आत्मकथा : मेरे घर आना ज़िन्दगी (46)

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अब यूं है  कि हमारे सन्नाटे में नरगिस चटखती है ।उसके फूलों का शबाब चैन नहीं लेने देता। सो जुट गए विश्व मैत्री मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन की तैयारी में और इस बार भोपाल से ही 23 से 25 मार्च तक इस सम्मेलन की योजना बना डाली। तय हुआ कि हेमंत स्मृति विशिष्ट हिंदी सेवी सम्मान भी इस वर्ष  से शुरू करेंगे……. चर्चा का विषय “पत्र-पत्रिकाओं में संपादक की भूमिका।” विश्व मैत्री मंच के भारत भर के सदस्यों को सूचना दे दी गई ।आगरा, ग्वालियर, झांसी, नासिक, रायपुर ,जांजगीर और विदिशा से 28 सदस्यों ने सम्मिलित होने की सूचना दी।सबके रहने की व्यवस्था भी करनी थी । अंजना छलोत्रे और पूर्णिमा ढिल्लन के साथ 6,7 होटल देखने के बाद होटल पलाश पसंद आया । 14 कमरे बुक कराने थे। होटल सरकारी था। सो मेल से रिक्वेस्ट लेटर भेजना पड़ा। हम तो सम्मेलन की तैयारी में आकंठ निमग्न। होश कहां और होश रहे भी क्यों ,यही बेहोशी तो चाही है हमने ।जिंदगी हमने इस बेहोशी को समर्पित कर दी है।

मुंबई में 38 साल तक हर तीसरे चौथे महीने आकाशवाणी विविध भारती पर चर्चा कहानी कविता के लिए बुलाई जाती ।सो ये रूटीन आदत में शुमार हो गया था ।यहाँ वह सब मिस कर रही थी कि आकाशवाणी भोपाल से शुभम जी का फोन आया कि महिला दिवस के लिए आपका लेख चाहिए ।लेख मेरे पास पहले से तैयार था तो पहुंच गई रिकॉर्डिंग के लिए। शुभम अपनी ड्यूटी निभाते रहे। यानी की रिकॉर्डिंग के समय की एहतियात को अमल में लाएं। रिकॉर्डिंग के बाद शुभम ने कहा “कमाल है संतोष जी ,ऐसी दोष रहित रिकॉर्डिंग तो मैंने पहले कभी नहीं की। आपको तो जल्दी-जल्दी बुलाएंगे हम।”

अब मैं क्या कहती 38 साल का तजुर्बा जो था।

रिकॉर्डिंग के बाद मैं आकाशवाणी से पैदल ही हिन्दी भवन की ओर निकल गई ।अक्षरा ऑफिस पहुंचते पहुंचते मुंबई से सुशीला गुप्ता जी का फोन आ गया ।

“कहां हो संतोष ।”

“भोपाल में हूं दीदी। बताएं।”

” एक लेख चाहिए तुमसे” पुस्तक संस्कृति पर गहराता संकट “इस विषय पर किताब संपादित कर रही हूँ जो तुम्हारे लेख के बिना अधूरी होगी। 10 दिन में लिखकर भेजो और तुम्हारा समय शुरु होता है अब ।”

मैं जी कहती उसके पहले ही फोन कट गया ।सुशीला जी मुझे बहुत चाहती हैं और शायद इसी का नतीजा है कि वह मुझसे पूछे बिना मेरा नाम हर जगह लिस्टेड कर लेती हैं और यह तो तय है कि मैं उनका यह अधिकार उनसे कभी नहीं छीन सकती।

तभी सूचना मिली सुशील सिद्धार्थ नहीं रहे ।दिल धक से रह गया। अभी तो मिली थी उनसे विश्व पुस्तक मेले में। फिर अक्षरा के मासिक संस्करण के लोकार्पण समारोह भोपाल में हिंदी भवन में मुलाकात हुई थी ।वह मेरे बाजू वाली सीट पर बैठे थे। हमेशा उनके चेहरे पर छाई रहने वाली हँसी तब भी बरकरार थी। क्या पता था डेढ़ महीने बाद यह हँसी हमसे बिछड़ जाएगी ।मैंने उनसे आग्रह किया था ।

“भोपाल शिफ्ट हो गई  हूँ ।घर नहीं चलेंगे मेरे ।”

“इस बार माफ़ी ।सुबह ही लौटना है दिल्ली। अगली बार जरूर आऊंगा ।”

वादा निभा नहीं पाए सुशील सिद्धार्थ। चेहरे की हँसी दिल का दर्द छुपाए थी। दिल भी कितना सहता। दे गया दगा। और हम से बिछड़ गए व्यंग्यकार सुशील जी ।अपनी व्यंग्य की किताब “हाशिए का राग “मुझे पोस्ट से भेज कर उन्होंने कहा था ।

“जब तक यह किताब आपकी नजरों से नहीं गुजरेगी मेरा लेखन अधूरा माना जाएगा ।”

मैंने समीक्षा की थी किताब की। जब उन्होंने “अपने अपने शरद “किताब जो व्यंग्य श्रृषि शरद जोशी पर आलोचनात्मक पुस्तक संपादित की थी तो मुझे फोन पर बताया कि “पुस्तक का शीर्षक नेहा शरद ने दिया है (शरद जोशी की बेटी )”

मैंने कहा था “बहुत प्रतीकात्मक शीर्षक है।”

तब मैं रूस जाने की तैयारी में थी ।मैंने कहा “सुशील जी आप हर बार कहते हैं चलेंगे ।इस बार चलिए न। “

“ढेर सारा काम है ।आप हाशिए का राग का लोकार्पण मॉस्को में करा देना।”

अब आपकी हंसी कहाँ पाऊं सुशील जी!!

और फिर केदारनाथ सिंह! एक के बाद एक जैसे तांता सा लग गया ।याद आ रही है उनकी कविता दो मिनट का मौन

भाइयों और बहनों/ यह दिन डूब रहा है /इस डूबते हुए दिन पर /दो मिनट का मौन /रुके हुए जल पर /गिरती हुई रात पर /दो मिनट का मौन।

केदारनाथ सिंह की इसी कविता से उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए मैंने 23 मार्च के राष्ट्रीय सम्मेलन की शुरुआत की थी। हिन्दी भवन का महादेवी वर्मा कक्ष, लोगों के बैठने की कैपेसिटी सौ की। हाल खचाखच भरा। बाहर भी लोग खड़े थे ।मेरे लिए नया शहर ,जान पहचान भी उतनी नहीं पर न जाने कैसे भीड़ उमड़ी ।शहर के दिग्गजों डॉ देवेंद्र दीपक ,डॉ उमेश सिंह ,कैलाश चंद्र पंत और माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय के संजय द्विवेदी, उर्वशी अकादमी के डॉ राजेश श्रीवास्तव से मंच जगमगा रहा था।

संजय द्विवेदी को जब फोन पर आमंत्रित किया तो उन्होंने कहा 

“प्रणाम संतोष जी ,हम भिलाई में मिल चुके हैं और आपको वहां जो प्रमोद वर्मा स्मृति साहित्य सम्मान मिला था उस कार्यक्रम का संचालन मैंने ही किया था और मैं आपको होटल तक पहुंचाने भी आया था।”

“हाँ मुझे याद है संजय जी”

संजय समारोह में आए। हमेशा की तरह मेरे पैर छुए।

अनजान शहर भोपाल ।लेकिन हमारी फितरत अलग ही किस्म की। हमको पता ही नहीं चलता कब हम शहर के हो गए ।कब शहर हमारा हो गया। कार्यक्रम हिट लिस्ट में शुमार हो गया।

दूसरे और तीसरे दिन बाहर से आए लोगों को पर्यटन कराना था। हलाली डैम ,सांची, उदयगिरि गुफ़ाएं, बिरला मंदिर ,शौर्य स्मारक, भोजशाला, भीमबेटका ,भोजपुरी स्थित शिव मंदिर, भोज तालाब में बोटिंग ,डूबते सूरज की विदा होती किरनों ने झील को सुनहला कर दिया था।

क्रमशः

लेखिका संतोष श्रीवास्तव

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