैं।  उनके सिद्धांत उनको कब एक दूसरे से अलग कर देते हैं कहा ही नहीं जा सकता ।

घर में बुजुर्ग माता-पिता अपनी ही बहू के दुर्व्यवहार से व्यथित हैं। समझ नहीं पाती यह पीढ़ी की बुजुर्गों की कुछ जरूरतें,आदतें होती हैं। उन्हें कैसे वे बदल सकते हैं। 

यह स्थिति उच्च मध्यम वर्ग में ज्यादा देखने को मिलती है। जहां वह अशक्त बुजुर्गों से काम की अपेक्षा करती है ।यदि वे स्वयं अपना कार्य करना चाहे वहां भी उन्हें आलोचना का शिकार होना पड़ता है। ऐसा लगता है बेटे, बहू के संसार में बुजुर्ग बाधक बनते जा रहे हैं ।आर्थिक स्वतंत्रता, स्वच्छंद प्रेम के वातावरण को जीने की चाह में यह पीढ़ी समाज में प्रश्नों को जन्म दे रही है ।और नित्य नई समस्याएं निर्मित हो रही हैं ।घर के बेटे चाह कर भी इसका विरोध नहीं कर पाते या उन्हें पता ही नहीं होता कि उनके माता-पिता के साथ क्या हो रहा है। ‘मोहताज ‘ लघु कथा में बहु ससुर के घुटनों के दर्द को भी गंभीर नहीं मानती। बल्कि कहती है’ यह तो रोज का रोना है आपका ।काम नहीं करेंगे तो जकड़ जाएंगे’

यह वाक्य अत्यंत व्यथित करता है। क्या बुढ़ापा इतना असहाय होता है कि अपने ही बेटे बहू के समक्ष सिर झुकाने को मजबूर कर देता है ।जिस बेटे को उन्होंने अपना संपूर्ण परिश्रम लगाकर इस लायक बनाया, कि वह आज अपने पैरों पर खड़ा है। क्या उन्होंने उसका भविष्य नहीं संवारा ?उसे पाल पोस कर बड़ा करते समय अच्छाई की ओर बढ़े इसका ध्यान रखना नहीं सिखाया ?सामाजिक बंधन ,परिवार रिश्ते नातों को अपने ऊपर बरकरार रखते हुए उन्होंने ऐसी जिंदगी जी ।जहां उन्हें और उनकी पत्नी को प्रशंसा ही मिली ।माता-पिता की आखिरी दम तक भी सेवा करने में तत्पर रहे। और उनकी पत्नी ने भरपूर साथ दिया ।अपने तन- मन के सुख-दुख को ध्यान में रखते हुए वह अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटे ।आज कितने असहाय हैं वे। क्या वे दूसरों के टुकड़ों पर पल रहे हैं? कमोवेश आज अधिकतर हर परिवार की यही कहानी है। सब्जी वाला झोले में सब्जी भरकर कहता है अपने बेटे से -“जा मुन्ना, बाबू जी का झोला घर तक पहुंचा दे। बुढ़ापे का शरीर है। बहू के राज में मोहताज हो जाता है बुढ़ापा ।

‘हां आदमी नहीं बुढ़ापा’ वर्तमान की वास्तविकता यही है।

मोहताज कहानी का अर्थ और सार्थकता इसी में है कि जिन माता पिता ने अपने बच्चों को उंगली पकड़कर चलना सिखाया हर मुसीबत में एक  वटवृक्ष की तरह उनके साथ खड़े रहे ।और अपनी छाया और ठंडक में उनके भविष्य का सृजन किया। आज  उन्हें  वे मोहताज ना बनाएं ।यह एक उम्दा सार्थक सामयिक  लघुकथा है।

लघुकथा ‘वचन’ उस समाज की उस समय की कहानी है जब विधवा का कोई घर नहीं होता था। 9 वर्षीय बाल विधवा क्या समझती थी कि ‘विधवा ‘शब्द क्या है? लेकिन वह विधवा है। ससुराल ने उसे मायके भेजा। मायके ने विधवा आश्रम पहुंचा दिया ।लेकिन कुशाग्र बुद्धि सुकेशा बालिका अनाथालय में सारी अनाथ विधवाओं की मां सुकेशा बन गई।

यह एक सभ्य समाज का दृश्य है। जहां छोटी सी लड़की से उसका परिवार छिन जाता है, और समाज के तथाकथित ठेकेदार उसे विधवा आश्रम पहुंचा देते हैं। तथाकथित समाज की सभ्यताओं को झेलने के लिए नारी  विवश है।  हम  चाहें कितने ही नारे बुलंद करें। इस परंपरा को तोड़ने का दंभ भरें ।लेकिन आज भी विधवा आश्रम तो है ही। और उनकी दुर्दशा कौन नहीं जानता? मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार को तरसती उनकी देह आधी अधूरी जलाकर नदी में प्रवाहित कर दी जाती है। यह आज का सत्य है….. शारीरिक शोषण यह भी आज ही का सत्य है ।तो बदलते समाज की परिभाषा कहां और किस पर लागू की जाए।

‘ वचन ‘ लघुकथा बहुत कुछ कहती है । ऐसी कितनी  विधवाएँ हैं,जिनका बालपन छीनकर उन्हें विवाह के बंधन में बांधा गया और फिर अचानक विधवा होने पर उन्हें गर्त में ढकेल दिया गया । सुकेशा  जैसी कुछ नारियों ने निश्चय ही अपनी जगह बनाई, और समाज से तिरस्कृत इन विधवाओं को आश्रय देने में अपने आप को सक्षम बनाया। सुकेशा बाल विधवा आश्रम की प्रमुख बनी जहां बाल विधाएं अपने आप को अनाथ न समझ कर एक परिवार की तरह रहीं।

माधुरी ऐसी ही विधवा आश्रम की लड़की है जिसको उस आश्रम की सबकी मां कहलाने वाली सुकेशा ने न केवल उसके दुख दर्द को बांटा। बल्कि इस लायक भी बनाया कि वह इस संज्ञाहीन समाज में सुदृढ़ता से खड़ी हो सके ।

यदि यह कहानी प्रत्येक विधवा की कहानी बन जाए तो इन तिरस्कृत स्त्रियों का स्वयं अपने सुखों से भरा संसार होगा ।

अंत में मां सुकेशा  कहती है – “वैसे तो सब ईश्वर के हाथों में है बेटा, पर मनुष्य ……माधुरी को कभी शरणार्थी ना होने देना” अपना संपूर्ण दर्द सुकेशा ने मानो इस वाक्य में उड़ेल कर रख दिया। क्या कोई इस दर्द को कभी महसूस कर पाएगा?

छोटी सी कथा ने वर्षों की बनाई खाई को लांघा है।

स्वागत है ऐसी सारगर्भित कथा का।

‘किन्नर ‘लघु कथा समाज के उपेक्षित माने जाने वाले वर्ग पर लिखी गई किन्नरों के दर्द को बयां करती है। किन्नरों की दुआ और बद्दुआ का हमारी जिंदगी पर कुछ असर होता है अथवा नहीं, यह तो नहीं कहा जा सकता है। लेकिन मान्यता है कि उनकी मदद अवश्य करनी चाहिए। क्योंकि वह स्त्री पुरुष की श्रेणी में नहीं आते। यह सत्य है कि उन्हें काम पर रखना समाज में हास्यास्पद माना जाता है। और हमारे सभ्य समाज में यह अच्छी नजर से नहीं देखा जाता है।

प्रस्तुत ‘किन्नर ‘लघुकथा ऐसी ही मानसिकता की कहानी है। जब मुंबई की लोकल ट्रेन में किन्नरों के समूह का एक किन्नर, नीलू के सिर पर हाथ रखकर कहता है – “दे माँ “……. और बदले में उसे सुनाई देता है ,” भीख क्यों मांगते हो ।कुछ काम क्यों नहीं करते” ?

बाद में आशीर्वाद पाने के लिए जब नीलू किन्नर के हाथ में 10₹ का नोट रखती है तो किन्नर बोल उठता है – “इतनी देर तुम्हारी बकवास सुनने का सिर्फ 10 ₹?” मंदिर में पंडित को कितनी दक्षिणा देती हो ।हमारी दुआ तो डायरेक्ट  भगवान से मांगी हुई होती है ।”यह किन्नरों की मनः  स्थिति को उजागर करती शब्दशः सत्य कथा है ।क्योंकि यही बातें किन्नरों के मुंह से सुनने को अक्सर मिल जाती हैं।

क्या सचमुच किन्नर समाज का उपेक्षित वर्ग है या ईश्वर प्रदत्त प्राकृतिक कमजोरी से युक्त दिव्यांग है। या हमारी सोच दिव्यांग है । ऐसे आधे अधूरे मनुष्य की भत्सर्ना करना कहां तक उचित है ।यह प्रश्न विचारणीय है ।क्या यह सत्य नहीं है कि उस को दी जाने वाली भिक्षा की तुलना में 10 गुना अधिक पंडितों को दे देते हैं ।क्यों देते हैं पंडितों को? क्या वह सच में हमारे लिए  ईश्वर से प्रार्थना करते होंगे या यह अधूरे स्त्री पुरुष जो खुश होकर हमें दुआ देते हैं ,वह हमारे लिए प्रार्थना करते होंगे। या उनका आशीर्वाद हमें फलीभूत हो जाता होगा। 

लेकिन हमारा समाज उन्हें अछूत की तरह देखता  रहा । युगों के हर दौर में इन्हें हिकारत की नजर से देखा गया। उन्हें राजा महाराजाओं के दौर में नाचने गाने के लिए…… मुगलों के समय में हरम की रक्षा के लिए इन्हें तैनात किया जाता था । तब यह भिक्षा नहीं मागते थे।

‘किन्नर’ लघु कथा में ऐसी ही सोच को व्यक्त किया गया है ।और हमारी सोच पर इन किन्नरों ने एक प्रश्न   चिन्ह भी लगाया है…  हम तो डायरेक्ट भगवान से तुम्हारे लिए दुआ करते हैं लेकिन…

बहुत ही खूबसूरती से किन्नरों के दुख पीड़ा  को लघुकथा में समेटा है संतोष ने।

आतंक और इंसानियत लघुकथा दंगों के बीच घिरी लड़की की कथा जो अपने पिता के लिए दवाइयां लेने आई थी कि अचानक दंगे भड़क गए। दंगे, जो विभाजन के बाद से भारत के लिए नासूर बन गए हैं। लेकिन जिन दो कौमों के बीच यह दंगे भड़कते रहते हैं आज वही दो कौमें एक दूसरे की मददगार बन गई। जब दवा लेने आई हिंदू लड़की से बस में उसकी बगल में बैठे मुस्लिम बुजुर्ग घर तक सुरक्षा पूर्वक पहुंचा देने की बात कहते हैं…… स्पष्ट है कि आम आदमी के अंदर नफरत नहीं है ।नफरत सत्ता के देश के प्रति जिम्मेवार कहे जाने वाले भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के अंदर है जिसका खामियाजा जनता भुगतती है। यही लघुकथा की खासियत है। एक घटना विशेष से पाठकों के मन तक पहुंचकर अपनी बात कहने की।

अभावों का बदला एक ऐसे कलाकार की कथा है जिसने अपनी मंजिल पाने के लिए कड़ा संघर्ष किया। चावल का माड़ पी कर रहना पड़ता था ……बदहाली में जाने कितने वर्ष गुजारकर  आखिर उसने अपनी मंजिल पा ही ली। यह कथा मनोवैज्ञानिक कथा है जिसमें अंतरराष्ट्रीय ख्याति, नौकर, गाड़ी ,बंगला ,मोटा बैंक बैलेंस, हीरे जवाहरात में पाकर भी वह बीते समय के अभावों को नहीं भूलता। उसे लगता है कि यह सब उसने जुटाया इसलिए है कि उसे अपने अभावों से बदला लेना था। वरना वह तो सीधा सरल …..कथा पूरी तरह उभरकर आती है जब बहुत देर से परोसी खिचड़ी ठंडी होने पर उसकी पत्नी कहती है 

“लाइए गर्म कर लाती हूं “

“नहीं ठंडी ही खाएंगे ।आज अभावों से बदला लेने का मूड नहीं है।”

इस वाक्य पर खत्म हुई कथा एक चित्र सा खींच देती है। संतोष की यही तो विशेषता है ।बिना तामझाम के अपनी बात स्पष्ट रूप से पाठकों तक पहुंचा देने में जरा भी नहीं चूकतीं।

जैसा कि कथा के शीर्षक से स्पष्ट है पैर पसारता लॉकडाउन जिसने कथानायिका के वैवाहिक जीवन में भी लॉकडाउन जैसी स्थिति बना दी है। वह अपनी छोटी बहन शशि जो हफ्ते भर के लिए ही उसके पास आई थी लेकिन यातायात के साधनों के अनिश्चितकाल के लिए बंद हो जाने के कारण वहीं फस कर रह गई और इस दौरान उसके पति और शशि के बढ़ते अनुचित संबंधों की वजह से वह स्वयं को मकड़जाल में फंसा पाती है। अचानक उत्पन्न वैश्विक त्रासदी में किस तरह उसके पति के साथ के रिश्ते में दरार डालनी शुरू की है। एक छोटी किंतु बहुत बड़ी घटना से उपजे माहौल को संतोष ने कथा में इस तरह पिरोया है कि पाठक चकित हुए बिना नहीं रहता। इस कथा में ऐसा कुछ भी नहीं जो आम जीवन में असंभव हो। लॉकडाउन नहीं भी हो तब भी इस तरह की घटनाएं घटती हैं लेकिन लॉकडाउन से उसे जोड़कर संतोष ने कथा को जिस चरम बिंदु पर पहुंचाया है वह पाठक को डिस्टर्ब तो करता ही है।

ममता लघुकथा मां की पीड़ा और मजबूरी का मार्मिक बयान है। मां वेश्यालय में नर्क झेलने के बावजूद रेस्क्यू ऑपरेशन की टीम के साथ जाने से इसलिए इंकार करती है क्योंकि उसका बच्चा वैश्यालय के दलालों के कब्ज़े में है। यहां मां का समर्पण एक साथ बहुत सारे बिंदुओं पर आकर ठहर जाता है और यह सिद्ध करता है कि संसार की सारी पीड़ा दुख तकलीफ मान-सम्मान सब एक तरफ है और मां की ममता एक तरफ। अंधेरे सीलन भरे बदबूदार कमरों में बिना आहट के छापामार पद्धति से बचाव दल ने लड़कियों को मुक्त तो कर लिया पर उस बच्चे को नहीं ढूंढ पाए जिसके लिए चाह कर भी मां मुक्त होना नहीं चाहती। अब और कहने के लिए कुछ रह ही नहीं गया। फिर भी एक मार्मिक कथा बाहर आती है जो लघुकथा को विशिष्ट बनाती है।

“छूटने का दर्द “कश्मीरी पंडितों की अपनी सरजमीं से बेदखल होने की कथा है। वृद्ध भट्ट दंपति को जब खबर मिलती है कि कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35a खत्म कर दिए गए हैं तो एकबारगी वे खुशी से भर उठते हैं ।उन्हें याद आता है 30 साल पहले श्रीनगर से अपना विस्थापित होना। कथा तब और मार्मिक हो जाती है ,जब जम्मू में रह रहे अपने बेटे के पास जाने की वे असमर्थता प्रकट करते हैं ।कश्मीर छूटा घाटी के हालातों की वजह से, बेटे बहू छूटे उनकी मौजूदगी को बर्दाश्त न कर पाने की वजह से। कथा में सूत्र कुछ इस तरह पिरोए गए हैं कि न तो कहन का तारतम्य  लड़खड़ाता है, न भाषा शैली की अदायगी का तालमेल। कश्मीरी पंडितों का और बेटे बहू की ज्यादती का दर्द लिखने में कथा कामयाब है।

“चौथी बेटी” लघुकथा नाम से ही विदित होता है कि पहले तीन बेटियां हैं और चौथे बच्चे की अपेक्षा निश्चय ही लड़के के लिए की गई है। यह सर्वविदित है कि जिंदगी की गाड़ी चलने के लिए स्त्री पुरुष की समान आवश्यकता है। अगर हम लड़का –  लड़का करते रहे तो एक समय ऐसा अवश्य आ सकता है कि यह गाड़ी पटरी पर ही खड़ी- खड़ी ज़ग  खा जाए। लेकिन इस लघु कथा में एक स्त्री का साहस उसके डर के साथ चित्रित किया गया है। कि उसके 9 महीने 9 वर्षों की तरह बीते। कहीं मां जी अबॉर्शन की कोई जड़ी बूटी ना पिला दें। क्योंकि भ्रूण जांच के बाद वह नहीं चाहती थी कि उनके बेटे पर चौथी बेटी का बोझ बढ़े।

विभिन्न समाचारों में स्त्री के गर्भ की जांच फिर स्त्री भ्रूण हत्या की खबरों से आज  की स्त्री विचलित रहती है। यह स्वाभाविक  है। लेकिन जब उसके अंदर सब का विरोध रहते हुए कन्या को जन्म देने का साहस उत्पन्न होता है तो वह अपने आप में अति महत्वपूर्ण हो जाता है। ऐसी विकृति या विडंबना है कि स्वयं स्त्री जो बेटे की मां है अपनी बहू को स्त्री भ्रूण हत्या के लिए विवश करने लगती है ।

इस लघुकथा में यह विदित तो नहीं   होता कि पुरुष  इसका जिम्मेदार है। स्त्री भ्रूण हत्या में वैसे तो स्त्री( ससुराल का बुजुर्ग स्त्री वर्ग) और पुरुष की सहभागिता स्पष्ट दिखती है। लेकिन यहां पति कह देता है- “जैसा वह चाहेगी तभी होगा। मैं दबाव नहीं डाल सकता ” यहां पति ने साथ दिया। और वह अपनी चौथी बेटी को जन्म दे सकी। बेटी निर्मला आज कलेक्टर बन गई है और मिठाई का डिब्बा हाथ में लिए खड़ी है

” क्या सोच रही हो मम्मी! कब से मिठाई का डिब्बा लिए सामने खड़ी हूं।” उधर  अतीत में जाती निर्मला की मां वर्तमान में आ जाती है ।आज उसकी बेटी उसका अभिमान बनकर सामने खड़ी थी ।वह हुलसकर निर्मला को गले लगा लेती है। 

स्त्री को कमजोर समझ कर हमेशा ही अपनी बात मनवाने का हथियार अब आत्मसमर्पण की ओर है। अर्थात रूढ़िवादी विचारों को थोपा नहीं जा सकता। स्त्री की सोच बदली है ,वह अन्याय के खिलाफ खड़ी हो सकती है। जैसे इस लघु कथा में निर्मला की माँ ने कहा” क्या मैं हत्यारिन बन जाऊं” यह लघुकथा स्वस्थ मानसिकता को जन्म देती है ।स्त्री  चाहे तो इस रुग्ण सामाजिक सोच को  बदल सकती है। इस आधुनिक  समय में जबकि स्त्री भ्रूण हत्या आज भी हो रही है। स्त्री को इस लघु कथा की निर्मला की माँ की तरह  साहस दिखाना चाहिए। आज  के समाज  पर चोट करती यह उत्कृष्ट लघु कथा है।

  • प्रमिला वर्मा

गुलाबी चुनरी

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टीवी पर दिखा रहे थे दिल्ली की झुग्गियों में लगी आग। जमुना बर्तन साफ कर रही थी। उसके पति ने बताया 

“सब जलकर खाक हो गया। हमारा सारा सामान ।गैस का सिलेंडर भी फट गया। हमारी झुग्गी के पास वाली बीस,पच्चीस  झुग्गियां जलकर खाक हो गईं।”

जमुना के बर्तन साफ करते हाथ जहाँ के तहाँ रुक गए ।अभी 20 दिन पहले ही तो काम न मिलने की वजह से भुखमरी की स्थिति में वह पति के साथ पैदल गांव लौटी थी। पैरों में छाले पड़ गये थे, चप्पल टूट गई तो कपड़े से बांधकर काम चलाया ।इस आस में कि गांव में अपने घर में शायद बच्चों को भात मिले खाने को।वहाँ तो लॉक डाउन की वजह से भूखे पेट सोना पड़ता है।

“क्या हमारी झुग्गी का सारा सामान जल गया ?”

“अरे जब झुग्गी ही जल गई तो सामान बचा रहेगा क्या मूरख ?”पति ने दर्द भरे स्वर में कहा ।

ओह तब तो गणेशी की दी गुलाबी चुनरी भी जल गई होगी जिसे वह बड़े जतन से सहेजे रखी थी कि गणेशी तो उसका नहीं हुआ। उनके प्यार को जात बिरादरी ने एक न होने दिया। जमुना से शादी न होने की वजह से गणेशी तो दिल्ली छोड़कर ही चला गया न जाने कहाँ…….जाते जाते कह गया “तू मेरी ही रहेगी जमुना ,भले हम दूर दूर रहें।”  और अखबार में लिपटी गुलाबी चुन्नी उसे उढ़ा कर गले से लगा लिया था ।

पति अफसोस जता रहा था।

,” भाग ही खराब है हम मजदूरों का।”

लेकिन जमुना का दिल मानो झुग्गी में लगी आग से झुलसा जा रहा था। सामान तो फिर से कमाकर खरीदा जा सकता है ।पर प्यार की निशानी वो गुलाबी चुनरी……

ग्रहण 

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 हरिप्रसाद मास्टर सातवीं कक्षा के बच्चों से पूछ रहे थे –

“कल सूर्य ग्रहण था। जब चंद्रमा पृथ्वी और सूर्य के मध्य से होकर गुजरता है तो वह सूर्य को पूर्ण रूप से आच्छादित कर देता है। सूर्य का बिंब ढक जाता है और धरती पर उसकी छाया से अंधेरा छा जाता है। इसका आध्यात्मिक स्वरूप भी हमारे पुराणों में मिलता है। बताओ रोहित, कल तुमने क्या किया?”

रोहित ने खड़े होकर कहा -“कल सूतक लगने के पहले हमने नाश्ता कर लिया था। फिर सूतक समाप्त होने के बाद खाना खाया।”

उसके मोटे शरीर को देखकर सब हँसने लगे ।

“तुम बताओ मीरा। खाने के अलावा तुमने क्या किया ?”

जब तक ग्रहण था हमने कुछ नहीं खाया। माँ ने जो थोड़ी बहुत खाने की सामग्री घर में थी उसमें तुलसी के पत्ते डाल दिए। ग्रहण समाप्त होने पर माँ ने घर में गंगाजल का छिड़काव किया। फिर हम सब ने स्नान करके भोजन किया।”

” नहाते क्यों है मास्टर जी?” रोहित ने पूछा।

” पृथ्वी पर छाया पड़ती है न चंद्रमा की।”

“तो क्या छाया अपवित्र होती है?”  मीरा ने पूछा 

मीरा के प्रश्न ने हरिप्रसाद को न जाने कितने वर्षों के पार पहुँचा दिया। आज वे पढ़ लिखकर मास्टर है। लेकिन है तो दलित ,अछूत होने के कारण उनके माता-पिता ,पूरे परिवार ने सवर्णों का घोर अत्याचार सहा है। 

सड़क पर  चलते हुए उनकी छाया  उन पर पड़ जाए तो वे तुरंत स्नान करते थे। मुंह में तुलसी रखकर सूर्य का जाप करते थे।

एक बार तो सड़क पर एक पंडित के आगे आगे चलने के कारण उनके पिता पर पंडित ने मैला फिकवाया था ।

“बताइए न मास्टरजी, छाया अपवित्र कैसे हुई?”

” छाया अपवित्र नहीं होती। जो छाया को अपवित्र मानते हैं उनके मन अपवित्र होते हैं, सोच अपवित्र होती है।”

कहते हुए हरिप्रसाद को भर आईं आँखें पोछने के लिए दो बार चश्मा उतारना पड़ा।

चौथी बेटी

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आज उसकी बेटी निर्मला ने अपनी कलेक्टर की शानदार नौकरी ज्वाइन कर ली है । आज पहला दिन है उसका। और वह  गर्व से भर उठी है। निर्मला को उसने ऐसा गढ़ा था जैसे कुम्हार चाक पर मिट्टी के लौंदे को सुंदर आकार देता है।

 तीन बेटियों के बाद जब कोख की जांच कराने पर चौथा भ्रूण भी कन्या का ही निकला तो सास ने आंखें तरेर कर कहा -“अब क्या चौथी को भी जन्म देगी बहू, अबॉर्शन करा ले और छुटकारा पा ले इस मुसीबत से।” 

उसका दिल धक से रह गया था।

“यह कैसी बात कर रही हैं  माँजी आप? हत्यारन बन जाऊं मैं, अपनी ही बेटी को खत्म कर दूँ? “

“अरे सोहन का भी तो सोच। चार चार को ब्याहते उसकी तो कमर ही टूट जाएगी ।”

“सब अपना भाग्य लेकर पैदा होती हैं। और फिर माँजी जैसे आप अपने बेटे के लिए सोच रही हैं, मैं भी तो सोच सकती हूँ न अपनी अजन्मी बेटी के लिए ।”

और छलक आई आँखों पर पल्लू रख उसने खुद को कमरे में बंद कर लिया ।सोहन तो संत स्वभाव के । माँजी ने उन्हें उल्टी सीधी पट्टी पढ़ाकर  राजी करने की कोशिश की पर उनका यही जवाब था-” वह चाहेगी तभी होगा ।मैं दबाव नहीं डाल सकता ।” 

उसके 9 महीने जैसे 9 बरस की तरह बीते। हर पल लगता कहीं माँजी एबॉर्शन की कोई जड़ी बूटी न पिला दें उसे। तनाव भरे वे 9 महीने उसकी सेहत पर भारी पड़े। इसीलिए निर्मला कम वजन की और बीमार पैदा हुई। उसे डॉक्टरों की देखभाल में महीने भर रखा गया। कांच के पार्टीशन से वह अपनी बेटी को देख भर सकती थी।

” क्या सोच रही हो मम्मी। कब से मिठाई का डिब्बा लिए सामने खड़ी हूँ ।”

उसने हुलसकर निर्मला को गले से लगा लिया । उन बरसों की पीड़ा आँखों के रास्ते बह चली।

वचन

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उसने माधुरी की ठोड़ी ऊपर उठाकर कहा -“बहुत प्यारी लग रही हो ।यह नया जीवन तुम्हें मुबारक हो। प्रकाश अच्छा लड़का है तुम्हें सुखी रखेगा।” माधुरी ने झुककर सुकेशा माँ के चरण छुए। वह सब की माँ है। कभी वह शरणार्थी थी आज शरणदाता है। मुखर्जी परिवार की 9 वर्षीय बाल विधवा को सीधे मायके का रास्ता दिखा दिया था सास ससुर ने।

” अब इस घर में तुम्हारी कोई जगह नहीं।

” मायके से भी वह निकाली गई। उसके चाचा घोषाल बाबू स्वयं उसे काशी स्थित विधवा आश्रम छोड़ गए थे ।सुकेशा के लंबे केश काट दिए गए। सुंदर सांवला गोल चेहरा केश हीन हो  रूप खो चुका था।

पर उसने हार नहीं मानी। विधवा आश्रम में रहते हुए उसने मैट्रिक किया और शहर के रईस ने जिनके विधवा आश्रम में वह रह रही थी उसकी योग्यता देख उसके लिए बालिका अनाथालय खोल दिया था।

अब सुकेशा सब की माँ हैं। सब के दुख दर्द की सहायक ।उसके अनाथालय की सभी 50 लड़कियां पढ़ भी रही हैं और कपड़े सीकर अनाथालय की आमदनी में भी सहायक है।

कल कोर्ट मैरिज के बाद आज अनाथालय की सदस्य माधुरी विदा हो रही है ।प्रकाश ने माधुरी का हाथ पकड़ा

” इतनी सारी बेटियों की माँ सुकेशा का अब एक बेटा भी है। मैं आपके अधूरे सपनों को पूरा करूंगा माँ।”

“वैसे तो सब ईश्वर के हाथों में है बेटा, पर मनुष्य के हाथों में जो है उसका मान रखना ।माधुरी को कभी शरणार्थी न होने देना ।”

किन्नर

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अंधेरी स्टेशन आते ही किन्नरों का झुंड लोकल ट्रेन के महिला डिब्बे में चढ़ आया और ताली बजा बजाकर हाथ फैलाकर पैसे मांगने लगा। एक किन्नर ने नीलू के सिर पर हाथ रखा

” दे माँ “

“क्यों भीख मांगते हो ?कुछ काम क्यों नहीं करते?”

उसे जैसे अंगारा छू गया 

“हमको कौन देगा काम माँ, सब दुत्कार देते हैं ।तुम दोगी काम क्या?” ‘काम करोगे ,बर्तन झाड़ू पोछा यही घरेलू काम कर सकते हो ?’

तभी पीछे से दूसरा किन्नर आया ” धंधे के टेम में क्यों हमारा टेम खोटी करता।” कहते हुए उसने नीलू के सिर को हाथ से धकेला।

” सब ऐसाइच बोलते ।तुम पूरा बदन लेकर आई न इसलिए ।”

और आगे बढ़ते हुए बड़बड़ाया “बात करती”

लेकिन इस बार नीलू घिर चुकी थी किन्नर के सवालों से ।ताली बजाना छोड़ कर वे टूट पड़े 

“कोई दफ्तर, कोई होटल, कोई बाजार हमको काम नहीं देता ।हमको बेइज्जत करके भगा देते हैं। देर तक उनके ठहाके हमारा पीछा करते हैं। भगवान ने ऐसा शरीर दिया उसमें हमारा क्या कसूर?”

काफी देर तक डिब्बे में किन्नर छाए रहे।मुंबई सेंट्रल आने पर वे उतरने के लिए दरवाजे की ओर बढ़े तो नीलू ने पास खड़े किन्नर के हाथ में यह सोच कर कि मान्यता है कि किन्नरों का आशीर्वाद फलित होता है, 10 का नोट रखा ।

उसने जोर से ताली बजाई

“इतनी देर तुम्हारी बकवास सुनने का बीएस दस रुपया? मंदिर में जाती हो तो पंडित बिना कुछ काम के दक्षिणा के  सौ सवा सौ ऐंठ लेता है तब तो तुम खुशी खुशी  दे देती हो और हम तो तुम्हारे लिए डायरेक्ट भगवान से दुआ करते हैं ,लेकिन….. . 

मुखौटा

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आज वह अपने प्रिय कथाकार उमेश दीक्षित से मिलेगी। स्त्री पक्षधर एक ऐसे लेखक से जिनकी कहानियाँ, लेख विभिन्न पत्रिकाओं में वह अरसे से पढ़ती आ रही है ।यह पहला लेखक है जिसकी रचनाएं स्त्री के पक्ष में होती हैं। विभिन्न साहित्यिक समारोहों में छाए रहते हैं उमेश दीक्षित । पता चला है कि वे उसी के शहर में आ बसे हैं। मुलाकात के लिए बिना फोन किए वह उन्हें सरप्राइस देना चाहती थी।

” उमेश दीक्षित जी मैं आपकी फ़ेन हूँ। मन खुश हो जाता है आप की कहानियाँ पढ़ कर ।मैं भी एक छोटी मोटी कवयित्री हूँ। यह मेरा पहला कविता संग्रह आपको भेंट करने के लिए लाई हूँ। 

इतवार का दिन ।आज तो उसकी ऑफिस से भी छुट्टी है ।अच्छा समय बीतेगा अपने प्रिय लेखक के साथ। 

उमेश दीक्षित के फ्लैट के सामने खड़ी होकर उसने घंटी की तरफ हाथ बढ़ाया ही था कि अंदर से मारने ,पीटने, बर्तन फेंकने और एक स्त्री स्वर के रोने की आवाज सुनकर रुक गई ।एक पुरुष स्वर रोती हुई स्त्री को गंदी-गंदी गालियों से नवाज रहा था ।

तभी सामने वाले फ्लैट से एक महिला निकली। फ्लैट के लैच में चाबी घुमाकर उसने लिफ्ट का बटन दबाया ।उसकी ओर देखकर वह महिला मुस्कुराई-” दीक्षित जी से मिलने आई हैं। अभी तो वे शराब पीकर अपनी पत्नी पर मर्दानगी आजमा रहे हैं ।रोज का तमाशा है, इतवार के दिन तो सुबह से शुरू हो जाते हैं। बनते हैं बड़े लेखक।”

वह अवाक…….

कभी उमेश दीक्षित का फ्लैट देखती कभी लिफ्ट का इंतजार करती महिला को 

मोहताज

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“यह क्या कर रहे हैं बाबूजी,?” बहू की आवाज से वे चौंक पड़े ।चाय कप में छानते हाथ काँपे और चाय छलक गई। 

“कौशल्या के लिए चाय बना रहे हैं बहू, बरसों की आदत है उसकी नाश्ते के बाद चाय पीने की ।”

“जवानी की आदतें तो वैसे भी बुढ़ापे में छूट जाती हैं ।लेकिन आप दोनों की कोई आदत नहीं छूटी ।”

बहू ने ताना मारा ।

“अभी सारा प्लेटफार्म साफ किया था मैंने। आपने चाय छलका दी। अब फिर से साफ करना पड़ेगा ।यही करते रहो दिन भर ।”

वे कपड़ा लेकर खुद साफ करने लगे। बहू के तेज तर्रार स्वभाव के वे और कौशल्या शिकार हैं। पर क्या करें। शायद बुढ़ापा ऐसा ही होता है ।काम कराते समय बहू भूल जाती है उनका बुढ़ापा।

नाश्ते के बाद उसने बिजली और पानी का बिल थमा दिया -“यह जमा कर लौटते में सब्जी लेते आना ।”

उन्होंने असमर्थता जताई।

” आज घुटनों और कंधों में बहुत दर्द है। कल जमा कर देंगे ।”

“रोज का रोना है आपका ।काम नहीं करेंगे तो जकड़ जाएंगे अंग ।मशीन भी बहुत दिन न चले तो जाम हो जाती है ।”कहते हुए उसने झोला थमा कर उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया। सब्जी खरीदकर झोले में भरी तो झोला उठा नहीं। सब्जी वाले ने अपने बेटे से कहा -“जा मुन्ना ,बाबू जी का झोला घर तक पहुंचा दे।बुढ़ापे का शरीर। बहू के राज में मोहताज हो जाता है आदमी।”

वे लाचार कदमों से मुन्ना के पीछे-पीछे चलने लगे।

छूटने का दर्द

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पार्क की बेंच पर बैठे वे अखबार पढ़ रहे थे ।आजकल आधे घंटे घूमना नहीं हो पाता। थक जाते हैं। उनके साथी और पत्नी अभी भी घूम रहे थे। अखबार के मुखपृष्ठ की खबर से उनकी आंखें चमकने लगीं।वैसे तो खबर कल से ही गर्म थी ।कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए खत्म करने की।

” क्या बात है भट्ट साहब ।आज बड़े खुश दिखाई दे रहे हैं।”

पार्क में उनके साथ घूमने वाले तिवारी जी ने पास बैठते हुए कहा ।

“कश्मीर अब राहत की सांस ले पाएगा। हम कश्मीरी पंडित भी। देखिए ,अखबार पढ़िए ।”

कहते हुए खुशी से छलके पड़ रहे थे वे।

” क्या जमाना था वह । 30 साल पहले श्रीनगर में हमारा अपना मकान था। पीडब्ल्यूडी में नौकरी थी ।लेकिन घाटी में ऐसे हालात बिगड़े कि सब कुछ छोड़कर रातों रात भागना पड़ा ।  5 लाख का मकान अब तो एक करोड़ का होगा।” उनकी आंखों में बेबसी की छाया देख तिवारी जी ने सलाह दी।

“तो लौट जाइए न कश्मीर ।”

एक लंबी आह भरते हुए वे बोले ।

अब कहाँ संभव है ? कुछ साल पहले तक बेटे के घर जम्मू जाते रहे थे। अब वह भी बंद । तिवारी जी, बेटे बहू की जिंदगी में हमारा दखल उन्हें नागवार गुजरता है।

“इतना दुखी क्यों होते हो जी ,जान से प्यारे कश्मीर छूटने का दर्द सह लिया, बेटे बहू का भी सह ही रहे हैं।”

श्रीमती भट्ट भी घूमना समाप्त कर उनके बगल में आ बैठी थीं।

“भाईसाहब ,श्रीनगर में हमारी गृहस्थी छूटी । कितने शौक से सजाया था मैंने घर ।और कितने अरमानों से पाला था बेटे को ।पर……

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अभावों का बदला

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रात के 12:00 बजे थे। यार दोस्तों के साथ गपशप करते शराब पीते उन्होंने अपनी अलसाई पत्नी सोमलता को सबके लिए खिचड़ी बना लेने का आदेश दिया। सोमलता मुस्कुराती हुई झटपट पापड़, अचार सहित गर्मागर्म खिचड़ी परोस लाई।

मुस्कुराता हुआ सौम्य व्यक्तित्व है उनका। सोने की मोटी चेन सहित एक दो और चेन गले में पहने रहते हैं। नीलम, हीरा, पुखराज की अंगूठियां उंगलियों को अपनी गिरफ्त में लिए रहती हैं। पांव घर में  कम ही टिकते हैं। अंतरराष्ट्रीय मुशायरों में उनका नाम रोशन है।

” खिचड़ी क्यों ? पूरी आलू बना लेती आप कहते तो।”

” तुम नहीं जानतीं सोमलता। मैं अपने अभावों से जुड़ा रहना चाहता हूँ।” और वे खिचड़ी का कौर मुंह में रख आंख मूंद लेते हैं।

यार दोस्तों को खिचड़ी खाता छोड़ वे पहुंच जाते हैं तीन बत्ती इलाके की उस चॉल में ,जहाँ सुबह लोटा लेकर उन्हें टॉयलेट के लिए लाइन में खड़ा रहना पड़ता था और जहां चावल का माड़ पीकर वे काम की तलाश में जाते थे। महीनों सालों की भटकन से गुजरे हैं वे और अब बंगला ,गाड़ी ,नौकर चाकर, जवाहरात से सुशोभित व्यक्तित्व……मुशायरे में उनका नाम ही काफी है ।हीरे जवाहरात तो जीवन के अभावों से बदला लेना है। वरना उनके जैसा सीधा सरल……

“कहां खो गए शायर साहब खिचड़ी ठंडी हो गई ।”

“लाइए गर्म कर लाती हूं।” 

“नहीं ठंडी ही खाएंगे ।आज बदला लेने का मूड नहीं है।”

आतंक और इंसानियत 

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बस में बैठी वह अचानक भड़के दंगों से घिर गई। दवा का पैकेट उसने कसकर अपने हाथों में थाम रखा था। वह जल्दी से जल्दी अपने बीमार पिता तक पहुंच कर उन्हें दवा खिलाना चाहती थी। जो तेज बुखार और शरीर के जानलेवा दर्द से तड़प रहे थे ।लेकिन दंगाइयों ने बस का चक्का बर्स्ट कर दिया और हाथों में लाठियां पत्थर और लोहे की छड़ लेकर ड्राइवर की तरफ दौड़े।

” खोल दरवाजा। नहीं खोलता तो तोड़ दो।” वे भद्दी गालियां दे रहे थे और दरवाजे पर लाठियां बरसा रहे थे। ड्राइवर ने दरवाजा नहीं खोला ।हिंसक भीड़ और भी भड़क उठी। सनसनाते  पत्थर ड्राइवर के सामने के कांच को चूर-चूर कर गए। ड्राइवर की कनपटी से खून बहने लगा।

“चला दो बस, कुचल दो सालों को।” कंडक्टर चीखा और लगातार घंटी बजाता रहा। खून को आस्तीन से पोछते बौखलाए ड्राइवर ने अंधाधुंध बस चला दी ।लेकिन कुछ ही सेकंड  में दंगाइयों ने पिछला चक्का भी बर्स्ट कर दिया ।एक भारी कराह की आवाज सहित बस धक्का देती रुक गई ।दंगाइयों में से एक ने लपक कर ड्राइवर की तरफ का दरवाजा तोड़ डाला ।

वह सहम गई। उसकी बगल में बैठे बुजुर्ग भी घबरा गए ।

“बेटी तुम्हें घर से नहीं निकलना था।” “अंकल सुबह तक तो सब शांत था। रात को ही मेरे पापा की तबीयत बुरी तरह खराब हो गई ।मैं केमिस्ट से दवा ले रही थी कि कुछ लोगों ने दुकानें जलानी शुरू कर दीं। कुछ लोग भागते हुए चिल्लाने लगे।

भागो भागो ,बाबरी मस्जिद गिरा दी गई है । दंगे भड़क गए हैं।

मैं घबरा कर सामने खड़ी इस बस में बैठ गई। अब इस बस को भी यह जला देंगे। हे भगवान ।”

ड्राइवर ने पास रखी लोहे की छड़ उठा ली और दंगाइयों के बीच छड़ी सीधी ताने मेरी -गो- राउंड सा हवा में घूमने लगा ।जिसके धूमिल खटोले पर उसे पापा का मुरझाया चेहरा दवा के इंतजार में टकटकी बांधे नजर आया। ड्राइवर की छड़ से मार खाए कुछ भाग गए ।कुछ घायल होकर गिर पड़े। मौका पाते ही बुजुर्गों उसे लेकर बस से उतरे और तेजी से भागे ।

“चलो बेटी तुम्हें घर तक छोड़ देता हूं। अल्लाह रहम कर।”

बुजुर्ग के मुंह से यह सुनते ही चौंक पड़ी वह।

ममता

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रेस्क्यू ऑपरेशन चल रहा था। कितनी लड़कियां अलमारियों में से, पानी की टंकी में से निकाली गईं।बचाव दल उन्हें ढूंढने के हर तरीके अपना रहा था। कहीं-कहीं तो फर्श पर लेट कर रेंगना भी पड़ रहा था ।अंधेरे सीलन।भरे बदबूदार कमरों में बिना आहट के छापामार पद्धति से बचाव दल ने ढेरों लड़कियों को मुक्त किया।

 लेकिन एक औरत उनके साथ जाने से इंकार कर रही थी।

 “क्या हुआ तुम्हें। तुम इस नरक से क्यों नहीं छुटकारा चाहतीं।” 

वह चुप रही ।

“जिस्म का सौदा क्या तुम्हें रास आने लगा है ।रुपयों का मोह तुम्हे गर्त में ढकेले है। होश में आओ मोहतरमा।” वह चुप रही ।हम तुम्हें इज्जत की नई जिंदगी देने आए हैं। “

“अरे हद है ।चलने से भी इंकार कर रही हो और बता भी नहीं रही हो।”

” इसे जबरदस्ती ले जाना पड़ेगा सर।” बचाव दल की दो महिलाओं ने उसे बाहों से पकड़ा और ले जाने लगीं। लेकिन उसके पैर पीछे की ओर खिंच रहे थे ,चलने से इंकार कर रहे थे। अचानक वह रो पड़ी

” छोड़ दीजिए मुझे ,मैं आपके संग नहीं जा सकती। मेरा बच्चा इनके पास है ।जिसके सीने पर चाकू रख यह मुझसे धंधा करवाते हैं। मार डालेंगे उसे।”

पैर पसारता लॉक डाउन

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अरसे बाद आई थी छोटी बहन शशि। “दीदी ,पीएचडी के लिए यहां यूनिवर्सिटी में थोड़ा काम है ।डाटा कलेक्ट करना है। प्रवासी प्रोफेसर के साथ हम शोधकर्ताओं की मीटिंग्स भी है।”

“वाह ,यह तो अच्छी खबर है ।तुम रहोगी तो मुझे सिया की कमी नहीं खलेगी ।”

उसकी इकलौती बेटी सिया पेंसिलवेनिया में अपने पति के साथ है।

शशि के आने के हफ्ते भर बाद ही कोरोना ने विकराल रूप ले लिया ।ट्रेनें, हवाई जहाज बंद ।लॉक डाउन की स्थिति में शशि को रुक जाना पड़ा। लेकिन उसका रुकना ,पति के साथ उसकी बढ़ती नजदीकी, दिन भर एक ही कमरे में दोनों का ताश या शतरंज खेलना ,बात-बात में खिलखिलाना, हंसती हुई शशि की पति द्वारा ठोड़ी छूना या नाक दबाना ।बालकनी में शशि की कमर में हाथ डाले रहना। शशि भी उनके कंधे पर सिर टिका देती। यह सब क्या हो रहा है? शंका से भर उठी वह।

“सुनिए लॉक डाउन की अवधि तो बढ़ती ही जा रही है। ऐसे में शशि कब तक रहेगी यहां  ?

कमाल है ऐसा सोच भी कैसे सकती हो तुम। दिमाग के ताले खोलो और अपने काम में मन लगाओ। अच्छी-अच्छी डिशेस बनाकर हम दोनों को खिलाओ।”

कहकर जाते हुए पति सीधे शशि के पास पहुंचे और दरवाजा बंद कर लिया।

उसकी जिंदगी का लॉक डाउन शुरू हो चुका था।

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लेखिका – संतोष श्रीवास्तव

1 thought on “लघुकथा संग्रह:मुस्कुराती चोट-संतोष श्रीवास्तव

  1. मेरा लघुकथा संग्रह मुस्कुराती चोट के प्रकाशन के लिए प्रकाशक का बहुत-बहुत धन्यवाद ।यह बहुत उपयोगी काम हुआ है जो सभी इच्छुक पाठकों के काम आएगा।

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