प्रजातंत्र का उत्सव… वरिष्ठ पत्रकार अशोक हमराही की कलम से
बात निकलेगी तो …
प्रजातंत्र का उत्सव
अपने देश में आजकल उत्सव की धूम है, अरे ये वो उत्सव नहीं हैं, जो हम हर साल होली, दिवाली और ईद के नाम से मनाते हैं. ये है प्रजातंत्र का सबसे बड़ा उत्सव, जो पांच साल में एक बार आता है. हांलाकि प्रदेश स्तर पर भी हम हर पांच साल में प्रजातंत्र का उत्सव मनाते हैं, लेकिन उसमें पूरा देश शामिल नहीं होता; इसलिए इसे हम प्रजातंत्र का महा उत्सव कह सकते हैं.
वैसे नेतागिरी चमकाने के लिए ये मौक़ा सबसे बढ़िया होता है. यूँ भी नेतागिरी में ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट में एडमिशन लेने और एक्ज़ामिनेशन देने का ये सुनहरा मौक़ा होता है. ये एडमिशन यहाँ सीधे होते है. अगर सेलिबेट्री हैं तो वरीयता श्रेणी और ग्रेड बढ़ जाता है. फ़ैमिली बैकग्राउंड है तो आरक्षण भी मिल जाता है.
वैसे देखा जाए तो प्रजातंत्र के जितने भी त्यौहार हैं, वो आम जनता के लिए-आम जनता के नाम से ही होते हैं, परन्तु उनका सेहरा नेताओं के सर पर ही बांधा जाता है. नेता, जो जनता के नुमाइंदे हैं, कहने को जनता के सेवक भी हैं, लेकिन जनता की उन तक पहुँच पांच साल में सिर्फ़ कुछ दिनों तक ही हो पाती है. जब जनता से उन्हें ‘वोट’ की दरकार होती है. बाद में वो सभी नेतागण दूज के चाँद की तरह कभी- कभी ही नज़र आते है.
उत्सव की बात करें तो हाल ही में हमारे देश में अर्धकुम्भ मनाया गया, कहने को तो ये अर्धकुम्भ था, लेकिन इसकी शान महाकुम्भ से कम नहीं थी. ऐसा कुम्भ उत्सव, जो संभवतः अब तक का सबसे ज़्यादा आलीशान और सबसे ज़्यादा ख़र्चीला था. ख़र्च का क्या है, जाता तो सब आम जनता की जेब से ही है. आम जनता इसलिए, क्योंकि ख़ास जनता की जेबें भी तो आम जनता की ख़ून-पसीने की कमाई से ही भरी जाती हैं.
महान राजनीतिज्ञ कौटिल्य ने, जिन्हें हम चाणक्य के नाम से भी जानते हैं, कहा था ‘सफ़ल राजा वही है, जिसका ‘देना’ दिखाई दे, लेकिन ‘लेना’ पता न चले. अर्थात् जिसके राज्य में लिए जाना वाला ‘टैक्स’ जनता को दिखाई न दे पता ही न चले, लेकिन जनता को दी जाने वाली सुविधाएं जनता को दिखाई दें.
आज इसका बिलकुल उलट है. अलग-अलग तरह के टैक्स का बोझ बढ़ता जा रहा है, लेकिन सुविधाएं दिखाई नहीं देतीं. आम जनता की आधी से ज़्यादा कमाई टैक्स चुकाने में चली जाती है. उदाहरण के तौर पर सड़क आदि सुविधाओं के लिए जनता अपने खून पसीने की कमाई से टैक्स अदा करती है. वाहनों के लिए रोड टैक्स भी लिया जा चुका होता है; लेकिन सड़क बनने के बाद उसके लिए ‘टोल टैक्स’ देना पड़ता है. ऐसे और भी अनेक उदाहरण हमारे देश में देखे जा सकते हैं.
खैर, बात हो रही है प्रजातंत्र के महापर्व की, तो हर तरफ़ यही देखने-सुनने को मिल रहा है कि इस बार सरकार किसकी बनेगी, सरकार बहुमत की होगी या अल्पमत की. पार्टी और नेताओं के समर्थक प्रचार में लगे हैं, छोटे-बड़े हर नेता अपनी जीत की उम्मीद में जनता के दरवाज़े खटखटा रहे हैं.
कहीं भ्रष्टाचार का मुद्दा है, तो कहीं परिवारवाद; कहीं रोज़गार मुद्दा है तो कहीं विकास; कहीं आतंकवाद, तो कहीं राष्ट्रवाद. नागरिकों को लुभाने के लिए, उन्हें अपनी और आकर्षित करने के लिए हर नेता नए भारत का नक्शा खींच रहे हैं. पर ये कोई नयी बात नहीं है. हर चुनाव में कमोवेश कुछ-कुछ ऐसे ही मुद्दे होते हैं जनता की अदालत में.
यही सुनते आये हैं कि नेता जनता के सेवक होते हैं. लेकिन ऐसे नेताओं की संख्या कितनी है, ये बात गौर करने की है. सालों से हम यही देखते आये हैं कि नेताओं की तिजोरियां भरती जा रही हैं और जनता की जेब ख़ाली होती जा रही है. यानि जनसेवा और जनकल्याण की बजाय नेतागिरी एक व्यवसाय बनकर रह गया है. पढ़ लिख नहीं सके-कहीं नौकरी नहीं मिली-काम धंधा नहीं चला, तो नेतागिरी को रोज़गार बना लिया.
‘ऐसे’ और ‘वैसे’ सभी नेता इस पांचसाला महोत्सव में जनता के दरबार में हैं. अब ये हमें तय करना है कि इनमें से कौन जनता का सच्चा नुमाइंदा है और प्रजातंत्र की डोर हमें किसके हाथ में थमानी है. इसलिए इस महोत्सव में हमें भाग लेना ही होगा.
‘कोऊ नृप होय हमें का हानी’ मानकर घर में बैठे नहीं रहना है. वर्ना फिर आगे के सालों में चीखने-चिल्लाने या नेताओं के दोष गिनाने का हमें कोई अधिकार नहीं होगा. मतदान हमारा अधिकार भी है और कर्तव्य भी. सोच-समझकर मतदान करेंगे तो ‘न चिड़िया खेत चुगेगी और न बाद में पछताना पड़ेगा’.