Month: April 2021

मैं हूँ बनफूल – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मैं हूँ बनफूल  मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है...

तू मन अनमना न कर अपना – कवि भारत भूषण अग्रवाल

तू मन अनमना न कर अपना तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे...

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ – कवि भारत भूषण अग्रवाल

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ  सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ प्रिय मिलने का वचन भरो तो ! पलकों-पलकों शूल बुहारूँ अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ भँवरों पर पहरा बिठला दूँ कहीं न जूठी कर दें कलियाँ फूट पडे पतझर से लाली तुम अरुणारे चरन धरो तो ! रात न मेरी दूध नहाई प्रात न मेरा फूलों वाला तार-तार हो गया निमोही काया का रंगीन दुशाला जीवन सिंदूरी हो जाए तुम चितवन की किरन करो तो ! सूरज को अधरों पर धर लूँ काजल कर आँजूँ अँधियारी युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ...

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल मेरे मन-मिरगा नहीं मचल हर दिशि केवल मृगजल-मृगजल! प्रतिमाओं का इतिहास यही उनको कोई भी प्यास नहीं तू जीवन भर मंदिर-मंदिर बिखराता फिर अपना दृगजल! खौलते हुए उन्मादों को अनुप्रास बने अपराधों को निश्चित है बाँध न पाएगा झीने-से रेशम का आँचल! भीगी पलकें भीगा तकिया भावुकता ने उपहार दिया सिर माथे चढा इसे भी तू ये तेरी पूजा का प्रतिफल!

ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ – कवि भारत भूषण अग्रवाल

ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ  ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ । ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ । है दर्द-कीट ने  युग-युग इन्हें बनाया आँसू के  खारी पानी से नहलाया जब रह न सके ये मौन,  स्वयं तिर आए भव तट पर  काल तरंगों ने बिखराए है आँख किसी की खुली  किसी की सोती खोजो,  पा ही जाओगे कोई मोती ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ

आज पहली बात पहली रात साथी – कवि भारत भूषण अग्रवाल

आज पहली बात पहली रात साथी आज पहली बात पहली रात साथी चाँदनी ओढ़े धरा सोई हुई है श्याम अलकों में किरण खोई हुई है प्यार से भीगा प्रकृति का गात साथी आज पहली बात पहली रात साथी मौन सर में कंज की आँखें मुंदी हैं गोद में प्रिय भृंग हैं बाहें बँधी हैं दूर है सूरज, सुदूर प्रभात साथी आज पहली बात पहली रात साथी आज तुम भी लाज के बंधन मिटाओ खुद किसी के हो चलो अपना बनाओ है यही जीवन, नहीं अपघात साथी आज पहली बात पहली रात साथी

जिस पल तेरी याद सताए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

जिस पल तेरी याद सताए जिस पल तेरी याद सताए, आधी रात नींद जग जाये ओ पाहन! इतना बतला दे उस पल किसकी बाहँ गहूँ मै अपने अपने चाँद भुजाओं में भर भर कर दुनिया सोये सारी सारी रात अकेला मैं रोऊँ या शबनम रोये करवट में दहकें अंगारे, नभ से चंदा ताना मारे प्यासे अरमानों को मन में दाबे कैसे मौन रहूँ मैं गाऊँ कैसा गीत की जिससे तेरा पत्थर मन पिघलाऊँ जाऊँ किसके द्वार जहाँ ये अपना दुखिया मन बहलाऊँ गली गली डोलूँ बौराया, बैरिन हुई स्वयं की छाया मिला नहीं कोई भी ऐसा जिससे अपनी पीर कहूं मैं टूट गया जिससे मन दर्पण किस रूपा की नजर लगी है घर घर में खिल रही चाँदनी मेरे आँगन धूप जगी है सुधियाँ नागन सी लिपटी हैं, आँसू आँसू में सिमटी हैं...

चक्की पर गेंहू लिए – कवि भारत भूषण अग्रवाल

चक्की पर गेंहू लिए चक्की पर गेंहू लिए खड़ा मैं सोच रहा उखड़ा उखड़ा क्यों दो पाटों वाली साखी बाबा कबीर को रुला गई। लेखनी मिली थी गीतव्रता प्रार्थना- पत्र लिखते बीती जर्जर उदासियों के कपड़े थक गई हँसी सीती- सीती हर चाह देर में सोकर भी दिन से पहले कुलमुला गई। कन्धों पर चढ़ अगली पीढ़ी ज़िद करती है गुब्बारों की यत्नों से कई गुनी ऊँची डाली है लाल अनारों की प्रत्येक किरण पल भर उजला काले कम्बल में सुला गई। गीतों की जन्म-कुंडली में संभावित थी ये अनहोनी मोमिया मूर्ति को पैदल ही मरुथल की दोपहरी ढोनी खंडित भी जाना पड़ा वहाँ जिन्दगी जहाँ भी बुला गई।

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई – कवि भारत भूषण अग्रवाल

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई  बांह में है और कोई चाह में है और कोई साँप के आलिंगनों में मौन चन्दन तन पड़े हैं सेज के सपनो भरे कुछ फूल मुर्दों पर चढ़े हैं ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई देह में है और कोई, नेह में है और कोई स्वप्न के शव पर खड़े हो मांग भरती हैं प्रथाएं कंगनों से तोड़ हीरा खा रहीं कितनी व्यथाएं ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई जो समर्पण ही नहीं हैं वे समर्पण भी हुए हैं देह सब जूठी पड़ी है प्राण फिर भी अनछुए हैं ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई...

अब खोजनी है आमरण – कवि भारत भूषण अग्रवाल

अब खोजनी है आमरण अब खोजनी है आमरण  कोई शरण कोई शरण गोधुली मंडित सूर्य हूँ खंडित हुआ वैदूर्य हूँ मेरा करेंगे अनुसरण किसके चरण किसके चरण अभिजात अक्षर- वंश में निर्जन हुए उर- ध्वंस में कितने सहेजूँ संस्मरण कितना स्मरण कितना स्मरण निर्वर्ण खंडहर पृष्ठ हैं अंतरकथाएं नष्ट हैं व्यक्तित्व का ये संस्करण बस आवरण बस आवरण रतियोजना से गत प्रहर हैं व्यंग्य- रत सुधि में बिखर अस्पृश्य सा अंत:करण किसका वरण किसका वरण