तनया

माँ सुनो मैं तनया तुम्हारी
अपनी कथा सुनाती हूँ ।
मिली मुझे जो जग से हर पल
वो ही, व्यथा सुनाती हूँ ।
माँ सुनो…

जैसे बुनता तनय बीज वो
मैं भी यूँ बुन जाती हूँ ।
जैसे सिंचित वो गर्भ में
यूँ ही मैं भी सिंच जाती हूँ।
और..
फूट पड़ती जब बन कर अंकुर
तब मैं जांची जाती हूँ ।
सब को प्यारे तनय तुम्हारे,
मैं तनया त्यागी जाती हूँ ।
माँ सुनो मैं…

पा भी गई मैं जन्म अगर तो
धिक्कारों पाली जाती हूँ ।
लाड़ दुलार तनय पा जाते
धन – वैभव उनके हिस्से में ।
और माँ मैं, तनया तुम्हारी
उपेक्षा पा रह जाती हूँ ।
माँ सुनो मैं…

माँ मैंने और कुछ ना चाहा
बस एक नजर भर प्यार ही पाती
खिलती मुझसे मुस्कान तुम्हारी
माँ के आँचल का तार ही पाती।
तेरी ममता के सागर से माँ मैं
बस एक गागर ही भर पाती ।
पाती चाहे कुछ ना मैं बस
अनचाहे का एहसास ना पाती ।
पर इन सब के बीच भी मुझको
इतना सा तो ज्ञात रहा ।
मैं तुझको, तू मुझको प्यारी
मैं तुझपे जान लुटाती हूँ ।
मिली मुझे जो जग से हर पल
वो ही व्यथा सुनाती हूँ ।
माँ सुनो मैं तनया तुम्हारी
अपनी कथा सुनाती हूँ
मैं तुझपे जान लुटाती हूँ -2 ।

दिव्या त्रिवेदी
अप्रसारित/ अप्रकाशित
स्वरचित मौलिक रचना
01/02/2011

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