आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (38)
भोपाल के आईसेक्ट विश्वविद्यालय द्वारा अविभाजित मध्यप्रदेश के कथाकारों की कहानियों के 6 खंड प्रकाशित किए गए हैं। यह प्रोजेक्ट 3 साल पुराना है ।मेरी कहानी अरुणेश ने मंगवाई थी। फिर कुलपति और कथाकार संतोष चौबे जी ने लिस्ट भेजी थी ।कोई नाम रह गया हो तो बताएं। मैंने प्रमिला का नाम दे दिया जो लिस्ट में नहीं था। बहरहाल अब ये खंड छप कर तैयार हैं ।इनका लोकार्पण 23 जनवरी को भोपाल में होगा ।दूसरे दिन वनमाली सृजन पीठ के पुरस्कारों को भी समारोह पूर्वक दिया जाएगा। लिहाजा 3 दिन के लिए मैं और प्रमिला भोपाल आ गए। मध्यप्रदेश के काफी सारे लेखकों से मिलना हुआ। मुझसे मिलने मेरी भोपाल की सहेलियां होटल आईं। स्वाति तिवारी ,जया केतकी विविध व्यंजन बनाकर लाई।राकेश पाठक, सुषमा मुनींद्र, महेश कटारे, राजनारायण बोहरे भी उसी होटल में रुके थे। सब मेरे कमरे में इकट्ठे हो गए। सुषमा मुनींद्र जी लौट आओ दीपशिखा किताब की समीक्षा लिख रही थीं। बोली
“संतोष जी आपका उपन्यास बहुत रोचक है लेकिन मेरे मन में कई सवाल भी हैं जिन्हें मैं समीक्षा में लिखूंगी।”
“इंतज़ार रहेगा।”
हम देर रात तक बतियाते रहे। सभी का आग्रह था कि मैं भोपाल शिफ्ट हो जाऊं। हरा-भरा झीलों का शहर है। और साहित्यिक कार्यक्रम होते हैं ।मन लगा रहेगा। मुझे भी भोपाल आकर्षित कर रहा था।
दूसरे दिन भीमबेटका जाने का कार्यक्रम बना ।मधु सक्सेना ,प्रमिला, विनीता राहुरीकर के साथ ।भोपाल से 40 किलोमीटर दूर विंध्याचल पर्वत की गोद में बसा रातापानी अभयारण्य में ही भीमबेटका आदिकाल में मानव का निवास स्थल रहा है ।जुलाई 2003 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया। रातापानी अभयारण्य के खूबसूरत जंगल ,पगडंडियाँ, ऊंचे नीचे रास्ते ।भीमबेटका के इस अनछुए से प्राकृतिक परिवेश में 8 किलोमीटर तक फैली गुफाओं के 15 शैलाश्रयों को देखना बड़ा रोमांचक था।
राज्य संग्रहालय में भी कहानी पाठ रखा गया था। चित्रा मुद्गल ने देखते ही गले लगा लिया। इतनी स्नेहिल मिलनसार हैं वे कि लगता है जैसे हमारे ही लिए दुनिया में आई हैं।
रात को विनीता मुझे और राकेश पाठक को अपने घर डिनर पर ले गई।
तीसरे दिन वापसी…… रास्ते भर मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के मंत्री संचालक कैलाश चंद्र पंत दादा के शब्द कानों में गूंजते रहे “भोपाल आ जाओ संतोष कहीं ना कहीं रहने का ठिकाना हो ही जाएगा।“
यही सब सोचते हुए मन थोड़ा विचलित हो रहा था कि रात को लखनऊ से विजय राय जी का फोन आया कि जनवरी-मार्च की लमही में आपका यात्रा वृत्तांत रोमा रोला का फ्रांस प्रकाशित हो गया है।
दूसरे दिन से पाठकों के भी फोन इस और s.m.s. इस सिलसिले में आने शुरू हो गए । यात्रा संस्मरण को पाठकों से भरपूर प्रतिसाद मिला।
विश्व मैत्री मंच के राष्ट्रीय सेमिनार के लिए अहमदाबाद गुजरात विश्वविद्यालय की हिंदी विभाग प्रमुख डॉ रंजना अरगड़े से बात हो चुकी है वे विश्वविद्यालय का हाल उपलब्ध करवा रही हैं बाकी की जिम्मेवारी डॉ अंजना संधीर ने ली लंच फोटोग्राफर आदि की। गुजरात के प्रसिद्ध लेखक डॉ चीनू मोदी इरशाद मुख्य अतिथि थे ।अब वे इस दुनिया में नहीं है और इसीलिए मेरी किताब टेम्स की सरगम पढ़कर प्रतिक्रिया देने का वादा भी वे निभा न सके।मातृभारती के महेंद्र शर्मा भी आए थे। मराठी रंगकर्मी अनुया दलवी ने मोहन राकेश के नाटक आधे अधूरे तथा नटसम्राट का मंचन कर दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर लिया ।सम्मेलन दिन भर चला । जिसे दूरदर्शन ने कवरेज दी। दूसरे दिन सभी अखबारों में खबर थी ।फिर मैं अपने दल सहित कच्छ और भुज की यात्रा पर निकल गई ।यात्रा वर्णन मेरी संस्मरणों की किताब के लिए रहने देती हूं। इतना जरूर कहूंगी कि विविधताओं से भरे भारत में क्या नहीं है। प्रकृति ने मुक्त हस्त अपना वैभव लुटाया है यहां।
इस बीच लौट आओ दीपशिखा की समीक्षा कई जगह छप गई थी। सद्भावना दर्पण के संपादक व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने समीक्षा लिखी “स्त्री मन का संवेदनशील चित्रण।” जो पंजाब के प्रतिष्ठित अखबार दैनिक ट्रिब्यून में प्रकाशित हुई। उन्होंने फोन करके बताया कि
“संतोष ,विश्व पुस्तक मेले से लौटते हुए यात्रा के दौरान मैंने तुम्हारी किताब पढ़ ली। रायपुर लौटते ही समीक्षा भी लिख डाली ।”
“यानी कि आप कर्ज मुक्त हुए।”
“नहीं होना है कर्ज मुक्त और किताबें लिखो समीक्षा के लिए ।”फेसबुक के पुस्तक मिली पेज पर मधु सक्सेना ने लिखी समीक्षा ।
वागर्थ में “परवाज़ हम “कहानी एकांत श्रीवास्तव ने छापी। जिसका उड़िया भाषा में अनुवाद श्री सुरेश कुमार पंडा ने किया जो ओड़िया पत्रिका तरंग में छपी। उसी महीने शिवना साहित्यिकी में जो सीहोर से निकलती है अंडमान निकोबार का यात्रा संस्मरण ” नीले सागर में मरकत की तरह बिखरे हैं अंडमान निकोबार द्वीपसमूह” प्रकाशित किया ।कंप्यूटर खोला तो प्रतिलिपि से मेल था।
“आपकी पुस्तक मुझे जन्म दो माँ चर्चा में है।”
स्वाति नाम की पाठक ने अपने फरगुदिया ब्लॉग स्पॉट डॉट कॉम पर इसी पुस्तक की चर्चा करते हुए लिखा “चलो ,चलो कि वह मंजिल अभी नहीं आई।”
यह मेरी किताब की संपूर्णता का वाक्य था। मुझे भी तो औरत से यही कहना था। कहना था कि अनवरत चलते रहना है तब जाकर सदियों पुरानी बेड़ियां कटेंगी। पिघलेंगी ,पिघल कर स्वयं ही पैरों को छोड़ देंगी।
सुबह नाश्ते के बाद 2 घंटे कंप्यूटर पर मेल आदि चेक करती हूँ ।शिवशंकर अवस्थी जी का मेल था। ऑथर्स गिल्ड के कार्यक्रम के बारे में।
ऑथर्स गिल्ड संस्था की स्थापना राजेंद्र अवस्थी जी ने दिल्ली में की थी। अब इस संस्था को उनके पुत्र शिवशंकर अवस्थी जी आगे बढ़ा रहे हैं।इस संस्था की मैं आजीवन सदस्य हूँ और प्रतिवर्ष होने वाले ऑथर्स गिल्ड के कार्यक्रम में सम्मिलित होने की कोशिश करती हूँ। शिवशंकर अवस्थी जी ने मेल पर सूचना दी कि ऑथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया का राष्ट्रीय सेमिनार आगरा में होगा ।विषय होगा “मैं और मेरी किताब “और मुझे वक्तव्य देना है। विषय बढ़िया था ।इस पर तो कितना कुछ बोला जा सकता है।
समस्या यह थी कि औरंगाबाद से सीधी आगरा के लिए एक ही ट्रेन है और जिसमें रिजर्वेशन मिलना मुश्किल है। लिहाजा मनमाड से ट्रेन बदलकर मैं आगरा पहुंची ।राजा मंडी के नजदीक होटल वैभव पैलेस में हमारे रुकने की व्यवस्था थी। मेरे साथ लता तेजेश्वर रुकी थी। बाजू के कमरे में अहल्या मिश्र और मधु धवन। मधु धवन अब इस दुनिया में नहीं हैं। बेहद कर्मठ और तेजतर्रार महिला थीं वे। उसी फ्लोर पर मेरी मित्र अंजना छलोत्रे, पूर्णिमा ढिल्लन और आशा शैली भी ठहरी थीं।
कार्यक्रम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के जयप्रकाश नारायण सभागार में था। दो दिवसीय सम्मेलन में विभिन्न प्रांतों से आए बहुभाषी लेखकों की गौरवमयी उपस्थिति थी। मेरे वक्तव्य के बाद अहल्या मिश्रा ने मुझे गले लगा लिया।
” बेहद शानदार स्तरीय वक्तव्य था तुम्हारा। “
“मुझे तो इसलिए और अपील कर गया कि आपके हाथ में एक भी पेपर न था एक्सटेंपोर बोला आपने।” मधु धवन की प्रशंसा अच्छी लगी ।तमाम साहित्यिक उपलब्धियों के बावजूद मैं हमेशा जमीन से जुड़ी रही और चाहे छोटा हो या बड़ा सभी लेखकों को मैंने भरपूर मान-सम्मान दिया ।शायद यही वजह है कि सभी मुझे पसंद करते हैं। मेरा सम्मान करते हैं।
द्वितीय सत्र के लिए बिना मुझे बताए शिवशंकर अवस्थी जी ने घोषणा की कि संचालन संतोष जी करेंगी। मैंने उनकी बात रखी और बेहद आत्मविश्वास से कुशल संचालन किया। सभी ने तारीफ की संचालन की। आगरा की संस्कृति और वृंदावन की राधा कृष्ण की फूलों भरी होली नृत्य नाटिका से वह शाम यादगार बन गई।
दूसरे दिन डॉक्टर सुषमा सिंह ने मेरे सम्मान में साहित्य साधिका समिति की ओर से होली मिलन समारोह आयोजित कर लिया ।खूब फाग गाए गए और फूलों से होली खेल स्वादिष्ट गुझिया पपड़ी का आनंद लिया ।
उन दिनों आगरा में ताज महोत्सव चल रहा था। हम सब ताज महोत्सव के लंबे चौड़े प्रांगण में लगे स्टालों पर घूमते रहे। ताजमहल भी गए ।अब तो तांगे पर बैठाकर हरी-भरी वादियों की सैर कराते हुए ताज महल की टिकट खिड़की पर ला छोड़ते हैं ।ताजमहल जब भी देखती हूं प्रेम से अधिक अत्याचार के अहसास से भर उठती हूं। ताजमहल बनाने वाले मजदूरों के कटे हाथ मानो जवाब मांगते हैं ।
हमारा कसूर क्या था ? कसूर था न शाहजहां की दीवानगी को अंजाम देने का ।कसूर था न कच्ची उम्र में 14 बच्चे पैदा करने वाली मुमताज महल के नाम एक ताबीर खड़ी करना ।लेकिन फिर भी ढलते सूरज की सुनहरी आभा में ताजमहल के अप्रतिम सौंदर्य ने मन मोह लिया।
मैं होटल से सुषमा सिंह के घर आ गई। दूसरे दिन स्वामीबाग और दयालबाग हम घूमने गए। और तीसरे दिन वृंदावन। दयालबाग के फाटक पर आकर मैं पल भर को ठिठकी। अम्मा बेतहाशा याद आई ।कितनी सारी यादों के झरने फूट पड़े। फिर अधिक देर खड़ा नहीं रहा गया। आगे बढ़ गई स्वामीबाग की ओर। स्वामीबाग बनता है और टूटता है और यह सिलसिला मैं अपने बचपन से देख रही हूँ।
आशा शैली, अंजना छलोत्रे ,पूर्णिमा ढिल्लन, रमा वर्मा, मैं और सुषमा हमने तवेरा गाड़ी हायर कर ली थी ।कान्हा मेरे आराध्य …….. मन दुगनी खुशी महसूस कर रहा था। बांके बिहारी मंदिर की भारी भीड़ में मैं सुषमा जी का हाथ पकड़े दीवार से चिपकी खड़ी रही। वृंदावन इतना बड़ा पर्यटन केंद्र पर कोई व्यवस्था नहीं ।सब एक दूसरे को ढ़केल कर आगे बढ़ रहे थे ।पंडितों की हर जगह लूट मची थी। लौटते में हम दोनों अकेले रह गए और भटक गए। फिर रिक्शा किया पार्किंग तक आने के लिए।
मुझे मधुबन देखने की बेहद इच्छा थी। छोटी तंग गलियों से हम मधुबन पहुंचे। पूरा मधुबन एक जैसे पेड़ों लताओं से आच्छादित है ।वहां कृष्ण जी ने रासलीला की थी और सारी गोपियां पेड़ ,लता बन गई थीं।मधुबन में छोटे-छोटे मंदिर भी हैं। गाइड हमें सारी जानकारी देते हुए घुमा रहा था। मान्यता है कि आधी रात को राधा कृष्ण और गोपियां मधुबन में विचरण करते हैं ।अगर कोई देखने की कोशिश करता है तो अंधा हो जाता है ।
अजीब दास्तां है ये।
पूरे वृंदावन में बंदरों का बोलबाला। चेहरे पर से चश्मा उतार ले जाते हैं। हाथ में पकड़ी खाने-पीने की चीजें छीन लेते हैं ।कभी-कभी तो चांटा भी जड़ देते हैं। मैं रसखान को याद करती हुई तेज धूप में बिना धूप के चश्मे के चल रही थी…….
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहां बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
रात को हम घर पहुंचे ।सुबह वापसी की ट्रेन थी। सुषमा जी स्टेशन पहुंचाने आई ।विश्व मैत्री मंच सुषमा जी के निर्देशन में आगरा में अपनी जड़ें जमा चुका था ।मैं सुखद स्मृतियां लिए औरंगाबाद लौटी।
क्रमशः