चलें फिर आज उजालों की तरफ़ – अशोक हमराही 

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चलें फिर आज उजालों की तरफ़ 

 

फ़िज़ा में रंग नज़ारों में जान आई है

सहर ये आज फिर नए मक़ाम लाई है

 

गुलों के होठ चूमकर अभी हटी थी शब

की चाहतों ने उम्मींदें नई जगाई हैं

 

तमाम रात चांदनी जो ख़्वाब बुनती रही

अभी अभी तो उन्हें ले के सबा आई है

 

खिले हैं रोशनी के फूल अब दरख़्तों पर

डालियाँ झूम के लेने लगी अंगडाई हैं

 

आओ हम भी चलें फिर आज उजालों की तरफ़

सुबह ये आज यही ले के पयाम आई है

अशोक हमराही 

 


 

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