ग़ज़लें : शायर अजय अज्ञात
ग़ज़लें
(१) ज़िंदगी में हर तरह की उलझनों के बावजूद
ज़िंदगी में हर तरह की उलझनों के बावजूद
हमने चूं तक भी नहीं की मुश्किलों के बावजूद
अड़चनों के, हादसों के, मसअलों के बावजूद
कहकहे हमने लगाए हैं ग़मों के बावजूद
मंज़िल ए मक़सूद पर पहुँचे बिना थमना नहीं
मुस्कुराते चल रहे हैं आबलों के बावजूद
हसरतें ज़िंदा हैं दिल में आसमां को छूने की
कोशिशें जारी हैं इन टूटे परों के बावजूद
क़ुर्बतों के सिलसिलों की यादें हैं ताज़ा अभी
दूर हो पाए कहाँ हम फ़ासलों के बावजूद
(२) वक़्त के चाबुक का कुछ ऐसा असर दिखने लगा
वक़्त के चाबुक का कुछ ऐसा असर दिखने लगा
ज़िंदगी की आंखों में थोड़ा सा डर दिखने लगा
एक सा मंज़र यहाँ शामो-सहर दिखने लगा
हर बशर लाचार,ख़ुद से बेख़बर दिखने लगा
चल दिये हैं लौट कर,जो भी जहाँ से आये थे
हर किसी के सिर पे अब रख़्ते-सफ़र दिखने लगा
ख़्वाब सारे टूट कर जब किरचे किरचे हो गये
छान छप्पर ही में अपना अच्छा घर दिखने लगा
जो खुली आँखों से हमको दिख न पाया दोस्तो
बंद आँखों से हमें वो मोतबर दिखने लगा
क्या हिमालय,क्या परिंदे,और क्या पर्यावरण
वक़्त के बदलाव का, सब पर असर दिखने लगा
ज़ीस्त के सहरा में कब ‘अज्ञात’ हम तन्हा हुए
धूप में अपना ही साया हमसफ़र दिखने लगा