आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (34)
स्टोरी मिरर से मिलने वाले पुरस्कार की बात धीरे-धीरे फैल रही थी। मुंबई की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा मेरे सम्मान में कार्यक्रम आयोजित करने की अब दो वजह हो गईं ।शिफ्टिंग और पुरस्कार। शिवानी साहित्य मंच ने मेरे सम्मान में रंगारंग कार्यक्रम आयोजित किया। गीत, ग़ज़ल, लोकगीत ,सोलो नाटक ,माहिया ,तरह-तरह के पकवान वाला डिनर। आत्मीयता भरी वह शाम यादों में बस गई।
शहीद खुर्शीद बी कथाबिम्ब में अरविंद जी ने छापी। ढेरों पत्र ,फोन ।क्या यह सच है कि वहाँ मुस्लिम परिवार भी आतंक की चपेट में है? क्या आतंकवादी वहाँ बसे मुसलमानों पर भी अत्याचार करते हैं ?कहीं यह आपकी कोरी कल्पना तो नहीं? जैसे सवालों से मुझे दो चार होना पड़ा। कहानी की लोकप्रियता ने खूब पाठक बटोरे।
जून के प्रथम सप्ताह में नासिक की साहित्य सरिता मंच संस्था ने सुनो कहानी के अंतर्गत आयोजन कर मुझे इस कहानी के पाठ के लिए बुलाया। पिन ड्रॉप साइलेंस सभागार में कहानी पढ़ती मेरी आवाज गूंज रही थी। कहानी समाप्ति के पश्चात चर्चा विमर्श का दौर शुरू हुआ। श्रोताओं में सलीम अतहर ने बड़े तैश में पूछा
“जब दहशत गर्द रज्जाक मियां की बेगम खुर्शीद बी को उठाकर ले जा रहे थे तो रज्जाक मियां चुप क्यों रहे? विरोध क्यों नहीं किया? कैसे देखते रहे इतना जुल्म ?
ऐसी प्रतिक्रिया ही मेरी कहानी की सफलता थी। यही जोश तो जगाना था कि कुछ मत सहो। क्यों सहते हो?
नासिक से लौटी तो धीरे-धीरे सामान छांटने लगी। महंगा फर्नीचर औरंगाबाद जाएगा। कुछ अनुपयोगी सामान का विज्ञापन ओलेक्स में लगा दिया। गैस के 2 सिलेंडर में से एक सिलेंडर और चूल्हा मेरे पीएचडी के स्टूडेंट ने मांग लिया। दूसरा सिलेंडर धीरेंद्र अस्थाना को अपने बेटे के लिए चाहिए था। फ्रिज शमा को चाहिए था। 40 सालों की मेरी गृहस्थी यूँ रफा-दफा हो रही थी। लेकिन मन में मलाल सिर्फ इस बात का था कि हेमंत का बहुत कुछ यहीं छूट रहा था। मुंबई के चप्पे-चप्पे में पड़े उसके कदमों के निशां यहीं छूट रहे थे। यहीं उसकी रोज कॉलेज तक की दौड़ ,लोकल ट्रेन की आपाधापी ,उसकी स्वाति, समुद्र के किनारे ।सब यहीं छूट रहे थे ।
शाम को थक कर चूर मैं निर्निमेष दूर चमकते सुनहरे पगोडा और अस्त होते सूर्य को देखती । मुझे लगता मुझे खुद को संभालना होगा ।न जाने कितना जीना है, न जाने कब तक त्रासद समय साथ रहेगा।
सुबह जब जयपुर से उमा जर्नलिस्ट का फोन आया” आपका यात्रा वृत्तान्त “श्रीलंका जहाँ रावण मुखौटों में जिंदा है” डेली न्यूज़ की रविवारीय पत्रिका में इसी रविवार को प्रकाशित हो रहा है।” मैंने कहा “पत्रिका औरंगाबाद भेजना। पता व्हाट्सएप कर दूंगी ।”
उमा ताज्जुब से भर उठी।
“आप मुंबई छोड़ रही हैं । मगर क्यों?”
मुझे पता है अब काफी समय तक मुझे इस सवाल का सामना
करना पड़ेगा। कुछ को बुरा लग रहा था मेरा जाना। कुछ मुझे चेता रहे थे जैसे
तेजेंद्र शर्मा “जा तो रही हो। मगर वहाँ तुम्हें अपना आसमान नहीं
मिलेगा।”
बाद में मुझे तेजेंद्र शर्मा की बात सही लगी थी। लेकिन फिलहाल वक्त मजबूर था।
ई कल्पना की संपादक मुक्ता सिंह जौकी ने कब से मेरे साक्षात्कार के प्रश्न मेल किए थे ।बहरहाल साक्षात्कार का अधूरा काम पूरा कर मैंने चैन की साँस ली ।मुक्ता जी ने आनन-फानन साक्षात्कार वॉल्यूम 1अंक 5 में प्रकाशित कर मुझे पारिश्रमिक भी भेज दिया।
छत्तीसगढ़ मित्र के संपादक सुधीर शर्मा के न्यौते पर मैं 8 जून को पचमढ़ी रवाना हो गई। न्यौता छत्तीसगढ़ मित्र द्वारा आयोजित साहित्य महोत्सव का था। लेखकों का काफी बड़ा वर्ग इस महोत्सव में शामिल हुआ था ।सद्भावना दर्पण पत्रिका के संपादक मेरे मित्र गिरीश पंकज भी थे। कविता सत्र की अध्यक्षता मैंने की ।दूसरे दिन हम पचमढ़ी दर्शन को निकले ।पचमढ़ी बेहद खूबसूरत पर्वतीय शहर के रूप में मेरी यादों में बसा था ।जब मैं बिरला पब्लिक स्कूल में पढ़ाती थी और नेचर क्लब का टूर लेकर 15 वर्ष पहले यहाँ आई थी, वो खूबसूरत छतनारे पेड़, ढेरों झरने, गुफाएं, घाटियां, शिवजी के पराक्रम को दर्शाते मंदिर ,पांडव गुफाओं ने तब चमत्कृत किया था। अब पर्यावरण की चिंताजनक स्थिति थी। पहाड़ों को काटकर विकास के कार्यों ने उसकी सुंदरता छीन ली है।
पचमढ़ी से लौटी तो कमल चोपड़ा के संपादन में दिल्ली से निकलने वाली लघुकथा की पत्रिका संरचना का मई अंक इंतजार करता मिला। उसमें मेरी लघुकथाएं फैसला और दावेदार प्रकाशित हुई थीं। कुछ समय बाद एन एफ डी सी से सूचना मिली कि फैसला लघुकथा को फिल्मांकन के लिए चुना है ।मैंने खुश होकर रतन जी को फोन लगाया ।उनके द्वारा ही फैसला का चयन हुआ था ।बाद में फैसला का फिल्मांकन रतन जी की मृत्यु के कारण रुक गया ।बात रफा-दफा हो गई।
पिट्सबर्ग अमेरिका में अनुराग शर्मा जी सेतू नामक पत्रिका दो भाषाओं में निकालते हैं। मेरी कहानी “शहतूत पक गए हैं “सेतु में प्रकाशित हुई तो उसे ऑनलाइन अच्छा प्रतिसाद मिला ।यह एक प्रेम कथा है जो मुंबई में पानी की समस्या के संग उभरकर विस्तार पाती है। मुंबई के उपनगर पानी के लिए नगर निगम के टैंकरों पर डिपेंड करते हैं। यही वजह है कि मुंबई में मेरी पानी उबालकर पीने की आदत विरार और मीरा रोड से जो पड़ी तो आज तक है।
मुझे स्टोरी मिरर द्वारा अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार दिया जा रहा है यह खबर अखबारों की सुर्खियों में थी। किरण वार्ता के संपादक शैलेंद्र राकेश ने बधाई देते हुए सूचना दी कि “पत्रिका मिली क्या?उसमें आप की कहानी “एक और कारगिल” प्रकाशित की है।”
मेरे संग अक्सर यही होता है| पत्रिका बाद में मिलती है पाठकों के फोन पहले आने शुरू हो जाते हैं।
15 जुलाई 2016 को मुंबई के मनीबेन नानावटी महाविद्यालय के सभागार में शोध विद्यार्थियों ,लेखकों ,पत्रकारों के भारी संख्या में मौजूदगी के बीच मुझे स्टोरी मिरर का पुरस्कार अभिनेता राजेंद्र गुप्ता के हाथों प्रदान किया गया। प्रतीक चिन्ह के साथ खिलाड़ियों को दिए जाने वाले चैक की तरह बहुत बड़ा चैक जिसे एक तरफ से मैंने पकड़ा दूसरी तरफ से राजेंद्र गुप्ता जी ने ।इस कार्यक्रम के संयोजक सूरज प्रकाश और डॉ रविंद्र कात्यायन थे। मैंने पुरस्कृत कहानी पढ़कर सुनाई। जिसे श्रोताओं का भरपूर प्रतिसाद मिला। रवीन्द्र कात्यायन संचालक भी थे ।उन्होंने संचालन करते हुए मेरे औरंगाबाद शिफ्ट होने की सूचना दी और समारोह को मेरा विदाई समारोह बना दिया।
उस दिन मुंबई में मैंने अपनी अहमियत जानी ।एहसास हुआ 40 साल मेरे जो यहाँ बीते व्यर्थ नहीं गए ।मेरे साहित्यकार मित्र मेरी 40 वर्षों की उपलब्धि थी। मुम्बई मेरी अपनी थी। यहाँ मैंने अगर हादसे झेले हैं तो जिंदगी के बेहतरीन दिन भी गुजारे हैं। सन् 2011 से मैं मुम्बई पर किताब लिख रही हूँ “करवट बदलती सदी आमची मुंबई” पांचवा वर्ष भी अधिया गया पर किताब अभी अधूरी ही है।
करीब 6 महीने पहले डॉ रजिया जो चेन्नई में एसआरएम विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग प्रमुख हैं ने सूचना दी थी कि आप की कहानी “एक मुट्ठी आकाश ” पर बीए के कोर्स के लिए विचार-विमर्श चल रहा है। वह दिन मुंबई का मेरा अंतिम दिन था जब सूचना मिली कि कहानी कोर्स में लगा दी गई है। मैं ऊहापोह में अजीब सी मन:स्थिति से गुजर रही थी ।इधर इतनी एक्साइटिंग खबर कि मैं अब कोर्स में पढ़ाई जाऊंगी वह भी बी ए के और उधर 40 सालों का उजड़ता मेरा संसार। हमेशा के लिए छूटती मुम्बई, छूटता मेरा साहित्यिक परिवार ।
पैकर्स एंड मूवर्स वाले सामान पैक कर रहे थे। सुमीता आ गई थी ,आशा सिंह अपने घर से खाना बना कर ले आई थी। 5 बजे शाम को सामान की लोडिंग खत्म हुई ।सामान रवाना हुआ। मैं सूने घर में चक्कर लगाती रही। नौकरानी शमा को हिदायत देती” शमा देख कुछ छूट तो नहीं गया?”
उसकी आँखों में आँसू थे” छूट गया न आंटी। मैं छूट गई।” और वह सुबकने लगी ।पड़ोसी योगेश जोशी उनकी पत्नी कुमुद विदा के समय गेट पर खडे हाथ हिलाते रहे ।
सुमीता ,सुनील ,आशा मुझे छोड़ने बस अड्डे तक आए। बस सुबह 6 बजे औरंगाबाद पहुंचा देगी ।अपनी सीट पर बैठते मेरी आँखों के आगे सब कुछ ब्लेंक था ।खाली ,शून्य में समाता मुंबई का वह आखरी लम्हा। मैंने खिड़की के कांच से अंतिम बार तीनों को हाथ हिलाया और तुरंत पर्दा खींचकर घुटनों में मुंह छुपा लिया। हेमंत के बाद यह दूसरी बार उजड़ जाने का एहसास था। जिसने मुझे गहरे दबोच लिया ।
वह रात बहुत भारी थी।
क्रमशः