आज की वैश्‍विक परिस्थिति और महात्मा गांधी

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हम आज कोरोना कोविड-19 के कारण वैश्‍विक शोक से घिरे हुए हैं, और राष्ट्रीय स्तर पर हम शर्मिंदा है। हमने देश के मजदूरों, मेहनतकशों को जिनके खून-पसीने से हमारी देश की सभ्यता, संस्कृति, उद्योग खड़े हैं, उन नागरिकों को सही ढंग से जीने का हक नहीं दिया। राष्ट्रीय स्तर पर सभी ने अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखी करते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया। आज हम बेहद खौफनाक, अमानवीय, असंवेदनशील माहौल में साँस ले रहे हैं। अचानक देश में लॉकडाऊन की घोषणा से पूरा देश स्तब्ध हो गया। ट्रेनें, बसें, कारखाने, सड़कों का निर्माण सारा काम बन्द हो गया। हमारे देश में कुछ मुख्य शहर हैं जहाँ पर विकास किया गया। परिणामतः इन्हीं शहरों में मुंबई, कलकत्ता, मद्रास, दिल्ली, हैदराबाद, केरल, तेलंगाना में जो प्रवासी मजदूर थे उनकी नौकरी चली गई। इनमें से अधिकतर वो थे जो डेलीवेजेस पर काम करते थे। मुंबई जैसे शहर में 40% प्रवासी मजदूर झोपड़ियों में तथा कुछ फुटपाथों पर रहते हैं, दिल्ली में हर दस मजदूर में आठ प्रवासी है। अचानक मजदूरों का काम बंद हुआ, उनकी रोजी-रोटी चली गई। जिन किराये के मकानों में वे रहते थे उन्हें खाली करने को कहा गया। भूख, गरीबी, महामारी के बीच मजदूरों ने फैसला किया इस अजनबी शहर में हमें खाना देने वाला कोई नहीं, जिन गाँवों से वे काम की तलाश में दो जून की रोटी के लिए शहरों में आए थे, उसी दो जून की रोटी के लिए वे गाँव की ओर चल पड़े। 40-45 डिग्री की कड़कड़ाती धूप में मजदूर अपने छोटे-छोटे बच्चों को साथ लिए चला जा रहा है। रास्ते में न खाना है ना पानी, न पैर में जूते हैं फिर भी गाँव की ओर चला जा रहा है। रास्तें में सड़कों पर उन्हें पुलिस के डंडे पड़ रहे हैं इसलिए वे पटरी पर चलने लगे, थककर सो गए और रात में उनके ऊपर से ट्रेन  गुजर गई। न जाने कितनी भयावह खबरें, खौफनाक दृश्‍य, हर पल, हर सेकेण्ड सोशल मीडिया द्वारा हम तक पहुँच रही है और हम सब बेबस, लाचार इन असहनीय दृश्‍यों को 

कोरोंटाईन होकर अपने घरों के टी. वी. चैनलों, मोबाइल फोनों से देख रहे हैं और हम सभी के जेहन में एक सवाल पैदा कर 

दिया। आखिर इन प्रवासी मजदूरों को गाँवों से शहर आने पर मजबूर क्यों होना पड़ा? क्या इन्हें इनके राज्यों, गाँवों में काम नहीं मिल सकता था।  

गांधीजी ने ओडिसा में स्नान करते हुए देखा कि एक महिला नदी में कब से खड़ी ठण्ड से ठिठुर रही है। बाहर नहीं आ रही है, पता करने पर लोगों ने बताया कि इस निर्धन महिला के पास एक ही साड़ी है। वह उसे धोकर सुखा रही है, जब साड़ी सुख जाएगी तब वह पानी से बाहर आएगी। गांधीजी ने उस महिला की गरीबी और विवशता देखकर तुरन्त अपनी पगड़ी उतारकर उस नग्न महिला की ओर बढ़ा दिया और अपने कपड़े उतार फेंके। वहीं पर उन्होंने यह प्रण लिया कि जब तक इस देश में सभी के पास पहनने को कपड़े नहीं हो जाते मैं कपड़े धारण नहीं करूँगा। उस दिन से गांधीजी लंगोट पहनने लगे। उनकी अन्तरात्मा ने उस गरीब औरत की संवेदना, उसके दुःख, उसकी मजबूरी के हक में खड़े होकर एक प्रतीकात्मक विरोध के लिए सिर्फ लंगोट पहननी शुरू कर दी। जिसके बारे में 20 वीं सदी के विश्‍व के महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन ने कहा था आने वाली सदी इस बात पर विश्‍वास नहीं करेगी कि कोई हाड़-मांस का ऐसा भी इंसान इस धरती पर पैदा हुआ था जो इंग्लैड की सड़कों पर माइनस डिग्री के नीचे तापमान में चला जा रहा था, जब कि इंग्लैण्ड में लोग चार-चार सूट, 

ओवरकोट पहनते हैं। आज हमारे देश में कोई महात्मा गांधी जैसा नेता नहीं है। शकुंतला नामक प्रवासी महिला सडक पर 

बच्चा पैदा करती है, एक घंटे आराम करती है फिर आगे की यात्रा पर तपती धूप में बच्चे को लेकर निकल पड़ती है, किसी की संवेदना नहीं जागी, दूसरी घटना सूरत से बिहार के लिए ट्रेन निकलती है, रास्ता भटक जाती है और नौ दिन से ट्रेन बिहार पहुँचती है। ट्रेन में से सात लाशें निकलती हैं। भूख, प्यास से मौत, रेलवे प्लैटफार्म पर मृत माँ को जगाने की कोशिश कर रहे बच्चे की तस्वीर ने नए भारत के चेहरे से नकाब हटा दिया। प्लेटफार्म पर गाडी खड़ी है, लोग तमाशबीन बनकर इस दृश्‍य को 

देख रहे हैं। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, रेलवे विभाग नहीं, सरकार नहीं, आजकल भारत के जीवन से सरकार गायब है। कोई गांधी नहीं आया, जो इस दृश्‍य को देखकर कोई प्रण लेता, जिम्मेदारी निभाता।  

लॉकडाउन के बाद उजड़ गई अपनी दुनिया को फिर से बसाने और जीवन बचाने की आशा में सैकड़ों मील चल रही इस भीड़ ने हमारे विकास तंत्र की असलियत सामने ला दी। आज के समय में महात्मा गांधी पूरे विश्‍व के लिए प्रासंगिक नजर आने लगे हैं।  

​गांधीजी का जीवन सच्चे अर्थो में ग्रामीण विकास के लिए ही बना था। गांधीजी का विश्‍वास था कि बिना ग्राम निर्माण  

के भारत का विकास संभव नहीं। शहरीकरण से मानव का कल्याण नहीं होगा। औद्योगिकरण, भौतिकवादी सभ्यता के कारण 

जब गाँव टूटने लगे तब उन्होंने देखा कि यह तो मनुष्य के लिए एक बड़ा संकट है। इससे मानव संस्कृति का पतन होगा।  1909 में लिखी अपनी पुस्तक महिन्द स्वराजफ में उन्होंने बताया है कि ङ्गबड़े शहर खड़ा करना बेकार का झंझट उसमें लोग सुखी नहीं होंगे। गरीब अमीर से लुटे जाएँगे।ङ्घ गांधीजी की पुस्तक मद हिन्द स्वराजफ को टिकाऊ विकास का घोषणापत्र कहा जाता है। गांधीजी के अनुसार टिकाऊ विकास का केन्द्र बिन्दु समाज की मालिक जरूरतों को पूरा करना होना चाहिए। उनके अनुसार आधुनिक शहरी औद्योगिक सभ्यता में ही उसके विनाश के बीज निहित है। 

​गांधीजी आर्थिक विकास के उपादान के रूप में निरन्तर  मनुष्य के श्रम को महत्व पर जोर देते थे। उनकी दृष्टि में  

विकास का मतलब यह है कि देश के हर हिस्से के लोग और आबादी के मुख्य अंश का निवास तो गाँवों में ही है। गांधीजी के आर्थिक विचारों का आधार विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था का सिद्धान्त है। उनका विश्‍वास था कि केन्द्रित अर्थव्यवस्था की नींव हिंसा पर आधारित है। अतः विकेंद्रित अर्थव्यवस्था लोकतंत्र को जीवन का रक्त समझते थे। गांधीजी का मानना था कि आर्थिक समृद्धि के लिए आवश्‍यक है कि उसकी बागडोर गाँवों के अधीन होनी चाहिए। यदि गाँव समृद्ध लोगों से परिपूर्ण होंगे तो देश स्वयं ही समृद्ध हो जाएगा।  

जब गांधीजी अफ्रीका में थे तो उन्होंने अफ्रीका के प्रवासी मजदूरों की समस्याओं को हल करते समय देखा कि श्रमिकों का शोषण करने वाली अर्थव्यवस्था कितनी खतरनाक है। उसी समय गांधीजी ने रस्किन की पुस्तक   Unto this last (1802) में पढ़ी और उनसे अत्यंत प्रभावित हुए। रस्किन की उस पुस्तक से गांधीजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि समृष्टि कल्याण में ही व्यष्टि कल्याण निहित होती है। वकील और नाई के काम का मूल्य एक जैसा है क्योंकि दोनों अपनेअपने काम के जरिये अपनी आजीविका चला सकते हैं। अपने काम के जरिये कमाई करने का अधिकार इन दोनों को है। रस्किन की पुस्तक पढ़ने के बाद गांधीजी आश्‍वस्त हो गए थे कि  शारीरिक मेहनत और समानता की बुनियाद पर आर्थिक जिंदगी का ढाँचा यदि खड़ा कर लिया गया तो व्यष्टि और समष्टि हित में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सकेगा।फ  

​गांधीजी ने ग्रामीण विकास के लिए 1920 के असहयोग आन्दोलन तथा स्वदेशी आन्दोलन व खादी प्रयोगों ने ग्रामीण  

आत्मनिर्भरता एवं आत्मविकास के लिए महत्वपूर्ण माना। गांधीजी के इन विचारों और नारों ने देश में खादी ग्रामोद्योग, ग्रामीण उद्योग की उन्नति, अस्पृश्‍यता उन्मूलन, बुनियादी एवं प्रौढ़ शिक्षा, शराबबंदी, नारी उत्थान एवं राष्ट्रीय भाषा एवं राष्ट्रीयता के विकास को मूर्त रूप प्रदान करने की दिशा में विभिन्न स्तरों से ग्रामीण विकास का विस्तृत कार्यक्रम तैयार किया गया। गांधीजी के ग्रामोत्थान आन्दोलन में ग्रामीण विकास के लिए अनेक स्वैच्छिक संगठन, समाज सुधारकों, वैयक्तिक प्रयासों से ग्रामीण पुनर्निर्माण के कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के लिए प्रोत्साहित किया और कहीं-कहीं ग्रामीण विकास के कुछ विशिष्ट कार्यक्रम शुरू किए गए। गांधीजी सही अर्थों में आधुनिक नारी आन्दोलन के जनक थे। उन्होंने कश्‍मीर से 

कन्याकुमारी तक महिलाओं को ब्रिटिश के खिलाफ संघर्ष में सडकों पर उतार दिया। उन्होंने महिलाओं को विदेशी कपड़ों का बहिष्कार करके स्वदेशी की शपथ लेने और रोज सूत कातने का आग्रह किया। उन्होंने इसकी व्याख्या की कि विदेशी कपड़े खरीदने से भारत  की गरीबी बढ़ती है। गांधीजी के असहयोग आन्दोलन में सैकडों महिलाओं ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। खादी कामगार किया था। महिलाओं ने अपने गहने तक दान में दे दिए। गांधीजी ने 1920 के आखिरी दिनों में महिलाओं को सम्बोधित करते हुए कहा था ङ्गपश्‍चिमी सभ्यता की ऊँचाइयों से उतरकर भारत के मैदानों में आओ, 

क्योंकि यह प्रश्‍न भारत की आजादी, स्त्रियों की आजादी, अस्पृश्‍यता के खात्मे तथा आम लोगों की आर्थिक दशा सुधारने से जुड़ा हुआ है। अपने आपको गाँवों से जोड़ों। ग्रामीण जीवन का सुधार करने के बजाय उसका पुनर्निर्माण करो।

1920 में ही उन्होंने चेतावनी दे दी थी कि विकास और औद्योगिकता में पश्‍चिमी देशों का पीछा करना मानवता और पृथ्वी के लिए खतरा पैदा करेगा। उन्होंने कहा था कि भगवान ना करे भारत को कभी पश्‍चिमी देशों की तरह औद्योगिकरण अपनानी पड़े।  

1931में यूरोपीय संघ के संदर्भ में दिए गए उनके एक बयान की प्रासंगिकता आज पूरे मानव समाज को है। उन्होंने लिखा था ङ्गभौतिक सुख और आराम के साधनों के निर्माण और उनकी निरन्तर खोज में लगे रहना ही अपने आपमें एक बुराई है। उन्होंने यह कहने का साहस किया कि यूरोपीय लोगों को अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करना होगा। इससे उनका काफी नुकसान होगा और वह आरामतलबी के दास बन जाएँगे।

​गांधीजी आधुनिक मगर देशज संस्कृति के वाहक थे। सिद्धान्त से अधिक व्यवहार में जीते हैं। उनका कहना था मेरा  

जीवन ही मेरा दर्शन है। बापू ने आधुनिक सभ्यता को अनैतिक व शैतानी सभ्यता कहा और लिखा ङ्गपाशविक भूख को बढ़ाने की और उसकी संतुष्टि के लिए आकाश-पाताल को मिलाने की इस पागल दौड की मैं हृदय से निंदा करता हूँ और अगर 

आधुनिक सभ्यता यही है तो मैं इसे शैतानी सभ्यता ही कहूँगा।ङ्घ प्रकृति पर स्वामित्व व अधिकार की लालसा व परिणाम गांधीजी जानते थे इसी कारण उन्होंने आधुनिक भौतिक सुखवाद की नीतियों का विरोध किया।  

1938 में जब गांधीजी को पता चला कि अमेरिका के राष्ट्रपति यह चाहते हैं कि उनके देश में हर नागरिक के पास दो  

कारें और दो रेडियो सेट हो तो गांधीजी ने यह प्रतिक्रिया दी थी कि भारतीय एक कार भी रखें तो रास्ते पर चलना मुश्‍किल हो जाएगा। दाण्डी मार्च में कुछ लोग कार से संतरे लाए थे तो गांधीजी ने कहा था कि नियम होना चाहिए कि यदि आप चलकर आ सकते हैं तो कार से क्यों?  आज यूरोप में इतनी कारें हैं कि प्रदूषण को रोकने के लिए ज्यादा टैक्स लगाया जाता है। 

ऑड और इवन के जरिये कारों की संख्या को कम करने की कोशिश की जाती है। गांधीजी ने बहुत पहले ही इसकी चेतावनी दी थी। आज सी. एफ. सी. गैस के कारण आस्ट्रेलिया के ओजोन में छेद हो गया। एयर कण्डीशन, फ्रीज तथा बहुत से ऐसे गैस हैं जिनका प्रयोग एनर्जी बनाने के लिए किया जाता है, वे सभी पर्यावरण के लिए नुकसानदायक है। गांधीजी कारों के सम्बन्ध में चेतावनी दे चुके थे। आज जर्मनी के विश्‍वप्रसिद्ध पर्यावरणवादी जोसेफ स्टिवजालिट्रज ने अपनी पुस्तक  ममेकिंग ग्लोबलायझेशन तर्कफ में लिखा है 40% ग्लोबल  वार्मिंग हाइड्रोकार्बन और 20 प्रतिशत वनों की कटाई की वजह से होती है। सभी जानते हैं पर्यावरण के लिए कारों की बढती संख्या कितना बड़ा खतरा है। जर्मन के ग्रीन पार्टी की जड़ें गांधीजी के विचारों और दृष्टिकोण पर आधारित है। ग्रीनपार्टी के संस्थापकों में से एक पेट्रा केली ने पार्टी की स्थापना में 

महात्मा गांधी के विचारों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए लिखा है कि ङ्गअपने काम करने के तरीके में महात्मा गांधी से बहुत प्रेरित हुआ हूँ। हमारी धारणा है कि हमारी जीवन शैली इस तरह होनी चाहिए कि हमें लगातार उत्पादन के लिए कच्चे माल की आपूर्ति होती रहे और हम कच्चे माल का उपयोग करें। कच्चे माल के उपयोग से पारिस्थितिकी तंत्र उन्मुख-जीवन शैली विकसित होगी और साथ ही अर्थव्यवस्था से हिंसक नीतियाँ भी कम हो जाएगी।ङ्घ 

गांधीजी का मानना था अहिंसा और सरल जीवनशैली से ही पृथ्वी बच सकती है। पर्यावरणवादी प्रो. हर्बर्ट गिराजेंट द्वारा सम्पादित पुस्तक मसर्वाइविंग द सेंचरी क्लाउड कैओस एण्ड ग्लोबल चैलेंजफ में उन्होंने चार मानक सिद्धान्तों अहिंसा, स्थायित्व, सम्मान और न्याय को इस सदी और पृथ्वी को बचाने के लिए जरूरी बताया, वे गांधी दर्शन पर ही आधारित है। मद टाइम मैगजिनफ ने अपने 9 अप्रैल 2007 के अंक में दुनिया को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए 51 उपाय छापे उसमें 51 वाँ उपाय गांधीजी का था। कम उपभोग, ज्यादा साझेदारी और सरल जीवन। मटाइम मैगजिनफ पश्‍चिमी देशों का मुख्यपत्र कहा जाता है। वह अब ग्लोबल वार्मिंग के खतरों को रोकने के लिए गांधीजी के रास्तों को अपना रही है। इसलिए आज टिकाऊ और सतत्‌ विकास के लिए गांधीजी के विचारों को फिर से समझना अनिवार्य है। रियो शिखर सम्मेलन के एजेंडा-21 के अभिन्न अंग है। जैसे टिकाऊ विकास के लिए एक ब्लूप्रिंट माना जाता है। 

असल में अब यूरोपीय लोग गांधीजी के विचारों को सुन रहे हैं। यह बात कुछ ब्रिटिश नागरिकों के दृष्टिकोण से भी स्पष्ट है जिन्होंने सहज जीवन जीने के लिए ऊर्जा और भौतिक संसाधनों पर से अपनी निर्भरता कम कर दी है। उन्होंने शून्य ऊर्जा इकाई (जीवाश्‍म) स्थापित की है यह एक ऐसी प्रणाली है जिसके जरिये लंदन में एक हाउसिंग सोसाइटी चलाई जा रही है। सोसाइटी के प्रवेश द्वार पर लिखा है – ङ्गयू. के. में एक व्यक्ति जितना उपयोग करता है अगर दुनिया का हर व्यक्ति इतना उपयोग करें तो सबकी जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें धरती जैसी तीन ग्रहों की जरूरत होगी।ङ्घ इस सोसाइटी के लोग मध्यम वर्गीय है, ये किसी भी पर्यावरण या जलवायु आन्दोलन से नहीं जुडे हैं। बस, इन लोगों ने खपत और उत्पादन की दृष्टिकोण से अपने को दूसरे से अलग कर लिया।  

शहरों का निर्माण या गांधी का विकास मास प्रोडक्शन के खिलाफ थे। गांधीजी वे मासेज प्रोडक्शन द्वारा विकास की बातें करते थे। विकास का आधुनिक मॉडल मनुष्य और प्रकृति के शोषण पर आश्रित है। विकास आज विनाश की अवधारणा में तब्दील हो चुका है। उनके विचारों से विकास केवल बडे-बडे औद्योगिक प्लान्ट लगाने तथा अधिक से अधिक परियोजनाओं को लागू करने से संभव नहीं था। उनकी विकास योजनाओं में शहरों का निर्माण व विकास भर नहीं था, न ही भौतिक समृद्धि मात्र थी। उनकी विकास योजनाओं में गाँव भी सम्मिलित थे। आज सभी देशों में विकास की होड़ लगी हुई है 

जिससे विकास का दायरा कुछ शहरों और समुदायों तक सीमित हो गया जब कि गांधीजी हर गाँव का विकास चाहते थे। भारत में ग्रामीण विकास की अवधारणा गांधीजी के अनुसार ये थी। उनके अनुसार – ङ्गमैं एक ऐसे भारत के लिए कार्य 

करूँगा जहाँ अत्यन्त गरीब व्यक्ति यह अनुभव करें कि यह उसका अपना देश है। जिसके निर्माण में उसकी भी प्रभावी भूमिका हो। ऐसा भारत जहाँ न कोई बड़ा हो न छोटा, ऐसा भारत जहाँ सभी समुदाय मैत्रीपूर्ण मैत्री भाव से रह सके।ङ्घ बापू का विकास और पर्यावरण पर अपने समय के साथ लेकर चलने की बात कर रहे थे। वे कहते थे ङ्गमेरा विरोध यंत्रों से नहीं बल्कि यंत्रों के पीछे जो पागलपन चल रहा है उसके लिए है। उनसे मेहनत जरूर बचती है लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए सड़क पर भटकते हैं।

महात्मा गांधी कहा करते थे भारत की आत्मा गाँवों में बसती है। वे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आत्मनिर्भरता, स्वशासन की वकालत किया करते थे। उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान खादी और चरखे का प्रचलन ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता और स्वनिर्भरता को ध्यान में रखकर किया था। आज की स्थिति वैश्‍वीकरण के साथ विकास की है। तीव्र गति से आर्थिक विकास के नए आयाम को गढ़ा जा रहा है। परन्तु इस विकास के साथ भारी असमानता भी उजागर हुई। ग्रामीण, शहरी, अमीरी-गरीबी के बीच का अंतर व्यापक रूप से दिखता है। आज पूँजीपतियों पर कमाई करने के लिए यंत्रों का पागलपन सवार है। गांधीजी कहा करते थे ङ्गमैं यंत्र मात्र का विरोधी नहीं हूँ लेकिन जो यंत्र हमारे स्वामी बन जाए उसका सख्त विरोधी हूँ। मेरा विरोध मशीनों को समाप्त करने के लिए नहीं है। मैं सिर्फ उन पर सीमाएँ थोपना चाहता हूँ।ङ्घ 

गांधीजी बहुराष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के खिलाफ थे। वे कुटीर उद्योगों के विकास के पक्ष में थे ताकि गाँव के लोगों को रोजगार की तलाश में शहर न भागना पड़े। आज पलायन करते प्रवासीय मजदूरों को देखकर लगता है कि हमारे देश की जनता और शासन तंत्र को गांधीजी के विचारों को समझने की जरूरत है। गांधीजी मानते थे भारत गाँवों का देश है। इसलिए 

भारत की निर्धनता दूर करने के लिए यह आवश्‍यक है कि भारतीय ग्राम आर्थिक तौर पर पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर हो जाए। गांधीजी के शब्दों में ङ्गयदि मेरा सपना पूरा हो जाए तो भारत के सात लाख गाँवों में, हरेक गाँव में प्रजातंत्र बन जाएगा। इस प्रजातंत्र का कोई व्यक्ति अनपढ़ नहीं रहेगा। काम के अभाव में कोई बेकार नहीं होगा बल्कि किसी न किसी कमाऊ धन्धे में लगा रहेगा।ङ्घ दरअसल कुटीर उद्योग से गांधीजी का अभिप्राय था – ग्रामोद्योग। मतलब ये था कि दैनिक जीवन की आवश्‍यकताओं की वस्तुएँ गाँव में ही तैयार होनी चाहिए। वे चाहते थे जहाँ तक हो सके भारत का गाँव आत्मनिर्भर बने। उसे शहरों पर कम से कम निर्भर रहना पड़े। गांधीजी हमारे देश के परम्परागत व्यवसाय जैसे कृषि, कटाई, बुनाई, लोहारी, बढ़ईगिरी, मधुमक्खी पालन, रेशम के कीड़ों का पालन और कागज बनाने के पक्षधर थे। उन्होंने देखा कि साल के चार महीने किसान खाली रहते हैं और इस खाली वक्त में वे कुछ काम कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने चरखा आन्दोलन द्वारा स्वदेशी का प्रचार किया। साथ ही चमड़े का काम, चप्पल, बर्तन, चटाई, खिलौने, बेंत का सामान, औजार आदि बनाने के लिए लोगों को आह्वान किया। गांधीजी का मानना था कि मशीनों का अधिक प्रयोग, बडे कारखाने बेरोजगारी और शोषण को जन्म देते हैं। उनका मानना था बडे औद्योगिक कारखाने बेकारी और आत्मनिर्भरता की कमी और आलस्य को उत्पन्न करते हैं। उन्होंने 

देखा कि मुंबई के मिलों में गांधी के रंगभेद विरोधी संघर्ष उनके सपनों और आदर्शों की हत्या है। कोरोना का दौर सचमुच दुनिया को बदल रहा है। स्वयं यह महामारी ही नहीं वरन्‌ जिस तरह शासक उससे निपट रहे है पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक जनमत राष्ट्रपति ट्रम्प के खिलाफ गुस्से से उबल रहा है।  

आज कोरोना काल में शहरों के उद्योगों का दुष्परिणाम देख रहे हैं। करोड़ों मजदूर मुंबई, दिल्ली, तमिलनाडु, हैदराबाद, केरल जैसे शहरों से पैदल ही अपने गाँवों की तरफ निकल पड़े। हम इन मजदूरों की कथा-व्यथा सोशल मीडिया के माध्यम से सुन-देख रहे हैं। गांधीजी ने इन बहुराष्ट्रीय शहरी विकास को शैतानी विकास कहा था। बिलकुल सच कहा था। आज पूँजीपतियों ने एक ऐसे  युग का निर्माण कर दिया जो उत्पादन का नहीं उपभोग का है, उपभोक्तावाद का है। विश्‍वबाजार नामक इस लूट-तंत्र में शामिल लोगों के देश, जनता, जनवादी सभ्यता, संस्कृति, मानवता किसी चीज की कोई परवाह नहीं है। देश की जनता गरीबी, भूख, बीमारी, बेरोजगारी, महँगाई, भ्रष्टाचार, अपराध, हिंसा, आतंक, महामारी आदि के कारण मरती है तो मरें। जनवाद की जगह फाँसीवाद आता है, आ जाए, कोई परवाह नहीं। आज जातिवाद, नस्लवाद, साम्प्रदायिकता, धार्मिक तत्ववाद, क्षेत्रवाद, आतंकवाद, अलगाववाद आदि को बढ़ाया जा रहा है। लोगों के रहन-सहन, खान-पान, वेष-भूषा, आचार-विचार और कामकाज के तरीके में पश्‍चिम परस्ती बढ़ गई है तथा मानसिक दासता बढ़ रही है। ये लेट-कैवीटिलिजम (……. पूँजीवाद) से आगे बढा हुआ क्रोनी-कैपीटिलिजम का जमाना है जिसमें सिद्धांतहीनता, अराजकता और तर्कहीनता तथा मानव-विरोधी विचारधाराएँ भरी पड़ी हैं। न्याय, स्वतंत्रता, जनवाद का यहाँ कोई अर्थ नहीं है। कैसे भी पैसा कमाओ, इसमें विवेक, नैतिकता, मानव मूल्य सभी खत्म हो गए हैं। आज निजीकरण, उदारीकरण, वैश्‍वीकरण की नीति अपनाई जा रही है। हम एक कारपोरेट नियंत्रित समाज व्यवस्था में रहते हैं।  

​कोरोना काल की नई अर्थव्यवस्था में गरीब लोगों के लिए कोई कोना नहीं है। इसमें वहीं लोग काम कर सकते हैं जो आवाज नहीं उठाएँ और मालिक की शर्तों पर काम करें। नये किस्म के दास व्यवस्था की शुरुआत हो चुकी है। कोरोना ने लोगों को बाहर निकालने में मदद तो दे दी, लेकिन आज मालिक या गंभीर रूप से घायल है। अर्थव्यवस्था का ढाँचा चरमरा गया। एक तरफ असंगठित क्षेत्र के कामगार को कोरोना ने बेरोजगार कर दिया तो दूसरी और बाजार में उपभोक्ता भी नहीं है जिसके जरिये उद्योगपति अपना धंधा जीवित रख सकें। लगातार रसातल को जा रही अर्थव्यवस्था को टिकने के लिए जमीन नहीं मिल रही है। देश में बेरोजगारी की कोई सामाजिक सुरक्षा है ही नहीं। खेतिहर मजदूरों को गाँव में टिकाए रखने के लिए बने मनरेगा की भी हालत खस्ता है. शहरों से लौटते सभी मजदूरों को काम देने की क्षमता मनरेगा में नहीं है।   

​कोरोनाकाल के हमले ने जब पूँजीवादी दुनिया के मायाजाल को दुनिया भर में कुतरकर रख दिया। कोरोना ने अगर  

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था की हालात को सामने ला दिया तो गांधी के देश के मजूदर ने बिना किसी घोषणा के ऐसे सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाया, जिसने सत्ता के तंत्र के मायाजाल को तार-तार कर दिया। सड़क पर लाखों की संख्या में भूखेप्यासे मजदूरों को यह तंत्र पानी तक नहीं दे सका। हम इतने असंवेदनशील कैसे हो गए है?

प्रो. कुसुम त्रिपाठी 

महिला अध्ययन विभाग 

डॉ. बी. आर. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्‍वविद्यालय महू, इन्दौर (मध्यप्रदेश) 

11 thoughts on “आज की वैश्‍विक परिस्थिति और महात्मा गांधी

  1. Bahut hi umda aur shaandaar prastutikaran.
    Gandhi ji ke sarvodhya ki sankalpna par achaa lekh.
    Congress mam and best wishes

  2. आज के हालत को देखकर अपने महात्मा गांधीजी के विचार बहुत ही प्रभावीत करते है। इस विचार को अपने बहुत ही शानदार प्रस्तुत किया आपको बहुत सारी शुभ कामनाऐ।

  3. बहुत ही मार्मिक, संवेदनशील और अभ्यास पूर्ण सोचने के लिए विवश करनेवाला लेख.हमारे जीवन में गांधीजी दीपस्तंभ की तरह है.देखने, समझने, जुडऩे की जरूरत है.

  4. बहुत ही सामयिक प्रश्न एवं विचार प्रस्तुत किया है आपने अपने लेख में..

  5. बहुत प्रासंगिक और सुचिन्तित लेख ..गांधी जी की दृष्टि से वर्तमान की बेवाक पड़ताल …अपने समय मे मुद्दों के प्रति आप की सकारात्मक प्रतिबद्धता को दर्शाता है। सादर प्रणाम👏

  6. बहुत ही महत्वपूर्ण लेख है।
    आज दुनिया को फिर से गांधी के विचारों को अपनाने की जरूरत पर आपने इस लेख में जो भी तथ्य दिए हैं वह बेहद जरूरी हैं।
    आपको बहुत बहुत शुभकामनाएं।

  7. आज पढ़ पाया यह लेख. बहुत ही गहराई से और शोधपरख लेख है. वैसे भी आप गहरे चिंतन से लिखने की कोशिश करती हैं.
    अच्छे लेख के लिए बधाई. 👍 👍 👏🙏

  8. आज पढ़ पाया यह लेख. बहुत ही गहराई से और शोधपरख लेख है. वैसे भी आप गहरे चिंतन से लिखने की कोशिश करती हैं.
    अच्छे लेख के लिए बधाई. 👍 👍 👏🙏

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