तुम चाहते हो अकेली मिलूँ मैं तुम्हें – प्रज्ञा पांडे

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तुम चाहते हो 

अकेली मिलूं मैं तुम्हें

पर मैं

अकेली नहीं मैं

मेरे पास है

 मेरी तपन  और मेरी आग 

 वर्जनाओं का सिलसिलेवार 

और  बेतरतीब  अतीत 

है मेरे पास ।

जबसे  सभ्यता है  जंगल हैं 

तब से ही मैं हूँ 

और 

 सलीबें हैं मेरे साथ !

मैंने उफ़ नहीं की

मगर बनाती गई हूँ 

आग के कुँए अपने वजूद में

तुमने जाना कि  मौन हूँ

तो

हूँ  मधुर

बेजुबान !

मगर मैं तो मजबूत करती रही हूँ रीढ़। .

  रतजगों 

को ढाला है 

मैंने कवच में

उसी को पहन आउंगी तुमसे मिलने.

अकेली नहीं मैं .


 


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