राह बढ़ना पथ विजय से

संदलो की शीत छाया
गंध आती तब मलय से
भोर की किरणें जगाती
राह बढ़ना पथ विजय से।

बीतती घडियां सुनाती
इक कहानी दौड़ती सी
नित नया इतिहास रचता
वादियो संग जोडती सी
नाव नाविक खूब लड़ते
आँधियां झोकों प्रलय से
संदलो की—

नाग विषधर है लपेटे
चंदनो के पेड़ सारे
गिरि शिखर वन गूँजते है
जीव विचरे मन विचारे
नींद पड़ते देख सपने
बाघ देखा चीख भय से
संदलो—-

काल बरपा रोग बनकर
आह भी निकले न डर से
है निराशा घोर जागी
कांप उठते पाँव सर से
ढाल तिनके की बनाकर
लड़ रहा ऐसे समय से
संदलो की

मौन भाषा


लालसा का मौन साया
एक दीपक तुम जलाओ
त्रासदी हैं मौन साधे
राह कोई तो सुझाओं ।

चल रही सीने कटारी
मनुजता पर घात भारी
प्रेम का करते दिखावा
पीठ पीछे चाल जारी
बढ़ रही दूरी दिलो में
फासले मन की मिटाओ
त्रासदी हैं मौन साधे
राह कोई तो सुझाओं ।

काल की है छाप गहरी
झूठ धोखा बेइमानी
आदतों की मार सहते
पाशविकता की कहानी
मौन की भाषा पढ़े जो
कौन पाठक हैं दिखाओं
त्रासदी हैं मौन साधे
राह कोई तो सुझाओं ।

ढूंढता फिरता परिंदा
कट गए है पेड़ सारे
भूख मारे देह सूखा
हाथ फैला नर पुकारे
नैन की भाषा कहें हैं
ठाँव तो कोई बताओ
त्रासदी हैं मौन साधे
राह कोई तो सुझाओं ।

दोहावली

देख लिया संसार में, अपना नाहीं कोय।
रुपया पइसा पास हो,नाता बंधन होय।।

समय समय की बात है, काज समय का मोल ।
बीत जाय जब काल जी,पछतावे के बोल।।

माया की है गति अजब,सबको नाच नचाय।
लोभ मोह चारा चरे,जगत मनुज भरमाय।।

देह मनुज पाकर सभी,पड़े मोह जंजाल ।
स्वारथ की गठरी धरे,चलते जीवन चाल।।

मन दरपन सा हो सदा,सीधा सादा साफ।
चाल कुटिल कोई चले,देख करे जी माफ़ ।।

करो बड़ो का मान जी,अतिथि का सत्कार ।
कर्म रेख गढ़ते रहो,मिलता तब अधिकार ।।

फैशन की आँधी चली ,देखा देखी वेश।
तन ढ़कता कपड़ा नहीं, ये कैसा परिवेश।।

धोती कुर्ता औ छड़ी, सर की पगड़ी आन।
नारी की साड़ी सदा, भारतीय परिधान ।।


मोम सा दिल बर्फ सा हो गया
ये जहाँ भी पत्थरों सा हो गया ।

चलती है पुरवाई भी बदली सी
मन भी मानो धूप सा हो गया ।

जलती बुझती जाने कितनी शमा
शहर हर पल हादसा सा हो गया ।

अरमानो की कौंधती हैं बिजलियां
सच आते घुप अंधेरा सा हो गया ।

बेटी तो होती है कुल का दिया
पसरा सन्नाटा गूंजता सा हो गया ।

मीता शब्दों के लगाती है शजर
गुनगुनाने से गज़ल सा हो गया ।

रात भर तड़पाती तन्हाइयां
तेरा बसेरा ख्व़ाब सा हो गया ।

अश्क आखों से छुपाया जा रहा है
दिलो मे गम दबाया जा रहा है।

वो इसी गुलिस्ता का माली है
बाग फिर से बचाया जा रहा हैं।

दिलो मे दूरियां है अब प्यार कहाँ
जहाँ मे प्यार जताया जा रहा है।

चुनावी मौसम की आहट आई
नींद से जन जगाया जा रहा है ।

दौर का चलन कुछ हुआ है ऐसा
भेद मन में बढ़ाया जा रहा हैं।

घटाओ में छुपा है चाँद कहीं
उनसे रिश्ता निभाया जा रहा हैं।

जर जमीन जोरू मे डूबी दुनिया
इसे अपना बनाया जा रहा हैं।

तकदीर से होने लगी शिकायत
इस तरह आजमाया जा रहा है।

तिरी खामोश निगाहें झुकीपलकें
बात कोई छिपाया जा रहा है।

बहारों की मौजे रवानगी हैं
वो निकली धूप साया जा रहा हैं

बुलबुला

विचारों की श्रृंखला ,
आलोडित विलोडित हो,
ठहराती कहाँ है,
गूंजती फिसलती
उठती -गिरती
लहरों के मानिन्द,
विलीन हो जाती है
अथाह सागर में ,
रचती है फेनिल
बुदबुदो का संसार ,
सतरंगी पंखों का,
आभास देतीं ,
स्वप्न सी
रोम -रोम पुलकित हो
वायवीय गति सा,
बुलबुलों का स्पन्दन ,
पल भर मे
संपूर्णता मे समा
मूक हो जाने के लिए ।
जीवन का सार है,
बुलबुला ।
नश्वरता निश्चित,
संदेश देता बुलबुला।

मुंडेर पे कागा

अब ना बोले बोल,मुडेर पे कागा
काॅव काॅव ध्वनि विहीन ,हो रहा है जग सारा ।

दे संदेशा काग बोले
आगमन अतिथि पधारे
चहक भरती आँगना में
चलो हम घर को सवारे,
खुशियों से मन पुलक भरता
आएंगे प्रियवर हमारे ।

अब ना बोले बोल ,
मुंडेर पे कागा

ना महल है ना अटारी,
ना झरोखा ना दुवारी,
ना रानी औ दास दासी,
मुंडेर पे फैली उदासी ,
रतजगे ना ताशपत्ती
रिश्तो की ना हँसीठठ्ठी।

अब ना बोले बोल, मुंडेर पे कागा

समय की शिला पे जाने
रंग बिरंगे छवि उकरे,
भेंट अधुनातन चढ़े सब
बन गए कहानी किस्से,
आएगा कब वो जमाना
कागा बोले फिर मुंडेरवा ।

अब ना बोले बोल, मुंडेर पे कागा।
काॅव काॅव ध्वनि विहीन हो रहा जग सारा ।

कितने फ़लसफे़ है पालता आदमी
फिर भी चक्रव्यूह में घिरता आदमी।

नजरों को झुकाता फिरे इस कदर
जब गुनाह करके निकलता आदमी।

अपने कामो मे इतना मशगूल हुआ
इक पल सुकू का न गुजारा आदमी।

पेट के वास्ते जान बाजी लगा कर
तमाशा बन के कमाता आदमी।

जीने की चाह में जो रब को भी भूला
मुश्किल के वक़्त घबराया आदमी ।

पडा है रास्ते मे तड़पता आदमी,
नज़रअंदाज कर है निकला आदमी।

भीड़ में भी होता है अकेला वह
कितना गमज़दा है तन्हा आदमी।

जिसके सीने में दफ्न हों राज़ के काफिले
किस क़दर होता है वह गहरा आदमी।

फोन में रहती है कविता

फोन की कविता का
बाजार वाद,
निराला है।
नाना रंग रुप से नित्य
रुबरु होना ,
आनंद वाद है।

यह निर्विवाद सत्य है
हम,
प्रगति के सोपान तय करते करते,
रातो -रात,अन्तर्राष्ट्रीय हो गए।

फक्र है ,
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ,
दूर फ़लक उड़ान भरने ,
मिथकीय हौसले से लवरेज
प्रत्यक्ष प्रमाण
झंझटों से मुक्त , बेबाक
परिश्रम का मोल ,
शून्य में विलीन सा
संवाद स्थापित कराता है,
संभव हुआ
क्योंकि,
फोन में रहती है कविता ।

इन दिनों
फोन गुरुवों की महत्ता ,
सहज प्रतिपादित हो,
महिमा का यशोगान करती
साहित्यकार को,
मुँह चिढ़ाती ,
यक्ष प्रश्न सी प्रश्न करती
फोन में रहने वाली कविता ।

एक दशक हुए, अध्यापक के हाथ में भी,
कलम दवात, कागज की जगह,
बुद्धु बक्से ने ले ली।

अध्यापन पाठ्यक्रम का
हर पहलू
इसमें है मौजूद,
सुलभ सरल आसान ,
भला इससे परहेज़ कैसा,
बहुप्रयोजन बक्सा ,
नही कोई ऐसा वैसा ।
क्योंकि
हर काल की,
फोन में रहती है कविता ।

कविता तो कविता है,
मेरी फास्ट फ्रेंड ,
उसकी हर क्षण की तस्वीर
रहती है क़ैद
चलित भास पर
हर वक्त के साथ
हर वक्त,
तमाम विसंगतियों के बावजूद,
आजकल ,
सभी आयामों के संग
आदतन मेरी,
फ़ोन मे रहती है कविता ।

मेरी ही नहीं
हर किसी ऐसे वैसे की,
फोन में रहती है कविता,
जो,कवि का जामा पहन
बैठ गया,साहित्यकार कहलाने अग्रिम पंक्ति में,
बिना डाय़री कागज कलम के
मनचाहे विषय पर,
पढ़वा लीजिए इनसे
इन्हें किसी का भय नहीं
क्योंकि
फोन में रहती है कविता ।

पौ फटने से पहले

हर दिन अंधेरे में
सबसे पहले उठती है माँ
पूरे घर मे मुँह अंधेरे,
लगाती है
बुहारी,
बुहारते -बुहारते
पहुँचती है आँगन ,
थकते नही पाँव,
बूढ़ी आखों मे
लालसा, सुख -समृद्धि
की भावना
लक्ष्मी के टिके रहने की मनुहार,
सुखों की कामना,
हरदिन इस काम से
थकती नहीं माँ ,
उठ जाती है ,सबसे पहले,
परिवार के गम को बुहारने,
पौ फटने से पहले।

संचय

बटोर कर तिनका तिनका ,
पेड़ की खोह में ,
बनाया आशियाने
फुदक फुदक कर
खेलती पलती
सुख के दिन गुजरते,
निर्भय हो स्वछन्द विचरण
करती थी ,नन्ही सी चिड़िया,
कटते ही धूल धूसरित हो
आशियाना ही
नही बिखरा,
बिखरा श्रमसाध्य जीवन
और
संचित पूंजी ।

वह मजदूरनी
श्रम सीकर कर्म रत
सिर मे तगाडी ,
पीठ मे बच्चे को बाँध,
करती है जेठ की दुपहरी में ,
कभी ना आराम,
चाहिए मजदूरी ताकि,
कर सके परिवार का पोषण,
पाई पाई धन संचित करती हैं,
कल खड़ी कर सके
रहने झोपड़ी ।

सूर्योदय होते ही ,
जुट जाती है माँ ,
आराधना में
सूर्य को अर्द्धय दे
तुलसी सींचती है,
जल चढा मनाती है,
शिव परिवार ,
करती हैं गीता पाठ,
रामचरितमानस और
मांगती हैं मनौती,
सुख,समृद्धि, अक्षय पुण्य कोष,
जो मृत्युपर्न्त साथ रहे,
धर्म की जड सदा हरी,
स्वर्ग मे वास दे संचित
पुण्य कोष के साथ ।

अक्षर ,शब्द ,वाक्य
भाव प्रसून
एक एक
पंखुडी पंखुडी खिला
मुग्धता से बिखेरतीं हूँ
खुशबु ,
दूर तलक सौरभ से
साहित्य जगत महके,
संचित भाव साधना के।

मुक्तक

मुझे अपनी शरण लेना,तुम्हारे द्वार आई हूँ ।
करूँ नित वंदना तेरी,सदा मन में बसाई हूँ ।
अराधन मै नही जानूँ,दिलो में भाव ही पालूँ।
शब्द मोती बने माला,यही आशीष चाही हूँ ।

गरीबी में चलन ऐसा, नया कपड़ा नही मिलता।
सड़क पर भीड़ है भारी,चमन में फूल क्या खिलता।
दरो दीवार पर लिख दी,कहानी तो गरीबी की।
फटे को ढाँपने हरदम ,रफू पैबंद ही सिलता।

समंदर भाव लहरों की,उठी घिर घन घटा छाई।
बरसती बादली बनकर,फुहारें गीत बन आई।
दया करुणा भरी ममता,रचाती ओज का सरगम।
दिलो में भाव लहराकर, हमेशा पीर सहलाई।

4 thoughts on “कवयित्री: डॉ. मीता अग्रवाल

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