कहानी: गौरैया
कथाकार : कुसुम भट्ट
गौरया
गौरया से रू-ब-रू होने के अहसास से भीगती जा रही हूँ… मेरे इर्द-गिर्दरंगों का वर्तुल बन रहा है। हरी, गुलाबी, नीली किरणों का जाल देख रही हूँ… गोया सूरज पर चिड़िया की आँख टिकी है…! सृष्टि का सम्पूर्ण सौन्दर्य यहाँबिछल रहा है…! लम्बे अंतराल बाद गहन शांति और सुख महसूस कर रहीहूँ… सर सर बहता सुख इन्द्रियों में उतर रहा है…, इतना हलका मैंने बहुत कमपलों में महसूस किया है… जब सेमल के फूल सा अपना आपा लगे…
गोया मेरा कायातंरण हो गया हो…
इस खचाखच भरे हाल में मैं लोगांे से कहती हूँ – आपने गौरया देखी है…? हैरतअंगेज हूँ ये मेरी बात नहीं सुनते… मेरे होंठ भी नहीं हिलते! बेआवाज मेरीआत्मा की कौंध उन तक नहीं पहुँचती… शब्दों को लिबास देने के लिये होठोंका खुलना जरूरी है…?
कांप उठी थी मैं जब गौरया का दिखना अचानक बन्द हो गया था, जाने क्यूँमुझे अपने आस-पास जहाँ तक मेरी छोटी सी दृष्टि जाती है रेत के टीले औरकंकरीट के जंगल ही दृष्टिगोचर होते हैं…शायद कंकरीट के जंगलों केविस्तार होने के फलस्वरूप गौरया हमसे रूठ कर चली गई होगी… कहीं कोईपेड़ न होने के कारण उसकी छटपटाहट इस कदर बढ़ गई होगी कि उसनेहमारी दुनिया से नाता तोड़ दिया होगा।
कहाँ गई होगी गौरया? इस धरती पर कहाँ मिला होगा उसे ठौर ठिया…? अक्सर इस तरह के बेमानी प्रश्न मुझे परेशान करते रहते हैं, हो सकता हैगौरया आपकी स्मृति में हो अगर आपका मन कंकरीट के जंगलों का विस्तारहोते देख बगावत पर उतारू हो…
बचपन की खिड़की से गांव देखती हूँ अमूमन, गोबर मिट्टी से लिपी तिबारी मेंगौरया का झुण्ड बेखौफ आकर चह चह चूँ चूँ का शोर मचाता तो मुझे अपनीथाली लेकर भीतर जाना पड़ता ढीट गौरया वहाँ भी आकर मेरी थाली में दोचार दाने मुझे चीन्हती उड़ा ही लेती तो भी उस पर गुस्सा होने की बजाय प्यारही उमड़ता, यह नन्हीं सी प्यारी चिड़िया बिन्दी जैसी चमकीली आँखों से टुकरटुकर ताकती टोह लेती हुई आग से धधकते चूल्हे के पास आकर टुक टुकचोंच में दाना उठाती मजे से बेखौफ्! और पंख फैलाते हुए आकाश पथ परउड़ जाती… इसे पंखांे के जलने का खतरा नहीं!
‘‘बड़ी ढ़ीट है ये गौरया…!’’ मां रोटी बेलती हुई खिड़की से गौरया की उडानदेखती
‘‘क्यों न हो… इसकी देह – मन पर सांकलें थोड़े न बंधी हैं… हवा से भरे हैंइसके पंख… तभी तो आकाश थाम लेता है इसे विराट में… ‘‘दसवीं’’ कक्षाकी विद्यार्थी मैं अस्फुट बुदबुदाती तो माँ की आवाज कलेजे में नश्तर सीचुभती – लड़कियों को पंख दे दो तो उनकी उड़ान भी ऐसी होगी… राह मेंबाज-चीलांे गिद्दों का खतरा… लड़की इतनी कोमल कि जूझ नहीं सकतीशिकारी से… ‘‘मां भी अस्फुट बुदुबुदाती – लड़की और चिड़िया दोनों कीदुनिया एकदम विपरीत – एक चार दीवारी के भीतर… दूसरी आकाश मेंउन्मुक्त…
छत की कडियांे के बीच गौरया का घोंसला होता जिसे हम सुरक्षा देते – कोई क्यों तोड़े किसी का घर…’’ गांव के शैतान बच्चे लम्बी लकड़ी से जबकचोटना चाहते गौरया के अन्डे बच्चे.. तो मैं उन्हंे चपत लगाती – सृष्टि मेंप्रत्येक जीव का घर बनाने का हक है…’’ गौरया के बच्चों के थोड़ा सा पंखखुलने को हुए कि गौरया उन्हें चोंच से धक्का मार कर आसमान में उड़ाने कोबावली रहती! कितनी अदभुत है गौरया की पाठशाला! ‘‘मुझे कौतुहल होता- आदमी गौरया से क्यांे नहीं सीखता जीवन का पाठ…?’’
इधर कुछ बड़े दिल के लोग गौरया बचाने के वास्ते अपनी उजली आत्मा कोसूरज के बरक्श रखते हुए चेतावनी देते रहे – चिड़िया बचाओ… पेड़बचाओ… जल जंगल बचाओ… वरना मृत्यु की सुरंग में दफन हो जाओऽ… ‘‘इसमें मेरी क्या भूमिका होनी चाहिये मैं उनसे पूछना चाहती थी और प्रत्येकसुबह मिट्टी के कसोरा में छत पर जल भर कर रख आस पास अनाज के दानेबिखेर देती हूँ, फिर भी गौरया का दीदार नहीं हुआ! तो मैं अवसाद में चलीगई… लोग मुझे पागल समझते हैं वे चाकू की नोक से मेरी आत्मा की तलीछिलकर कहते हैं – ये औरत हमारी दुनिया में रहने लायक नहीं है… इसेबिजूका बना कर कंकरीट के जंगल में बबूल के पेड़ लटका दो – ताकि किसीचिड़िया की इस दुनिया के भीतर प्रवेश करने की हिम्मत न हो…, उन्होंने कहाऔर किया – लम्बे समय तक मैं बबूल के पेड़ पर उल्टा लटकी रही…!! जबभी गौरया को पाना चाहा तो आकाश कोऔं, चीलांे, गिद्धों से भरने लगा… और पांवों की जमीन कुत्तों, भेड़ियों, बाघों, चीतों, सुअरों से अटने लगी…! एक इंच भी जमीन खाली न बची… जिसमें अपने पांव धंसा सकूँ! जहाँ मेरीगौरया चहक सके…
मैंने आसमान में रोती-कलपती-चीखती छायायें देखी… और सुनती रही उनकीचीखें… गहरे कुआंे से आती चीखें…! किसकी चीखें हैं…? किसका रूदनहै… इतना मार्मिक… कौन तड़फ रहा है इस अनन्त पीड़ा के हा हा कार में…? किसके हाथ पत्थर की शिलायें उठाये… कुओं का मुँह बन्द करते ताकि चीखेंभी न जा सके बाहर… धरती के गर्भ में रिसती चली जायें…।
मेरे पास सवालांे का जखीरा था… जिसे लेकर दौड़ रही पृथ्वी के ओरछोर…! लोग मुझे देख कर हँसते मेरी खिल्ली उड़ाते? लेकिन ठिठक कर पलभर भी नहीं सोचते कि इतनी बड़ी दुनिया में अरबों खरबों लोग हैं, जिनकेभीतर अलग-अलग दुनिया बसती हैं… एक पेड़ (हरे) से लिपट कर प्यारकरता है तो दूसरा लोहे और पत्थर से…, एक नदी-झील में डूबता उभरता है… तो दूसरा खूनी भंवर में…? पी पीकर खून मदमस्त होता है कि उसने दुनियाफतह कर ली है…! कोई चिड़िया के लिये घोंसला बनाता है अपने अन्तस्थलमें… तो कोइ्र उसका मांस चिंचोड़ कर स्वाद के सुख में डूबता है!
…ऐसी दुनिया में अगर मुझे गौरया की तलाश है… तो इसमें मेरा क्या दोष…? इसकी तलाश में भटकती हूँ मैं जंगल.. जंगल.. और एक दिन दो झील भरीआँखों से टकराई थी… एकाएक मेरी आत्मा के इर्द-गिर्द रखे वजनी पत्थरभरभरा कर गिर गये गोया मैं हरी मुलायम घास के बिछावन से देख रही थीमेरी आत्मा की धवल हँसिनी झील के शान्त-पावन जल में उतरने कोआकुल… सपने की पीताभ आभा वाली रोशनी भरी हथेली दुलारने लगी थीमेरा स्व…, स्मृति के पंख खुलने लगे थे… गौरया हवा में छलांग लगा रही थी…
हमारा पहला पड़ाव रूद्रप्रयाग था, दून घाटी से हम अलग-अलग जगह सेपांच गाड़ियों में आये थे, अलकन्दा और मंदाकिनी का संगम अदभुत! होटलकी खिड़की से देखते हुए मृत्यु की भयावता का बोध होते ही रोंगटे खड़े हो रहेथे उन्मत हुई विशाल जल राशि…! प्रकृति के गूढ रहस्यों में उलझती मैं भूलगई थी कि कोई मुझे टोह रहा है… गोया आतंक से जड़ हुई जा रही थी… बहेचल ओ नदी की धारा… कल कल… छल छल उन्मुक्त बह चल ओ जीवनधारा… ‘‘चिड़िया के चहचहाने का स्वर! इतनी मीठी रस से भरी आवाजपहली मर्तबा सुन कर पीछे मुड़ी कि खिल खिल हँसी की फुहारों से भीग उठीइतना सहज इस क्रूर समय में भी कोई हो सकता है! वह मेरे सामने थी चेहरेपर गौरया की मासूमियत बड़ी बड़ी आँखों में छलकता स्नेहजल उड़ेलने कोआतुर पलक झपकते ही गोया युगों युगांे से बिछुड़ी वह मेरे भीतर के अंधेरेकोनों अंतरों में एक महीन झिलमिलाती किरण के मांनिद उतर कर बसावटकरते हुए मेरी जड़ता को दूर करने लगी थी… उजाड़ उपवन में अचानकआकर कोई चिड़िया चहचहा उठी!
अगले दिन सब शूटिंग में व्यस्त रहे पल्लवी थियेटर से थी मंझी हुई कलाकारउसने अनगिन लोकल भाषी फिल्मों में बेहतरीन अभिनय किया था, मेरे साथपल्लवी के अलावा कल्पना पंत थी, जिसकी आयु साठ वर्ष से ज्यादा थीउसके सांवले चेहरे पर जिंदगी का नमक था मन से भरपुर युवा कल्पना पंतचेहरे की झुर्रियों को खदेड़ती बाबा रामदेव के सौन्दर्य प्रसाधनों से घिरी रहतीउसने भी कई फिल्मंे की थी और कई धारावाहिकों में काम किया था बीचमें वह अपने रीत चुके सम्बन्धों के बारे में बताती गोया पर्दे पर फिल्म चल रहीहो… दृश्य गुजरते… कोई खुद को इस हद तक उधेड़ सकता है…! मुझे हैरतहोती… वह अपनी जिन्दगी की रील को आगे बढ़ाती – लेकिन मेरी रूचिपल्लवी में ठहरती…. उसकी शहद भरी आवाज का जादू मेरे भीतर घुलता जारहा था… उसकी हँसी में मन्दिर की घन्टियाँ टुनटुना उठती उस हँसी में दिव्यताका अहसास होता… इस कुरूप (पत्थर) समय में कोई ऐसी पवित्र हँसीबचाये रख सकता है… वह बोलती तो लगता सात-आठ वर्षों की बच्ची चहकरही हो! जिज्ञासा से ओत प्रोत… तिनका भर विकार भी जिसमें भरपूरनिरीक्षण के बाद भी मुझे नहीं मिला…! जिसके भीतर हर पल प्यार कासमुन्दर जीवन्त ठाटें मारता…। गोया अभी तक मेरा वास्ता कीचड़ भरेतालाबों से पड़ा था? दुबली पतली गौरया जैसे चेहरे वाली छोटे कद कीपल्लवी में इस कदर भोलापन कि पलक झपकते ही उसकी अंतरंग दुनियाकी किताब हमारे सामने खुलती… पन्ने फड़फड़ाते कहीं कोई ठहरा आँसूचमकता… एक टुकड़ा दुख जिसके चिथड़े उड़ते… फिर जीवन की भरपूरमिठास… चोंच में तिनके बटोर कर लाती गौरया की घोसला बनाने की सघनजद्दोजहद…. फिर किसी का घोंसला उजाड़ने का प्रयास… या फिर जीवन केविभिन्न रंगों को देखने का कौतुहल… अनायास समूची किताब पढ़ाती रहीथी…
नीम अंधेरे में हम सर्पीली सड़क पर चीड़ के लम्बे-घने दरख्तों की छाया मेंचहल कदमी करते वह थियेटर की दुनिया के अजब-गजब किस्से सुनाकरकहती – शुभा दीऽ… यार अब तो सांकलें खोल दो… अब तो फिल्मों कीदुनिया में आ गई हो…
हमारी फिल्म की कमसिन नायिका अपने अधेड़ प्रेमी की (नायक) पीठ परशान से बैठी उसे घोड़ा बनाये सुहानी सिन्दूरी शाम का डूबता सूरज देखतेबीच में हाथों का चाबुक मारते उसे सीधे चलने का आदेश दे रही थी… यहदृश्य फिल्म से हटकर उसका अपना था जिसका होना चार दिनांे के बीचहुआ था…, इसकी चहक का अलग रंग था…, उसे चाबुक मारने में इस कदरसुख मिला था… वह किलकारी भर सब का ध्यान अपनी ओर खींच रही थी… और कलाकार थे कि उसे भाव ही नहीं दे रहे थे…, उसी क्षण पल्लवी ने मेराहाथ पकड़ा… हम चीड़ वन के बीच लहराती सड़क पर आ गये थे पल्लवीअगले दिन नृत्य के बारे में बता रही थी कि काला कलूटा पवन हवा के मांनिदआया और पल्लवी की कलाई पकड़ दूर ले गया… मैं वक्त की धारा केपीछे थी खुद में ही झूबी… उस दुनिया से बाहर… पिछड़ी दुनिया की वाशिन्दा(उनकी दृष्टि में) मुझे अपने स्व के अवलोकन की जरूरत महसूस हुई…
वे दोनों काफी आगे निकल चुके थे… अंधेरा गहराने लगा था सुनसान सड़क… कहीं से कोई जानवर आ गया तो..? मैं लड़ सकूँगी उससे..? भय केमारे एक पल को मेरी सांस अटकने हुई… माँ की चेतावनी इसी वक्त के लियेजन्मी थी शायद… वापस लौट जाती बीच में गदेरा था मैं पुलिया पर बैठकरकल की शूटिंग की ओर अपना ध्यान लगाने लगी थी… तभी पल्लवी उड़तीहुई सी आकर बच्ची सी किलकती मुझ पर लिपटने लगी थी – शुभादीऽबताऊँ… पवन क्या रहा था… वह चिहँुकने लगी उसकी आवाज से खुशीलबालब छलक रही थी।
चुप्प! एकदम चुप्प! ‘‘जाने मुझे क्या हुआ उससे झटककर खुद को अलगकरने लगी थी – ये मुंबई के छोकरे… इनका लोफर पन… मुझे नहीं सुननीतुम्हारी देह-राग की बातें… मुझे डायलाग याद करने दो पल्लवी… बड़ी हसरतथी फिल्म में काम करने की… मेरा कला का भूखा मन कभी थियेटर तो कभीफिल्मों के लिये अकुलाता रहता… अब मौका मिला है तो झोंक डालनाचाहती हूँ खुद को समूचा…, जब आपके भीतर गहरी प्यास हो तो किसीपाठशाला की जरूरत नहीं होती! मेरा अभिनय स्वस्फूर्त होता… तभी तो मुंबईसे आये निदेशक किरण किरोला विस्मय से भरे उत्तेजना में बोले थे – अबेजोशी! कोयले की खदान में यह हीरा कहाँ छुपा था बेऽ…!! एक भी रीटेकनहीं! उन्होंने फौजी अदा में सैल्यूट मारते हुए अगली फिल्म के लिये साइनकरवा लिये थे, तो वर्षों खुद को खपाते बूढ़े हुए कलाकार चकित रह गयेथे…, ‘‘मेरे भीतर का कलाकार सिर्फ पात्र को जीना चाहता है – मुझे नहींसुननी वाहियात बातें…’’ उसका चेहरा पल भर को उदास हुआ था फिर वहवैसे ही चहकने लगी थी।
अगले दिन शूटिंग से लौटकर सूर्यास्त होने को था सिन्दूरी बादल सूर्य कोघेरने की जुगाड़ में थे अस्त होता सूर्य पहाड़ी पर बादलों के बीच चमक रहाथा, पहाड़ी पर गिरते दूधिया झरने के पास बड़े पत्थर पर कबूतर को जोड़ागुटर गू… गुटर गू करने में व्यस्त था – तभी करण किरौला की आँख उन परपड़ी तो वे आल्हाद से भर चिहुँकने लगे थे – वाऊ…! सिन्दूरी शाम…डूबतासूरज… बहता झरना… पानी की कल कल… चिड़ियों की किलोल… प्रेम कामहारास…’’ उन्होंने पलक झपकते ही कैमरे को मोड़ा…
उन्हें सुध ही न हुई कि कैमरा उन पर फोकस हो रहा है उनकी गुफ्तगू… मनकी इन्द्रधनुषी उड़ान दो मनों के इन्द्रधनुषी रंग… हवा में तिरते उनके चुंबन – उनकी स्वपनीली इच्छाओं पर कई जोड़ी आँखें थिर हो गई हैं…, अनायासपवन करण की कविता ‘‘प्यार में डूबी हुई माँ’’ मेरे होंठों पर गुन गुनाने लगी… यदि इस वक्त पल्लवी की सिंगापुर में पढ़ रही सोलह वर्षीय बिटिया होती तोवह भी विस्मय से कह उठती – मेरी माँ दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत है…! अपने प्यारे पापा के प्रेम से तो वह अनजान नहीं थी… विक्रम ने विवाह जरूरपल्लवी से किया लेकिन वह जीता हर पल देवयानी को ही था जिसे लिएउसने अनगिन खूबसूरत प्रेम पगी गजलें लिखी थी और पल्लवी थी इस कदरभोली कि एक दो आँसू बहाने के बाद एकदम प्रकृतिस्थ गोया यह भीनैसर्गिक बच्चांे का खेल हो… कोई रंजोगम नहीं! विक्रम पर कोई आरोप-शिकवा शिकायत नहीं… विवाह करने का यह मतलब तो नहीं कि मन-आत्मापर सांकलें बांध दी… विक्रम का भी उसकी निजी दुनिया में कोई हस्तक्षेपनहीं… दोनांे में कोई मतभेद भी नहीं! जीवन यहाँ अपने रंगों में सहज गति सेबहे जा रहा था…
‘‘कौन से ग्रह के प्राणी हो तुम… मैंने उससे कहा तो वह वैसी ही पवित्र हँसीहँस दी थी – कुछ विशेष नहीं… बस्स… एक दूसरे की स्वतन्त्रता का हनन नहींकरते… मैं विक्रम के प्रेम का सम्मान करती हूँ, शुभा दीऽ…’’
अभी हमें शूटिंग से आये एक सप्ताह भी न हुआ था कि उसका फोन – शुभादीऽ… मुझे आपको कुछ बताना हैऽ…’’
‘‘फोन पर ही बता दोऽ….’’
‘‘नहींऽ आपको आना ही होगा’’ रहस्यमयी स्वर की रागिनी मेरे कोनों में गूँजउठी तो मैं चुंबक से खिंची सारे झमेलों को गोया शून्य में ठेलती सांसों केआरोह-अवरोह का सन्तुलन साधती खड़ी थी… दरवाजा खुलते ही उसेटोकना चाहती थी कि ऐसे अचानक क्यों बुलाया…?’’ शब्द मेरे भीतर ही थेचिड़िया चहकने लगी थी – बताती हूँ… पहले अन्दर तो आओऽ… मेरी प्यारीदीऽ….’’ उसने मेरे गले में बाहें डाल दी – उसे मुझसे प्यार हो गया…
धत्त! प्यार के बिना गोया जीना दुश्वार हो गया इस अबोध का…
वह भी आप ही के जैसा मुझे गौरया कहता है…’’ वह चहकने लगी थी छोटीबच्ची ने गुड्डा पा लिया हो जैसे…….
लेकिन कौन…?’’ असमंजस में उसका मासूम चेहरा ताक रही थी कि रसोईप्रकट हुआ विराट गुरूंग का जिन्न! चैड़ा चपटा गोरा चेहरे वाला युवक हाथोंमें ट्रे थामे जिसमें काफी के दो मग और एक गिलास पानी था।
‘‘मेरी नई फिल्म चिड़िया की उड़ान के निदेशक…’’ पल्लवी ने मेरे हाथ मेंपानी का गिलास थमाया और रहस्य भरी नजरों से उसे देखा…
‘‘आपकी गौरया को कलास्पंदन सम्मान मिलने की घोषणा हुई है… तोआपको बोलना होगा इसकी उड़ान के बारे में…
वाकई? प्रसन्नता से भीगते हुए मैंने पल्लवी को गले लगा लिया था वह मेरेकान में फुसफुसाई थी – शुभा दीऽ… देहराग नहीं है ये… सिर्फ प्यार… प्यार… प्यार…
विराट गुरूंग का जिन्न गायब था! उसे गंगोत्री लोकेशन देखने जाना था, मैंकाफी के घूंट भरने लगी थी तो झाग से जाने किसका जिन्न बुदबुदाने लगाथा –
तुमने जो घोंसले बना रखे हैं उन्हें आखिरी मत समझो… आकाश अनन्त है… हवा भी दरिया दिली से बह रही है… अपने पंखांे को कम मत तोलो
- कथाकार : कुसुम भट्ट