B1EFD1CF-7638-45C4-ACAD-F468E9FA3FE9

आज हम “त्रिवेणी -विधा” लेकर आये हैं। उपन्यास, कहानी, कविता, ग़ज़ल, नज़्म इन सब से इतर गुलज़ार साहब ने अपनी लेखनी से त्रिवेणी जैसी नई विधा को विकसित किया। गुलजार ही इस विधा के सृज़क है
गुलज़ार द्वारा विकसित इस विधा पर उन्ही की लिखी पुस्तक त्रिवेणी हमारे पास है और बहुत खुशकिस्मत हैं हम कि इस विधा में निष्णात श्री राहुल वर्मा जी की किताब “बेअदब साँसे” हमें उन्हीं के द्वारा भेंट स्वरुप प्राप्त हुई है।राहुल जी ने इस विधा को जिस रूप में महसूस किया है ,उन्ही के शब्दों में बयां करते हैं।

“त्रिवेणी ” शब्दों की किफ़ायत और अहसासों की अमीरी की एक अनोखी और अनूठी ,पर बहुत ही कठिन विधा है,, एक ऐसी विधा ,जिसमे काव्य -शास्त्र के तकनीकी पहलुओं को जानने की न तो कोई बाध्यता है और न ही कठिन हिंदी- उर्दू शब्दों के अर्थ समझने की मज़बूरी .इसमें न तो व्याकरण की कोई बंदिश है, न तुकबंदी की कोई शर्त।बल्कि ये तो कम-से कम,पर असरदार और अर्थपूर्ण शब्दों में और वो भी बोलचाल की भाषा में अहसासों को पिरोने और उन्हें बयां करने की विधा है।

“त्रिवेणी ” में महज़ तीन मिसरों में अपनी बात कही जाती है, पहले दो मिसरे अपने-आप में मुकम्मल होते हैं,बिलकुल किसी शेर की तरह,पर तीसरा मिसरा आके या तो पहले दो मिसरों के अर्थ को पूरी तरह बदल देता है या फिर उसके अर्थ को और भी ज्यादा बढ़ा देता है , और कभी- कभी तो पहले दो मिसरों के अर्थ को देखने का एक अलग ही नजरिया मुहैया करवा देता है,

“त्रिवेणी ” में वो जादू है, जो पढ़ने और सुनने वालों के मुँह से वाह और दिल से आह , एक साथ निकलवा लेता है।
दो मिसरे कह कर तीसरे में सत्य उद्घाटित करने की इस कला में महारत हासिल करना इतना सरल भी नहीं है।

गुलज़ार की इन दो मशहूर त्रिवेणियों को गौर से देखिए
1
उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलाती रही वह शाख़ फ़िज़ा में
.
अलविदा कहने को? या पास बुलाने के लिये
2
सामने आए मेरे देखा मुझे बात भी की
मुस्कराए भी ,पुरानी किसी पहचान की खातिर
.
कल का अखबार था ,बस देख लिया रख भी दिया
,,
आकाश में उड़ रहे पंछी और हिलती शाख मामूली से ख़याल लगते हैं पर उसमें जब तीसरी पंक्ति जुड़ती है तो दिल के अंदर एक टीस सी उठती है जो पहली दो पंक्तियों में छिपे भाव को मुकम्मल बना देती है। अब दूसरी त्रिवेणी को देखें किसी पुराने परिचित से हल्की सी मुस्कारहट के दो बोल बोल लेने भर से ही उस रिश्ते के अंदर की पीड़ा कहाँ उभर पाती अगर तीसरी पंक्ति में उसकी तुलना गुलज़ार कल के अख़बार से नहीं करते।

राहुल जी की त्रिवेणियाँ
1
पहली आई थी बिना मेरी मर्जी के
आखिरी भी बिन बताये आ जाएगी
बड़ी बेअदब होती हैं ये साँसें

2
वो कि जब अलविदा कहा था ना तुमने मुझे,
ज़िन्दगी अब तलक उसी रात पर अटकी-सी पड़ी है,

अब तो बस कहने को ही रोज़ सुबह होती है
3
अच्छा हुआ कि यादों पे बंदिश नहीं कोई,
अच्छा हुआ कि ख्यालों की सरहद नहीं होती,

इसी बहाने तुम ख्वाबों में रोज़ चली आती हो

विशेष

“त्रिवेणी ” में महज़ तीन मिसरों में अपनी बात कही जाती है।
पहले दो मिसरे अपने-आप में मुकम्मल होते हैं,बिलकुल किसी शेर की तरह,
पर तीसरा मिसरा आके या तो पहले दो मिसरों के अर्थ को पूरी तरह बदल देता है या फिर उसके अर्थ को और भी ज्यादा बढ़ा देता है।
और कभी- कभी तो पहले दो मिसरों के अर्थ को देखने का एक अलग ही नजरिया मुहैया करवा देता है।
अगर तीसरी पंक्ति में वो बात न हो तो रचना ‘त्रिवेणी’ नहीं मात्र ”त्रिपदी” बन कर रह जाएगी।
“त्रिवेणी ” में वो जादू है, जो पढ़ने और सुनने वालों के मुँह से वाह और दिल से आह एक साथ निकलवा लेता है।
एक बात और ध्यान देने योग्य है. त्रिवेणी में तीनो पंक्तियों में कहीं भी तुकांत जरुरी नहीं है।

इस विधा में हमारा प्रयास

1.
परिंदे बन बच्चे उड़ चले , छूने आसमां
हिलते पत्ते आतुर हैं हवा संग घूमे ये जहाँ

डाल से टूटे अपने कहाँ लौट पाते हैं
2
लबों को अपने सी लिया था,
अश्कों को छुपा कर पी लिया था,

दिल अब भरा है , तो धडके कैसे

3
कुछ निखरे ,कुछ बिखरे ,कुछ ठहर गए,
क्या खूब वो लम्हे थे , जो गुजर गए,

जाने वाले अक्सर बहुत याद आते हैं
4
मन की उद्दाम लहरें, नैन रस्ते बह निकली
दिल था प्यासा तपता और जलता ही रहा,

खारे समन्दर ने भला कब प्यास बुझाई है

@महिमा श्रीवास्तव वर्मा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *