यह तो कहो किसके हुए – कवि भारत भूषण अग्रवाल
यह तो कहो किसके हुए आधी उमर करके धुआँ यह तो कहो किसके हुए परिवार के या प्यार के या गीत के या देश के यह तो कहो किसके हुए कन्धे बदलती थक गईं सड़कें तुम्हें ढोती हुईं ऋतुएँ सभी तुमको लिए घर-घर फिरीं रोती हुईं फिर भी न टँक पाया कहीं टूटा हुआ कोई बटन अस्तित्व सब चिथड़ा हुआ गिरने लगे पग-पग जुए -- संध्या तुम्हें घर छोड़ कर दीवा जला मन्दिर गई फिर एक टूटी रोशनी कुछ साँकलों से घिर गई स्याही तुम्हें लिखती रही पढ़ती रहीं उखड़ी छतें आवाज़ से परिचित हुए गली के कुछ पहरूए --- हर दिन गया डरता किसी तड़की हुई दीवार से हर वर्ष के माथे लिखा गिरना किसी मीनार से निश्चय सभी अँकुरान में पीले पड़े मुरझा गए मन में बने साँपों भरे जालों पुरे अन्धे कुएँ यह तो कहो किसके हुए ---