आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (05)

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जबलपुर साहित्य का गढ़ माना जाता था ।आए दिन गोष्ठियां ,कवि सम्मेलन, बाहर से आए लेखकों के सम्मान में गोष्ठी। बहुत अधिक टीम टाम भव्यता नहीं। सही मायनों में लेखक सृजनधर्मिता को ले एकजुट होते थे। लेखकों का अड्डा इंडियन कॉफी हाउस। वहीं जुटते थे साहित्यिक रुचि के लोग और लेखक।घंटों विचार-विमर्श होते। इंडियन कॉफी हाउस का मैनेजर सुब्रमण्यम सिर्फ एक कप प्रति व्यक्ति कॉफी के आर्डर पर कितनी सारी जगह ,कितने सारे समय के लिए साहित्यकारों को देता। जबकि उतने लोगों के कॉफी टेबलों को चार-पांच घंटे घेरकर बैठने का कमर्शियल हॉल का किराया 2 से लेकर 5 हज़ार तक होता है ।सुब्रमण्यम का लेखकों के लिए यह बहुत बड़ा योगदान था। जब हरिवंश राय बच्चन जबलपुर आए तो उनके सम्मान में  इंडियन कॉफी हाउस में चर्चा गोष्ठी रखी गई ।न जाने क्यों उन्हें देखकर आत्मीयता का बोध हुआ। मैंने उनके करीब जाकर सिर झुका कर नमन किया । उनके सीने से मेरा माथा छू रहा था ।उन्होंने मेरे सिर पर हाथ फेरा ।मैंने कहा-” आपके सौम्य व्यक्तित्व को देख कर तो नहीं लगता कि आपने हलाहल लिखा होगा।” उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा –

“रस विष को गहरे पच जाने दो

तब तो होगा जीवन धन्य तुम्हारा”

बच्चन जी ने हलाहल की एक प्रति मुझे भेंट की। मैं आज भी स्वीकार करती हूँ कि विष को पचाने की जो सीख मुझे बच्चन जी ने दी थी वही मुझे ठहराए है इस हलाहल भरे जीवन में ।

इस बीच ब्लड कैंसर से अमृतराय जीजा (मुंशी प्रेमचंद के पुत्र) के छोटे बेटे 18 वर्षीय मिथुन की मृत्यु हो गई। उनसे मैं गहरे जुड़ी थी ।मुझे पता था अब वह कुछ ही दिनों का मेहमान है और यह पता होना कि मौत की आहट को कैसे शरीर का हर कतरा सुनता है मैंने महसूस किया था। मैं इस दुख में भी वट वृक्ष से खड़े अमृतराय और सुधा जीजी से लिपट कर रोई थी ।तब मैं अनागत से अनजान थी कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब मैं भी पुत्र वियोग के घातक दुख से गुजरूंगी। मिथुन और हेमंत की मृत्यु में बस इतना अंतर होगा कि मिथुन की ओर मौत आहिस्ता आहिस्ता बढ़ी,हेमंत को झपट कर उठा ले गई।

सत्तर के दशक में कहानी को लेकर जो आंदोलन चला था उसमें जबलपुर का वर्ग खास सक्रिय रहा। परसाई जी ने अपने व्यंग्य के जरिए इस लेखन को उकसाया। उन्हीं दिनों मेरी रचनाओं का राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं धर्मयुग, सारिका ,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिंदुस्तान ,कहानी, नई कहानियां, आजकल, माया, माधुरी, मनोरमा और कई लघु पत्रिकाओं में प्रकाशन आरंभ हुआ ।हालांकि इन पत्रिकाओं में मैं आसानी से नहीं छपी। कितनी ही बार मेरी रचनाएं “खेद है” की स्लिप लगाकर वापस लौटा दी जाती थी। वापसी का पता लिखा, डाक टिकट लगा लिफाफा रचना भेजते समय साथ में रखना पड़ता था ।फिर जब पहली कहानी शंख और सीपियाँ धर्मयुग में स्वीकृत होने की सूचना डॉ धर्मवीर भारती के हाथ से लिखे पोस्ट कार्ड द्वारा मिली ……”कहानी हम प्रकाशित करेंगे, आप में लेखन के बीज हैं और भी प्रौढ रचना की प्रतीक्षा रहेगी ।”  तो मेरी खुशी का पारावार न था। कितने दिन तक वह पोस्टकार्ड मेरे तकिए के नीचे पहले प्रेम पत्र की तरह दबा रहा। जिसे मैं बार-बार निकालकर पढ़ती थी।

उस कहानी का पारिश्रमिक मुझे ₹75 मिला था । मौजूदा समय में ₹75 का उतना मूल्य नहीं है जितना उस जमाने में था। ₹75 मिलना भी  बड़ी बात थी क्योंकि तब सोना ₹125 तोला मिलता था। उन रुपयों से मैंने बाबूजी को रिस्ट वॉच खरीद कर दी थी। जिसे वे अपनी आखिरी सांस तक पहनते रहे। फिर छपने का जो सिलसिला शुरू हुआ तो बीच में कुछ साल बीमारी तनाव और अवसाद के गैप के बाद आज तक बदस्तूर जारी है।

लघु पत्रिकाओं में छपने का मंत्र मेरे आदर्श पुरुष विजय भाई ने मुझे दिया कि अगर पाठकों तक पहुंचना है तो लघु पत्रिकाओं में छपो और मेरा पाठक वर्ग खड़ा होता गया। आश्चर्य होता था एक कहानी छपती और सौ से अधिक पत्र आते प्रशंसकों के। ये पत्र मेरी धरोहर हैं जिन्हें मैंने एक फाइल में एहतियात से रखा है ।अब तो व्हाट्सएप, ईमेल और एसएमएस पाठकों से जुड़ने का जरिया बन गया है जिन्हें सहेजना नामुमकिन है ।

तो यह पत्र मेरी तन्हाई को कभी-कभी बांट लेते हैं। मेरे पाठकों और मेरी रचनाओं के बीच एक पुल है जिसके द्वारा हम एक दूसरे तक पहुंचते हैं ।

एक आर्मी कर्नल मेरी रचनाओं के प्रशंसक थे। उनकी पोस्टिंग मणिपुर में थी। मणिपुर से एक फौजी के हाथों उन्होंने मेरे लिए शहद और अनन्नास भेजे थे और पत्र द्वारा सूचना दी थी कि वे मेरी हर रचना पढ़ते हैं और उम्मीद करते हैं कि मैं निरंतर लिखती रहूँ। तब तक मेरी एक भी किताब प्रकाशित नहीं हुई थी इसलिए मेरे पास उन्हें भेजने को कुछ न था सिवाय आभार के। कर्नल अब रिटायर हो गए हैं और फोन पर मेरे अच्छे मित्र हैं ।

मेरी कहानी “एक जोड़ी आँखों के कैक्टस ” जो धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी और जिसे मैंने सर्वनाम मैं में लिखा था …..कहानी में वाक्य था –“अचानक मेरे हाथों से हरी चूड़ियों वाला डिब्बा नीचे गिर गया जो मैंने बरसों से संभाल कर रखा था। मैं उसकी दी हुई चूड़ियों को किर्च-किर्च होते देखती रही जो सीधे मेरे दिल में उतरते हुए मुझे लहूलुहान करती रहीं।” मेरठ से एक पाठक का पत्र आया “इतनी दुखी मत होइए, मैं भेज रहा हूँ न कांच की हरी चूड़ियां। “

हंस में आतिशे संग कहानी पढ़कर दूरदराज के गाँव से एक पत्र आया कि आपके शहर में क्या ऐसे ही स्वार्थी लोग होते हैं ।हमारे गाँव में तो मुसीबत में सब साथ निभाते हैं न कि मतलब परस्ती।

 नई दुनिया के इंदौर, भोपाल ,उज्जैन के अखबारों में सैलाब कहानी प्रकाशित हुई ।जिसकी बाद में दूरदर्शन के मेट्रो चैनल के लिए मुंबई दूरदर्शन के निदेशक रवि मिश्रा ने टेली फ़िल्म भी बनाई थी। यही कहानी अमर उजाला के अमृतसर एडिशन में भी छपी जिसे पढ़कर अमृतसर से वयोवृद्ध पाठक ने पत्र लिखा 

“तू लाख बरस जिए मेरी बेटी ।जब यह कहानी मुन्ना पढ़ेगा तो जरूर मेरे दुख को समझेगा।“

 धर्मयुग में प्रकाशित मछली कहानी पर नई दिल्ली से निर्मला अग्रवाल जी की प्रतिक्रिया भारती जी ने प्रकाशित की।” संतोष श्रीवास्तव की कहानी मछली पाठक के और विशेषकर युवतियों की मानसिक तंत्रियों को झकझोर देती है ।यह होती है आधुनिक कहानी। छोटी सी, साधारण सी ।न कोई शब्दों की भरमार, न वाक्यों की घनगरज ,न प्रतीकों की उलझन, न विश्लेषण के दांवपेच लेकिन कितनी बड़ी चोट। आज के समाज के मूल्यों का कितना सशक्त चित्रण ।वास्तव में आज की नारी भी कितनी मजबूर कितनी बंधी हुई है। वैसे तो कोई भी प्राणी चाहे वह नारी हो या पुरुष यदि भावुक है ,अपनी ही मानसिक अवस्था का बंदी हो जाता है।

 धर्मयुग में प्रकाशित कहानी ब्लैक होल पर छः पत्र छापे भारती जी ने ।कि यह कहानी लेखिका की एक नितांत निजी शैली को उद्घाटित करती है कि हिमालय एवं पर्वतारोहण पर लेखिका के अनुभव उन्हें अलग पहचान देते हैं।

मुंबई से निकलने वाली पत्रिका सबरंग में मालवगढ़ की मालविका उपन्यास अंश जब प्रकाशित हुआ तो न केवल ढेरों पत्र आए बल्कि उस पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव लेकर निर्माता हिमांशु दत्त मेरे घर आए ।कांटेक्ट लेटर भी साइन हुआ फिर सब कुछ ठंडे बस्ते में ।

उपन्यास अंश पर छपा एक पत्र फाइल के उन तमाम पत्रों से अलग-थलग है। रोहित मिश्र ने लिखा है कि लेखिका ने हमें उस समय के समाज की सैर कराई है जब भारतवर्ष की रोंगटे खड़े कर देने वाली यह सत्य कथा आधुनिक युग में भी रूप कुंवर को सती होने पर मजबूर कर रही है। बेहतरीन कहानी। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित “नीले धुँए का अजगर “को भी पाठकों का अच्छा प्रतिसाद मिला ।

यह सब मेरे लेखन के शुरुआती दौर के पत्र थे ।इन पत्रों से मिले हौसलों ने मेरी कलम की ताकत बढ़ाई और एक जिम्मेदारी पैदा की कि मुझे लिखते रहना है और अपने पाठकों को समाज की विसंगतियों, जीवन की विडंबनाओं के रहते सुख के चंद लम्हों की आनंदानुभूति कराना है ।मेरी कहानियाँ जब पाठकों के बीच चर्चित होतीं तो अपने बूंद होने का एहसास थरथराने लगता। विभिन्न  स्तरीय पत्रिकाओं के विशेषांकों के लिए, संकलनो  के लिए मेरी कहानियाँ आमंत्रित की जातीं। परिचर्चाओं में मुझे प्रमुखता मिलती। मनोहर श्याम जोशी, अवध नारायण मुद्गल ,कमलेश्वर, राजेंद्र यादव,प्रभाकर श्रोत्रिय जैसे संपादकों की बहुत बड़ी भूमिका है मेरे रचना सृजन में। समांतर कहानी आंदोलन के दौरान कमलेश्वर जी ने मुझे प्रमुखता से छापा ।

इतना सब हो कर भी मैं तय नहीं कर पा रही थी कि कौन सी लाइन पकडूं। कभी चित्रकला अपनी ओर खींचती, कभी नृत्य ।अमृता शेरगिल और सितारा देवी लुभातीं । फिर पत्रकारिता हावी हो जाती। लेखन तो पूरी लाग लपेट के मुझ में हाजिर था ही। अगर कलम नहीं थामी तो  मुझे मेरे सवालों के जवाब कैसे मिलेंगे? क्यों परिवार की मान मर्यादा शिष्टता की सीमा रेखा लड़कियों को ही दिखाई जाती है लड़कों को नहीं? क्यों पिता भाई पति और बेटे की सुरक्षा के घेरे में वह जिंदगी गुजारे ?क्यों सारे व्रत उपवास पूजा अनुष्ठान पुरुषों के लिए? क्यों नहीं औरतों के लिए ? यह करो, यह मत करो ,ऐसे उठो,ऐसे बैठो की संहिताएं बस लड़कियों के जिम्मे?  मुझे इस सब से चिढ़ थी। मेरे अंदर इसके विरोध में गुबार भरता गया था। और मैंने ठान लिया था कि मौका पाते ही मैं इस सब के खिलाफ कलम थामुंगी। उन दिनों मैं हर छोटे-बड़े लेखक को पढ़ रही थी ।अहिंदी भाषी और विदेशी लेखकों को भी। मैं कई लेखकों के लेखन के पक्ष में थी। कई के विरोध में। मैंने एक बड़ा सा रजिस्टर बना लिया था जिसमें मैं हर पढ़ी हुई किताब की समीक्षा करती थी। मुझे लगता था कहीं मैं आलोचक न बन जाऊं ।उन किताबों को पढ़कर मैं कई बार रोई भी। मुझे लगा अगर मैं समाज से जुड़ना चाहती हूँ तो मुझे अपनी वेदना से बाहर आना होगा। तब मैंने औरों से जुड़ना सीखा। मैंने पाया इस जुड़ाव का मजा ही कुछ और है। सुख ही कुछ और है ।यह जुड़ाव जब रचना बनकर उभरता है तो कभी दस्तक देकर, कभी दबे पांव ,कभी जान समझकर तो कभी अनजाने ही, कभी एक ही पल में तो कभी महीनों महीनों ……..तो मैं चमत्कृत जाती हूँ। वह पल मैं किसी से बांट नहीं पाती।

और फिर हुआ यूं कि रंगकर्म, आवाज और पत्रकारिता की योग्यता लेकर, उचित प्लेटफार्म की तलाश में विजय भाई मुंबई चले गए ।

न जाने किस ग्रह नक्षत्र की कुदृष्टि पड़ी कि हमारा परिवार भी बिखरता चला गया ।रमेश भाई की उज्जैन में नौकरी लगी तो हम लोग जबलपुर छोड़कर उज्जैन आ गए ।कला और आध्यात्म की नगरी में साहित्य का खूब जमावड़ा है ।विश्वविद्यालय के कुलपति शिवमंगल सिंह सुमन कवि, वक्ता ,विचारक और उज्जैन की साहित्यिक पहचान थे। विक्रम विश्वविद्यालय जाकर उनसे मिलना हुआ ।फिर अपने आवास पर उन्होंने चाय के लिए बुलाया। वहीं मैंने उन्हें अपनी धर्मयुग में प्रकाशित रचना” एक जोड़ी आँखों के कैक्टस” पढ़कर सुनाई। उज्जैन के कुछ साहित्यकार भी थे वहाँ और विद्यार्थी भी ।सभी को कहानी पसंद आई और उसे उज्जयिनी साहित्य परिषद में भेज दिया गया। जहाँ से मुझे इस कहानी पर 1977 का कालिदास साहित्य सम्मान मिला।

मूलतः यह सम्मान रंग लेखक और रंग कर्मियों को ही दिया जाता है ।लेकिन विश्वविद्यालय पूरे दिन का सेमिनार आयोजित कर विभिन्न विधाओं के लेखकों को ,शोधार्थियों को भी सम्मानित करता है। कालिदास की पावन नगरी में मेरा रहना महज इत्तेफाक था। हालांकि उज्जैन अब मेरे लिए किन्हीं अन्य वजहों से तीर्थ समान है। मेरे एकमात्र पुत्र हेमंत का जन्म उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे बने नर्सिंग होम में हुआ था ।महाकाल ज्योतिर्लिंग जहाँ प्रगट हुए उन शंकर भगवान का दिन सोमवार भी हेमंत ने धरती पर आने के लिए चुना। 23 मई 1977 सोमवार सुबह 9:10 पर जब हेमंत मेरी दुनिया में आया उस वक्त महाकाल मंदिर में भस्म आरती हो रही थी। बाबू जी मंदिर से प्रसाद लेकर नर्सिंग होम आए और कुछ घंटों के हेमंत के मुँह में चरणामृत की बूंद उन्होंने टपका दी। हेमंत ने घबरा कर आँखें खोलीं कि जैसे चकित था इस दुनिया में आकर। मानो कोई शापित यक्ष जो सीधे अलकापुरी से उज्जयिनी में ढकेल दिया गया हो ।

वे मेरी तपस्या के दिन थे। जब मैं हेमंत की माँ बन कर बेहद खुशगवार लम्हों से गुजर रही थी। वह अपने पतले पतले होठों को गोल कर तेजी से हाथ पैर चलाता था। उसकी रफ्तार पर मैं लट्टू थी। जब उसने पहली करवट ली, घुटनों के बल चला, जब उसने पहला शब्द माँ  कहा। मुझे लगा पूरी कायनात मेरी मुट्ठी में है और मैं दुनिया की सबसे खुशकिस्मत औरत हूँ।

काश, ईश्वर कुछ भ्रम रहने देता।

अपनी शादी को लेकर हेमंत के जन्म से पहले ही सारे भ्रम टूट चुके थे। वे मेरी जिंदगी के सर्वाधिक काले पृष्ठ थे। जिन्हें मैं पलटना नहीं चाहती । शादी के फेरों से लेकर पति की अंतिम सांस तक पूरे 25 बरस मैंने उनकी कुंठा में स्वाहा किए पर हेमंत के जन्म के बाद सिर्फ और सिर्फ हेमंत मेरी जिंदगी में था ।मुझे पूर्णता देता। बाकी सब किन्ही जन्मों का शाप ।

तो मैं हेमंत को संवारने में जुट गई। वही मेरे जीवन का लक्ष्य हो गया। लेकिन कलम को कहाँ मानना था। मैंने पाया कि मेरा मन उज्जैन से उचट सा रहा है ।मुझे वह प्लेटफार्म नहीं मिल रहा है जिसकी मुझे तलाश थी। मैं एक ऐसी जमीन चाहती थी जहाँ मैं अपनी वैयक्तिक अनुभूतियों को सामाजिक संदर्भ देकर सहयोग ,साहचर्य और सहकारिता की वैकल्पिक नारी संस्कृति को लिख सकूं ।नारी विषयक वैचारिक अवरोधों के खिलाफ हल्ला बोल सकूं ।

उज्जैन के दिन मेरी जिंदगी के कठोर फैसलों के दिन थे। मुझे चुनना होगी अपनी राह ,अपनी जमीन ,अपना आसमान ।अब तक के जीवन का कारवां विदा हो रहा था ।उसकी धूल मुझसे लिपट रही थी ।अकबका रही थी मुझे ।उसी धूमिल परिवेश में मुझे खोजना था अपना अगला पड़ाव। अचानक मुझे लगा मेरी सोच की जमीन पर कहीं से एक पुकार हौले-हौले कदम रख रही है। मैंने निर्णय ले लिया मुंबई में रहने का ।अपनी सोच अपने सपनों को वहाँ की सरजमी पर साकार करने का। हालांकि इस बीच काफी उलटफेर हुए। बाबूजी को  कर्ज़ों में डुबाकर रमेश भाई नागपुर में एक बड़ी नौकरी के मिलते ही हमें अकेला छोड़ भाभी सहित नागपुर शिफ्ट हो गए । कर्ज़ों को चुकाने में  मेरे कंगन और लॉकेट जंजीर गिरवी रख दी गई जिसे उज्जैन छोड्ते वक्त शीला जीजी ने यह कहकर छुडा लिया कि इसके रुपये चुकाकर वापिस ले लेना।मुझे पता था मेरा बुरा वक्त है जिसमें खून के रिश्ते भी अपने नहीं होते।

 हमें मजबूरन शीला जीजी के पास राजकोट शिफ्ट होना पड़ा। राजकोट मेरे फैसलों का अंतिम पड़ाव था ।

तीन महीने के हेमंत को लेकर 26 अगस्त 1977 के दिन जब मैंने मुंबई में कदम रखा तो लगा ……

यहीं से आओ उम्मीदों की रोशनी कर लें

अंधेरी रात है आगे न जाने क्या गुजरे।

क्रमशः

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