कहानी: नदी की उँगलियों के निशान
कथाकार : कुसुम भट्ट
नदी की उंगलियों के निशान हमारी पीठ पर थे। हमारे पीछेदौड़ रहा मगरमच्छ जबड़ा खोले निगलने को आतुर! बेतहाशा दौड़रही पृथ्वी के ओर-छोर हम दो छोटी लड़कियाँ…! मौत के कितनेचेहरे होते हैं अनुभव किया था उस पल…! दौड़ो… कितना भी दौड़ोपृथ्वी गोल है, घूम कर फिर इसी जगह…. कुछ भी घट सकता है…? नदी की उंगलियों को कोंचने के लिये आमादा मगरमच्छ …. इससेलड़ नहीं सकते हम… इससे बचना है किसी तरह …. यही समझआया था… उस मूक स्वर से … उस मौन चीख से जो उस थरथरातेगले में अटकी छटपटा रही थी …
एक तीली आग जली थी …, उसमें जल रही थी हमारी इच्छायेंहमारे स्वप्न….! और हमारी मुक्ति ..? उस मछली सी जिस परबगुला घात लगाये खड़ा था धारा में …!
बस एक तीली आग जली थी उसमंे जलने लगा था भुवनचाचा का जिन्दगी की पन्द्रह सीढ़ियों पर अर्जित किया पौरूष! सुबहदम भरता वह साहस पल भी ही तिरोहित हुआ! अब वहाँ कातर पंछीकी फड़फड़ाहट थी, माँ के शंकालू मन पर विश्वास का मरहमलगाते हुए कहा था, भुवन चाचा ने ‘‘इसमें डरने की बात क्या है भाभी….. मैं हूँ न … अकेली कहाँ जा रही हैं लड़कियाँ … और अब उसकाथर थर कांपता हाथ – भागोऽ………..‘‘भुवन चाचा के थरथर काँपतेजिस्म और कातर चेहरे को देख हम समझ गई थी कि मृत्यु निश्चितहै, फिर आखिरी सांस तक कोशिश जारी रखनी है …..
पल भर में समय उलट जायेगा तब कहाँ सोचा था हमने … सोचने की फुर्सत भी कहाँ थी, नदी के किनारे रेत देखी, रेत के घरौंदेबनाने लगी, बमुश्किल आते हैं ऐसे विरल क्षण जब अपना समय था, जिसे हम अपने मुताबिक पा सकते थे। माँ ने बहुत रोका था- अभीछोटी है लड़कियाँ ‘‘कितनी बार की थी माँ की चिरौरी ‘‘माँ मुझे नदीदेखनी है मछलियाँ देखनी हैं और देखना है घटवार …’’ नदी से तो माँकांप ही उठी थी’’ ना बाबा नदी में मछलियाँ देखने जाना है तोबिल्कुल नहीं भेजूँगी, नदी में कितने ही लोग डूब गये गर्मियों में बर्फपिघल कर आती है ऊपर से … पानी कब बढ़ता है पता नहीं चलता‘‘भुुवन चाचा बोले थे’’ नदी में कौन जाने देगा इनको… अरे! भाभीनदी में तो मगरमच्छ भी रहता है… ‘‘भुवन चाचा ने आँख झपकायीथी माँ को, भुवन चाचा के घर पिसान समाप्त हो चुका था, दादीबीमार थी, ‘‘चूल्हा जलाना है तो आटा घटवार से पिसा कर लानाहोगा, भुवन ‘‘दादी ने बुखार में कराहते कहा था। भुवन चाचा अपनेघर में बड़ा, बड़ी बहन शादी करके जा चुकी थी, छोटी बहन माधुरीमेरी सहेली मेरे बिना घटवार में जाना स्थगित कर रही थी, फिर उसनेकहा कि नदी में मछलियाँ रहती हैं जो किनारे आकर लहरों को भीसाथ लाती हैं, उसने खेत की ढ़लान से दिखाई थी नदी, नदी के ऊपरघटवार जिसके पत्थर धूप में चमक रहे थे। माँ ने कहा हमारे घर मेंपिसान के कनस्तर भरे हैं, फिर भी थोड़ा मक्की और ज्वार के दानोंकी पोटली बना कर झोले में रख दी थी, पिछली रात मुझे नदी कासपना भी आया था, नीले जल की धारा मीठा-मीठा राग गुनगुनातीलहरों के साथ उसकी मछलियाँ उछलती गोया लहरों में नृत्य कर रहीहों…..
नदी कह रही थी, शिवानी मेरी मछलियों को छूकर देख…. मैंनेनदी को छुआ….. तो मैं बहने लगी धारा में…. मैंने मछलियों को छुआतो मेरे पंख उग आये मैं उड़ने लगी हवा में ऊपर … मगरमच्छ को मैंनेनहीं देखा, मैंने देखा सिर्फ पानी, बहता पानी, पानी के साथ बहतीमछलियाँ, सपना मुझे पंख देकर उड़ाने पर आतुर चन्द्रमा के समीप! चन्द्रमा हँस रहा था’’ इतनी सी खुशी चाहिये बस्स…’’ मैंने कहा’’ हाँबस इतनी सी खुशी .. मैंने सपने की बात माधुरी और भुवन चाचासे कही, भुवन चाचा ने मेरे सिर पर चपत मारी ‘‘इतनी छोटी लड़कीऔर इतने बड़े सपने कि चाँद से बतिया कर आये… उसने घुड़कनेके अंदाज में कहा’’ छोटे सपने देखा कर लड़की….
बेवकूफ! उसे पता ही नहीं सपनों पर अपना वश नहीं चलताउन्हें तो नींद लेकर आती है, जैसे मछलियों को लेकर आता है पानी… चीड़ के लम्बे जंगल को पार कर हम पहाड़ की ढलान पर उतरते खूबनीचे आये थे। घाटी में यहीं था घटवार नदी के ऊपर घने पेड़ों केबीच जहाँ से एक छोटी धारा बहती थी। घटवार में कोई नहीं सिर्फअनाज के बोरे ठसाठस भरे थे, बोरों के पीछे दिखी घटवाड़ी कीटोपी, भुवन चाचा ने थैला उतार कर पूछा ‘‘हम दूर से आये हैं, हमाराअनाज पिस जायेगा घटवाड़ी भैजी ?’’
घटवाड़ी ने कहा ‘‘पिसेगा … क्यों नहीं पिसेगा दोपहर तकजरूर पिस जायेगा’’
भुवन चाचा बैठ गया अनाज के बोरों के ऊपर, हम देहरी सेझांक कर घटवार को चलते देखने लगी, उसका पानी बहुत तेजी केसाथ बहता, पानी का इतना शोर, घटवार की टिक टिक आवाज काशोर दोनों मिलकर दहशत देने लगे, तो हम बाहर हो लिये, माधुरी नेकहा ‘‘शिवानी चल… नदी देखने चलते हैं… तू मेरे भाई से पूछले…’’
भुवन चाचा ने घूरकर देखा ‘‘नदी में डूब जाते हैं लोग… क्याकहा था तेरी माँ ने … याद है न …?’’
माधुरी भी हाँ सुनने के लिए अन्दर आ चुकी थी, उसने चिरौरीकी, ‘‘हम रेत में ही खेलेंगे भाई आगे नहीं जायेंगे…’’ भुवन चाचा नेआँख दिखाई बोला ‘‘न हींऽ ‘‘घटरवारी को हमारे, उदास चेहरे अच्छेनहीं लगे वह भी उदास हो गया। उसके चेहरे पर आटा पुता था, परआँखों से उदासी झलकने लगी, पृथ्वी पर कुछ अच्छे लोग भी होते हैं, जिन्हें छोटी बच्चियों का उदास होना अच्छा नहीं लगता, जैसे बागको तितलियों का चुप बैठना अच्छा नहीं लगता, वह फूल खिलाता हैकि तितलियाँ मंडराती रहें तभी दिखता है, सौन्दर्य प्रकृति का, मैंने हीमन कहा, हे भगवान! अच्छे लोगों की दुनिया बनाओ… जिन्हें छोटीलड़कियों की कद्र हो… हमारे घर वालों की तरह जेलर मत बनाओकि जरा सा आसमान माँगने पर! मुट्ठी में कसने लगी है गर्दन – ‘‘जानेदो बेटा… कोई डर नहीं नदी के किनारे पानी भी कम है…’’ घटवाड़ीभुवन चाचा की मनुहार कर रहा था।
भुवन चाचा के चेहरे पर धूप की तितली बैठी, माधुरी हवा मेंउड़ी उसके पंख पकड़ कर मैं भी उड़ने लगी….
उस विजन में हम दो लड़कियाँ जिंदगी की नौवीं-दसवीं सीढीपर पांव रखती प्रकृति की भव्यता से अभीभूत! रेत में नहा रही कत्थईरंग की चिड़िया हमारे पास आकर जल का मोती चुगने लगी, हमारेपांव नदी मंे थे, हम पत्थरों पर बैठी नदी का बहना देख रही थी, सिर्फ नदी का कोलाहल और दूर तक कोई नहीं, माधुरी बोली ‘‘नदीकुछ कह रही है सुन – मैंने उसकी आवाज पर कान रखा’’ नदी बोली‘‘मछली की तरह उतरो मेरी धारा में….‘‘
पारदर्शी जल में मछलियों का तैरना दिखा, लेकिन हमारे पासतो दूसरी फ्राकें नहीं हैं, नदी बोली ‘‘फ्राके ंउतार दो कूद जाओधारा में… किनारे कम पानी था, माधुरी बोली’’ शिवानी पहले रेत मेंलेटते हैं।
मैंने कहा, ‘‘नहीं पहले मछलियों के साथ तैरते हैं, हमने नदी केएक इशारें पर अपनी फ्राकें उतार दी और पानी में तैरने लगी खूब देरतक हम दोनों मछलियेां की तरह तैरती रही। मछलियाँ हमारी देह परकुलबुलाती रही, जब ठण्ड लगने लगी तो हम रेत में लेट गईं, धूप नेगरम लिहाफ दिया दो चिड़िया पत्थर पर बैठी ताकने लगी’’ मजाआ रहा है न … ? हमने कहा ‘बहुत! फिर हमने एक दूसरे की नंगीदेहों पर खूब रेत मलते हुए हम मुक्त हँसी हँसती। एक दूसरे कोगुदगुदाते हम नंगे बदन रेत के कछार में दौड़ती रही। हम भूल ही गईंकि हमारे क्रिया कलापो पर किसी की दृष्टि हो सकती है… हम भूलगई कि मगरमच्छ हमारी कोमल किसलय देहों को कच्चा चबाने कोआतुर है कहीं …
हम दो लड़कियाँ अपनी नंगी देह को रेत का बिछौना देती लेटगयी सूरज ने हमें धूप का लिहाफ ओढ़ाया और हँस दिया, कैसा लगरहा….?
‘‘अच्छा बहुत अच्छा!‘‘
पहली बार सूरज ने हमें देखा नंगे बदन, पहली बार नदी ने देखानंगे बदन पहली बार हमें चिड़ियों ने देखा और वे हवा में उड़ने लगीं, मछलियों ने देखा वे पानी से डबक डबक ऊपर आकर पांवों मेंकुलबुलाने लगी, घौंघे केकड़े, कीड़े मकोड़े, चीटियाँ सब हमारे साथउत्सव में शामिल होने लगी।
काफी देर तक हम गुनगुनी रेत से खेलते घरोंदे बनाते एक दूसरेपर रेत-काई मलती रही, फिर याद आया कि वक्त बीत चुका है, हमेंवापस जाना चाहिए। हमने अपने शरीर देखे रेत और कीचड़ में सनेफिर एक बार और नदी में नहाने की जरूरत पड़ी, तब हमने फ्राकेंपहनी! और हँसती खिलखिलाती गुनगुनाती वापस घटवार के रास्तेमुड़ी। ठण्ड में ठिठुरती देह धूप में सुखाई पत्थर पर बैठ कर
माधुरी बोली थी ‘‘शिवानी, कितना मजा आया न….?
‘‘मैंने कहा हाँ आया तो पर कोई जान गया तो …. ?‘‘
‘‘हम किसी से कहेंगे क्यो ? ‘‘उसने कसम दिलवायी मैंनेकसम खाई ‘‘माँ की कसम, विद्या माता की कसम!‘‘ उसने फिर धूलझाड़ी मेरे बालों पर रेत के कण चमक रहे थे, उसने एक एक लट कोउंगलियों से झाड़ा ‘‘तू समझ दार हो गई शिवानी! वह बोली’’ हमऐसे ही छुपकर मजे करते रहेंगे… गांव में किसी भी लड़की को कुछ नबतायेंगे।
मैंने हामी भरी माँ तो बेकार ही डरती है कुछ हुआ क्या यहाँ तोबन्दर भी नहीं दिखा। खिल-खिल हँसी विजन में गूंजने लगी, लगासब हँस रहे हैं हमारे साथ। जंगल, पहाड़, पेड़, सारी कायनात….! मैंने माधुरी से कहा चल अब कोई कविता सुना। उसने कविता सुनाई- यह लघु सरिता का बहता जल कितना निर्मल कितना शीतल।
उसने कहा अब तू भी सुना…
मैं लय में गाने लगी ज्यों निकलकर बादलों की गोद से किअभी एक बूंद कुछ आगे बढ़ी……….
गीत गुनगुनाते हँसते खेलते हम उस मोड़ पर आ गई जहाँघटवार और दूसरा रास्ता बाजार को जाता था। इस मोड़ से ऊपरपेड़ों का झुरमुट था जिसमें कुछ चीड़ और देवदार के पेड़ थे। रास्तापगड़डी जैसा जैसे हम मुड़ने को हुए धप्प कूदा वह गुन्डा किस्म कालड़का भुवन चाचा से थोड़ा बड़ा, वह मौत का चेहरा ओढे खड़ा, उसने पूछा ‘‘नदी पर नहा रही थी तुम …. ? हमारी सांस अटकने लगीहमसे कुछ कहते नहीं बना, उसने फिर पूछा’’ कौन से गांव से आई हो?
मैंने उंगली से इशारा किया पहाड़ी के ऊपर, ऊपर उसके दोसाथी खड़े थे, वह अजीब सी दृष्टि से हमें घूरने लगा ‘‘बहुत सुन्दर होतुम दोनों …. मैं देख रहा था पानी के अन्दर तुम्हारी नंगे शरीर चमकरहे थे … मछली जैसी मचल रही थी तुम…. ‘‘उसकी आँखें हमारीनन्हीं देहों को कच्चा चबाने को आपुर दिखीं।
वह बीच में खड़ा था, हम इर्द गिर्द से निकल आगे बढ़े उसनेफिर टोका ‘‘ए लड़कियों!‘‘
हमारे पांव धरती में गढ़ गये।
‘देखो इधर…..उसने आदेश दिया हमने चेहरा घुमाया’ वह पैन्टकी जिप खोले था, माधुरी ने मेरा हाथ पकड़ा चल भाग शिवानी…. हम दौड़ते रहे… एक जगह कीचड़ में मेरी चप्पल धंस गई, लेकिनहमने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बदहवाश भागते हम भुवन चाचा केपास पहुँचे लगा कि अब सुरक्षित हो गये। घटवार की देहरी के भीतरपांव रखते ही देखा, दो लड़कों ने भुवन चाचा को पकड़ा था और वहगुन्डा दियासलाई से भुवन चाचा का गाल जला रहा था, घटवाड़ीनदारद था ……..
हम दोनों भागने लगी…..
भागती ही जा रही हैं अब तक………………………!!!