आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िंदगी (01)
संतोष श्रीवास्तव
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तनहा
काफिला साथ और सफर तनहा
खंड (१)
जो घर फूँके आपनो
कबीर मेरे जीवन में रचे बसे थे। खाली वक्त कभी रहा नहीं। रहा भी तो कबीर के दोहे गुनगुनाती रहती ।
कबीरा खड़ा बाजार में लिए लुकाठी हाथ
जो घर फूंके आपना चले हमारे साथ
घर फूंकने में मुझे गुरेज नहीं ।मुंबई में 22 बार घर बदला ।दो बार शहर बदले। खूंटे से छूटी गाय की तरह दोनों बार मुम्बई वापस। मोह वश नहीं, मोह तो मेरा हर चीज से हेमंत के साथ ही खत्म हो गया ।कीचड़ में सनकर भी कमलपात सी निर्लिप्त रही। मेरे जीवन के हादसों ने न मुझे दुनिया में रहने दिया, न दुनिया छोड़ने दी।
हेमंत सदा के लिए चला गया। असीम में समा गया। मात्र 23 साल मेरा साथ देकर और मैं हिमखंड सी जम गई। अपनी वेदना, पीड़ा, शोक, अवसाद, असफल जिंदगी को लेकर प्रश्न ,ईश्वर के प्रति आहत विश्वास और श्रद्धा को किसी के साथ बांट लेने को तड़प उठी। चाहती हूँ मेरे अंदर का हिमकुंड पिघले…बहे । उसे किसी के एहसासों की, गर्मी की जरूरत है पर इस वीराने में मेरी निगाहें भटक कर लौट आती हैं। कहीं कोई भी तो नहीं जिससे तनहाइयां बांट सकूँ। लिल्लाह….. यह कैसा वीरानापन, यह कैसा वनवास कि जिसकी अवधि ही मुकर्रर नहीं। गमों के बेइंतहा साथ ने मेरे मन को पंखुड़ी सा कोमल कर दिया था। मैं ठहर गई थी उस वनवास में अपनी तमाम कठोरता को मोम बनाकर और चकित थी ईश्वरीय फैसले पर ।
तेरा दरबार सच्चा… तेरा फैसला सही…मैं ही न्याय के लायक न थी। टूट जाना चाहिए था। किर्च किर्च बिखर जाना चाहिए था पर आँसू बहा कर गम गलत करना मेरी फितरत नहीं। मैं अलग ही किस्म की हूँ ।मुझे आम जिंदगी कभी रास नहीं आई ।फिर चाहे खास उबड़ खाबड़ पथरीली कांटो भरी क्यों न हो, मैं उस पर अब चल लेती हूँ। न तलवों के छाले सहलाती न कांटों को खींचती। राह की यह खासियत कहाँ से शुरू हुई समझना मुश्किल है।
***
मंडला मध्य प्रदेश में बाबूजी डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट थे ।खूब बड़ा बंगला नौकर चाकर। मैं उसी बंगले में 23 नवंबर को मैं पैदा हुई ।मैं अभागिन,अम्मा को भी बहुत पीड़ा हुई मुझे जन्म देते हुए। बाबूजी ने जबलपुर से स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की भीड़ इकट्ठी कर ली। मेरे जन्म लेते ही बंगले के अहाते में पुलिस दल ने तीस बंदूकों की सलामी दी थी। दुनिया में पदार्पण का मेरा शोर और पीड़ा भरा वह खास अंदाज उम्र भर के लिए मेरी जिंदगी में रच बस गया था।
घर में मेरे लिए अलग नौकरानी थी। बंगले के पीछे दो गायों की गौशाला थी। एक सफेद एक भूरी। भूरी गाय का बछड़ा भी भूरा। मैंने बछड़े का नाम मटरू रखा था। मटरू अहाते में मेरे संग उछलता कूदता था ।मैं उसे छोटी सी लुटिया में पीने को पानी देती थी। लुटिया में उसका मुंह कैसे जाए,मैं बुक्का फाड़ कर रोती कि” मेरा मटरू प्यासा है।”
एक दिन अम्मा का लाल बटुआ उठाकर गेट पर खड़ी हो गई और उसमें रखे चांदी के सिक्के राह से गुजरते हर राहगीर को देने लगी। सिक्का लेते ही राहगीर सलाम ठोकते। मैं खिलखिलाती….. मैजिस्ट्रेट की बेटी सिक्का बाँट रही है। सिक्का पीछे खड़ी नौकरानी के पास लौट आता ।यह कबीराना हरकत भी मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गई ।
मंडला में संत धनीराम बाबा थे ।जिन्हें लगभग पूरा मंडला पूजता था ।रपटा पुल के पास उनकी छोटी सी कुटिया थी और कुटिया के सामने विशाल मैदान जिसमें रोज ही सैकड़ों की संख्या में भक्तगण बैठे रहते। आश्रम से लगा नर्मदा नदी का रपटा घाट था। धनीराम बाबा सब की समस्याएं सुलझाते। उनसे उबरने के उपाय बताते। भक्तों के द्वारा पूड़ी, लड्डू खीर का जो प्रसाद उन्हें चढ़ाया जाता वे स्वयं अपने हाथों से उसे भक्तों में बांट देते। न कभी प्रसाद कम पड़ा और न कोई उनके आश्रम से भूखा गया ।एक बार अम्मा मुझे, प्रमिला और जीजी को लेकर उनके आश्रम गईं। काफी देर बैठने के बाद जीजी अपनी सहेली नीलू के साथ मुझे और प्रमिला को लेकर रपटा घाट आ गई। हम दोनों को किनारे पर बैठाकर वे दोनों तैरने लगीं। कभी पानी में छुप जाती तो मिनटों गायब रहतीं। कभी पानी के ऊपर लेटे हुए बिना हाथ-पैर चलाए तैरतीं। मुझे भी मन हुआ पानी में जाने का। घाट के पास से ही नदी गहरी थी। मैं डूबने लगी। लहरों के संग रपटा पुल के नीचे तक बहती चली गई। जब प्रमिला चीख चीख कर रोने लगी तब जीजी और नलू का ध्यान गया। मेरा सिर भर दिख रहा था ।जीजी ने मेरे बाल पकड़कर अपनी ओर मुझे खींचा। मैं ढेर सारा पानी पी गई थी। लेकिन बेहोश नहीं हुई ।अम्मा हमें खोजते हुए घाट तक आ गई थीं। उन्हीं ने बताया कि जब मैं रपटा पुल के नीचे थी तो धनीराम बाबा पुल के ऊपर खड़े लौट जाने का इशारा कर रहे थे। वे दोनों हाथ तेजी से हिला रहे थे जबकि पुल के नीचे नदी का बहाव पश्चिम दिशा में था और घाट पूर्व दिशा में।विपरीत दिशा में मैं कैसे मुड़ी, ताज्जुब होता है।
बचपन की इस घटना ने नदी के प्रति मेरे मन में खौफ पैदा कर दिया। यही वजह थी कि घर में सब तैराक थे पर मैंने कभी तैरना नहीं सीखा। कभी कभी मुझे सपना आता कि नर्मदा नदी के बीचों-बीच एक स्त्री का मुख और बाहें हैं। बाहें मुझे दबोच लेने को आतुर हैं। बार-बार देखे इस स्वप्न की दार्शनिकता मैं आज तक नहीं समझ पाई।
बचपन के यानी नौ दस वर्ष की उम्र के वे साल बहुत तेजी से घटी दुर्घटनाओं के साक्षी बन मेरी जिंदगी में गहरे धंसे हैं। आज भी उनसे उबर नहीं पाती हूँ जैसे एक सघन अंधेरा मेरी ओर बढ़ता है। जैसे युग युग की रातें इकट्ठी हो गई हों एक साथ। जैसे सदियों की आंधियां गुजर रही हों मेरे भीतर। बहुत स्पष्ट याद है वह रोमांचक घटना जब बाबूजी कत्ल के केस की सुनवाई कर रहे थे ।सभी पेशियों की गवाहियाँ खूनी को निर्दोष साबित कर रही थीं। विपक्ष मालदार भी था और ताकतवर भी ।धमकियां आनी शुरू हो गईं।बाबू जी ने सरकारी सुरक्षा मांगी ।
दो पुलिस कॉन्स्टेबल बदल-बदल कर घर की ड्यूटी पर तैनात किए गए । रमेश भाई छाया की तरह बाबूजी के साथ रहते। रात को टॉयलेट भी रमेश भाई की सुरक्षा में जाते ।लेकिन इतनी सुरक्षा के बावजूद बाबूजी पर हमला करने की कोशिश की गई।
रात के 9 बजे होंगे ।खाना खाकर बाबूजी ऊपर के कमरे में बैठकर कानून की और दर्शन की किताबें पढ़ते थे। उस दिन प्रमिला भी उनके साथ थी। जैसे ही वे ऊपर पहुंचे और किताब निकालने को अलमारी खोली कि अलमारी के पल्ले की ओर से चमचमाता छुरा उनकी ओर लपका। जाने किस अदृश्य शक्ति के जरिए वे भागे और तेजी से सीढ़ियों पर लुढ़कते चले गए। प्रमिला कैसे नीचे आई मुझे याद नहीं ,पर वह जोर-जोर से रो रही थी ।बाबूजी ने काले साए को कमरे की खिड़की से खेतों की ओर कूदते देखा था ।बाबूजी गीता के उपासक, कभी किसी बात से विचलित नहीं होते थे। उन्होंने तेज आवाज में कहा –“कोई घर के बाहर नहीं जाएगा ,हमला हुआ है मुझ पर ।”
फाटक पर तैनात पुलिस कॉन्स्टेबल बस 10 मिनट को ड्यूटी से हटा था कि ताक लगाए बैठे हमलावर को मौका मिल गया अंदर घुसने का ।बंगले की खिड़कियों में ग्रिल नहीं थी। बड़ी-बड़ी खिड़कियां …कोई भी आसानी से अंदर बाहर जा सकता था। बाद में बाबूजी ने बताया कि प्रमिला ने ही भूत भूत कहकर उनका ध्यान हमलावर की ओर दिलाया था। पुलिस तहकीकात तो होनी ही थी। खेतों पर खिड़की से कूदने के निशान मिले ।ऐन खिड़की के नीचे की फसल दबी ,धंसी मिली। फिर तो आए दिन की धमकियां
” केस वापस लो ,पूरा परिवार मिटा डालेंगे, जीना दूभर कर देंगे।” बाबूजी की सुरक्षा और कड़ी कर दी गई ।घर दहशत में गिरफ्त रहता। सरेशाम से ही दरवाजे बंद कर दिए जाते और बंद करने के पहले पूरा घर तलाशा जाता। कोई छुपा तो नहीं बैठा है। बहरहाल लंबे चले केस का फैसला बाबूजी के सही न्याय से हुआ।
केस खत्म हो जाने के बाद भी हम बच्चों के चेहरे पर हवाइयां उड़ी रहतीं। नींद में भी हम चौंक -चौंक जाते ।अम्मा बाबूजी ने हमारा यह डर दूर करने के लिहाज से हमें चेंज देने की योजना बनाई ।हनुमान जयंती भी आने वाली थी ।लिहाजा हम सब सूरजकुंड गए ।जहां पुरवा ग्राम के नजदीक हनुमान जी का प्राचीन मंदिर है ।मंदिर में प्रतिष्ठित हनुमान जी की उस दुर्लभ मूर्ति की खासियत यह है कि वह 24 घंटे में प्राकृतिक रूप से (पंडित नहीं बदलते) तीन बार अपना रूप बदलती है ।सुबह 4 से 10 बजे तक मूर्ति बालक जैसी दिखती है। 10 से शाम 6 बजे तक युवा और छह से पूरी रात मूर्ति वृद्ध दिखती है। बाबूजी को ये तीनों रूप देखने थे इसलिए हम सब जीप में सूरजकुंड सुबह-सुबह ही पहुंच गए ।
अम्मा ने हम दोनों बहनों को नेहरू जी जैसी शेरवानी,काली बंडी और चूड़ीदार पहनाया था ।साथ में ढेर सारे नाश्ते से भरी डलिया, दूध चाय के थरमस हमारी तो पिकनिक जैसी ही थी। क्योंकि हनुमान जयंती थी इसलिए ढेर सारे रंगारंग कार्यक्रम भी मंदिर परिसर में रखे गए ।अखंड रामायण ,भजन, भजनों पर नाचते भक्तगण और विशाल भंडारे में स्वादिष्ट भोजन ।
शाम होते ही हम नौका विहार के लिए मचलने लगे। बाबूजी ने रमेश भाई के साथ मुझे और प्रमिला को नौका विहार के लिए भेज दिया। सूरजकुंड में नदी का प्रवाह अक्सर शांत रहता है। दोनों किनारों पर गझिन हरियाली और बहाव का कोई छोर नहीं ।जब नाव में बैठे तो सूरज अस्त होने को ही था। नदी भी मानो हनुमान जी के रंग में रंग गई थी ।खूब दूर तक नौका चलती चली गई ,चलती चली गई ।अचानक काले डरावने बादल आसमान पर मंडराने लगे। तेज हवाएं चलने लगीं। हवाओं की गति देख मल्लाह ने नौका तट की दिशा में मोड़नी चाही पर नौका तो बिना पतवार के बही चली जा रही थी ।चारों ओर जलराशि ही जलराशि। किनारा सूझता नहीं था। थोड़ी ही देर में घनघोर बारिश शुरू हो गई और बिजली कड़कने लगी। हम रमेश भाई से लिपटे रोए जा रहे थे ।कभी नौका बाएँ झुक जाती, कभी दाएँ। कभी लहरों पर उछलने लगती। लगता अब गए पानी में। अचानक इतनी जोर की बिजली कड़की कि लगा हमारी नौका पर ही गिरी है ।बिजली की चमक में हमने एक दूसरी नाव अपनी ओर आते देखी। नाव पर अम्मा बाबूजी टॉर्च की रोशनी डालते हुए हमारा नाम पुकार रहे थे। बाबूजी नाव पर बिना किसी सहारे के मजबूत स्तंभ से खड़े थे। उनकी नौका के मल्लाह ने हमारी नौका भी अपनी नौका से बांध दी ।अब दो नौकाएँ, दो मल्लाह और जिंदगी की आस छोड़ चुके हम सब। नौका रुकी। घुटने घुटने पानी से होकर हम जहां पहुंचे वह किसी किसान का झोपड़ा था। जब हम सबका रोना थमा तब उसने गुड़ डालकर औटाया हुआ गर्म दूध हमें पिलाया ।उसके पास खाने को कुछ न था। वह अपनी बगिया से पके हुए पपीते तोड़ लाया।
न जाने किस दैविक शक्ति से हमारा बाल भी बांका नहीं हुआ ।किसान के झोपड़े में रात गुजार कर जब हम घर लौटने के लिए रवाना हुए तो पुरवा गांव में कोहराम मचा था। दो नौकाएँ रात के तूफान में लापता थीं। जिनमें करीब तीस लोग सवार थे।
बाबूजी ने रिटायरमेंट के पहले ही अपने उसूलों के कारण नौकरी छोड़ दी और हम जबलपुर आ गए। जहाँ वे ताउम्र वकालत करते रहे ।उन्होंने अपनी वकालत के काल में कत्ल के 40 मुकदमे लड़े और प्रत्येक मुकदमे में उनकी जीत हुई ।
जबलपुर जाबालि ऋषि की तपस्थली, उन्हीं के नाम पर इस शहर का नाम जबलपुर पड़ा ।पर मैं हमेशा सोचती थी कि इसका नाम जलपुर होना चाहिए था। जहाँ देखो ताल ही ताल। जबलपुर के पूर्व में गौर नदी है। अर्धचंद्र बनाकर दक्षिण और पश्चिम दो दिशाओं में नर्मदा नदी बहती है। उत्तर में छोटी सी परियट नदी। जब इन नदियों में बाढ़ आती है तो जबलपुर के आसपास के इलाके टापू बन जाते हैं। जब नदियां शांत बहती हैं इनके किनारे उत्सवमय हो जाते हैं। नर्मदा नदी के किनारे ग्वारीघाट ,तिलवारा घाट, भेड़ाघाट विभिन्न त्योहारों में लगे मेलों से सज जाते हैं ।शहर के भीतर ढेरों तालाब। हनुमानताल मेरे परदादा का बनवाया हुआ था।रानीताल, चेरीताल ,अधारताल का निर्माण रानी दुर्गावती के समय हुआ। फूटाताल, मढाताल, तिलक भूमि की तलैया, श्रीनाथ की तलैया, भंवरताल , गंगासागर, महानद्दा। कितने गिनाऊँ…..ताल ही ताल। तालों के जलवक्ष पर कुमुदिनी की बेल बिछी रहती। जिसके बेंजनी फूल शाम होते ही खिल जाते और सुबह मुरझा जाते। सुबह बीच-बीच में लगे सफेद गुलाबी लाल कमल खिल जाते। कुमुदनी चाँद की दीवानी, कमल सूरज का ।मेरा घर का नाम कमला था। मेरे दोनों बड़े भाई मुझे कमल कहते थे। इस फूल के प्रतिरूप ही मेरा स्वभाव। सुबह से दोपहर तक खुश रहती हूँ।दोपहर ढलते ही जाने कौन सी वेदना मुझे निढाल करने लगती है। जो आज तक जस की तस है। चाहे कितनी रात गए सोऊँ पर उठ जाती हूँ भोर होते ही 5 बजे ।मैंने कभी अपनी अधूरी नींद की पूर्ति सुबह देर तक सो कर नहीं की।
नामों की भी मेरे जीवन में खूब घुसपैठ रही ।जयशंकर प्रसाद की कामायनी पढ़कर मेरे भाई बहन मुझे कामायनी फिर किमी नाम से पुकारने लगे। यूँ स्कूल में नाम लिखाने से पहले मेरा नाम शेफाली भी रखा गया ।फिर बड़े चाचा जब स्कूल में मुझे भर्ती करने ले गए तो जाने क्या सूझा उन्हें संतोष नाम लिखा दिया। संतोष मामा जी का नाम था। जब बाबूजी ने संतोष नाम पर एतराज किया तो चाचा जी बोले “राजसी ठाट रहेंगे इसके ,जैसे जॉर्ज चतुर्थ, जॉर्ज पंचम ।
नाम की महिमा अब भी लोगों को भ्रम में रखती है कि मैं लड़की हूँ कि लड़का ।
रात्रि भोज के दौरान सब एक साथ बैठकर खाते थे और बौद्धिक चर्चाएं होती थी। बाबूजी ने चर्चा के दौरान बताया था कि सन 1956 में जबलपुर मध्य प्रदेश की राजधानी होते-होते रह गया था ।जबकि आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक इन सभी दृष्टियों से जबलपुर मालामाल था और लोकतांत्रिक चेतना का सबसे प्रमुख केंद्र था लेकिन उस जमाने में सेठ गोविंद दास का कट्टरपंथी रवैया कांग्रेस को पसंद न था और चूंकि वे संसद सदस्य थे अतः कांग्रेस की इस ना पसंदगी ने जबलपुर के शीश पर राजधानी का मुकुट चढ़ने ही नहीं दिया। राजधानी के गौरव से वंचित जबलपुर को विनोबा भावे ने संस्कारधानी की उपाधि दी।
यह तो बहुत बाद में जब मैं स्कूल (महारानी लक्ष्मीबाई कन्या विद्यालय) में पढ़ती थी और जब जबलपुर सांप्रदायिक दंगों की भयानक चपेट से गुजर रहा था तब पता चला था कि जबलपुर को संस्कारधानी का विशेषण गौरव गान करने के लिए नहीं बल्कि सांप्रदायिकता की आग में झुलसे शहर के जख्मों पर मरहम लगाने के लिए दिया था। जिस शहर में एक तरफ साहित्य और राजनीति के बीच और दूसरी तरफ साहित्य व समाज के बीच इतना जीवंत संपर्क रहा वहाँ क्यों कर सांप्रदायिकता की विषबेल पनप सकी। सोच सोच कर हैरान, परेशान रही मैं …..हफ्तों, महीनों बार-बार आंखों के सामने वह खूनी मंजर, वह दिल दहला देने वाला नजारा आता रहा।
उषा भार्गव कांड सुर्खियों में था। उषा भार्गव का मुस्लिम लड़के से प्रेम वजह बना दंगों की, जब किन्ही अज्ञात व्यक्तियों ने उषा भार्गव का कत्ल कर दिया। आम राय थी कि यह कत्ल मुस्लिम संप्रदाय के हाथों हुआ है ।मैं एनसीसी में थी और उस दिन हमारी परेड का अभ्यास स्कूल में चल रहा था। अचानक दंगे भड़कने की खबर मिली थी और हमें पुलिस की सुरक्षा में पुलिस जीप में हमारे घरों तक पहुंचाया गया था ।मेरा चूँकि सिविल लाइंस में घर था सो सबसे आखरी में मैं घर पहुंची। मैंने डबडबाई आंखों से शहर की तबाही देखी थी ।जली अधजली धुंए से भरी मढाताल ,घमापुर, बड़े फुहारे की दुकानें। कमानिया गेट की चहल-पहल भरी सड़क पर खून मांस के लोथड़े, बिखरा टूटा फूटा सामान ,जले हुए टायर ,लोगों का वहशी हुजूम…” मारो मारो “की दानवी आवाज। यह आवाज हिंदू की थी या मुसलमान की कोई सिक्स्थ सेंस वाला भी नहीं बता सकता था। मैं रोने लगी थी और मेरा हृदय मरोड़े लेने लगा था। घर लौटने के बाद शाम मुझसे खाना नहीं खाया गया और मैं सोते हुए भी चौंक-चौंक पड़ी थी। अगली दो रातें गजब का खून बरसाती रहीं। चीखों की समवेत लय कानों में गुपचुप प्रवेश कर मुझे सर्वांग पीड़ा से भरती रही ।नहीं जानती वह कैसी छाप थी जिसने मेरे मासूम, संस्कारी और संवेदनाशील ह्रदय को चप्पा चप्पा बींध डाला था। मन में सवाल उठा था आखिर किसने हक दिया ईश्वर की बनाई रचना को खत्म करने का? क्यों संप्रदायों में बंटा है समाज और क्यों एकता से नहीं रह सकता यह वर्ग? कहाँ की दुश्मनी है जो ये दोनों संप्रदाय कौरव पांडव बने अपने ही हस्तिनापुर को मिटाने पर तुले हैं। इस घटना ने कई बरसों बाद मुझसे लिखवाई “अजुध्या की लपटें” कहानी जिसमें मैंने बाबरी मस्जिद ढहाने को प्रसंग बना उषा भार्गव कांड ही लिखा था। “अजुध्या की लपटें” एकांत श्रीवास्तव के संपादन में कोलकाता से निकलने वाली मासिक पत्रिका वागर्थ में छपी और बेहद चर्चित हुई।
बचपन की यादों में कुछ यादें अभी भी रड़कती हैं ।जबलपुर का एसिड कांड तो ताजे घाव सा है। ईश्वर मेरे जैसा भावुक संवेदनशील और नरम दिल किसी को न दे ।ऐसे दिल वालों के लिए दुनिया नंदनवन होनी चाहिए। जहाँ प्यार ही प्यार हो, संगीत हो और फूलों से पटी धरती। पर जिंदगी ऐसी नहीं होती। यहाँ प्यार करने का दावा करने वाले दिल निर्मम भी होते हैं। जबलपुर में खमरिया स्थित रॉबर्टसन कॉलेज में जीजाजी बॉटनी के लेक्चरर थे। कॉलेज का वार्षिकोत्सव था जिसमें मैं जीजी के हाथ की सिली गुलाबी साटन की फुग्गेदार बाहों वाली खूबसूरत फ्रॉक पहने, गुलाबी रिबन की दो चोटियां करे जीजी और प्रमिला के साथ गई थी। जीजाजी ने हमें सबसे आगे की सीट पर बैठा दिया था। कॉलेज की लड़कियों के नृत्य और नाटक मन मोह रहे थे कि तभी अचानक सांप -सांप के शोर सहित भगदड़ मच गई ।मैं दौड़कर टेबल के नीचे छिप गई। पता चला सांप नहीं वो एसिड के बल्ब थे जो किसी ने हॉल में फेंके थे। मांस के जलने की बू, चीख-पुकार ,रोना कलपना और हमारी खोज के संग संग घायलों को प्राथमिक चिकित्सा के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला में ले जाया गया। थोड़ी देर में एंबुलेंस आ गई। बहुत भयानक दिल दहला देने वाला था वह कांड ।पता चला इश्क का मामला था। लड़की किसी और से प्रेम करती थी और इसी खुन्नस में जुनूनी आशिक ने अपने साथियों के साथ इस काम को अंजाम दिया ।लड़की तो बच गई …..निर्दोष दर्शक इसका शिकार हो गए । यौवन के द्वार पर पहुंची खूबसूरत लड़कियों के चेहरे वीभत्स हो गए। कंधे, पीठ, कमर ….एसिड जहां-जहां गिरा अपने खूंखार निशान बनाता गया। मुझे जीजी ने टेबल के नीचे से खोज निकाला। डरी सहमी मैं सुबक रही थी। हम सब प्रयोगशाला के कोने में तब तक बैठे रहे जब तक सारे घायल अस्पताल नहीं पहुंच गए। वह तड़प,वह रोना कलपना ,दर्द भरी चीखें आज भी मेरा कलेजा दहला देती हैं। प्रेम का यह कैसा रूप कि मानवता भी रो पड़े।
इन घटनाओं ने शहर को लेकर जहाँ मुझे शर्मिंदा किया है वहीं गर्व भी है मुझे जबलपुर पर ।यहाँ हितकारिणी सभा है ।शुभचिंतक प्रेस भी और लोक चेतना प्रकाशन भी ।शुभचिंतक प्रेस से बाबूजी (गणेश प्रसाद वर्मा )की दर्शन शास्त्र की किताब “सरस्वती पूजन द्वारा विश्व शांति “प्रकाशित हुई थी। जिसकी ढेरों प्रतियां बाबूजी के ऑफिस की अलमारी में बरसों पड़ी रही थीं। वह किताब अनूठी थी पर उसकी बिक्री कम हुई।
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सातवें -आठवें दशक में जबलपुर संस्कारधानी ही था ।वह मेरे स्कूल के शुरुआती दिन थे। मेरे बड़े भाई विजय वर्मा के कारण घर का माहौल बुद्धिजीवियों ,लेखकों ,पत्रकारों की मौजूदगी से चर्चामय था। शिक्षा साहित्य और कला तब शीर्ष पर थी। श्रद्धेय मायाराम सुरजन का जबलपुर की पत्रकारिता और साहित्यिक परिवेश में बहुत बड़ा योगदान है ।आज भी सुरजन परिवार नींव का पत्थर बने मायाराम सुरजन के साहित्यिक कार्यों को पूरी आन बान शान से संभाले हुए हैं। सन 1945 में मायाराम सुरजन ने दैनिक पत्र नवभारत टाइम्स जबलपुर से प्रकाशित करना आरंभ किया जो 1958 तक अनवरत चला ।नवभारत 1950 से, नईदुनिया 1959 से मायाराम सुरजन ने ही प्रकाशित करना आरंभ किया था। बाद में नई दुनिया नवीन दुनिया नाम से परमानंद पटेल के हाथ में चला गया क्योंकि उसके फाइनेंसर वही थे। सांध्य दैनिक जबलपुर समाचार भी जबलपुर से ही मायाराम सुरजन ने प्रकाशित करना आरंभ किया था। जबलपुर समाचार रायपुर चला गया और देशबंधु नाम से प्रकाशित होने लगा। जिसने हिंदी दैनिक समाचार पत्रों में न केवल मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़ बल्कि दिल्ली में भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। देशबंधु प्रकाशन से ही साहित्यिक पत्रिका अक्षर पर्व निकलती थी जिसकी संपादक सर्वमित्रा सुरजन थीं जो ललित सुरजन की पुत्री हैं। ललित सुरजन विजय भाई के दोस्त थे ।वे आज भी मुझसे अपनी छोटी बहन सा स्नेह करते हैं और सर्वमित्रा मुझे बुआ कहती हैं।
कर्मवीर की शुरुआत भी जबलपुर से हुई ।पंडित माधवराव सप्रे ने कर्मवीर का संपादन किया था जिसमें सुंदरलाल और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार उनके सहायक थे। पंडित सुंदरलाल काफी लंबे समय तक जबलपुर के बाशिंदे रहे। पंडित द्वारिका प्रसाद मिश्र उन दिनों अपने पत्रों श्री शारदा और सारथी का प्रकाशन करते थे। उनके छोटे भाई सत्येंद्र मिश्रा अम्मा के सहयोगी थे ।हमारे घर उनका आना-जाना था। लेकिन अम्मा की मित्रता उनकी वहीदा रहमान जैसी दिखती पत्नी से ज्यादा थी जिन्हें हम मौसी कहते थे। अपने कॉलेज के दिनों में अक्सर लांग रिसेस में मैं मौसी के घर चली जाती और रसोईघर के तमाम कटोरदान खोल खोल कर मठरी ,लड्डू ,खुरमे, सलोनी से अपनी प्लेट भर लेती ।मौसी को बड़ा आनंद आता था। वे खुद मेरे लिए भंडारघर से अचार लातीं। “ले खा और सुना अपनी कविता ” गद्य लेखन से काव्य की ओर मेरे रुझान का श्रेय मौसी को ही जाता है। मैं चार-पांच लाइन की कविता लिखकर ही उनके घर जाती थी और शाबाशी भी खूब पाती थी।
मेरे कॉलेज से मौसी के घर पहुंचने में मुश्किल से 5 मिनट लगते थे ।आज भी याद है लकड़ी की जाफरी लगा वह खुशनुमा घर। फाटक पर जूही की बेल और पारिजात का पेड़ ।
मेरे कॉलेज का नाम मोहनलाल हरगोविंद दास आर्ट्स एंड साइंस गर्ल्स कॉलेज था। सब उसे होम साइंस कॉलेज कहते थे। जबकि वहाँ विज्ञान की पढ़ाई भी होती थी ।कॉलेज के विशाल कैंपस में गर्ल्स हॉस्टल था।
और वहीं प्राचार्य निवास भी ।प्राचार्या कुसुम मेहता थीं जो बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी में बाबूजी की सहपाठी थीं। हॉस्टल की वार्डन विमला चतुर्वेदी थीं जो कॉलेज में हिंदी पढ़ाती थीं। वे अविवाहित थीं और उम्र भी 45 के आसपास होगी। बेहद स्ट्रिक्ट, चेहरे पर हँसी का नाम नहीं। अपनी छोटी छोटी आंखों से वे हरेक का जायजा ले लेती थीं। लेकिन वह मुझे बहुत पसंद करती थीं क्योंकि मैं उनका होमवर्क जरूर करके लाती थी। कक्षा में उनके प्रश्नों के जवाब भी देती थी ।
मेरा कॉलेज बड़े-बड़े लॉन, फूलों की क्यारियों और ऊंचे ऊंचे दरख्तों से घिरा शानदार स्थापत्य वाला था ।इसके मालिक मोहनलाल हरगोविंद दास बीड़ी वाले सेठ कहलाते थे। जिनका बीड़ी का व्यापार दूर-दूर तक फैला था। तेंदूपत्ता में तमाखू भरकर लपेटने और पैक करने के काम में कई बेरोजगार श्रमिकों को उन्होंने रोजगार मुहैया कराया था। वे दानवीर कहलाते थे और लड़कियों को शिक्षित करने की दिशा में प्रतिबद्ध थे। बाद के दिनों में जब विजय भाई कमर्शियल आर्ट की ओर झुके तो बीड़ी का रैपर उन्हीं ने डिजाइन किया था जो बरसों बरस ऐसा ही चलता रहा ।जंगल से तेंदूपत्ता तोड़ने से लेकर बीड़ी का कट्टा तैयार होने तक की पूरी कहानी रेखाचित्र द्वारा विजय भाई से उन्होंने तैयार कराकर उसकी प्रदर्शनी जबलपुर और भोपाल में लगवाई थी।
कॉलेज से में पैदल ही अपनी सखी सहेलियों के साथ मदन महल स्थित अपने घर जाती थी। घर तक का रास्ता आधे घंटे का था ।बीच में मदन महल रेलवे स्टेशन का पुल भी चढ़ना पड़ता था। पुल से उतरते ही मेरी अंतरंग सखी शशि तिवारी का घर था ।शशि और मैं स्कूल से कॉलेज तक साथ ही पढ़े थे। हमारी दोस्ती मशहूर थी। हमें दो हंसों का जोड़ा कहा जाता था। बीए का रिजल्ट भी नहीं आया था कि शशि की शादी नरसिंहपुर में हो गई तब से आज तक हम कभी नहीं मिले। शुरू में खतोकिताबत होते रहे फिर दुनिया की भीड़ में हम दोनों एक दूसरे के लिए गुम हो गए। मदन महल स्टेशन रोड पर ही हरिशंकर परसाई जी का घर था।हिंदी के महान व्यंग्य लेखक हरिशंकर परसाई जी मॉडल हाई स्कूल में विजय भाई को पढ़ाते थे। बाद में एक ही विधा में होने की वजह से गुरु शिष्य का रिश्ता मित्रता में बदल गया। हालांकि परसाई जी व्यंग्य लेखक थे, विजय भाई नाटक, कहानी ,कविता हर विधा में लिखते थे ।अक्सर मैं शशि के साथ उनके घर चली जाती।
अपनी रचनाएं उन्हें पढ़कर सुनाती। न वे तारीफ करते न खामियाँ निकालते। मैं असंतुष्टि का भाव लिए घर लौटती।
एक दिन विजय भाई मुझे रोटरी क्लब ले गए। साहित्यिक कार्यक्रम था और परसाई जी मुख्य अतिथि थे। अधिकतर लोग अंग्रेजी ही बोल रहे थे। शायद रोटरी नाम की गुणवत्ता से प्रभावित होकर। सभी परसाई जी से हाथ मिला रहे थे। डिनर के दौरान सलाद की प्लेट लिए एक सज्जन परसाई जी के करीब आए” सर आप क्या महसूस करते हैं? यह देश विनाश की ओर जा रहा है और हम सब पतित पथभ्रष्ट इसे रसातल पहुंचाकर ही दम लेंगे।“ परसाई जी तपाक से बोले’ “ मुझे नहीं मालूम था कि सलाद के साथ देश की दुर्दशा इतनी स्वादिष्ट लगती है ।“यह सुनकर काले कोट और नीली टाई वाले सज्जन इतनी जोर से ठहाका मारकर हंसे कि उनके कप का सूप छलक पड़ा।
परसाई जी हमें टैक्सी से घर तक छोड़ने आए ।रास्ते में विजय भाई ने मेरी रचनाओं पर चर्चा छेड़ी। उन्होंने कहा -“संतोष के अंदर छुपा लेखन का बीज अंकुरित हो चुका है। तुम्हें अपनी हर एक रचना के कई कई ड्राफ्ट बनाने होंगे संतोष,फिर देखना निखार।”
उस दिन मैंने उन्हें पहली बार निकटता से जाना। उनकी सादगी से मैं अभिभूत थी ।एक दिन अपनी कहानी” शंख और सीपियां “उन्हें सुनाने ले गई। अपने तईं मैंने इस कहानी पर खूब मेहनत की थी। वे अपने घर पलंग पर आराम से बैठे मेरी कहानी सुन रहे थे कि तभी खटर- पटर की आवाज सुन उन्होंने मुझे पढ़ने से रोका। अंदर गए और कटोरदान में रखी रोटी के कुछ टुकड़े फर्श पर बिखेर दिए। तभी एक चूहा अलमारी के नीचे से निकला और सारे टुकड़े एक-एक कर उठा ले गया। “यह भी तो घर का सदस्य है। रोटी खाकर शांत हो जाएगा वरना तुम्हें कहानी नहीं सुनाने देगा ।”
सच में थोड़ी देर में शांति थी। मैं कहानी पढ़ने लगी। मेरी कहानी जब पूरी हुई तो वे बोले “अब वक्त आ गया है छपने का ।”
मेरी खुशी की इंतिहा न थी। दो महीने बाद धर्मयुग से डॉक्टर धर्मवीर भारती जी ने स्वयं मुझे पत्र लिखा –“आपकी कहानी “शंख और सीपियां “धर्मयुग में प्रकाशनार्थ स्वीकृत है।”
मैंने उसी दिन परसाई जी के घर जाकर भारती जी का स्वीकृति पत्र दिखाया ।
“जाओ बिस्कुट खरीद लाओ। चूहे को खिलाना है। आखिर वह भी तो तुम्हारी कहानी सुनने में भागीदार था।”
अब परसाई जी नहीं रहे ।उन्होंने जीवन की अनंत पीड़ा सही। उनका जीवन घोर दुखों से गुजरा ।उस दुख ने उन्हें लेखनी थमा दी और खंगालने वाली वह दृष्टि प्रदान की जो आज व्यंग्य साहित्य की धरोहर है ।वे कहते थे “जो चेतनावान होता है वह दुनिया की हालत पर रोता है ।“
सुखिया सब संसार है खावे और सोवे दुखिया दास कबीर है जागे और रोवे”
मुंबई से निकलने वाली मासिक पत्रिका नवनीत में जब विश्वनाथ सचदेव जी ने मेरी कहानी “शंख और सीपियां” मेरी पहली कहानी नामक स्तंभ में प्रकाशित की तो लगा परसाई जी मेरे आस-पास है।”
जहाँ परसाई जी रहते थे वहीं विजय भाई के अभिन्न दोस्त छोटे मुन्ना का घर था। उनका नाम तो न तब पता था न अब। हम सब उन्हें छोटे मुन्ना ही कहते थे। पर जाने कैसे उनका मुझ पर दिल आ गया। कभी दिल की बात मुझसे प्रकट नहीं की लेकिन जब उनकी शादी तय हुई तो बोले” विजय मैं संतोष को चाहता हूँ। कहो तो बारात लेकर तुम्हारे दरवाजे आ जाऊं।”
यह बात उनकी शादी हो जाने के बाद विजय भाई ने घर में बताई। अम्मा को बहुत अफसोस हुआ।
” बताना था न पहले। इतना अच्छा लड़का है वह तो ।”
बात आई गई हो गई थी। पर उसके बाद मैं कभी उनका सामना नहीं कर पाई। लेकिन कभी-कभी मन में कचोट सी उठती है। मुझे चाहने वाला मुझे पा न सका ।क्या पता मेरी वीरानियों का सबब उनका टूटा दिल ही हो।
विजय भाई के दोस्तों में एक अशोक चौहान थे, सुभद्रा कुमारी चौहान के सबसे छोटे पुत्र ।उनका घर मेरे स्कूल से कुछ ही दूर बेहतरीन हरे-भरे लॉन और बाग बगीचे से घिरा था।अजय चौहान (बड़े भैया) विजय चौहान (छोटे भैया) तीनों भाइयों के बीच दो बहने ।सुधा जीजी अमृतराय को ब्याही थीं। ममता जीजी चंचल बाई हाई स्कूल में पढ़ाती थीं। बाद में शादी के बाद वे अमेरिका चली गईं। विजय चौहान भी अमेरिका चले गए। अजय चौहान यूनिवर्सिटी में डीन थे। घर के पास ही उनकी किताबों की दुकान थी। जिसे लंच के बाद उनकी पत्नी संभालती थी।
गर्मी के दिनों में उनका घर चहल पहल से भरा रहता। जिसमें हमारे घर की भी मौजूदगी होती ।न जाने कैसा जुड़ाव था कि अमृतराय और सुधा जीजी की संगत में बैठना अच्छा लगता था। खुद को प्रेमचंद्र और सुभद्रा कुमारी चौहान जैसे साहित्य में मील का पत्थर माने जाने वाले लेखकों के घरानों से जुड़ा पाती। वैसे विजय भाई की दोस्ती के अलावा उनका घर अम्मा की वजह से भी हमारा अपना था। क्योंकि अम्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान में मित्रता थी।
याद करती हूँ तो लगता है कि विजय भाई के दोस्त में कई यादव थे। जिनमें अपनी 6 साल की उम्र में मैंने उनके नजदीकी दोस्तों में पहला नाम पाया वह थे शशिकांत यादव। जिन्हें सब शशिन कहते थे ।वे चित्रकार ,छायाकार थे और विजय भाई के स्कूल के दिनों के सहपाठी थे। और यह दोस्ती उन्होंने मृत्युपर्यंत निभाई । 6 साल की मेरी उम्र में मुझे साड़ी और पफ़ वाली बाहों का ब्लाउज पहना कर उन्होंने जो तस्वीर खींची थी वैजयंती माला वाली स्टाइल की वह आज भी मेरे एल्बम में मौजूद है। उनके कई छायाचित्र, ट्रांसपेरेंसी धर्मयुग ,सारिका, साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपी ।जिनमें नदी, सागर, जंगल के दृश्यों में विजय भाई का चेहरा होता। विजय भाई भी बेहतरीन चित्रकार, छायाकार थे। शशिन भाई के स्टूडियो में ही वे दोनों अनवरत चित्रों को बनाने में लगे रहते थे। जिसकी शानदार प्रदर्शनी शहीद स्मारक भवन में लगने वाली थी। बाद में विजय भाई के चित्रों की एकल प्रदर्शनी भोपाल में भी लगी। शशिकांत यादव जी की मृत्यु के बाद उनके नाम से चित्रकला का एक पुरस्कार जबलपुर से दिया जाता है।
राजनीति से जुड़े शरद यादव विजय भाई के गहरे दोस्त थे ।जब पहली बार वे चुनाव में खड़े होने के लिए चुने गए तो अम्मा बाबूजी के पैर छूने घर आए। अम्मा आंगन में धूप में बैठी स्वेटर बुन रही थीं। पूरा मोहल्ला आंगन की तीनों ओर की दीवारों से सट कर खड़ा था। मैंने चाय बनाई। शरद भाई ने अम्मा के बाजू में ही बैठकर चाय पी और आशीर्वाद लिया। वह 1975 का जमाना था। जब वे लोकसभा चुनाव में जबलपुर से संयुक्त विपक्ष के साझा उम्मीदवार के तौर पर विजयी हुए । यहीं जनता पार्टी का बीजारोपण हुआ और यहीं जब इंदिरा गांधी ने लोकसभा की अवधि 1 साल बनाई तो उसे गलत करार देते हुए मधु लिमए के साथ इस्तीफा देने वाले दूसरे सांसद शरद यादव भी थे। एक रघु भैया थे ,रघुवीर यादव उन्होंने फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाई और उन्हें मैसी साहब फिल्म में काम मिल गया इस फिल्म में उनके अभिनय को आज भी याद किया जाता है ।उन्हें सर्वोत्तम फिल्मों में अभिनय करने के लिए राष्ट्रपति का स्वर्ण पदक भी मिला था ।विजय भाई के इन सभी दोस्तों के लिए हमारा घर मिलन अड्डा था। अम्मा दिन भर अपने इन बेटों के लिए पकवान बनाने चौके में ही लगी रहती थीं।उनके हाथ की बनी घी लगी कुरकुरी रोटियाँ और कटहल का अचार सबका पसंदीदा था।
विजय भाई के दोस्तों में एक मनोहर महाजन भी थे जो रेडियो सिलोन में उद्घोषक के पद पर श्रीलंका में कई बरस रहे। बाद में वे मुंबई आ गए और विजय भाई के साथ आरटीवीसी, लिंटाज आदि में कमर्शियल आर्टिस्ट के रूप में जुड़े। उनका प्रसिद्ध रेडियो कार्यक्रम सेंटोजन की महफिल की स्क्रिप्ट भी विजय भाई लिखते थे और अपनी आवाज भी देते थे। यह कार्यक्रम काफी चर्चित हुआ ।मदन बावरिया भी पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट से सिने कला सीखकर मुम्बई आ बसे। फिल्म इंस्टीट्यूट के वे गोल्ड मेडलिस्ट थे और उनके निर्देशन में बनी सुमन फिल्म काफी पसंद की गयी जिसकी नायिका जया भादुड़ी थी।
मदन बाबरिया हमारे घर शायद एक-दो बार ही आए पर इंडियन कॉफी हाउस में मैं उनसे कई बार मिली हूँ। वहीं तो जमघट लगता था हरिशंकर परसाई जी ,मलय जी, ज्ञानरंजन जी, इंद्रमणि उपाध्याय जी, शशिकांत यादव जी ,दिलीप राजपुत्र जी, कैलाश नारद जी, राजेंद्र दुबे जी, मनोहर महाजन जी ,सतीश तिवारी जी ,नरेश सक्सेना जी, विजय ठाकुर जी और भी ढेरों लेखक ,चित्रकार ,छायाचित्रकार, पत्रकार, संपादक, अभिनेता सभी युवा जोश से भरे कुछ कर दिखाने की चाहत लिए।
मदन बावरिया से विजय भाई की मुलाकात कॉफी हाउस के अलावा पान की दुकान या सड़क पर साइकिल पर घूमते हुए होती ।दोनों एक दूसरे को काय गुरु कहकर पुकारते और फिर साइकल लिए पैदल ही जबलपुर की सड़कें नापते, कहकहे लगाते और अंत में अच्छा गुरु कहकर विदा हो लेते। मदन बावरिया 1970 में मुंबई आए और विजय भाई 1976 में आकर रेडियो की दुनिया से जुड़ गए ।दोनों मिलते अपनी अपनी व्यस्तताओं के बावजूद ।मुंबई की भीड़ और व्यस्तता में वह जबलपुर जैसा अपनापन रोज-रोज दर्शाना संभव ही नहीं था ।फिर भी जो अपने होते हैं समय निकाल ही लेते हैं। जब हम विजय वर्मा कथा सम्मान की शुरुआत कर रहे थे तो मैं मदन बावरिया के एंटॉप हिल स्थित उनके घर खुद निमंत्रण पत्र लेकर गई थी। भयंकर डायबिटीज से पीड़ित इंसुलिन के सहारे सांसे लेते हुए वे झटपट चादर ओढ़ कर उठे -“अरे तुम संतोष, प्रमिला ।”
“जी भाई ,विजय भाई की स्मृति में एक पुरस्कार की शुरुआत कर रहे हैं। आप से आशीर्वाद चाहते हैं ।”
वे रो पड़े थे ।बहते आँसू पोछे नहीं उन्होंने। कहने लगे -“उस दिन दोपहर को जहाँ तक मुझे याद है 26 जनवरी 84 का दिन था। मैं कोलाबा के स्ट्रेंड सिनेमा से फिल्म देखकर निकल ही रहा था कि अचानक काय गुरु सुनकर चौक गया ।सामने विजय मुस्कुराता खड़ा था ।लपक कर हाथ मिलाते हुए खास जबलपुरिया अंदाज में बोला-” अरे, अच्छे मिल गए गुरु ।आज हमाई रेडियो की रिकॉर्डिंग कैंसिल हो गई तो अपन सोचई रए थे कि अब का करें तो मिल गए। आज तो मजा आ गओ। चलो गुरु चाय हो जाए एक ठो” और हम दोनों वहीं पास के ईरानी होटल में जा बैठे ।हम गए तो थे एक कप चाय पीने पर कोलाबा का ईरानी होटल कब हम लोगों के लिए जबलपुर का इंडियन कॉफी हाउस बन गया पता ही नहीं चला। ढेरों बातें आदर्शों की, सपनों की ,आकांक्षाओं की, विवशताओं की ,सफलताओं की, असफलताओं की। ईरानी होटल से निकलने के बाद हम दोनों कोलाबा कॉसवे पहुंचे और खूब हंगामा किया। कहकहे लगाए। जबलपुर की लईया करारी को याद करते हुए मुंबई की चिकी स्वाद लेकर खाई। उस दिन हम जबलपुर को जी रहे थे। देर रात हम “अच्छा गुरु फिर मिलते हैं” कहकर विदा हुए और 3 दिन बाद ही विजय के निधन की खबर रेडियो पर सुनी। इस बार वे फूट-फूटकर रोए ।मैंने उन्हें रोने दिया ।खुद भी सिर झुकाए आँसू टपकाती रही ।
इन सभी दोस्तों में एक बड़ा नाम है ज्ञानरंजन का। ज्ञानरंजन की पहल हमारे सामने ही लांच हुई ।पहल ने लघु पत्रिकाओं के सभी रिकॉर्ड तोड़े और लेखन जगत में मील का पत्थर साबित हुई। पहल के प्रकाशित 40 अंक ज्ञानरंजन की कर्मठता लगन और ईमानदारी के परिचायक हैं। मेरे छुटपन के दिनों में ज्ञान दादा हमारे मदन महल के घर में आते थे और मैं पर्दे के पीछे से उन्हें देखती थी। उनका चुंबकीय व्यक्तित्व मुझे वहां से हटने ही नहीं देता था। घर में सब उन्हें ज्ञान कहते थे। मैं और प्रमिला ज्ञान दादा।
पूरे शहर में खबर उड़ी कि राज कपूर अपनी टीम के साथ जिस देश में गंगा बहती है की शूटिंग के लिए जबलपुर आए हैं और लाव लश्कर सहित भेड़ाघाट में हैं। भेड़ाघाट संगमरमर की चट्टानों से भरा नर्मदा का विशाल घाट है जहाँ नर्मदा आड़े तिरछे बहती है। कुछ इस अदा में कि एक मोड़ पर नौका पहुंचने के बाद तो लगता है कि बस यहीं आकर नर्मदा रुक गई है पर वह संगमरमर की चट्टानों का सँकरा मोड़ है जिसे बंदर कूदनी कहते हैं। बन्दरकूदनी के बाद नर्मदा का विशाल रूप सामने आता है ।यहीं धुआंधार जलप्रपात है ।लाखों-करोड़ों धाराओं में पानी को धुआं धुआं करता संगमरमर के पर्वत से नीचे गिरता है। पानी का धुआं इतना विस्तृत है कि दूर-दूर तक कुछ दिखाई नहीं देता ।बस बदन पर बूंदों के छींटे से महसूस भर किया जा सकता है ।
उड़ीसा और अंडमान निकोबार के आदिवासियों पर शोध करने बलगारिया से डोरा और उसका प्रेमी आरसोव भारत आए थे। मैं उनकी कोऑर्डिनेटर थी। जब दोनों धुआंधार जलप्रपात देखने आए तो हतप्रभ रह गए -“इतना ब्यूटीफुल! कनाडा के नायग्रा फॉल से भी ज्यादा सुंदर !”इन्हीं दोनों के लिए आदिवासी इलाकों में मुझे जाना पड़ा था और महाराष्ट्र तथा उड़ीसा सरकार से मुझे पूरी मदद मिली थी यानी की जीप, सर्चलाइट ,वनकर्मी, पुलिस और गेस्ट हाउस का पूरा इंतजाम सरकारी था। और इसी काम के लिए मुझे महाराष्ट्र के राजभवन में तत्कालीन गवर्नर एसएम कृष्णा के हाथों लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया था। हाँ तो मैं बात कर रही थी राज कपूर की ।भेड़ाघाट के संगमरमरी पर्वतों पर धुआंधार के बैकग्राउंड में ही गाना फिल्माया गया था “ओ बसंती पवन पागल “एक और फिल्म की शूटिंग जबलपुर में हुई थी “प्राण जाए पर वचन न जाए “जिसमें बड़ी खेरमाई का मंदिर भी शूटिंग के लिए चुना गया था। वैसे तो फिल्म अभिनेत्री बिना रॉय भी यही की थी और साउथ सिविल लाइंस में रहती थी। उन्हें साइकिल चलाना विजय भाई और छोटे मुन्ना ने सिखाया। 1 घंटे साइकिल सीखने के बाद तीनो लॉन में बैठकर चाय पीते। बीना राय कहती “विजय तुम इतने हैंडसम हो ,फिल्मों में क्यों नहीं भाग्य आजमाते ।“
विजय भाई के अंदर छुपा कलाकार तड़प उठा था। एक दिन विजय भाई ने धीरे से अपने मन की बात बताई। किमी, क्या मैं हीरो होने के लायक हूं “
“क्यों नहीं तुम तो बिल्कुल धर्मेंद्र जैसे दिखते हो। अभिनेता भी लाजवाब।“
बीना रॉय को साइकिल सिखाने का सिलसिला कई दिन तक चला। वहीं उन्हें फिल्मों में जाने की हूक भी उठती रही। अपने पिता की मृत्यु के बाद प्रेमनाथ भी जबलपुर आ बसे थे। उनका थिएटर भी था एंपायर। इसी थियेटर में फिल्म देख कर लौटते हुए मदन बावरिया के साथ विजय भाई ने पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट जाने की योजना बनाई थी। पर कामयाबी नहीं मिली।
मदन बावरिया और एक दो और मित्र पुणे इंस्टीट्यूट से तालीम ले मुम्बई जा बसे। पर विजय भाई को बाबूजी ने नहीं जाने दिया ।उनका मानना था कि फिल्मों में चकाचौंध है ।काम मिल गया तो पैसा भी है पर उसका कोई भविष्य नहीं है। कोई सिक्योरिटी नहीं है। कई दिनों तक बाबूजी और विजय भाई के बीच तनातनी रही ।विजय भाई के जीवन की असफलताओं की शुरुआत हो चुकी थी। फिर जीवन पर्यंत उन्होंने केवल संघर्ष किया। पाया कुछ नहीं और कोरी जिंदगी लेकर शून्य में समा गए ।इस कोरी जिंदगी में कई साल उनकी मेहनत और जिजीविषा के भी थे ।जबलपुर से उन दिनों प्रकाशित होने वाली लघु पत्रिका कृति परिचय में छपी उनकी कहानी “सफर “उनकी गहरी पीड़ा का बयान है ।उनकी इस पीड़ा ने उनके तईं मेरे मन के झंझावात को कभी शांत नहीं किया। वह आजन्म पत्रकारिता और मीडिया में संघर्षरत रहे खुद को भूल कर और अपने अंदर के रंगकर्मी और चित्रकार को खफा कर ।मानो उनके दिल का एक कोना दुखों के लिए था जिसमें किसी को प्रवेश करने की इजाजत नहीं थी और दूसरा उनकी कला से जुड़ा जो सबका था, सबके लिए था ।
उमस भरी शामे थीं। चाँदनी और कनेर की डालियाँ फूलों से लदी थीं और पेड़ों पर दिन भर गिलहरियां फुदकती थीं। मेरी हथेलियों पर अखरोट के टुकड़े थे और उन टुकड़ों को घूरती गिलहरियों की काली चमकती आँखें ।विजय भाई ने बताया था कि वे लोग ज्यां पाल सात्र का नाटक मैन विदाउट शैडोज का मंचन करने वाले हैं जिसमें उन्हें सौरवियर का किरदार निभाना है। मानो एक यज्ञ संपन्न करना था और उस यज्ञ के लिए विजय भाई को तप करना था। रिहर्सल की कठिन शामें, रातें और मंचन का वह ऐतिहासिक दिन । खचाखच भरे शहीद स्मारक हॉल में सन्नाटा छाया था ।विजय भाई की थरथराती आवाज -“मेरी जिंदगी एक लंबी गलती है ।हमने जिंदगी को मायने देने की कोशिश की। नाकामयाब रहे इसीलिए हम मर रहे हैं।”
संवाद के संग संग चेहरे पर तैरती खौफ की परछाइयां और जब सौरवियर को मौत की सजा होती है, रॉबर्टसन कॉलेज की स्तब्ध छात्रा की सिसकी आज भी मुझे रोमांचित करती है। इस नाटक के बाद कई दिन लगे थे विजय भाई को संभलने में लेकिन उन्हीं दिनों उन्होंने डी एच लॉरेंस और टी एस इलियट की कविताओं का अनुवाद कार्य भी शुरू कर दिया था। और जापानी काव्य शैली हाइकु लिख रहे थे ।उनके हाइकु गहरा सन्नाटा खींच देते थे ।उन्होंने क्षेत्रीय भाषा के कार्यक्रम को संगठित ही नहीं किया बल्कि अपने कार्य क्षेत्र में स्थानीय भाषा द्वारा शिक्षार्थियों को भी तैयार किया ।उन्हें भारतीय विदेश सेवा के लिए उपयुक्त भाषा परीक्षा के भी अनुभव थे।
वैसे विजय भाई ने अपने कैरियर की शुरूआत पत्रकारिता से की थी ।वह नवभारत के जबलपुर शहर संवाददाता और बाद में समाचार संपादक हुए। अनुवादक और संचालक की भूमिका बखूबी निभाते हुए उन्होंने शहर विकास निगम में काम किया साथ ही भोपाल एवं नागपुर से प्रकाशित हितवाद के लिए न्यूज़ बुलेटिन भी तैयार किए ।फिर भी बेचैनी….. जाने किस आसमान को छूने की चाह थी उनमें ।
मैं समूचा आकाश /इस भुजा पर ताबीज की तरह/ बांध लेना चाहता हूँ/ समूचा विश्व होना चाहता हूँ।
चाह बलवती थी। वे शोध सहायक के रूप में बीड़ी मजदूरों के जीवन सामाजिक-आर्थिक मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर एम ए के शोध प्रबंध पर अनुसंधान करते रहे। बाद के दिनों में विस्कॉन्सिन यूनिवर्सिटी अमेरिका के भी शोध सहायक (कोऑर्डिनेटर) के रूप में काम करते रहे। भारत में इस संस्था का नाम अमेरिकन पीस कोर था जिसके अंतर्गत वे सघन ग्रामीण क्षेत्रों में हिल टेक्नोलॉजी के द्वारा मौखिक प्रशिक्षण भी देते थे।
बेहद गरीब पिछड़े गाँव से लौटे थे वे। बेहद उदास। बताने लगे किसी घुटन्ना नामक गाँव के बारे में ।गरीबी इतनी कि मिट्टी के घड़ों के छेद ,दरारें कपड़ों की थिगलियों से भरी जातीं क्योंकि उनके पास नए घड़े खरीदने के पैसे नहीं थे। विजय भाई ने 25 झोंपड़ों वाले उस गाँव में हर एक के घर नए घड़े भिजवाए। कृषि क्षेत्रों की ऐसी दुर्दशा सुन मैं कांप उठी थी ।उस रात मैंने डायरी में लिखा
“कौन है इस दुर्दशा का जिम्मेदार!! आजाद भारत की यह कैसी परिभाषा!!”
आज सोचती हूँ कि एक व्यक्ति की छोटी सी जिंदगी के इतने आयाम भी हो सकते हैं?
उस दौरान उनके अमेरिकन सहयोगियों, मित्रों का घर में आना जाना था ।एक जिम थे उन्होंने कान्हा किसली के जंगलों से शेर की आवाजें रिकॉर्ड की थीं। शेरनी को मेटिंग के लिए वह किस तरह पुकारता है ,किस तरह अपने बच्चों को संकट में देख आवाज निकालता है, शेरनी अपने बच्चों को कैसे सुलाती है और जब शेर भूखा होता है तो उसकी आवाज कैसी कमजोर सी हो जाती है ।सुनकर हम चकित हुए बिना न रहे। खाट पर उन सब को बैठना बहुत पसंद था ।एक बार डिनर में अम्मा के हाथों मसाला भरी तली हरी मिर्च जिम ने पूरी एक ही बार में खा ली और हॉट हॉट चीखते ढेर सा पानी गया । नाक लाल भभूका और आँखों से बहते आँसू……हमारी हँसी दबाए नहीं दब रही थी ।मैंने उसे चीकू की फाँके काट कर दीं। वह फाँकों को तेजी से चबा गया ।
अमेरिकन पीस कोर की अवधि समाप्त होते ही इमरजेंसी लग गई ।प्रेस की आजादी छिन गई और बुद्धिजीवी वर्ग की जान सांसत में थी कि कहीं पकड़े न जाएं ।जबलपुर के जनवादी आंदोलन से जुड़े कई लेखक पत्रकार सलाखों के पीछे कर दिए गए। कई भूमिगत हो गए ।मुंबई में धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने मौका देख जबलपुर से निकलने वाली पत्रिका पहल के विरुद्ध मुहिम चलाई थी। 10 अंकों में कुछ मीडियाकर्स से उसके विरुद्ध लिखवाया था। राजनैतिक घेराबंदी की थी। ज्ञानरंजन विजय भाई सहित अन्य लेखकों को गिरफ्तार करवाने वालों से संपर्क साधा था ।धर्मवीर भारती बहुत अच्छे लेखक कवि और श्रेष्ठ संपादक थे। लेकिन अपने सहकर्मियों के लिए तानाशाह थे । रवींद्र कालिया ने अपनी जीवनी “ग़ालिब छुटी शराब “में अपने धर्मयुग के दिनों को याद करते हुए लिखा है कि भारती जी का केबिन हम सबके लिए “कैंसर चैंबर “था। न केवल सहकर्मियों बल्कि अपनी पूर्व पत्नी कांता भारती के लिए भी वे पीड़क रहे।कांता भारती द्वारा लिखी गई धर्मवीर भारती पर केंद्रित पुस्तक “रेत की मछली” पढ़कर कांता जी पर किए गए अत्याचारों के लिए मैं अपने प्रिय लेखक को कभी माफ नहीं करूंगी।
चूँकि बाबू जी एडवोकेट थे। कानूनी दांवपेच से परिचित थे ।उन्होंने एहतियात बरती और घर की लाइब्रेरी में जितनी भी संदेहास्पद किताबें थीं उन्होंने आंगन में रखकर होली जला दी। रात 3 बजे विजय भाई उत्तेजित मन लिए घर लौटे। आंगन का नजारा देख उनका धैर्य जवाब दे गया ।हम अवाक और मौन उन किताबों को राख का ढेर होते देखते रहे और वह राख हमारे आंसुओं से भीगती रही। खबर थी कि उसी रात विजय भाई के दोस्त कलकत्ते से निकलने वाली पत्रिका के संपादक सुरेंद्र प्रताप (एसपी) द्वारा संजय गांधी और इंदिरा गांधी पर केंद्रित रविवार के जो अंक निकाले गए थे उन्हें जलाया गया था। एसपी चाहते थे कि विजय भाई कलकत्ता आकर रविवार संभाल लें। लेकिन हम लोगों ने सलाह दी कि मध्य प्रदेश हिंदी भाषी प्रदेश होने के कारण यहाँ पत्रकारिता की जड़ें गहराई तक हैं। हम चाय के दौरान या लिखते लिखते सुस्ताने के दौरान इसी विषय पर चर्चा छेड़ देते। मैं चाहती थी तमाम हिंदी अखबारों अमर उजाला, देशबंधु ,दैनिक भास्कर, पंजाब केसरी, स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता करूं और अपनी कलम को तीखी कर उसकी धार से नई भाषा शैली को ईजाद करूं। बड़ा नाजुक समय था वह ।एक ओर मेरे सपने, एक ओर विजय भाई का जीवन लक्ष्य…… मेरे सपनों को साकार करने में विजय भाई का साथ होना जरूरी है ……जरूरी है कि मैं उनके मार्गदर्शन में खुद को सँवारू। लिहाजा विजय भाई पर चारों ओर से दबाव था। क्योंकि जबलपुर के उनके मित्रों का समूह उनके कोलकाता या मुंबई के फैसले से नाखुश था। अपने त्याग और प्रेम से उन्होंने सबके दिलों में अपनी जगह बना ली थी। वे तमाम अव्यवस्थाओं से दुखी रहते थे ।अन्याय उन्हें बर्दाश्त न था ।संपादकीय विभाग में यदि मालिक ने किसी अन्य को प्रताड़ित किया है तो पहला त्यागपत्र उनका होता था। हर सहयोगी का दुख उनका अपना दुख था।
अपनी रचनात्मक बेचैनी सहित आखिर वे मुम्बई आ ही गए ।फिर कितना कुछ घटा। मुंबई में थिएटर से जुड़े ,आवाज़ की दुनिया से जुड़े ,रेडियो और दूरदर्शन से जुड़े। रेडियो में उन दिनों विनोद शर्मा थे। जिन्होंने उनसे रामायण के एपिसोड लिखवाए। मनोहर महाजन ने सेंटोजन की महफिल…….और अन्य रेडियो निदेशकों से जुड़कर उन्होंने प्रगति की कहानी यूनियन बैंक की जुवानी ,पत्थर बोल उठे ,एवरेडी के हम सफर, महाराष्ट्र राज्य लॉटरी का पहला पन्ना और भी जाने क्या-क्या ……..टेली फिल्म “राजा ” में मुख्य भूमिका की। अमीन सयानी के संग जिंगल लिखे ।इतना कुछ होने के बावजूद आर्थिक संकट ज्यों का त्यों बना रहा। मुंबई के उनके 8 वर्षों का जीवनकाल संघर्ष करते ही बीता ।उनकी प्रतिभा का सही मूल्यांकन नहीं हो पाया।
आम आदमी से जुड़ना उनकी फितरत थी। एक रात मुंबई लैब में डबिंग करके जब वे अपनी जेब के चंद सिक्कों को टटोलते इरला ब्रिज से गुजर रहे थे फुटपाथ पर मैली कथडी में लिपटी एक बुढ़िया अपना कटोरा लिए काँपती बैठी थी। उन्होंने उस के कटोरे में अपनी जेब उलट दी और घर आकर खूब रोए । वे सही अर्थों में मार्क्सवादी विचारधारा के थे ।कभी-कभी मुझे लगता देशकाल के परे लेखक सब जगह एक जैसा होता है ।अगर ऐसा न होता तो विजय भाई को सोचते हुए मुझे चेक लेखक मिलान कुंडेरा क्यों याद आते जिन्होंने अपने शहर प्राहा में रहते हुए कम्युनिस्ट शासन की विद्रूपता को लिखा।
प्यार उन्होंने डूबकर किया था और अपनी प्रेमिका को अपने हाथों दुल्हन बनाकर अमेरिका विदा किया था। कहते हैं प्रेम में आदमी पड़ता है। अंग्रेजी में फॉल इन लव ।तो क्या प्रेम एक ऐसी फिसलन भरी घाटी है जिसमें फिसलते चले जाओ और जिसका कोई अंत नहीं। विजय भाई ने भी प्रेम किया। अपनी प्रेमिका से, अम्मा- बाबूजी से ,मुझसे। मुझसे बहुत ज्यादा प्रेम किया उन्होंने ।मेरे चेहरे पर उदासी की एक रेखा भी उन्हें बर्दाश्त न थी। वे मुझे फूल की तरह सहेज कर रखते। उन्होंने प्रेम किया अपने मित्रों से, अपने परिवेश से और अपने हालात से। जिससे उन्हें उम्र भर छुटकारा नहीं मिला ।
30 जनवरी 1984 की सुबह सूरज ने निकलने से मना कर दिया था। चिड़ियों ने चहचहाने से और फूलों ने खिलने से ……. एंटॉप हिल का चौथी मंजिल का भाई का फ्लैट आगन्तुकों से खचाखच भरा था । 29 जनवरी की रात सेंटूर होटल से फ़िल्म की डबिंग करके वे लौट रहे थे ।उन्होंने टैक्सी में बैठ कर सभी भाई बहनों को पोस्टकार्ड लिखे कि इस बार गर्मियों की छुट्टियों में सब मुम्बई आएं ताकि जमकर मस्ती की जाए ,घूमा जाए। और उनकी इच्छा तत्काल फलित। लेकिन सबकी आँखों में आँसू और घर में मौत का सन्नाटा।
30 जनवरी की सुबह 5:45 बजे यह सितारा ऐसे टूटा की आँखें चौंधिया गईं।किसी को समझ नहीं आया कि आखिर हुआ क्या ?डॉक्टर की रिपोर्ट बता रही थी कि अचानक हृदय गति रुक जाने से निधन हो गया।
विजय भाई का शव फूलों से सजाया जा रहा था ।उनके पथराए होठों पर मुस्कुराहट अंकित थी कि हम तो चले, आबाद रहो दुनिया वालों ।
मैं देख रही थी अपने बेहद हैंडसम भाई को उनकी अंतिम यात्रा में और भी खूबसूरत होते। मानो जिंदगी की सारी कुरूपता, सारा गरल खुद में समाहित कर मृत्युंजय हो अनंत यात्रा पर निकला उनका काफिला…… जिसमें उनके रंगमंच की नायिकाएं हैं। माशा, उर्वशी, वसंतसेना, शकुंतला, एंटीगनी, जूलियट ,डेसडीमोना,सस्सी, लूसी। ऐसी विदाई जैसे इजिप्ट का कोई सम्राट हो।
विजय भाई के निधन से जबलपुर का सारा मित्र वर्ग स्तब्ध था। उनके चित्रकार दोस्त दिलीप राजपूत ने शहीद स्मारक भवन में उनके लिए रखी शोकसभा के दौरान वहीं स्टेज पर आधे घंटे में विजय भाई का चित्र बनाया था जो हाथों हाथ बिका और वह धनराशि विजय भाई पर आश्रित अम्मा को भेंट की गई। केसरवानी महाविद्यालय में जहाँ विजय भाई अंग्रेजी के लेक्चरर थे ,अवकाश रखा गया और मुंबई में सेंटोजन की महफिल का एक एपिसोड मनोहर महाजन ने श्रद्धांजलि स्वरुप प्रसारित किया……..अभी भी जब कभी यह एपिसोड सुनती हूँ जिसमें विजय भाई द्वारा अभिनीत छोटे-छोटे प्रहसन,उनकी हँसी और मनोहर महाजन की शोक संतप्त आवाज….. इस हंसी के इन प्रहसनों के नायक हम सब के लाडले विजय वर्मा अब नहीं रहे…… फिर सन्नाटा और धीमे-धीमे बजता गीत “दिन जो पखेरु होते पिजड़े में मैं रख लेता “तो जीवन की हताशा पर रो पड़ती हूँ ।
दूसरे दिन अखबारों ने प्रमुखता से खबर छापी। मौन हो गया छोटा मुक्तिबोध, तमाम संघर्षों के बीच अलविदा कह गया और एक सपना छोड़ गया हमारी दुनिया बदलने के लिए ।लगभग 2 महीने तक मुंबई की विभिन्न साहित्यिक संस्थाएं, थिएटर विज्ञापन केंद्र और डबिंग लैब मैं उन्हें श्रद्धांजलियां दी गईं।
जिसने न परिवार बसाया, न दुनियादारी के गुर सीखे ,पर सबका होने का कमाल कर दिखाया ।
आ मैं और तुम दोनों ही देखें /क्या ले जाए साथ बडेरा/ पर केवल सच इतना सा ही/ सबका होना सब की खातिर/ इस सच का सुख सिर्फ यही है/ और न कोई डेर बसेरा।
जितना पढो जो पढो बस डूबते ही जाओ ऐसी लेखनी को नमन
आप प्रेरणा हैं
बेहद जीवंत।जैसे लगा साथ बैठे सब कुछ देख रहे हो।आपका जीवन एक विराट,संधर्षशील जीवन है।भाषा ऐसी की दिल निकाल कर रख देने वाली।समृद्ध भाषा।
आत्मकथा का कथ्य मन को पुराने समय में ले जाकर एक सूनापन भरने वाला है ।