सावन की मन मानी है ये

 

सावन की मन मानी है ये

आग भरा इक पानी है ये

बारिश में मैं भीग रही हूँ

जैसे जलना सीख रही हूँ

 

 

बूँदों में अंगारे भर के

छत पे बादल क्यों आया है

जबकि चिता पे लेट गयी थी

आग से क्यों यूँ नहलाया है

 

 

ज़िंदा होने ने ही अक्सर

मौत से ज़्यादा तड़पाया है

साँसों में बस धुआँ भरा है

इस जीवन से क्या पाया है

 

 

इस जीवन को जीते जीते

जैसे जलना सीख रही हूँ

दुनिया आ के क्यों छलती है

खुद को छलना सीख रही हूँ

 

सावन को जाने न दूँगी

 

ऐसी भी नादान नहीं जो

सावन आ के जाने दूँगी

बना सोख्ता ये मन मेरा

बारिश क्यों बह जाने दूँगी

 

 

तुम पानी लेकर आओगे?

तुम क्या मुझ को नहलाओगे

आग हूँ मैं गर मुझपे बरसे

सच कहती हूँ पछताओगे

 

 

इक चिंगारी भी गर भड़की

दामन कहाँ बचाने दूँगी

ऐसी भी नादान नही जो

सावन आ के जाने दूँगी

 

 

मन से तन तक भीगे सब कुछ

और नही माँगूंगी अब कुछ

बर्फ़ गिरी तो जम जायेंगे

बोल सकेंगे कब ये लब कुछ

 

 

पानी को चादर कर लूँगी

इक सलवट ना आने दूँगी

ऐसी भी नादान नही जो

सावन आ के जाने दूँगी

 

 

हिंदी भाषा के जाने-माने प्रतिष्ठित कवि अनिल मासूम

 

 

 

 

 

 

1 thought on “Kavi Anil Masoom : Saawan ke Geet

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