कवि : गोप कुमार मिश्र


सुमुखी सवैया छंद

माँ शारदे को समर्पित
121 121 121 121 121 121 121 12
यानि 121*7+12

धरूँ सब मान गुमान परे अस शीश अशीश कृपा धरिये।
अबोध न बोध हमें सुनु मातु सुबोध अबोध मती करिए।।
अलोकहुँ लोक सदा रसखान कबीर फरीद गती सरिए।
कवित्त समर्पित मातु चरण तव शुद्ध अशुद्ध कमी हरिए।।

आज मना अस गोप करै सुनु, शारद मातु सु खेलहुँ होरी।
भाव अँबीर गुलाल लगावहुँ,माथ सजावहुँ चंदन रोरी।।
छंदहु बंद कवित्त निचोरहु, राग विरागहुँ रंग निचोरी।
शब्द पराग भरौ पिचकारिन, लालहुँ लाल करौ बरजोरी।।

प्रतिकृति(आखिर अग्नि परीक्षा क्यों)

राधे श्यामी छंद में

वह स्वर्ण हिरन जो हिरन नही,
मारीचि असुर की थी माया।
सीता जिसका हरण हुआ था , I
वह तो सीता की थी छाया।।

सिय तो आदिशक्ति ठहरी,
अग्नि वास कर सकती है।
रावण सीते का हरण करे,
कब उसमें इतनी शक्ती है।।

है अग्नि से बडी शक्ति सिया,
आते समीप जल जायेगा।
दशशीश मुक्ति पा जायेगा,
पर निशचर दल बच जायेगा।।

यह सोच कहा वैदेही से ,
अब खेल बना बिगडे सगरा।
तेरे रहते, राक्षस विहीन ,
कब होने वाली बसुन्धरा।।

मै रघुनंदन विनती करता,
तुम पावक बिच वास करो।
धरती का भार हरण कर लूं,
ले आऊँगा विश्वास करो।।

जनहित खातिर है पति इच्छा,
ये भाग्य अहो ठहरा मेरा।
प्रतिकृति निज रूप-शील रक्खी,
फिर डाल लिया अग्नी डेरा।।

सीता पावक में वास करें लीलोपरांत खुलनें बंधन
सखी प्रगट हो बोलो कैसे ,
ये सोंच रहे हैं रघु नंदन

करना सीता का प्रादुर्भाव
प्रतिकृति को अनल समाना था
ये भेद राम -सिय, छाया का लक्षमण ने भी कब जाना था

करते कैसे ये भेद भंग
नर से नारायण बन जाते
दुर्बचन कहे कुछ छाया से
ये तुलसी बाबा बतलाते

छाया बोली लछिमन भइया
तुम धर्म परीक्षा साक्ष्य बनो
अग्निशिखा तुम प्रकट करो तुम साख्य मिलन के साक्ष्य बनो

छाया ने अग्नि प्रवेष किया
खुद को उसमें मिटा दिया
सिय हाथ पकड तब अग्निदेव , पाणिग्रहण सियराम किया

देखा न किसी ने यह कौतुक ,
थे देव मुनी सब सिद्ध खडे
सीता की अग्नि परीक्षा क्यों , दुनिया करती है प्रश्न खडे


अधराधर श्याम धरी मुरली , जल लेन गई धुन कान परी है।
गगरी जमुना जल छोडि दई , गुजरी किसना धिग आइ खरी है।।
वृषभानु लली अति प्रेम भरी ,निकली घर से न बिलम्ब करी है।
पग धूरि भरे पनही बिन री ,मदहोश न होशहुँ होश धरी है।। १।।

नहि धेनु चरै यमुना ठ़हरी ,बख़री बख़री पहुँची लहरी है।
अब रोटि जलै त जलै सुधि ना,बखरी बखरी बिखरी सि परी है।।
तन तीर समीर न जानि परै , तन डाल झुकी त झुकी पसरी है।
सचराचर रूप देखाति हरी , नभ देव विमानन रेख भरी है।।२।।

गीत-1

सपन सलोना बचपन
आखों मे सागर लहराया।
याद मुझे फिर बचपन आया।।

आँचल माँ का नही है सूना,
हम ही उससे दूर हो गये।
सपनो की दुनिया मे खोये ,
सपने भी अब चूर हो गये।।
स्वारथ की अंधी आँधी ने ,
मुझको कुछ ऐसा भरमाया
याद मुझे फिर————–

ऊँचे -ऊँचे महल दिखा कर ,
सपन खिलौना तोड़ दिया।
दर्द भरी मुस्कान की ख़ातिर
खुलकर रोना छोड़ दिया।।
सपन सलोना बचपन देकर
हमने यौवन ऐसा पाया
याद मुझे फिर————–

अपने ही कंधो पर अपनी ,
लाश उठाए फिरता हूँ।
बनूँ मसीहा औरो का ये ,
ख्वाब सजाए फिरता हूँ।।
सांसारिक मृग तृष्णा ने
मुझको ऐसा नाच नचाया।
याद मुझे फिर————–

* प्यास***

बुझनें लगी अब प्यास है।
मेरा मन बहुत उदास है।।

मै बूँद का कतरा सही।
भव सिन्धु भी गहरा सही।।
मुझे सीप की ये तलाश है।
मेरा मन बहुत उदास है।। १ ।।

अनहद ये मेरी चाह की।
मै धूल हूँ तेरी राह की।।
मुझे आसमाँ की आस है।
मेरा मन बहुत उदास है।। २ ।।

दिखता नही पर पास है।
एसा मेरा विश्वास है ।।
अब तो प्यास से ही आस है
मेरा मन बहुत उदास है।। ३ ।।

जो थम गयी वो श्वांस क्या।
जो बुझ गयी वो प्यास क्या।।
मुझे हरि चरण की प्यास है।
मेरा मन बहुत उदास है।। ४ ।।