आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (14)

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मेरा ज्यादातर समय समीक्षाएं लिखने में व्यतीत होने लगा। उस दौरान कई किताबों की समीक्षाएं और भूमिकाएं लिखीं। पढ़ा भी खूब । पत्रिकाएँ उलट पलट कर समझ लेती थी कि मुझे क्या पढ़ना है ।

तभी हेमंत के कागज पत्तर भी तलाशे। कई पूरी, कई अधूरी कविताएँ हाथ लगीं जिन्हें पढ़कर मेरा दिमाग चकरा गया ।क्या हेमंत को पहले से अपनी मृत्यु का आभास था? वरना वह ऐसी कविताएँ कैसे लिख गया। मैंने प्रमिला को कविताएँ दिखलाईं। वह तब मेरे ही साथ रहती थी और संझा लोकस्वामी में पत्रकार थी। कई दिन हम दोनों उन कविताओं में खोए रहे। आलोक भट्टाचार्य को दिखाया ।उनकी और हेमंत के दोस्तों की इच्छा हेमंत के नाम से कविता पुरस्कार शुरू करने की थी। हमने वीरेंद्र कुमार बरनवाल जी से भी इस विषय में राय ली। वे तब मुंबई में कमिश्नर थे। उनसे हमारे घरेलू संबंध थे। मैंने उनके घर जाकर हेमंत की कविताएँ उन्हें दिखाईं। वे हतप्रभ रह गए।

” इतनी संवेदना? वह तो कवि जन्मा था।”

तय हुआ कि पुरस्कार आरंभ करने के पूर्व हेमंत की कविताओं का संग्रह प्रकाशित होगा। डॉ विनय से बात हुई। दिल्ली में सुरेंद्र कुमार का ग्रंथ भारती प्रकाशन था। डॉ विनय ने उनसे बात की और किताब की सेटिंग, प्रूफ पढ़ने आदि में मदद की । प्रूफ पढ़ते हुए वे भावुकता वश बार-बार छलक आई आँखों को पोछते-” कमबख्त को जैसे आभास था अपनी मृत्यु का।” प्रकाशक सुरेंद्र कुमार एंड संस ने कड़ी मेहनत करके ढाई महीनों में 155 पृष्ठों की हार्ड बाउंडेड किताब छाप  कर दे दी। इस संग्रह के 12 रेखाचित्र हेमंत ने बनाए हैं। जिन्हें नई स्याही प्रदान की है प्रफुल्ल देसाई ने। मशहूर पत्रकार और जेजे स्कूल आफ आर्ट्स के पढ़े देसाई जी ऐसे चित्रकार हैं जिनकी उंगलियों में जादू है ।

तब देसाई जी के पैर में फ्रैक्चर हो गया था। प्लास्टर बंधा था। वे बैसाखियों के सहारे डॉ विनय के मीरा रोड स्थित घर जाकर उन्हें चित्र देते थे ।इस संग्रह का ब्लर्ब आलोक जी ने लिखा है जो उन्होंने मुझे फोन पर डिक्टेट किया था। हेमंत के पहले और अंतिम संग्रह का नाम तय हुआ “मेरे रहते।” भूमिका प्रमिला ने लिखी। इतनी मार्मिक कि जिसने भी पढा रो पड़ा ।हेमंत स्मृति कविता सम्मान के निर्णायक भारत भारद्वाज ,सुरेश सलिल और वीरेंद्र कुमार बरनवाल ने चयन तो कर लिया था ,किताब हाथ में आते ही बोधिसत्व के नाम की घोषणा कर दी ।
 और मेरा साहित्यिक सँसार ‌‌……..वो एक चिडिया होती है न थॉर्न बर्ड,उसे न जाने कैसे पता चल जाता है कि उसका अंत आ गया है। वह अपने अंतिम क्षणों में कँटीली डाल पर बैठकर मृत्यु गीत गाती है। काँटा चुभता जाता है और मृत्यु गीत गाते हुए वह धीमे-धीमे समाप्त हो जाती है ।मुझे मुम्बई के साहित्यकारों ने थॉर्न बर्ड नहीं होने दिया। पूरा मुम्बई हेमंतमय हो रहा था।

पुरस्कार की घोषणा समारोह की तैयारी और साथ ही हेमंत के दोस्तों ने मिलकर उस पर एक घंटे की डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाने की योजना बनाई। स्क्रिप्ट प्रमिला ने लिखी। कमेंट्री प्रसिद्ध डबिंग कलाकार सोनू पाहुजा की थी। सोनू फिल्म और सीरियल में आवाज़ के लिए जाने जाते थे। बेंजामिन और स्वाति ने डॉक्यूमेंट्री की शूटिंग में कड़ी मेहनत की। सुबह से शाम तक वे स्टूडियो में ही रहते थे। कैमरामेन ने विल्सन कॉलेज ,गिरगाँव चौपाटी को भी शूट किया था। जहाँ हेमंत ने कॉलेज की पढ़ाई की थी। डॉक्यूमेंट्री का नाम “सपने कभी नहीं मरते” रखा गया।

हेमंत के बाद यादों को सनद का रूप देना हेमंत के दोस्तों सहित हम सब के लिए तसल्ली भरा था। स्वाति का पागलपन चरम पर था ।उसने हेमंत की इस्तेमाल की वस्तुओं को शो केस में सजा कर रखा था । वह शनिवार को ऑफिस से मेरे घर आ जाती और सोमवार की सुबह घर से ऑफिस जाती ।उसने हेमंत की तस्वीर का मंदिर बनाया था जिसमें फूल माला चढ़ाकर अगरबत्ती जलाती और फोटो के सामने बैठी रहती। उसकी इच्छा थी रोज फोटो पर फूल चढ़ाए जाएं। फूल वाला सफेद खुशबूदार नरगिस के  फूलों का हार दे जाता। बदलते मौसम में हार के फूल बदल जाते । खुशबू भी बदल जाती। यह सिलसिला हेमंत की बरसी तक चला।एक प्रेम ऐसा भी जहाँ आकर शब्द चुक जाते हैं। स्वाति की पीड़ा में अपने दुख को समाहित कर अब मुझे स्वाति हेमंत नजर आने लगी थी। उस दिन बाजार से लौटकर मैंने दरवाजे का लैच खोला तो चौंक पड़ी। स्वाति की गोद में हेमंत की लैमिनेट की हुई बड़ी तस्वीर थी और उसके आँसू हेमंत की आँखों में गिर रहे थे। मैंने उसे गले से लगा लिया। हम देर तक आँसू बहाते रहे ।वह रोते-रोते बोली -“मम्मी हेमंत ने कहा था अगर मुझे कुछ हो जाए तो मम्मी का ध्यान रखना ।रिश्तेदारों का क्या है रो धोकर  चले जाएंगे ।मम्मी, मैं आपको कभी नहीं छोडूंगी ।

वह पूरा साल मेरी जिंदगी का सबसे वेदना भरा साल था कि जैसे जिंदगी का कैलेंडर बस इस साल के पन्ने को टुकड़ा टुकड़ा होते देख रहा हो।  नहीं  बटोर पाई मैं उन टुकड़ों को ।मेरे सामने स्वाति थी ।हेमंत में निमग्न, समाधिस्थ बाला सी। उसकी आई ने मुझे बताया था कि “क्या होगा इसका ! अंधेरे में बैठी रहती है ।कहती है हेमंत आएगा तब लाइट जलाऊंगी ।”

मेरा मन तड़प उठा था ।क्या मैं उसे गोद ले लूं? क्या मैं सारी उम्र उसकी होकर जिऊं। पर शायद इससे उसे और संताप मिलेगा ।मेरे साथ रहकर मुझे देखकर वह कभी हेमंत को नहीं भूल पाएगी ।सभी स्वाति को इस दुख से उबारने की कोशिश में लगे थे ।हेमंत के ऑफिस में उसके बॉस ने हेमंत की आत्मा की शांति और उससे भी बढ़कर स्वाति की तसल्ली के लिए, उसे वापस अपने जीवन में लौट आने की प्रेरणा के लिए यज्ञ करवाया। बेंगलुरु से खास इसी काम के लिए 11 पंडित बुलवाए। यज्ञ में करीब 500 लोग शामिल हुए। सारे दिन मंत्र ,उच्चारण ,हवन, आहुतियां चलीं। शाम को दिव्य भोज। स्वाति के चेहरे पर भी दिव्य आलोक था ।अब वह समझ चुकी थी कि हेमंत चला गया है और कभी लौटकर नहीं आएगा। मैंने उसे आगे की पढ़ाई के लिए तैयार किया। मुझे तसल्ली है कि अब वह उरण में विदेशी कंपनी में ऑफिसर है और काफी सम्हल चुकी है।

फरवरी 2001 प्रथम हेमंत स्मृति कविता सम्मान समारोह चर्चगेट स्थित यूनिवर्सिटी क्लब हाउस में संपन्न हुआ राजेंद्र यादव जी की अध्यक्षता में मुख्य अतिथि मराठी के मूर्धन्य लेखक गंगाधर गाडगिल के हाथों बोधिसत्व को प्रदान किया गया। डॉ दामोदर खडसे और वीरेंद्र कुमार बरनवाल के वक्तव्य ने सभागार को रुला दिया। सभी के दिलों में हेमंत और आँखों पर रुमाल था और ऐसा होना लाजमी था। हेमंत का बचपन मुम्बई के साहित्यकारों की गोद में बीता था ।आत्मीय जुड़ाव था सब का ।देश विदेश से बधाइयों का तांता लग गया। जिसने भी हेमंत स्मृति के आयोजन को सुना मेरी हिम्मत को सराहा। हेमंत का कविता संग्रह मेरे रहते रमण मिश्र ने परिदृश्य प्रकाशन के स्टॉल से सटे टेबल पर रखा था जो हाथों हाथ बिक गया ।दूसरे दिन मुंबई के समाचार पत्रों में प्रमुखता से समारोह की न्यूज़ छपी। सभी पत्रिकाओं ने और देश के सभी पत्रों ने भी पुरस्कार समाचार फोटो सहित छापा ।

क्रमशः

लेखिका – संतोष श्रीवास्तव

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