मीडिया का कीड़ा… वरिष्ठ पत्रकार अशोक हमराही की कलम से..

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बात निकलेगी तो …

मीडिया का कीड़ा 

लोगों को अक्सर ये कहते हुए सुना करता था ‘फ़लां के दिमाग़ में मीडिया का कीड़ा घुसा हुआ है, जो अब कभी नहीं निकलने वाला.’ पहले सुनकर हंसी आती थी, पर अब सोचकर हंसी आती है. कितनी सही बात है. एक बार अगर मीडिया का कीड़ा दिमाग़ में घुस गया,तो आख़िरी सांस भी उसी के साथ आती है.

हालांकि अब मीडिया का रंग रूप पहले जैसा नहीं रहा, पर लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहे जाने वाले मीडिया की ताक़त में इज़ाफ़ा ज़रूर हुआ है. पहले भी धौंस जमाने वाले जायज़-नाजायज़ पत्रकारों की कमी नहीं थी. अब तो भरमार हो गयी है.

जान – पहचान से या ले-दे कर अख़बारों में ख़बर या लेख-कहानी वगैरह छपवाने वाले भी अब एक-दूसरे को मीडिया की ताक़त से निपट लेने की धौंस देते रहते हैं. कुछ तो ऐसे भी हैं, जो सोशल मीडिया पर अपने ‘चहेतों’ के माध्यम से मीडिया की ताक़त का मुज़ाहरा करते रहते हैं.

इधर कुछ सालों में मीडिया का तेजी के साथ विस्तार हुआ है, ख़ास तौर से सोशल मीडिया का हाल तो बेलगाम घोड़े की तरह है, जिसकी रफ़्तार का मुक़ाबला कोई नहीं कर सकता. सोशल मीडिया ने जहाँ बेशुमार पाठक जोड़े हैं, वहीं असंख्य लोगों को बेहिचक अपनी बात कहने का विश्वस्तरीय मंच दिया है.

फ़िलहाल प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया की बात करें तो इससे हमारा नाता कई दशकों का रहा है. वो 80 का दशक था जब प्रिंट मीडिया में काम करते हुए हमें बड़े-बड़े दिग्गज और देश के जाने- माने पत्रकारों से बहुत कुछ सीखने को मिला. फिर 90 के दशक में इलेक्ट्रानिक मीडिया भी काफ़ी सक्रिय होने लगा और अधिकतर प्रिंट मीडिया के पत्रकार इलेक्ट्रानिक मीडिया में शामिल होने लगे. कुछ दोनों नाव की सवारी कर रहे थे, तो कुछ बाक़ायदा इलेक्ट्रानिक मीडिया चलाने लगे.

हमारा हाल भी ‘दो नाव की सवारी’ जैसा था. क्योंकि प्रिंट मीडिया का कीड़ा दिमाग़ में इतना गहरा पैबस्त था कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में आने के बाद भी प्रिंट मीडिया का मोह दूर नहीं हो पा रहा था. फ़िलहाल पत्रकारिता तो दोनों ही माध्यम में थी और हम ज़िन्दगी में उतार-चढ़ाव के साथ यह सफ़र तय करते रहे.

‘मीडिया का कीड़ा’ जिस किसी के भी दिमाग़ में बैठा है, वो उसे कभी चैन से रहने नहीं देता. ‘जाने दो’ ‘ हमें क्या करना’ ऐसी बातें उनकी ‘डिक्शनरी’ में नहीं होती. ख़ामोश रह जाना उन्हें नहीं आता. दिल में हमेशा एक उथल-पुथल सी मची ही रहती है.

समय के साथ बदलाव होते ही रहते हैं और ये बदलाव मीडिया में भी आया है, लेकिन सबसे बड़ा बदलाव ये है कि इस मीडिया में जहां बेबाक़-निर्भीक और समर्पित पत्रकारों की संख्या में कमी आयी है, वहीं ऐसे पत्रकारों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिनकी बेबाक़ी और निर्भीकता अपनी ‘नौकरी’ के प्रति समर्पित है, मीडिया उनके लिए अन्य नौकरियों की तरह सिर्फ़ जीविका का साधन है या कमाई का एक ज़रिया.

कुछ ऐसा ही हाल मीडिया का है. ख़ासतौर से हिंदी मीडिया का. वो इलेक्ट्रोनिक हो, प्रिंट या अब सोशल मीडिया; सब अपनी-अपनी झोंके जा रहे हैं. भाषा की बात को नज़रंदाज़ करें तो प्रिंट मीडिया का हाल फिर भी बर्दाश्त करने लायक है, परन्तु इलेक्ट्रोनिक मीडिया…कुछ को छोड़ दें तो ज़्यादातर में न तो भाषा है और न ही संवाद. ‘पैनल डिस्कशन’ में एंकर ही बोलते हैं और ‘चैनल आइडियोलॉजी’ के अनुसार  ‘डिस्कशन के नाटक’ का पटाक्षेप हो जाता है. ख़बरों का तो ये हाल है कि सभी की ‘न्यूज़’ ‘एक्सक्लूसिव’ होती है और पहली बार उन्हीं के न्यूज़ चैनल पर कथितरूप से दिखाई जा रही होती है.

अब ऐसे  में ‘मीडिया का कीड़ा’ अगर किसी के दिमाग़ में बैठ जाए, तो क्या वो इसके साथ अपनी सारी ज़िन्दगी गुज़ार सकता है? मीडिया अब ‘पैशन’ नहीं रह गया… ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा भी नहीं.

‘प्रजातंत्र का रखवाला’ और ‘जनता की आवाज़’ कहा जाने वाला मीडिया अब दूसरे व्यवसाय की तरह सिर्फ़ पैसे कमाने का साधन रह गया है. मीडिया की कभी अपनी ताक़त हुआ करती थी, पर अब वो ताक़त उनके हाथ में है, जो प्रजातंत्र के तथाकथित रखवाले हैं.

फिर भी जिनके दिमाग़ में ‘मीडिया का कीड़ा’ है वो इसी के साथ सांस लेते हैं…जीते हैं और मर जाते हैं. इन मीडिया कर्मियों के लिए धन-दौलत, मान-सम्मान से बढ़कर ‘मीडिया कर्म’ होता है, यही उनका धर्म होता है और यही उनकी सबसे बड़ी ताक़त.पहले मीडिया की ताक़त सिर्फ़ अख़बारों में होती थी, अब इलेक्ट्रोनिक और सोशल मीडिया ज़्यादा प्रभावी हैं      .

मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने ऐसे ही मीडिया कर्मियों के लिए कहा है –

खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो, अख़बार निकालो

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