मैं हूँ बनफूल – कवि भारत भूषण अग्रवाल
मैं हूँ बनफूल मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है...