Year: 2021

लो एक बजा दोपहर हुई – कवि भारत भूषण अग्रवाल

लो एक बजा दोपहर हुई  लो एक बजा दोपहर हुई चुभ गई हृदय के बहुत पास फिर हाथ घड़ी की तेज सुई पिघली सड़कें झरती लपटें झुँझलाईं लूएँ धूल भरी किसने देखा किसने जाना क्यों मन उमड़ा क्यों आँख चुई रिक्शेवालों की टोली में पत्ते कटते पुल के नीचे ले गई मुझे भी ऊब वहीं कुछ सिक्के मुट्ठी में भींचे मैंने भी एक दाँव खेला, इक्का माँगा पर पर खुली दुई सहसा चिंतन को चीर गई आँगन में उगी हुई बेरी बह गई लहर के साथ लहर कोई मेरी कोई तेरी...

राम की जलसमाधि – कवि भारत भूषण अग्रवाल

राम की जलसमाधि पश्चिम में ढलका सूर्य उठा वंशज सरयू की रेती से, हारा-हारा, रीता-रीता, निःशब्द धरा, निःशब्द व्योम, निःशब्द अधर पर रोम-रोम था टेर रहा सीता-सीता। किसलिए रहे अब ये शरीर, ये अनाथमन किसलिए रहे, धरती को मैं किसलिए सहूँ, धरती मुझको किसलिए सहे। तू कहाँ खो गई वैदेही, वैदेही तू खो गई कहाँ, मुरझे राजीव नयन बोले, काँपी सरयू, सरयू काँपी, देवत्व हुआ लो पूर्णकाम, नीली माटी निष्काम हुई, इस स्नेहहीन देह के लिए, अब साँस-साँस संग्राम हुई। ये राजमुकुट, ये सिंहासन, ये दिग्विजयी वैभव अपार, ये प्रियाहीन जीवन मेरा, सामने नदी की अगम धार, माँग रे भिखारी, लोक माँग, कुछ और माँग अंतिम बेला, इन अंचलहीन आँसुओं में नहला बूढ़ी मर्यादाएँ, आदर्शों के जल महल बना, फिर राम मिलें न मिलें तुझको, फिर ऐसी शाम ढले न ढले। ओ खंडित प्रणयबंध मेरे, किस ठौर कहां तुझको जोडूँ, कब तक पहनूँ ये मौन धैर्य, बोलूँ भी तो किससे बोलूँ, सिमटे अब ये लीला सिमटे, भीतर-भीतर गूँजा भर था, छप से पानी में पाँव पड़ा, कमलों से लिपट गई सरयू,...

फिर-फिर बदल दिए कैलेण्डर – कवि भारत भूषण अग्रवाल

फिर- फिर बदल दिए कैलेण्डर फिर फिर बदल दिये कैलेण्डर तिथियों के संग संग प्राणों में लगा रेंगने अजगर सा डर सिमट रही साँसों की गिनती सुइयों का क्रम जीत रहा है! पढ़कर कामायनी बहुत दिन मन वैराग्य शतक तक आया उतने पंख थके जितनी भी दूर दूर नभ में उड़ आया अब ये जाने राम कि कैसा अच्छा बुरा अतीत रहा है! संस्मरण हो गई जिन्दगी कथा कहानी सी घटनाएँ कुछ मनबीती कहनी हो तो...

मेरी नींद चुराने वाले – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मेरी नींद चुराने वाले मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

मैं हूँ बनफूल – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मैं हूँ बनफूल  मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है...

तू मन अनमना न कर अपना – कवि भारत भूषण अग्रवाल

तू मन अनमना न कर अपना तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे...

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ – कवि भारत भूषण अग्रवाल

सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ  सौ-सौ जनम प्रतीक्षा कर लूँ प्रिय मिलने का वचन भरो तो ! पलकों-पलकों शूल बुहारूँ अँसुअन सींचू सौरभ गलियाँ भँवरों पर पहरा बिठला दूँ कहीं न जूठी कर दें कलियाँ फूट पडे पतझर से लाली तुम अरुणारे चरन धरो तो ! रात न मेरी दूध नहाई प्रात न मेरा फूलों वाला तार-तार हो गया निमोही काया का रंगीन दुशाला जीवन सिंदूरी हो जाए तुम चितवन की किरन करो तो ! सूरज को अधरों पर धर लूँ काजल कर आँजूँ अँधियारी युग-युग के पल छिन गिन-गिनकर बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी साँसों की जंज़ीरें तोड़ूँ...

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल – कवि भारत भूषण अग्रवाल

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल मेरे मन-मिरगा नहीं मचल हर दिशि केवल मृगजल-मृगजल! प्रतिमाओं का इतिहास यही उनको कोई भी प्यास नहीं तू जीवन भर मंदिर-मंदिर बिखराता फिर अपना दृगजल! खौलते हुए उन्मादों को अनुप्रास बने अपराधों को निश्चित है बाँध न पाएगा झीने-से रेशम का आँचल! भीगी पलकें भीगा तकिया भावुकता ने उपहार दिया सिर माथे चढा इसे भी तू ये तेरी पूजा का प्रतिफल!

ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ – कवि भारत भूषण अग्रवाल

ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ  ये उर-सागर के सीप तुम्हें देता हूँ । ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ । है दर्द-कीट ने  युग-युग इन्हें बनाया आँसू के  खारी पानी से नहलाया जब रह न सके ये मौन,  स्वयं तिर आए भव तट पर  काल तरंगों ने बिखराए है आँख किसी की खुली  किसी की सोती खोजो,  पा ही जाओगे कोई मोती ये उर सागर की सीप तुम्हें देता हूँ ये उजले-उजले सीप तुम्हें देता हूँ

आज पहली बात पहली रात साथी – कवि भारत भूषण अग्रवाल

आज पहली बात पहली रात साथी आज पहली बात पहली रात साथी चाँदनी ओढ़े धरा सोई हुई है श्याम अलकों में किरण खोई हुई है प्यार से भीगा प्रकृति का गात साथी आज पहली बात पहली रात साथी मौन सर में कंज की आँखें मुंदी हैं गोद में प्रिय भृंग हैं बाहें बँधी हैं दूर है सूरज, सुदूर प्रभात साथी आज पहली बात पहली रात साथी आज तुम भी लाज के बंधन मिटाओ खुद किसी के हो चलो अपना बनाओ है यही जीवन, नहीं अपघात साथी आज पहली बात पहली रात साथी